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शुक्रवार, 17 मई 2024

निवाला

                                    


     
हमने अपनी जगह बदली कर ली है। नयी जगह का लिंक है 

https://raghuovanshi.blogspot.com/2024/05/blog-post_17.html

यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/I7E92ueprO4

आपको नयी जगह कैसी लगी बताएं, विशेष कर अगर पसंद न आई हो या कोई असुविधा जो तो जरूर  से बतायेँ। 


कुछ समय (जून2024) तक  हम अपनी पोस्टिंग यहाँ भी करेंगे, लेकिन अनुरोध है कि नये लिंक पर पढ़ें। 

    

 

          वैसे तो कोरोना-काल को अब हम भूलने लगे हैं लेकिन उसकी खट्टी-मीठी यादें अभी भी हमारे जेहन में कैद हैं। उन्हें याद कर कभी आँखों में आँसू तो कभी होठों पर मुस्कुराहट आ जाती है।  बहुतों ने दूसरों की चिता पर अपनी रोटियाँ सेंकी तो ऐसे लोग भी थे जिन्होंने अपनी चिता जला कर दूसरों के लिये रोटियाँ सेकीं। किसी ने दूसरे का निवाला छीना तो किसी ने अपना निवाला दूसरे के मुंह में डाला। ऐसी ही एक घटना है जिसे याद कर आँखों में आँसू भी आते हैं और होठों पर मुस्कुराहट भी।

          रात भर बेचैन रहा, करवटें ही बदलता रहा, नींद नहीं आई। बड़ी मुश्किल से सुबह कुछ निवाले मुंह में डाल घर से अपने शोरूम के लिए निकला। आज किसी के पेट पर पहली बार लात मारने जा रहा हूँ। यह बात अंदर ही अंदर कचोट रही थी। जिंदगी में यही फलसफा रहा है मेरा, यही सीखा है अपने माँ-बाप से,  कि अपने आस-पास किसी को रोटी के लिए तरसना ना पड़े। पर इस विकट-काल में अपने पेट पर ही आन पड़ी थी। दो साल पहले ही अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर कपड़े का शोरूम खोला था, मगर दुकान की बिक्री, अब आधी से भी कम हो गई थी। अपने शोरूम में दो लड़के और दो लड़कियों को रखा था मैंने, ग्राहकों को कपड़े दिखाने के लिए। महिला विभाग (लेडीज डिपार्टमेंट) की दोनों लड़कियों को निकाल नहीं सकता। एक तो कपड़ों बिक्री इन्हीं की ज्यादा है। दूसरे वे दोनों बहुत गरीब हैं। दो लड़कों में से एक पुराना है और वह घर में इकलौता कमाने वाला  है। जो नया लड़का है दीपक, मैंने विचार उसी पर किया है। शायद उसका एक भाई भी है, जो अच्छी जगह नौकरी करता है। और वह खुद, तेजतर्रार और हँसमुख भी है। उसे कहीं और भी काम मिलने की उम्मीद ज्यादा है। इन पांच महीनों में मैं बिलकुल टूट चुका हूँ। स्थिति को देखते हुए एक कर्मचारी को कम करना मेरी मजबूरी है। इसी उधेड़बुन में दुकान पहुंचा।

          चारों आ चुके थे। मैंने चारों को बुलाया और बड़ी मुश्किल से अपने आँसू को रोकता उदासी से कमजोर आवाज में बोल पड़ा, “देखो दुकान की अभी की स्थिति तुम सब को पता है, तुम लोग समझ रहे होगे कि मैं तुम सब को काम पर नहीं रख सकता।

          उन चारों के माथे पर चिन्ता की लकीरें मेरी बातों के साथ गहरी होती चली गई। मैंने पानी से अपने गले को तर किया और आगे कहा, “मुझे किसी एक का हिसाब आज करना ही होगा। दीपक तुम्हें कहीं और काम ढूंढना होगा।”

“जी अंकल”, उसने धीरे से कहा। उसे पहली बार इतना उदास देखा था। बाकियों के चेहरे पर भी उदासी की छाप स्पष्ट नजर आ रही थी। एक लड़की जो शायद दीपक के मोहल्ले में ही रहती है, कुछ कहते-कहते रुक गई।

“क्या बात है बेटी? तुम कुछ कह रही थी?”

“अंकल जी, इसके भाई का भी काम कुछ एक महीने पहले छूट गया है। इसकी मम्मी बीमार रहती है,” अपने आँसुओं को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए वह इतना ही बोल पाई।

नज़र दीपक के चेहरे पर गई। उसकी आँखों में जिम्मेदारी के आँसू थे, जिसे वह अपने हँसमुख चेहरे से छुपा रहा था। मैं कुछ बोलता कि तभी एक और दूसरी लड़की बोल पड़ी, “अंकल, बुरा ना माने तो एक बात बोलूं?

“हाँ हाँ बोल ना।”

“किसी को निकालने से अच्छा है, आप हमारे सबों के पैसे कुछ कम कर दो।”

मैंने बाकियों को तरफ देखा।  

“हाँ अंकल! हम कम में काम चला लेंगे।”

बच्चों ने मेरी परेशानी को आपस में बांटने का सोच मेरे मन के बोझ को कम कर दिया था।

पर तुम लोगों को ये कम तो नहीं पड़ेगा न?

नहीं अंकल! कोई साथी भूखा रहे ... इससे अच्छा है, हम सब अपना निवाला थोड़ा कम कर दें।

मेरी आँख में आंसू छोड़ ये बच्चे अपने काम पर लग गये, मेरी नजर में मुझसे कहीं ज्यादा बड़े बनकर।

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शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2023

एक अवगुण छोड़िये

“जी हाँ, मैं बस एक ही अवगुण छोड़ने कह रहा हूँ। अगर एक से ज्यादा छोड़ने कहूँगा तब तो आप मेरी बात सुनेंगे ही नहीं, अतः बस एक के लिए ही कह रहा हूँ। आप केवल एक ही छोड़िये और फिर देखिये कैसे धीरे-धीरे आपका जीवन सुधरता जाएगा, जीवन शुद्ध-शांत और निर्मल हो जाएगा।” आज के सत्संग का यही सार था – एक अवगुण छोड़िये।  स्वामी जी ने यह भी नहीं बताया की कौन सा अवगुण छोड़ें, वह भी हम पर ही छोड़ दिया। 



सत्संग से उठ कर बाहर निकलते ही सुनने को मिला - गुण हों या अवगुण, बड़ी लंबी फेहरिस्त है। वेद, उपनिषद, पुराण, गीता, रामायण, धर्माचार्य, महामंडलेश्वर, गुरु, ऋषि, कथा वाचक हर समय केवल बस यही तो कहते रहते हैं – या तो कोई कथा-कहानी सुनाते हैं या फिर ये करो-ये न करो। उनकी बातें मानने लगें तो जीने लायक ही नहीं रहें। वे जो कहते हैं उसे बस वहीं छोड़ कर चले आने में ही भलाई है। क्यों ठीक कह रहा हूँ न? शायद यही कारण है कि वे अपनी कहते रहते हैं और दुनिया अपनी चाल से चलती रहती है। और तो और महर्षि पतंजलि को लें तो उन्होंने भी पाँच यम और पाँच नियम गिना दिये। एक-दो गिनाते तो  शायद उस पर फिर भी विचार कर लेते”।

“भाई साहब जरा ठहरिए! अगर एक-एक होते तो क्या आप उन पर विचार करते?

अपनी झोंक में लेकिन थोड़ा संभलते हुए कहा, “तब-का-तब सोचते!”

