हमने अपनी जगह बदली कर ली है। नयी जगह का लिंक है
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आपको नयी जगह कैसी लगी बताएं, विशेष कर अगर पसंद न आई हो या कोई असुविधा जो तो जरूर से बतायेँ।
कुछ समय (जून2024) तक हम अपनी पोस्टिंग यहाँ भी करेंगे, लेकिन अनुरोध है कि नये लिंक पर पढ़ें।
अलमस्त पुजारी चिंतन
रानी रासमणि ने माँ काली की
प्रेरणा से उनका एक विशाल मंदिर बनवाया। संत स्वभाव की रानी ने माँ की पूजा-आराधना करने के विचार से बंगाल
त्याग कर वाराणसी जाने का निश्चय किया और जाने की तैयारियां शुरू हो गई। लेकिन तभी
प्रस्थान के एक दिन पहले रानी को सपने में ‘माँ’ ने रानी
से कहा कि रानी उस स्थान को छोड़ कर न जाये बल्कि
वहीं उनको स्थापित कर उनकी पूजा की व्यवस्था करें। माँ स्वयं उनका प्रसाद ग्रहण करेंगी। इस सपने से प्रेरित हो कर रानी ने वाराणसी जाने
का मन त्याग कर इस मंदिर का निर्माण 1855 में करवाया।
समस्या थी मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा और
नियमित पूजा करने के लिए ब्राह्मण की। रानी रासमणि चूंकि शूद्र थी,
उसके मंदिर में कोई ब्राह्मण प्राणप्रतिष्ठा करवाने के लिए राजी नहीं
हुआ।
जबकि संत स्वभाव की रासमणि इस डर से कि कहीं मंदिर
अपवित्र न हो जाये, खुद
कभी मंदिर के अंदर नहीं गयीं! यह तो ब्राह्मण होने का लक्षण हुआ, जो अपने को शूद्र समझे, वह ब्राह्मण, जो अपने को
ब्राह्मण समझे, वह शूद्र। लेकिन
समाज तो अपनी समझ से चलता है। वह तो अपना पुश्तैनी अधिकार छोड़ना नहीं चाहता भले ही
अपने कर्तव्य से च्युत हो जाये।
रासमणि कभी मंदिर के पास भी नहीं
गयी, बाहर से घूम आती थी। दक्षिणेश्वर का भव्य मंदिर उसने बनवाया
था, लेकिन पूजा
करने के लिए कोई पुजारी
नहीं
मिल रहा
था। रासमणि
शूद्र थीं इसलिए वह खुद पूजा कर नहीं सकती थीं।
बड़ी समस्या थी।
यह सोच सोच कर कि
क्या मंदिर
बिना पूजा के रह जायेगा, वह बड़ी दुखी थी। फिर किसी
ने खबर दी कि गदाधर नाम का एक अलमस्त ब्राह्मण लड़का है, लोगों को लगता है कि उसका
दिमाग थोड़ा गड़बड़ है, लेकिन शायद वह राजी हो जाये! रानी
को
आशा की किरण दिखी तो उसने लोगों को गदाधर को बुलाने के लिये भेजा!
रानी के भेजे लोगों ने गदाधर से मंदिर में पूजा करने के लिए पूछा और
गदाधर तैयार हो गया। उसने एक बार भी नहीं कहा कि
ब्राह्मण होकर मैं शूद्र के मंदिर में कैसे जाऊं? कहा, ठीक है, प्रार्थना जैसे यहां
करते हैं, वैसे वहां करेंगे।
घर के लोगों ने रोका, मित्रों ने
भी कहा कि कहीं और काम दिला देंगे, काम के पीछे
अपने धर्म को काहे खो रहा है? गदाधर ने कहा, नौकरी का सवाल ही नहीं है; भगवान बिना
पूजा के रह जायें, यह
बात जंचती नहीं; पूजा
करेंगे।
लेकिन फिर एक नयी समस्या। रासमणि को
पता चला कि यह पूजा तो करेगा, लेकिन पूजा करने के लिए यह दीक्षित नहीं है। इसने
कभी किसी मंदिर में पूजा नहीं की है। इसकी
पूजा का कोई शास्त्रीय ढंग नहीं, विधि-विधान
नहीं और इसकी पूजा भी अनूठी ही है; कभी करता है, कभी नहीं भी करता। कभी तो दिन भर करता है, कभी महीनों भूल
जाता है।
और
भी गड़बड़ है; यह भी खबर आयी है कि यह पूजा करते वक्त पहले खुद भोग लगा लेता है अपने
को, फिर भगवान को लगाता है। मिठाई वगैरह हो
तो खुद चख लेता है।
हताश
रासमणि ने कहा, अब जैसा है, एक बार आने दो, कम से कम कोई आ तो रहा है।
गदाधर आया, लेकिन गड़बड़ियाँ
शुरू
हो गयीं।
कभी
पूजा होती, कभी मंदिर के द्वार बंद रहते। कभी दिन बीत जाते
घंटा न बजता, दीया न जलता; और कभी ऐसा होता कि सुबह से प्रार्थना चलती तो बारह-बारह
घंटे नाचता ही रहता पगला पुजारी। रासमणि तो चुप
रहीं लेकिन मंदिर के ट्रस्टी थे, उन्होंने बैठक बुलायी, पूछा, “भई, ये कैसी-किस तरह की
पूजा है? किस शास्त्र में लिखा है ऐसा विधान?
