सोमवार, 25 मई 2015

पत्रकारों का उत्तरदायित्व


पिछले कुछ समय में मीडिया ने इन लुटेरों पर प्रश्न उठाने शुरू किए, हल्ला गुला किया, शोर मचाया, स्टिंग ऑपरेशन किया, पर्दाफाश किया। ऐसा लगने लगा कि इन लुटेरों पर लगाम कसने वालों का भी एक दल आगया है। और यह सही भी है कि इनके चलते बहुत से काले धंधों को रौशनी मिली। लेकिन धीरे धीरे इनकी ताकत बढ़ने लगी। जब लुटेरों को काम करने में थोड़ी कठिनाई होने लगी, तब  इसका  नतीजा यही निकला कि लूटने वालों ने फिर  सूरत बदल कर अपने गिरोह के लोगों को भी इनके बीच छोड़ दिया। गुंडे गुंडागर्दी के खिलाफ, बदमाश बदमाशी के खिलाफ, चोर चोरी के खिलाफ और जुल्मी जुल्म  के खिलाफ ऐसे गला फाड़ फाड़ कर  चिल्लाते हैं  कि इस शोर गुल में पता ही नहीं चलता कि कौन साच्चा है और कौन झूठा। झूठे ने  ज्यादा शोर मचाया और बच कर निकला गया, फंस गया बेचारा फिर वही सच्चा। रामलिंगा राजू और संजय दत्त को बेवकूफ समझा जाता है। सलमान खान, जयललिता को समझदार। सलमान को मिली जमानत पर एक उक्ति मिली “अच्छा हुआ सलमान को जमानत मिल गई नहीं तो रुपये पर से विश्वास उठ जाता”। यह आम आदमी की मनोदशा को दर्शाता है।

जिस मीडिया ने बहुत से घोटालों को उजागर किया, आज वही मीडिया निरंकुश होती जा रही है। उनमे लुटेरे मिल गए हैं। तथ्यों को जोड़-तोड़-मरोड़ कर परोसना, बिना तथ्यों को परखे उसका प्रसार करना, अपने दर्शकों / पाठकों  की  संख्या बढ़ाने के लिए सनसनीखेज खबरों को प्रचारित एवं प्रसारित करना इनका धंधा बन गया है। और तो और साधारण खबर को भी सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत करना आम बात हो गई है। इसमें बहुत से पत्रकार ऐसे भी  हैं जिनकी बागडोर किसी और के हाथ में  है और वे अपना उल्लू सीधा करने के  लिए इनका इस्तमाल करते हैं। ऐसा नहीं है कि साहसी  एवं ईमानदार पत्रकारों कि कमी है, लेकिन संदिग्ध पत्रकारिता कि ऐसी बाढ़ आ गई है कि सही -  गलत का भेद करना दुष्कर हो गया है। किसी को बनाना और बिगाड़ना इन के लिए बड़ा आसान हो गया है। अगर ये नहीं सुधरे तो इन्हे  भी कठघरे में खड़ा होना होगा। यह आवश्यक होता जा रहा है कि ऐसे लोगों की पोल खोली जाए और उन्हे चौराहे पर खड़ा किया जाए।

इन पत्रकारों को भी अपनी सीमा समझनी होगी और उसके दायरे में रह कर ही काम करना होगा। घोटालों को उजागर करने से ज्यादा धनात्मक (पॉज़िटिव) पत्रकारिता पर ज्यादा ध्यान देना होगा। देश में खतरा बुरे कि ताकत से नहीं अच्छे की दुर्बलता के कारण है। ईमानदारी एवं सच्चाई की साहसहीनता ही बड़ी बुराई है। घने बादल से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज होने से होती है। देश में,चाहे राजनीति हो या प्रशासन, अच्छे एवं ईमानदार लोगों की कमी नहीं है। कठिनाई यह है की ऐसे लोगों ने अपने रौशनी को समेट  लिया है। इनका  साहस जवाब दे गया है। सारा आकाश  दुराचारियों से घिर गया है।  इस कारण रात का भ्रम होने लगा है।  मीडिया को चाहिए कि  सच्चे, ईमानदार एवं भले  लोगों को हर समय अपने पत्रों एवं टीवी चैनलों में स्थान दे और उनके साथ खड़े रहें। इनके साथ होने वाले अत्याचार एवं अत्याचारियों का भंडाफोड़ करें।  अशोक  खेमका, एम.एन.विजयकुमार, यू. सगयम, पूनम मालाकोण्डिया, मुग्धा सिन्हा, किरण बेदी, अरुण भाटिया, दमयंती सेन ऐसे ही  कुछ नाम हैं। ये वे अधिकारी हैं जिन्होंने  अनेक कष्ट सहे और अभी भी सह रहे हैं। इन्हे अपनी कार्य पद्धति का अंजाम भी मालूम है। बारह महीनों में एक से ज्यादा स्थानान्तर का कष्ट झेल रहे हैं। २४  वर्षों में २६  स्थानान्तर, ऐसे विभाग या स्थान पर नियुक्ति जहां करने के लिए कुछ होता  ही नहीं। इनका पारिवारिक जीवन नष्ट हो गया है। लेकिन फिर भी अपनी जिद पर अड़े हैं। कानून और नियम का पूरी ईमानदारी और  सच्चाई के साथ  पालन कर रहे हैं। संघ लोक सेवा आयोग के एक सर्वेक्षण  के अनुसार इन अत्याचारों के कारण कम से कम ३४ प्रतिशत अधिकारी त्यागपत्र दे देते हैं। अगर मीडिया इनका सही ढंग से साथ थे तो कोई कारण नहीं कि  ऐसे लोगों की फौज खड़ी हो जाये। इन  त्यगपत्रों पर स्वत: रोक लग जाएगी। इनका उत्साह बढ़ेगा। ऐसे और भी लोग जो खुद अपने मुँह पर पट्टी बंध कर निष्क्रिय हो गए हैं, सामने आने लगेंगे। इनपर अत्याचार करने वालों पर लगाम लगेगी, और तब सूरज निकल आयेगा। रात ढल जाएगी।

लेकिन, क्या पत्रकारों और टीवी  के पास इनके साथ खड़े होने कि शक्ति है?


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