अच्छा बताइये ये पाँच-पाँच क्या हैं?”, मैंने पूछ ही लिया।

“पाँच यम हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और पाचवाँ .......”

“अपरिग्रह।”

“हाँ...हाँ  वही, अब आप ही बताइये इन्हें अपना लें तो कैसे जीवन चले। अपने तो बस एक ही सिद्धान्त अपना रखें हैं – व्यावहारिकता। मनुष्य को व्यावहारिक होना चाहिए, बस इससे अपना कम चल जाता है”। उन्होंने घोषणा कर दी।

“जी, ठीक कहा अपने, अहिंसा – गुस्सा तो नाक पर चढ़ा रहता है, बच्चों को डांट न लगाएँ, मजदूर को चार गाली न दें तो वे काम ही न करें। और ये सत्य, अगर सत्य बोलें तो जेल में रहें या फिर सड़क किनारे खाली कटोरा ले कर बैठे रहें, झूठ बोले बिना तो भीख भी नहीं मिलती।

“हाँ, और नहीं तो क्या!”, मैंने जोड़ा।

“अस्तेय- चोरी न करना, अरे हम कोई चोर हैं क्या, चोरी तो न हम करते हैं और न करेंगे। चोरी तो छोड़ी हुई ही है!”

“अरे वाह! तब हम यह मान लेते हैं कि हमने एक अपना लिया है, अब हमें मुक्त करो। क्यों क्या कहते हैं आप? इसके साथ यह भी जोड़ देते हैं कि वैसे तो हम चोरी करेंगे ही नहीं लेकिन अगर कहीं गलती से, लालच से कर भी लिया तो हम प्रायश्चित भी कर लेंगे या तो उसे बता देंगे या वह सामान वापस वहीं रख देंगे। क्या दिक्कत है, ऐसा काम करें कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।” मौका देख कर मैंने कहा।

“हाँ, हाँ। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम किसी तीर्थ पर जाते हैं तो कुछ छोड़ने कहा जाता है और हम वही छोड़ते हैं जो पहले से ही छोड़ा हुआ है। आम-के-आम गुठली के दाम।”

          चलिये अब यह समझ लें कि चोरी किसे कहते हैं। शब्दकोश का सहारा लें तब इसकी परिभाषा कुछ इस प्रकार बनती है – जब कोई किसी व्यक्ति की सम्मति या जानकारी के बिना उसका समान या संपत्ति ले लेता है या हटा देता है तो इसे चोरी कहा जाता है। यानी बिना सम्मति या जानकारी के ले लेना ही नहीं बल्कि हटा देना भी चोरी ही है।

          इस चोरी को और जरा गहराई से देखने और उस पर विचार करते-करते मुझे अपने जीवन की एक छोटी सी आपबीती याद आ गई। मैं अपने सहपाठी, सुरेश के कार्यालय में बैठा था। उसका लड़का राहुल भी वहीं था। गर्मी का मौसम था, टिफिन में आम भी था। मैंने लेने से इंकार किया और कहा कि मैंने आम छोड़ रखा है और बताया कि आम मेरे प्रिय फलों में से एक है, लेकिन उस वर्ष पूरी गया था वहाँ जगन्नाथ महाप्रभु के मंदिर के वट वृक्ष पर एक वर्ष तक आम न खाने  का वचन देकर आया हूँ।  राहुल ने बताया कि उसने भी इसी वर्ष वहीं आम छोड़ा है। लेकिन तभी टिफिन में रखे आचार को मैंने उठा लिया। राहुल ने बताया, “अंकल यह आम का आचार है।” मुझे बात समझ नहीं आई तो उसने  जोड़ा अंकल अभी तो आपने बताया कि आपने आम छोड़ रखा हैहाँ, लेकिन यह तो आम का ......’, यहाँ तक कहने के बाद मेरी जबान तलवे से चिपक गई। मुझे सचमुच बड़ा अच्छा लगा जिसे मैं बच्चा मान रहा था उसने आम को छोड़ने के वचन को बड़ी गहराई से समझा था।

          जब आम पर उसने इतनी गहराई से सोचा तब फिर चोरी पर भी सोचने की जरूरत है। श्रीअरविंद ने चोरी का अर्थ ही बदल  दिया है।  लगभग 1905 में वे अपनी पत्नी को एक पत्र लिखते हैं जिसमें वे अपने तीन पागलपन की चर्चा करते हुए पहले पागलपन के बारे में लिखते हैं कि अगर वे अपने पास जितनी उनको  आवश्यकता है उससे ज्यादा रखते हैं तब वे अपने आप को चोर समझेंगे। उस समय उन्हें 500 रुपए माहवार मिला करते थे। उस समय के हिसाब से यह एक शाही राशि थी। यह राशि पूर्ण रुपेण श्रीअरविंद की उनकी अपनी  थी लेकिन फिर भी वे उसका अपने लिए उपयोग करना चोरी मानते थे। यह चोरी का एक अन्य आयाम है। अपना होने के बावजूद अपनी आवश्यकता  से ज्यादा रखना, जिसके पास उसका अभाव है उसकी आवश्यकताओं की चोरी करना है।

          इशोपनिषद का पहला श्लोक है:

ईशा वास्यम् इदं सर्वम् यत्किञ्च जगत्यां जगत् 

ते न त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ।।१।।

श्लोक के अंतिम छंद का अर्थ है किसी दूसरे के धन की इच्छा मत करो’, यानि किसी दूसरे के धन की इच्छा करना भी चोरी या चोरी की तैयारी है अतः उसे भी त्यागो। चोरी को त्यागने का अर्थ है मन से, कर्म से और वाणी से उसका त्याग करना।

          सामान्यतः एक और वस्तु की चोरी करने की हमारी बुरी आदत है, वह है दूसरों के समय की चोरी। निर्धारित समय से न आ कर किसी को इंतजार करवाना उस के समय की चोरी है। अगर वहीं किसी आयोजन में जहां हम वक्ता हैं या प्रमुख अतिथि हैं और वहाँ देर से पहुँचना वहाँ उपस्थित सबों के समय की चोरी है। समय से ज्यादा बोलना अन्य वक्ता के समय की, न सुनने की इच्छा होने के बाद भी बोलते जाना, श्रोता या अन्य वक्ता के समय की चोरी ही है।

          अनिच्छा से दी जाने वाली वस्तु को लेना, बिना इच्छा के किसी के प्रेम की अपेक्षा रखना, ज्यादा लेकर कम देना यहाँ तक की कम देने की भावना रखना भी अलग-अलग प्रकार की चोरियाँ ही हैं।

          एक अन्य प्रकार की प्रचलित चोरी है – जमाखोरी। मुनासिब से ज्यादा कमाने की इच्छा से कम उपलब्ध सामग्री को जमा करना, भविष्य के लिए इतना जमा कर लेना कि दूसरे के वर्तमान के लिए भी न रहे। कोरोना के समय ऐसी वारदातें देखने को मिलीं, किसी कॉलोनी या मुहल्ले में पानी की कम आपूर्ति की खबर आने पर जरूरत से ज्यादा पानी जमा करना इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। यहाँ हम दूसरे के हिस्से का संसाधन चुरा कर खुद के लिए या खुद के मुनाफे के लिए जमा कर रहे हैं।

          अन्य के कार्य को अपना बताना या अपने होने का आभास देना तो प्रत्यक्ष रूप से चोरी है ही किसी के कार्य की उचित प्रशंसा न करना भी सूक्ष्म चोरी है। किसी के लिखे हुआ को अपना बताना, उसकी सहमति के बिना उसका प्रयोग करना तो आज कॉपी-राइट के नियमों के अंतर्गत जुर्म ही है, चोरी तो है ही।