पुजारी हंसने लगा बोला, “शास्त्रों
से पूजा का क्या सम्बंध! पूजा तो प्रेम की अभिव्यक्ति है, अनुग्रहीत होने का भाव है। कृतज्ञ
मन की भेंट है, यह औपचारिक हुई तो इसका कोई अर्थ नहीं, जब मन ही नहीं होता करने का,
तो पूजा करना गलत होगा। भले ही कोई न पहचाने, लेकिन
जिसकी
पूजा की है, वह तो पहचान ही लेगा कि बिना मन के पूजा की जा
रही है।
तो
भैया, मेरे
लिये थोड़े
ही पूजा कर रहा हूं। जिसके लिए करता हूं, उसको मैं धोखा नहीं
दे
सकूंगा।
जब
करने का मन ही नहीं हो रहा, जब भाव ही नहीं उठता, तो झूठे आंसू बहाऊंगा, तो परमात्मा
पहचान लेगा।
यह
तो पूजा न करने से भी बड़ा पाप हो जायेगा कि भगवान को
धोखा दे रहा हूं।
अपना
यह है कि जब उठता है भाव तो इकट्ठी ही कर लेता हूं पूजा। दो तीन
सप्ताह की अर्चना-आराधन एक दिन में निपटा देता हूं, लेकिन कान खोल कर सुन लो, बिना
भाव के मैं पूजा नहीं करूंगा।”
ट्रस्टियों ने कहा, “तुम्हारा
कुछ विधि-विधान नहीं मालूम पड़ता, कहां से शुरू करते हो कहां अंत करते हो कुछ
पता ही नहीं।”
पुजारी बुरा मान गया कहा,
“तो हम कोई अपनी मर्जी से करते हैं? वह जैसा करवाता है, वैसा हम
करते हैं, हम अपना विधि-विधान उस पर थोपते नहीं, यह कोई क्रियाकांड नहीं है, पूजा है,
यह प्रेम है।
जिस
रोज जैसी भावदशा होती है, वैसा होता है। कभी पहले फूल
चढ़ाते हैं, कभी पहले आरती करते हैं, कभी नाचते हैं, कभी शांत बैठते हैं, कभी घंटा
बजाते हैं, कभी नहीं भी बजाते हैं।”
ट्रस्टियों ने समझौता करते
हुए कहा,
“चलो, यह भी जाने दो, पर यह तो पाप है कि पहले भोग तुम खुद चखते
हो, फिर भगवान को चढ़ाते हो, दुनिया में कहीं ऐसा सुना नहीं। तुम भोग
खुद को लगाते हो, प्रसाद भगवान को देते हो।”
पुजारी ने इनकार में सिर हिलाया, “यह तो
मैं कभी न कर सकूंगा। जैसा मैं करता हूं, वैसा ही करूंगा। मेरी
मां भी जब कुछ बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी, फिर मुझे देती थी। पता नहीं,
देने योग्य है भी या नहीं। कभी मिठाई में
शक्कर ज़्यादा होती है, मुझे ही नहीं जंचती, तो भोग कैसे चढ़ाऊं? कभी शक्कर होती ही
नहीं, मुझे ही नहीं जंचती, तो भगवान को कैसे प्रीतिकर लगेगी? जो मेरी मां मेरे
लिये न
कर सकी वह मैं परमात्मा के लिए नहीं कर सकता हूं।” वह
जाने के लिए उठ
खड़ा हुआ।
रानी ने सिंहासन से उतर कर फक्कड़ पुजारी
के पैर पकड़ लिये- “आप ही करोगे पूजा”। उनकी आंखों से
आंसू बह रहे थे।
उस
अलमस्त
पुजारी
को आगे जाकर देश ने रामकृष्ण परमहंस के नाम से जाना।
स्वामी विवेकानंद इन्हीं रामकृष्ण
परमहंस के शिष्य थे। इन्होंने ही विवेकानंद के प्रश्न पर पूरे आत्मविश्वास के साथ
कहा था,
“हां मैं तुम्हारी भगवान से बात करवा सकता हूँ, ठीक
वैसे ही जैसे हम और तुम बात कर रहे हैं।”
ऐसे प्रेम से जो भक्ति उठती है, वह तो रोज-रोज
एकदम नयी ही होगी।
उसका
कोई क्रियाकांड नहीं हो सकता। उसका कोई बंधा
हुआ ढांचा नहीं हो सकता। प्रेम भी कहीं ढांचे में बंधा हुआ होता
है? पूजा का भी कहीं कोई शास्त्र होता है? प्रार्थना की भी कोई विधि होती है? वह तो
भाव का सहज आवेदन है, मुक्त तरंग है।
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