न्यायमूर्ति
श्री चंद्रशेखर धर्माधिकारी ने ‘समग्र सर्वोदय दर्शन’ में अपने पिता दादा धर्माधिकारी के संस्मरण को लिपिबद्ध करते हुए लिखा कि
एक बार वे कॉलेज यूनियन के अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार के नाते खड़े थे। दादा (दादा
धर्माधिकारी) से आशीर्वाद मांगने गए, तो दादा ने उनसे पूछा कि
इस फंदे में तुम क्यों पड़े?
मैंने जवाब
दिया, “आप जैसे लोग कहते हैं कि अच्छे लोगों को चुनाव लड़ने के लिए सामने आना
चाहिए। अत: मैं इस फंदे में पड़ा”।
दादा ने पूछा, “तुम अच्छे हो, यह किसने तय किया”?
“अपने देश में
दूसरा कोई तो ऐसा कहता नहीं, इसलिए मैंने ही तय किया”, मैंने संभल कर जवाब दिया।
दादा ने बाद
में सवाल किया, “इस देश में राष्ट्रपति से लेकर गाँव के सरपंच तक सत्ता के कितने पद
होंगे”?
“यही कोई दस-पंद्रह
लाख तो होंगे ही!” मैंने कहा।
दादा ने
पुन: पूछा, “इस देश का काम सुचारु रूप से चले इसलिए पदनिरपेक्ष कार्य करने वाले
कितने लोग चाहिए”?
मैंने कहा, “कम
से कम पचास लाख लोग तो चाहिए ही”।
तब दादा ने
गंभीर होकर कहा, “जो किसी पद पर नहीं है और न पद की आकांक्षा रखता है ऐसे मूरखों की
सूची में अपना नाम होना चाहिए। ऐसा महान या महामूर्ख व्यक्ति था महात्मा गांधी”।
तब मेरे
ध्यान में आया कि सत्ताकांक्षी या सत्ताधारी लोग समाज या राष्ट्र नहीं बनाते, न सँभालते या सुधारते हैं। उलटा बिगाड़ते हैं। समाज तो सत्ता, संपत्ति निरपेक्ष लोगों ने बनाया है, संवारा है।
उम्मीदवारशाही, लोकशाही या लोकनीति नहीं है। जहां हकदार
उम्मीदवार नहीं होते, वही तो रामराज्य है और जहां सारे हकदार
उम्मीदवार बनना चाहते हैं, वह ‘हरामराज्य’ है।
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