          किसी की अनुपस्थिति में उसकी निंदा करना क्या उसकी प्रतिष्ठा, मान, मर्यादा की चोरी नहीं है? भविष्य और आने वाली पीढ़ी का ध्यान न रखते हुए प्रकृति का अनावश्यक दोहन भी चोरी का ही स्वरूप है।

            और तो और श्रीकृष्ण ने गीता के तीसरे अध्याय में कहा है :

इष्टान् भोगान्, हि, वः, देवाः, दास्यन्ते, यज्ञभाविताः,
तैः दत्तान्, अप्रदाय, एभ्यः, यः, भुङ्क्ते, स्तेनः, एव, सः  ।।3:12।।

इस श्लोक का भावार्थ यही निकलता है कि यह पूरी सृष्टि इसलिए चल रही है क्योंकि देना और लेना निरंतर चलता रहता है। देने से ही मिलता है और जो मिला उसमें से फिर देना। और जो इस कड़ी को तोड़ता है यानि सिर्फ अपने लिए लेता है देता नहीं वह चोर है। 

          आप जितना गहरे उतरते जाएंगे, चोरी के नए-नए आयाम खुलते जाएंगे। जैसे-जैसे आप उन्हें जिंदगी में उतारते जाएंगे, आपका जीवन निखरता जाएगा।

कबीर को याद कीजिये-

                 जिन खोजा तिन पाइयागहरे पानी पैठ,

                          मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ। 

किनारे बैठ कर ही अगर संतोष हो जाता है तब आपकी मर्जी लेकिन अगर मोती चाहिए तो पानी में गहरा उतरना होगा।

(डॉ.रमेश बिजलानी की वार्ता पर आधारित)

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शुक्रवार, 13 अक्टूबर 2023

दैवीय मार्ग-दर्शन

 पांडेचरी, श्री अरविंद आश्रम से हम सब परिचित हैं। भले ही वहाँ गए न हों, उस स्थान का नाम सुना है। इस आश्रम में एक साधिका रहती थीं, लंबे समय से। बल्कि यह कहना उचित होगा कि उन्होंने अपना पूरा जीवन ही इस आश्रम को समर्पित कर दिया था। एक बार उनके परिवार की कई महिलाएं आश्रम देखने और उनसे मिलने वहाँ आईं। लौटते समय उनका चेन्नई (तब मद्रास) 2-3 दिन रुक कर, घूम-फिर कर लौटने का कार्यक्रम था। उन्होंने उस साधिका को भी साथ चलने के लिए कहा और सुझाव दिया कि वे तो चेन्नई से फिर आगे चली जाएंगी और साधिका आश्रम वापस लौट आयें। साधिका का भी मन बना और उन्हें श्रीमाँ से अनुमति भी मिल गई।



          जिस दिन यात्रा पर निकलना था उसके पहले रात्री को तेज बरसात हुई। रात लगभग 10 बजे किसी ने साधिका के कमरे का दरवाजा खटखटाया। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, भला इतनी रात कौन आया होगा? दरवाजा खोला, एक अन्य वरिष्ठ साधक दरवाजे पर खड़े थे। उन्हें देख सकपकाना स्वाभाविक था। उन्होंने उन्हें एक लिफाफा पकड़ाया और बताया कि श्रीमाँ ने उनके लिए यह एक आवश्यक पत्र भेजा है। दरवाजा बंद कर वे कुर्सी पर बैठ गईं और आशंकित मन से धीरे-धीर लिफाफा खोला। लिखा था, “तुम कहीं नहीं जाओगी”। साधिका सन्न रह गयी। उसके मंसूबों पर पानी फिर गया। उन्हें बड़ा झटका लगा, दुख हुआ, क्रोध आया, निराशा हुई। रात भर नींद नहीं आई लेकिन  श्रीमाँ की आज्ञा का पालन करते हुए उसने अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया। लेकिन दुख और क्रोध में दूसरे दिन कमरे से बाहर नहीं निकलीं, खाने के लिए भी नहीं। शाम को अचानक उन्हें एक खबर मिली। जिस गाड़ी में उनके परिवार की महिलाएं गई थीं रास्ते में, गाड़ी समेत सड़क धंस गई, उनमें से कोई नहीं बचा।

          साधिका के रोंगटे खड़े हो गए। एक बार तो किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी रहीं फिर बदहवास हो उत्तेजित होकर माँ के कमरे की तरफ दौड़ पड़ीं। उन्हें कमरे के दरवाजे पर रोका गया, श्रीमाँ अभी व्यस्त हैं, मुलाक़ात नहीं हो सकतीनहीं, मुझे तो अभी ही मिलना है’, और वे एक प्रकार से जबर्दस्ती कमरे में घुस गईं। अब तक उनकी उत्तेजना, दुख, झटका, निराशा     क्रोध, श्रद्धा, भावुकता, समर्पण अविश्वास में तब्दील चुकी  थी। वह अपने आप को श्रीमाँ की अपराधी समझ रही थी। रो रही थीं और अपने आप को माफ नहीं कर पा रही थी। श्रीमाँ उन्हें देखते ही समझ गईं। उन्होंने उंगली से साधिका को चुप रहने और बैठने के लिए कहा। कुछ देर में जब साधिका व्यवस्थित हुई, उसकी उत्तेजना शांत हुई तब माँ ने उनकी तरफ देखा।

          जब आप को पता था यह होने वाला है, तब आपने मुझे तो रोका लेकिन उन्हें क्यों नहीं रोका”?, साधिका का क्रोध फिर मुखर हो उठा।

श्रीमाँ ने धीरे से कहा, “क्या मेरे रोकने से वे रुक जातीं”?

          साधिका सन्नाटे में आ गई, उन्हें पता था वे नहीं रुकतीं। उनके मन में,  श्रीमाँ के प्रति न वह श्रद्धा थी न विश्वास। साधिका श्री माँ के चरणों में गिर पड़ी और धीरे-धीरे उठ कर वापस आ गई।

          श्रीमाँ, जन्मदिन पर बधाई-पत्र दिया करती थीं। जब इस साधिका को जन्मदिन पर बधाई पत्र मिला तो उसने देखा उसमें जो तारीख लिखी थी, वह उसका जन्मदिन नहीं था। उसने माँ की तरफ देखा। माँ मुस्कुरा रही थी। उसे याद आया, यह वही तारीख थी जिस दिन उपरोक्त दुर्घटना घटी थी।

          दैवीय शक्तियाँ हमेशा हमारा मार्ग-दर्शन करने के लिए कटिबद्ध रहती हैं, हमें सावधान करती रहती हैं, हमारा मार्ग दर्शन करती हैं, बशर्ते हम इस योग्य बनें कि उनकी बात सुनें और माने। ये मार्ग-दर्शन हमें उन शक्तियों से सीधे भी प्राप्त होते हैं, छठी इंद्रियों के माध्यम से या फिर किसी योग्य व्यक्ति के माध्यम से भी जिनमें हमारा अटूट विश्वास होता है, उनके प्रति हमारी श्रद्धा होती है। लेकिन क्या हमारी तैयारी है?

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शुक्रवार, 12 जून 2020

योग हमेशा अपने साथ रखें

प्रश्न : (1) तनाव, दबाव और यातना  - हर इंसान को इस समस्या का सामना करना पड़ता है। इनसे कैसे बचें?

