आज का वर्ग
बहुत ज्ञानी है। अत: किसी भी ज्ञान की बात पर ‘उफ़्फ़’, ‘फिर शुरू’, ‘बस बहुत हो गया’, ‘और ज्ञान नहीं’ ऐसे कुछ जुमले हैं जो तुरंत सुनने को मिलता है। इस वर्ग को और ज्ञान नहीं
चाहिए। अगर उन्हे कभी कुछ चाहिए तो ‘बाबा’ से पूछ लेंगे, अरे अपने वही गूगल बाबा से। लेकिन क्या
कभी यह भी सोचा कि उस बाबा को ज्ञान देना भी पड़ता है? यही नहीं, उससे मिला ज्ञान क्या सही है? क्या इस, भले ही अधूरे ज्ञान पर ही सही, कभी विचार किया है? उस ज्ञान पर काम किया है? हमारे पास ज्ञान लेने का समय
नहीं है लेकिन व्हाट्सप्प फॉरवर्ड करने के लिए, आस पास रेस्टुरेंट
खोजने के लिए, मौल खोजने के लिए, कितने
‘लाइक’ मिले और यह विश्लेषण करने के लिए
कि किसका लाइक मिला और किसका नहीं मिला बहुत समय है। मैं इन्हे छोड़ने नहीं कहता। इन्हे
कीजिये, लेकिन सही ज्ञान लेने, समझने और
उस पर अमल करने की बात कर रहा हूँ। यही ज्ञान जिंदगी बदलेगी।
प्रेम और
घृणा पर शोध करने वाले एक विद्वान ने पंद्रह विद्यार्थियों की कक्षा में कहा कि वे
वहाँ मौजूद जिन विद्यार्थियों को बिलकुल नापसंद करते हों, उनके नाम एक चिट पर फ़ौरन लिख कर दें। एक विद्यार्थी को छोड़ कर, सबने चिट पर नाम लिख
दिये। फकत उस एक विद्यार्थी ने किसी का भी नाम नहीं लिखा। कुछ ने कुछ नाम लिखे तो एक
ने तो अधिकतम तेरह नाम लिख डाले। इस प्रयोग से जो तथ्य सामने आया, वह बहुत चौंकानेवाला था। जिन विद्यार्थियों ने अधिकतम लोगों को नापसंद किया, उनको स्वयं को भी अधिकतम लोगों ने नापसंद कर डाला। सबसे अद्भुत बात तो यह
रही कि जिस युवक ने किसी को भी नापसंद नहीं किया, उसका नाम किसी
ने भी अपनी चिट में नहीं लिखा। पसंद और नापसंद, प्रेम और घृणा
परस्पर अवलंबित होती है। अच्छे बुरे भाव सापेक्षता का सिद्धांत होते हैं, जैसा हम दूसरों को देखते हैं, दूसरे भी हमें
वैसा ही देखते हैं।
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