(2) विवाह करके योग की तरफ चलते हुए मंजिल तक पहुंचना या फिर बिना विवाह किये योग की तरफ चलना; कौन सा तरीका सबसे अच्छा है? 

 श्रद्धेय श्री सद्गुरु जी का उत्तर : आप तनाव और दबाव की समस्या को सार्वजनिक और सार्वभौमिक  क्यों मान रहे हैं? आप तनाव और दबाव में हैं।

 क्या आपने अपनी पत्नी और बच्चों के नाम दबाव, तनाव और यातना रखे हैं? पत्नी और दो बच्चे और उनके नाम दबाव, तनाव और यातना, क्यों? यही तो! मैं नहीं चाहता कि आप योग के रास्ते पर चलें। आप जिस भी राह पर चलें अपने साथ योग को लेकर चलें। योग उस रास्ते को खूबसूरत और आसान बना देगा। आप चाहे उत्तर की ओर जाएँ या दक्षिण की ओर। अगर अंधेरा होता है तब आप टॉर्च लेकर जाते हैं। उत्तर की ओर जाने वाले टॉर्च लेकर चलते हैं और दक्षिण की ओर जाने वाले अंधेरे के साथ चलते हैं; क्या ऐसा होता है? नहीं।

 आप शादी करते हैं, अपनी जरूरतों की वजह से। आप अपनी पत्नी के साथ पैदा नहीं हुए थे। हुए थे क्या? नहीं। आप इस तरह पैदा हुए थे, एक सम्पूर्ण मनुष्य के रूप में। चूंकि आपकी कुछ जरूरतें हैं; शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक शायद आर्थिक भी हो सकती हैं। इस प्रकार कई जरूरतें हो सकती हैं। आम तौर पर शादी को एक ऐसा पैकेज माना जाता है जो इन सभी जरूरतों को पूरा करता है। शारीरिक जरूरतें, मानसिक जरूरतें, भावनात्मक जरूरतें, सामाजिक जरूरतें और कभी कभार आर्थिक जरूरतें भी। तो यह एक व्यापक पैकेज है। जब आप शादी करते हैं तब ये सारी समस्याएँ एक साथ सुलझ जाती हैं। कभी कभार आपकी कुछ जरूरतों को पूरा करने से इंकार भी कर दिया जाता है। इसलिए आप दवाब, तनाव और यातना महसूस करते हैं। मैं आपको समझाना चाहता हूँ, आपने अपनी भलाई के लिए शादी की थी। किसी और के लिए कोई बलिदान नहीं किया था! आपने, अपनी जरूरतों और अपनी भलाई के लिए ही शादी की थी। आपको जिंदगी भर यह याद रखना चाहिए। आपने शादी करके एक दूसरे इंसान को अपने साथ बांध लिया है; अपनी जरूरतों के कारण। आपने ऐसा दूसरे इंसान के लिए नहीं किया है। है कि नहीं? सच यही है न! यह याद रखिए, अगर आप यह याद रखेंगे तो आप आभारी होकर जीवन जियेंगे। अपनी पांचों जरूरतें न भी सही, कम से कम मेरी दो जरूरतों को तुमने पूरा कर दिया इसके लिए बहुत धन्यवाद। है न? सभी पांचों जरूरतों को, हो सकता है उन्होने ठीक तरह से पूरा नहीं किया, लेकिन कम से कम दो या तीन तो आपके पति या पत्नी पूरा करते / करती हैं। है न? उन्होने किया की नहीं किया? अगर उन्होने कुछ भी पूरा नहीं किया होता तब मुझे नहीं लगता कि आप अब भी उनके साथ होते। है कि नहीं? वे कुछ जरूरतों को पूरा कर रहे हैं। हो सकता है कुछ जरूरतों को वे पूरा नहीं कर पा रहे हैं। आपके साथ भी यही है। आप भी दूसरे व्यक्ति की हर जरूरत को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। कुछ को आप भी पूरा कर रहे हैं, कुछ को नहीं। ऐसा है कि नहीं? तो यह दबाव, तनाव और यातना इसीलिए बन गया है। अभी तक आपने उसे चाहे जैसा भी बना दिया हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर आप चाहें तो तीन दिनों में, चाहे आपकी परिस्थिति कितनी ही बुरी क्यों न हो, तीन दिनों में आप उसे शांति पूर्ण अवस्था में ला सकते हैं। अगर प्यार नहीं, अगर आनंद नहीं, तो कम से कम एक शांतिपूर्ण स्थिति तो आप तीन दिनों के अंदर ला सकते हैं, अगर आप इसके लिए सौ फीसदी इच्छुक हों तो। है कि नहीं? आप कम से कम चुप तो हो ही सकते हैं। साधारण सी बात है, चाहे कुछ भी हो जाये, चुप। शांति छा जाएगी और हो सकता है कि उन्हे यह बात पसंद भी आ जाये!

अकेले चलना फायदेमंद है या लोगों के साथ चलना? अफ्रीका में एक कहावत है; वो कहते हैं कि अगर आप तेजी से  चलना चाहते हैं तब आप अकेले चलिये, लेकिन अगर आप लम्बे समय के लिए चलना चाहते हैं तब आप लोगों के साथ चलिये। अगर आप लम्बा सफर कर रहे हैं, तो साथ बेहतर है। अगर आप छोटी दूरी तय कर रहे हैं, तब आपको अकेले जाना सबसे बढ़िया है। है न? .....

गौतम ने दूसरी बात कही थी, जब किसी ने उनसे यही सवाल पूछा। तब वे बोले, किसी मूर्ख के साथ चलने से अकेले चलना बेहतर है। क्योंकि आपको देख कर उन्हे साफ हो गया कि और कौन आपके साथ शादी करेगा। तो यह गौतम के काम करने का तरीका था। वे हमेशा लोगों को किसी का साथ लेने के लिए मना करते थे। उनका कहना था ये जीवन एक छोटा सा सफर है। आपको साथ किसलिए चाहिये? जब आप इस शरीर को छोड़ेंगे, तब वह एक लम्बा सफर है, वहाँ मैं रहूँगा। यह उनकी पेशकश है। लेकिन आगर आपको लगता है कि जीवन लम्बा है इसलिए आपको साथ की आवश्यकता  है,  यह आपकी धारणा है, और अगर आप ऐसा मानते हैं तब आपको साथ की  जरूरत है। लेकिन आप इस साथ को कैसे निभाते हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है।


तब, आप योग के रास्ते पर मत चलिये, आप अपने साथ योग को लेकर चलिये। अगर आप योग को अपने साथ लेकर चलते हैं तो योग आपके रास्ते को रौशन कर देगा। चाहे आपने कोई भी रास्ता चुना हो; आपने अपना रास्ता अपनी जरूरतों के कारण चुना है। ..... ..... मुद्दा यह नहीं है कि आप क्या कर रहे हैं, मुद्दा यह है कि आप उसे कैसे कर रहे हैं। आप क्या करते हैं यह आपकी जरूरतों से तय होता है लेकिन उसे  कैसे करते हैं यह आपके जीवन  की प्रकृति तय करती है।

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शुक्रवार, 15 मई 2020

कोरोना - एक सृजनात्मक दृष्टिकोण


सबों को नमस्कार! जहां भी हों, जैसे भी हों। आशा है स्वस्थ्य और प्रसन्न होंगे। ईश्वर से यही कामना है।

सच्चाई यही है कि दुनिया भर में, कमोबेश प्राय: परिस्थिति वैसी ही चल रही है। दुनिया भर में अब तक लगभग 44 लाख से ज्यादा लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं, 3 लाख के करीब अपनी जान गँवा चुके हैं। अमेरिका में मरने वालों की संख्या  84 हजार  से ज्यादा हो चुकी है। 5 देशों में मरने वालों की संख्या बीस हजार से ज्यादा हो चुकी है। कई देशों में संख्या में उतार-चढ़ाव हो रहा है, यानि संख्या कम होने के बाद फिर बढ़ने लगी है। हम, सिर्फ लोगों के व्यवहार में बदलाव लाने और उसे नियंत्रण करने के तरीकों पर ही काम कर रहे हैं। बीमारी को नियंत्रित करने का एक भी तरीका अभी तक सामने नहीं आया है। वायरस अपनी अलग-अलग नई-नई क्षमताओं को, काबिलियत को लगातार दिखा रहा है। पहले समझा जाता था कि यह वायरस केवल हमारे फेफड़ों पर ही आक्रमण करता है, लेकिन जैसे-जैसे शोध आगे बढ़ रहा है हमें यह पता चल रहा है कि यह हमारे स्नायु तंत्र, मस्तिष्क पर भी असर कर रहा है। स्नायु तंत्र को, मस्तिष्क को नुकसान पहुँचने के मामले बेहद चिंता के विषय हैं। यह हमारी प्रतिरक्षा तंत्र  (इम्यून सिस्टम) को भी प्रभावित करता है। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि इसकी क्षमताओं के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारियाँ प्राप्त हो रही हैं। यह बेहद चिंता का विषय है। इस पर कार्य करने वाले शोधकर्ता और वैज्ञानिक एक मत भी नहीं हैं और निश्चय पूर्वक कुछ भी बता पाने में असमर्थ हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह वायरस हमारे अनुमान से कहीं ज्यादा जटिल होता जा रहा है

एक अच्छी बात यह है कि इस वायरस से संक्रमित 80 प्रतिशत लोगों में कोई असर नहीं है, बीमारी के कोई संकेत नहीं दिखते हैं। यह जहां एक अच्छी बात है, वहीं एक बेहद चिंता का विषय भी है। क्योंकि ये 80 प्रतिशत लोग ही इस बीमारी को हर कहीं पहुंचा रहे हैं। उन्हे यह पता ही नहीं होता कि वे इस रोग को संक्रमित कर रहे हैं। यह एक बहुत ही भयंकर स्थिति है। इसका अर्थ यह है कि हमें इन लोगों को क्वारंटाइन (quarantine) करना होगा जिनमें किसी भी प्रकार का कोई भी लक्षण नहीं है। इन लोगों का इलाज करना होगा, यह बहुत ही मुश्किल कार्य है। ये एक प्रकार से आतंकवाद में प्रयोग किये जाने वाले, स्लीपिंग सेल की तरह हैं जिनका प्रयोग आतंकियों ने दुनिया भर में आतंकी हमले करने में किया। न स्लीपिंग सेल्स को और न उनके घर वालों का इस बात की जरा भी भनक थी कि इन हमलों को अंजाम देने वाले हम या हमारे परिवार का सदस्य ही था। यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है। क्योंकि यही और इनके परिवार वाले ही इस रोग से लड़ने वाले (कोरोना वैरियर्स)  के ऊपर हमले करते हैं। इन्हीं के कारण से बाध्य होकर सरकार को इन्हें रोकने और सहायता कर्मचारियों की रक्षा के लिए एक बहुत सख्त कानून लाना पड़ा।

दुनिया के साथ-साथ भारत में भी सामाजिक और व्यक्तिगत बेचैनी बढ़ रही है। एक लम्बे समय तक घर में बंद रहने से लोग पकने लगे हैं। आर्थिक चिंता और मानसिक दर्द से अधिकतर लोग परेशान हो रहे हैं, चिंतित हो रहे हैं।  रोज कमाने वाले लोग ही नहीं, मानसिक कमाई करने वाले लोगों को भी नुकसान हो रहा है। लोग इस बात को लेकर बहुत चिंतित हैं कि शायद आने वाले समय में, कुछ समय के लिए या लम्बे समय के लिए बेरोजगार हो जाएँ, उनका व्यापार घाटे में आ जाये या बन्द हो जाये। बहुत से संस्थान जैसे कि सॉफ्टवेयर संस्थान इस बात पर विचार कर रहे हैं कि कैसे, कुछ समय के लिए ही सही, कर्मचारियों की संख्या कम की जाये; क्योंकि अब उन्हे उनकी आवश्यकता नहीं रहेगी या अब वे उनका वेतन दे पाने की स्थिति में नहीं हैं। कपड़ा उद्योग, फैशन उद्योग एवं अन्य कई व्यापारों और उद्योगों की भी यही स्थिति है। इन्हें लगता है कि उनके उत्पादनों की मांग में भारी गिरावट आयेगी। शायद पर्यावरण के शुभचिंतक खुश हैं; वे कह रहे हैं कि यह अच्छा है, वे यही चाहते थे। हाँ, यह बात सही है कि इसकी अवश्यकता है कि लोग अपने कपड़ों, फ़ैशन की, विलासिता के सामग्रियों की आवश्यकताओं को कम करें। लेकिन यह इसके लिए उत्सव मनाने का समय नहीं है। अभी इस प्रकार की बातें बोलने का समय नहीं है, जब बड़ी संख्या में लोग अपनी नौकरियाँ खोने के कगार पर हैं या खो चुके हैं। ऐसा होना चाहिए, यह सही है, लेकिन एक सोची-समझी नीति के अनुसार, सुनियोजित तरीके से ही इसे अंजाम देना होगा। इस तरह से अमानवीय तरीके से नहीं।  इसे एक कसाई की तरह काट कर अलग नहीं करना है, एक डॉक्टर की तरह इसका इलाज करना होगा

एक तरफ चुनौतियाँ कई गुना बढ़ती जा रही हैं दूसरी तरफ देश अपना धैर्य खोते जा रहे हैं। देश लॉक डाउन को बनाये रखने की ताकत खोते जा रहे हैं। बहस लम्बी होती जा रही है। क्या यह लॉक डाउन आवश्यक है? लोग लॉक डाउन के नियमों को ताक पर रख कर बाहर निकलने के लिए बेचैन हैं!  चलो अपने बाहर निकलते हैं! देखें यह वायरस मेरा क्या बिगाड़ लेता है? जो होगा देखा जाएगा! इस प्रकार का साहस लोगों में भर रहा है। लेकिन हमें मालूम होना चाहिए कि लगभग 3 लाख लोग मर चुके हैं। यह संख्या कम नहीं है। यही असली चुनौती है

इससे कैसे निपटा जाये। हमें अपने में बदलाव लाने ही होंगे। हम जैसे रहते हैं, जैसे कार्य करते हैं, उनमें बदलाव लाना होगा। एक तरफ, एक के बाद एक लॉक डाउन करते जाना सम्भव नहीं दिखता। दूसरी तरफ लॉक डाउन में राहत देना, हमें पता नहीं कहाँ ले जायेगा।  लेकिन हम अभी इसी मोड़ पर हैं। हमें सब पहलुओं पर ध्यान देना होगा, विचार करना होगा। कुछ लोग कहते हैं कि यह मानवता को समाप्त कर सकता है, कुछ लोग कहते हैं कि यह हमें आर्थिक रूप से तबाह कर देगा, तो कुछ लोग कहते हैं कि कुछ नहीं होगा, हम बाहर जा सकते हैं, जो चाहें कर सकते हैं, आर्थिक जगत को फिर से चालू कर सकते हैं। और इस प्रकार के हजारों मत हैं और उन्हे सुनना भी महत्वपूर्ण है क्योंकि निश्चित तौर पर कोई भी कुछ भी नहीं कह सकता। एक सही निर्णय लेने के लिये जिन जानकारियों की आवश्यकता है वे उपलब्ध ही नहीं हैं।  उनके अभाव में सही निर्णय नहीं लिया जा सकता क्योंकि किसी के पास भी यह समझ नहीं है कि यह वायरस समाज में क्या कर सकता है और समाज में यह कैसे आगे बढ़ सकता है? लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिन्होने कंगारू निर्णय लिया है और उसके पक्षधर हैं। कंगारू निर्णय, यानि केवल एक पक्ष की बात सुन कर निर्णय लेना, बिना दूसरे पक्ष के बात सुने और उसकी चिंता किये । ऐसे निर्णय लेने वाले लोग पूरी दुनिया में भरे हुवे हैं।  ऐसे लोग केवल एक ही बात सुनना चाहते हैं और कहते हैं कि देखते हैं कि यह काम करता है क्या? लेकिन, हम इस तरह से निर्णय नहीं ले सकते। बहुत से लोगों का जीवन दाँव पर लगा है। यह एक व्यक्ति या एक देश की बात नहीं है। यह पूरी दुनिया की बात है, समस्त मानव की बात है। हमें छोटी से छोटी बात को समझना चाहिए, उस पर विचार करना चाहिए और एक सम्मलित निर्णय पर पहुंचना चाहिए।

हमारे देश, भारत में एक विशेष अवस्था है। बीमार पड़ने वाले लोगों में मरने वालों की संख्या तुलनात्मक ढंग से बहुत कम है और ठीक होने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन क्या यह स्वस्थ्य होने वालों में कोई नुकसान कर रहा है? लम्बे समय को ध्यान में रखें, तो इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? लम्बे समय के बाद ही इसका पता चलेगा। इसका मूल्यांकन बाद में किया जा सकता है। लेकिन कम से कम, अभी तो हम अपने पैरों पर खड़ा करके उन्हे वापस घर  भेज रहे हैं। यह हर्ष की बात है। एक अच्छा संकेत है। हो सकता है कि इस मामले में हम ज्यादा लचीले हों, हमारा इम्यून सिस्टम औरों की तुलना में ज्यादा मजबूत हो! लेकिन अभी हम यह निश्चित तौर पर नहीं कह सकते। उधर दूसरी तरफ अमेरिका में मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। यह एक बेहद चिंता का विषय है। ऐसा क्यों है? जबकि उन्हें चिकित्सा की सुविधा जल्द से जल्द मिल रही है। उन्हे मिलने वाली चिकित्सकीय सुविधा हमारे देश की  तुलना में कई गुना बेहतर है। फिर ऐसा क्यों है? इसकी अलग-अलग कई व्याख्याएँ की गईं। पहले तो यह कहा गया कि मरने वालों में अधिकतर वरिष्ठ लोग हैं; लेकिन फिर आंकड़ों की जाँच-पड़ताल की गई तो यह सही नहीं थी। 40 से 60 उम्र के लोगों के मरने वालों की संख्या भी बहुत है। 40 से कम उम्र के लोगों की  भी मौत हुई है लेकिन उनकी संख्या कम है। दूसरी व्याख्या यह है कि मरने वाले ज्यादातर लोग किसी न किसी लत के शिकार हैं। जिन्हें कोई बुरी लत हो, उनका इम्यून सिस्टम कमजोर होता है, अत: यह एक कारण हो सकता है। लेकिन यह केवल एक अनुमान भर है। यह एक ऐसी चीज है जिसे वैज्ञानिक ढंग से देखने और समझने की जरूरत है। क्या कारण है कि एक ऐसे देश में जिसमें चिकित्सा की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हैं वहाँ मौतें ज्यादा हो रही हैं, बनिस्पत कि उस देश के,  जहां चिकित्सा की वैसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। इस पर अगर ठीक तरह से शोध किया जाये तो शायद इस वायरस के बर्ताव करने के तरीके को समझा जा सकता है। इस वायरस को तीन अलग अलग क़िस्मों में बांटा जा रहा है - ए, बी और सी। यह भी हो सकता है कि ये वायरस के अलग अलग किस्में हैं जिनके कारण यह फर्क पड़ रहा हो या फिर यह लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य की  अलग-अलग स्थिति है जिसके कारण यह फर्क हो रहा है? इसका पता लगाना होगा। तब हमें यह ज्यादा समझ आयेगी कि हमें अपने आप को कैसे संभालना है, हमें कैसे और क्या बदलाव लाने हैं। हमें और किसे क्या करना है और क्या नहीं करना है इसकी सही समझ आयेगी।
इस स्थिति पर आधारित रोजगारी और बेरोजगारी पर विचार करना होगा और यह देखना होगा कि इसे कैसे व्यवस्थित किया जाये। हमें यह सीखना होगा कि हम अपनी जीवन शैली में क्या परिवर्तन कर सकते है। लम्बे समय से चलने वाले लॉक डाउन के कारण हमारी जीवन शैली में बहुत से परिवर्तन आ चुके हैं। हमारे खान-पान में, रहन-सहन में, पहनावे में, काम-काज में, अनेक बदलाव आ चुके हैं और उनके साथ-साथ जीना सीख चुके हैं। हम उन सब के बिना जी रहे हैं, जिन्हें कुछ समय  पहले तक, आवश्यक समझते थे। जिनके बिना हम जीवन की कल्पना तक नहीं कर पा रहे थे, वे सब हम देख रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं, जी रहे हैं। शायद ऐसा सभी के साथ हो रहा है। हमें यह विचार करना चाहिए कि हम अपनी जीवन शैली को कैसे बदलें ताकि कोई बेरोजगार न हो? यानि, नौकरी से हटाने के बजाय सबों के वेतन में कटौती करना, ताकि लोगों को निकालने के बजाय सब कोई 25 से 50 प्रतिशत तक वेतन में कटौती करें ताकि हर किसी के पास रोजगार हो।  इन विशाल लोगों को दूसरे कार्यों में लगाया जा सकता है जिसे हम नज़र अंदाज़ करते आए हैं। जैसे पर्यावरण के कार्य, नीतिगत पहलू, प्रशासन के पहलू, और ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जो होनी चाहिए थीं लेकिन नहीं की गईं, उन्हे किया जा सकता है। अभी जब बाज़ार बन्द हैं, गतिविधियां कम और धीमी हो गई हैं, इन पर ध्यान देने का यही सही समय है। हाँ, यह बोलना जितना आसान है करना उतना ही कठिन है। लोगों को पुनर्गठित करना, लोगों को नई दिशा देना, लोगों को प्रशिक्षित करना, उन्हें इन कार्यों में लगाना आसानी से होने वाला कार्य नहीं है। लेकिन हमें ये सब करने ही होंगे नहीं तो यह परिस्थिति बहुत से लोगों के लिए निर्दयी साबित होगी जिन्हें वायरस ने छुआ भी नहीं है।  
-       श्रद्धेयश्री सद्गुरु जी के व्याख्यान पर आधारित
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शुक्रवार, 15 मार्च 2019

मेरी परेशानी


कठिन काम  को करना आपकी हिम्मत का काम है। उसे करना एक चुनौती होती है। लेकिन एक असंभव कार्य को संभव बनाने का प्रयत्न करना आपकी मूर्खता का प्रमाण है। जो कार्य संभव नहीं है वह कार्य आप करने की कोशिश कर रहे हैं। आप एक ऐसे समाज में सुख और शांति खोजने की कोशिश कर रहे हैं जिसका कोई भी सिरा सुख और शांति से जुड़ा हुआ नहीं है। उसमें आप एक कल्पना कर रहे हो कि कुछ तो ऐसा हो जाएगा कि आप एक अच्छा जीवन जीने लगेंगेएक शांति का जीवन व्यतीत करने लगेंगे। जिसको आनंद कहते हैंवह आनंद का जीवन मिल जाएग। मैं परेशान इस बात से हूँ।

यक्ष ने युधिष्टिर से पूछा कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या हैतो उसने कहा कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि हर आदमी यह जानता है कि उसका अंत होने वाला है लेकिन वह जीने की कोशिश में लगा है। यही दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य है। कुछ इसी तरह का यह सवाल है कि आप जो भी चीज खोज रहे हो समाज मेंचाहे जिस भी नाम से खोज रहे होचाहे जिन भी सवालों के द्वारा खोज रहे हों, वह है नहीं और आप पाने की कोशिश में लगे हो। और बड़ी आशा से लगे हुवे हो। किसी को लगता है कि बहुत सा पैसा कमा लेंगे तो सुख मिल जाएगा। कुछ सोचते हैं कि बहुत सा ज्ञान कमा लें तो उसमें से कुछ निकल आयेगा। नये नये आविष्कार हो रहे हैं। नई-नई तरह-तरह की तकनीक सामने आ रही हैं वे हमारा काम बहुत आसान कर रही हैं। जिस काम के लिए बड़ी मशक्कत लगती थी वह काम अब बड़ी आसानी से हो रहा है। लेकिन जो हो रहा है उसमें से वह चीज नहीं निकल रही है जो हम चाहते हैं। यह अपने आप में ही एक बड़े कौतुक का सवाल है। 

तबमेरी चिंता इस बात पर है कि यह बात कैसे समझी जाए और कैसे समझाई जायेसमझना एक चीज़ है और समझाना एक अलग चीज़ है। मैं एक बात कहता हूँ अपने साथियों से कि तुमने कोई बात समझ ली है”  इसकी कसौटी क्या है? “हाँ हाँ हम यह बात समझ गए हैं। गांधी का क्या विचार है हम समझ गए है।लेकिन आप समझ गए हैं इसकी कसौटी क्या हैइसकी एक बहुत साधारण सी कसौटी है। क्या  यह बात तुम दूसरे को समझा सकते होअगर तुम दूसरे को समझालोगे तो तुमने बात समझ ली है। और नहीं तोएक गजल है:

कभी कभी हमने भी, ऐसे अपना दिल बहलाया है,
जिन बातों को हम खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।

ज्यादा कर हम ऐसी ही बाते करते हैं। ज़्यादातर हम उन बातों को समाज के नये नवजवानों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जिनकी समझ  हमको ही नहीं होती है। एकहमारी भाषा भी काम नहीं करती है। दूसरेहम उनकी भी बातें करते हैं जिन बातों को करने के लिए, हमारे पास तथ्य नहीं है । सबसे बड़ी बात यह है कि जो बात तुम समझा रहे हो उसमें तुम्हारा खुद का विश्वास नहीं है। तब तुम्हारी बात तुरंत नकली हो जाती हैं।

ये सारी चीजें हैं जिनके बीच में से तुमको खोजना हैजिसे हम चाहते हैं। तो गांधी वान्धी को छोड़ कर अगर हम अपनी चिंता थोड़ी ज्यादा करने लगें तो शायद हम अपने  सवालों के जवाब के नजदीक पहुँच पायेंगे। क्योंकि एक बड़ा लंबा जीवन आप सब लोगों ने जीया है, अपनी अपनी तरह से। अपने अपने विचारअपने साधनअपना परिवार। इन सबों को देखते हुए एक ऐसी जगह पहुँच गए हैंहम सभी लोगसामूहिक रूप में जहां हम न खुद को सुरक्षित पा रहे हैं न अपने परिवार को। न अपने खुद के बारे में विश्वास के साथ कुछ कह पा रहे हैंन परिवार के बारे में। तो जिसे दिहाड़ी मजदूर कहते हैं वैसी जिंदगी गुजार रहे हैं। आज का दिन गुजर गया। बसअगला दिन कैसा होगा मालूम नहीं। अगला दिन भी गुजर जाएऐसा कुछ हो जाए तो चलो भगवान का भला अगला दिन भी निकल गया। ऐसे तो समाज नहीं चलता है। ऐसे तो समाज जीता भी नहीं है। इसीलिए हम जी नहीं पा रहे हैं। मुश्किल में पड़े हैं।

इतने सारे प्रतिद्वंद्वी खड़े कर लिए हैं हमने अपने अगल बगल कि लगता है कि हर समय कुरुक्षेत्र में ही खड़े हैं। कोई भी शांति के साथ जीवन का मजा नहीं ले रहा है। युद्ध कभी कभी होता है तब,  शायदअच्छा लग सकता है। लेकिन अगर २४ घंटे ही युद्ध होता रहे तो बोझ लगता हैमुश्किल हो जाती हैजीना कठिन हो जाता है।  

इसमें पहला कदम कौन पीछे खींचता है वही सबसे समझदार आदमी है। आपने नियम ही यह बना दिया है कि कदम पीछे खींचना कायरता है। जब तक आप कदम पीछे नहीं खींचतेऔरों के कदम ऊठेंगे नहीं। यह आप देख रहे हो। फिरकोई तो निर्णय आपको करना पड़ेगा। 

जब मैं यह बात सोचता हूँ तो मेरे लिए हिन्दू, मुसलमान, क्रिश्चियन, सिक्ख, फारसी जैसी कोई बात रहती ही नहीं है। मैं सोचता हूँ कि अगर रहना है तो रहने के लिए कुछ मूलभूत नियम तो बनाने ही पड़ेंगे।  तब कैसे रहोगेइसको सोचना शुरू करोगे तब हम वहीं पहुंचेगे जहां महात्मा गांधी पहुंचे थे। तो मेरे लिए महात्मा गांधी भगवान नहीं हैं। मैं उनकी पूजा नहीं करता हूँ। मैं जिन सवालों से परेशान हूँ उनका समाधान ढूँढता हूँ तो इसी आदमी के पास पहूंचता हूँ। तब सोचता हूँ कि कोई तो बात है भाई। इस आदमी के जवाब खत्म नहीं होते हैं, हमारे प्रश्न खत्म हो जाते हैं। । बस इतनी सी ही बात है जो मुझे परेशान प्रेरित करती है, प्रेरित करती है।
कुमार प्रशांत

शुक्रवार, 29 जून 2018


आपबीती, दुर्घटना के बाद                                                                                         

लगभग तीन-चार सप्ताह गुजर चुके है। कितने  दिन बीते गए हैं ऐसे सन्नाटे में, अब तो मैं यह गिनना भी बंद कर चुकी हूँ। लेकिन जब शुरुआत हुई थी, मुझे लगता था कि भगवान मुझे कौन से पाप की  सजा दे रहा है। इस छोटी सी उम्र में मुझे सुनना बंद हो गया! हर रोज सुबह -शाम, दिन - रात मैं रोती रहती थी और अपने आप को शापग्रस्त अनुभव करती थी। मैं सोचती रहती लाभ होगा या नहीं? सुन पाऊँगी या नहीं? मेरे और मेरे बच्चों के भविष्य का क्या होगा? मैं परिवार में रह पाऊँगी या नहीं? सब नकारात्मक विचार दिमाग में घूमते रहते थे। कहीं कोई भी सकारात्मक विचार नहीं आता था।  लोग बोलते कि हिम्मत मत हारो, सब ठीक हो जाएगा। तब और ज्यादा तनाव होता था। लगता था कि ऐसी कोई बात हो गई है जिस के कारण शायद अब मेरी आगे की जिंदगी समाप्त हो चुकी है।

लेकिन एक दिन अचानक लगा की अभी कुछ सुनाई नहीं देता है और पहले इतना कुछ सुनाई देता था कि ध्यान कर ही नहीं पाती थी। इतनी आवाजों के कारण मन एकाग्र नहीं होता। लेकिन अभी तो मेरे पास कोई आवाज नहीं है, तब ध्यान ही किया जाय। और बस शुरू हो गई। शुरू शुरू में दिक्कत तो हुई, क्योंकि अपने आप को इस अपराधबोध से निकालना कि “मैंने ऐसा क्या पाप किया है” एक बहुत कठिन कार्य था। जब भी ध्यान करने बैठती रोना छूटने लगता था। लेकिन धीरे धीरे साध गया।

मैं बच्चों को पढ़ाया करती थी और इस दौरान मैंने बच्चों को पढ़ाना बंद नहीं किया। मेरा बच्चों के साथ का समय सबसे अच्छा समय है। एक घंटा हो या दो, शुरुआत में मुझे तकलीफ होती थी उन्हे समझने में, उन्हे समझाने में। हमें झुंझलाहट होने लगती थी। उनके आने के एक घंटे पहले से उनका इंतजार रहता था कि हाँ अब वे आने वाले हैं। उनके जाने के बाद थोड़ी थकान हो जाती थी तब मैं सो जाती थी। इससे मेरे दिन के ४-५ घंटे सुंकून से निकल जाते थे।

धीरे धीरे बच्चों के साथ रह कर मुझ में बहुत सकारात्मकता आ गई। जो मुझे पाप लगता था अब मुझे लगने लगा कि यह तो मेरे अच्छे कर्मों का फल है। क्योंकि कोई भी बच्चा चाहे वह इस कप्लेक्स का हो या बाहर का हो, मैं सब को ऐसे ही देखती थी जैसे वह मेरा अपना खुद का बच्चा हो। मैं उनके लिए बहुत करती थी। उनके बारे में सोचती रहती थी कि वो क्या करेगा, कैसे करेगा, कैसा करेगा, ठीक होगा कि नहीं होगा? हर चीज में घुस घुस कर देखती और सोचती थी। लेकिन कभी कभी मेरे मन में प्रश्न उठता था, “क्या ये बच्चे सचमुच में मुझ से इतना प्यार करते हैं जितना प्यार मैं उनको करती हूँ? मैं जितना लोगों का करती हूँ, उन लोगों के बारे में सोचती हूँ क्या उसका एक प्रतिशत भी वे लोग मेरे बारे में सोचते भी हैं? क्योंकि दुनिया यही कहती है कि सब मतलबी हैं। अब, मुझे लगता है कि भगवान ने मुझे समय दिया कि जा खुद ही देख और समझ ले। अब चूंकि मुझे सुनाई देता नहीं है अत: लोगों के मैं समझ पा रही हूँ। आप चाहे जो भी बोलें मेरे लिए, मुझे कहीं न कहीं चेहरे पे ऐसा कुछ नजर आ जाता है जो मुझे बता देता लगता है कि नहीं यह दिखा कुछ और रहा है, बोल कुछ और। सच्चाई जानने का मेरे जिंदगी में इससे बढ़िया मौका शायद और कोई नहीं है।

पहली उपयोगिता लोगों की पहचान। साधारणतया यह अवस्था ५०-६० वर्ष की उम्र में आती है। तब, जब हम बहुत कमजोर हो जाते हैं, मानसिक या शारीरिक रूप से। बहुत लोगों को तो मृत्यु शैय्या पर यह अनुभव होता है कि कौन आपका शुभचिंतक है, किसका आपको सहारा है? लेकिन अब भगवान मुझे अपने आप बता देते हैं कि देख-देख ये तेरे बारे में क्या कहते हैं, “मैं तुम्हारे लिए हर मुसीबत में खड़ा रहूँगा” लेकिन सोचते क्या हैं? बहुत लोग थे जिनसे मुझे आशा थी लेकिन उन्होंने मुझे एक संदेशा तक नहीं भेजा। अब मेरे लिए यह अलग अलग करना इतना आसान हो गया है। मुझे उन लोगों से कोई असुविधा नहीं है, शिकवा नहीं है, नकारत्मकता नहीं है लेकिन मेरे लिए यह एक आत्मबोध है, अनुभूति है।  मिलना तो अब भी उन सौ से ही है, लेकिन अब देखना सिर्फ दस को है। उन सौ के कारण मेरे पास हर समय समय की किल्लत रहती थी अब उन दस को मैं समय दे पाऊँगी।

दूसरी उपयोगिता जो मुझे  अब समझ में आई कि मैं जो यह सोच रही थी,  “भगवान मुझे न जाने कौन से पाप की सजा दे रहे हैं” अब तो मुझे यह पाप की सजा लग ही नहीं रही है। मुझे तो यह लग रहा है कि यह तो मुझे मेरे अच्छे कर्मों का फल मिल रहा है। आप लोग जो भी पूजा पाठ, मंत्र जाप हवन आदि के बारे में इसे पाप समझ कर सोच रहे थे, ऐसा अब मत सोचिए। मुझे विश्वास है कि जिस दिन भगवान चाहेगा उस दिन यह ठीक हो जाएगा। भगवान ने हो सकता है मुझे कुछ दिनों के लिए ही ऐसा बनाया हो ताकि मेरी बेबुद्धि वाली जितनी बातें थीं वे सब ठीक हो जाए। मुझे सब समझ आ जाए। और मुझे एक नई जिंदगी मिल जाए। सबसे अच्छी बात यह है कि मैं अब किसी से भी, चाहे वे कुछ भी करें, घृणा नहीं करती। कोई, कब, क्या, कैसे करता है? नहीं पता। वह केवल कुछ परिस्थितियों के वश कुछ करता है। हम लोग इसे लेकर इसका इतना विश्लेषण करते हैं, क्यों करते हैं? हम क्यों अपने आप की जांच नहीं करते? क्या हम अपनी तरफ से अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं? अब सब मैंने देखा, समझा, अनुभव किया। जिसे शायद लोगों को अपनी पूरी जिंदगी में नहीं मिलती, वह मुझे अभी ही इतने सहज रूप में मिल गई।

तीसरी, “जियो दिल से, दिल खोल कर” का पूरा अर्थ समझ में आ गया। जो सुनना था सुन लिया, हो सकता है अब और कुछ नहीं सुन सकूँ। लेकिन मैंने दिल खोल कर जिया। दिल के अरमान कभी कल के लिए नहीं टाला। हर वह चीज की जिसकी तमन्ना थी। पता नहीं, जिंदगी न मिले दोबारा।

मैं बहुत बहुत खुश हूँ कि ईश्वर ने मुझे इस उम्र में मुझे यह मौका दिया कि मैं यह समझ सकूँ। हे ईश्वर आपको ध्न्यवाद है। आपको धन्यवाद  सब कुछ के लिए। उन सब के लिए जो अपने किया या नहीं किया, जो दिया या नहीं दिया।