शुक्रवार, 29 जून 2018


आपबीती, दुर्घटना के बाद                                                                                         

लगभग तीन-चार सप्ताह गुजर चुके है। कितने  दिन बीते गए हैं ऐसे सन्नाटे में, अब तो मैं यह गिनना भी बंद कर चुकी हूँ। लेकिन जब शुरुआत हुई थी, मुझे लगता था कि भगवान मुझे कौन से पाप की  सजा दे रहा है। इस छोटी सी उम्र में मुझे सुनना बंद हो गया! हर रोज सुबह -शाम, दिन - रात मैं रोती रहती थी और अपने आप को शापग्रस्त अनुभव करती थी। मैं सोचती रहती लाभ होगा या नहीं? सुन पाऊँगी या नहीं? मेरे और मेरे बच्चों के भविष्य का क्या होगा? मैं परिवार में रह पाऊँगी या नहीं? सब नकारात्मक विचार दिमाग में घूमते रहते थे। कहीं कोई भी सकारात्मक विचार नहीं आता था।  लोग बोलते कि हिम्मत मत हारो, सब ठीक हो जाएगा। तब और ज्यादा तनाव होता था। लगता था कि ऐसी कोई बात हो गई है जिस के कारण शायद अब मेरी आगे की जिंदगी समाप्त हो चुकी है।

लेकिन एक दिन अचानक लगा की अभी कुछ सुनाई नहीं देता है और पहले इतना कुछ सुनाई देता था कि ध्यान कर ही नहीं पाती थी। इतनी आवाजों के कारण मन एकाग्र नहीं होता। लेकिन अभी तो मेरे पास कोई आवाज नहीं है, तब ध्यान ही किया जाय। और बस शुरू हो गई। शुरू शुरू में दिक्कत तो हुई, क्योंकि अपने आप को इस अपराधबोध से निकालना कि “मैंने ऐसा क्या पाप किया है” एक बहुत कठिन कार्य था। जब भी ध्यान करने बैठती रोना छूटने लगता था। लेकिन धीरे धीरे साध गया।

मैं बच्चों को पढ़ाया करती थी और इस दौरान मैंने बच्चों को पढ़ाना बंद नहीं किया। मेरा बच्चों के साथ का समय सबसे अच्छा समय है। एक घंटा हो या दो, शुरुआत में मुझे तकलीफ होती थी उन्हे समझने में, उन्हे समझाने में। हमें झुंझलाहट होने लगती थी। उनके आने के एक घंटे पहले से उनका इंतजार रहता था कि हाँ अब वे आने वाले हैं। उनके जाने के बाद थोड़ी थकान हो जाती थी तब मैं सो जाती थी। इससे मेरे दिन के ४-५ घंटे सुंकून से निकल जाते थे।

धीरे धीरे बच्चों के साथ रह कर मुझ में बहुत सकारात्मकता आ गई। जो मुझे पाप लगता था अब मुझे लगने लगा कि यह तो मेरे अच्छे कर्मों का फल है। क्योंकि कोई भी बच्चा चाहे वह इस कप्लेक्स का हो या बाहर का हो, मैं सब को ऐसे ही देखती थी जैसे वह मेरा अपना खुद का बच्चा हो। मैं उनके लिए बहुत करती थी। उनके बारे में सोचती रहती थी कि वो क्या करेगा, कैसे करेगा, कैसा करेगा, ठीक होगा कि नहीं होगा? हर चीज में घुस घुस कर देखती और सोचती थी। लेकिन कभी कभी मेरे मन में प्रश्न उठता था, “क्या ये बच्चे सचमुच में मुझ से इतना प्यार करते हैं जितना प्यार मैं उनको करती हूँ? मैं जितना लोगों का करती हूँ, उन लोगों के बारे में सोचती हूँ क्या उसका एक प्रतिशत भी वे लोग मेरे बारे में सोचते भी हैं? क्योंकि दुनिया यही कहती है कि सब मतलबी हैं। अब, मुझे लगता है कि भगवान ने मुझे समय दिया कि जा खुद ही देख और समझ ले। अब चूंकि मुझे सुनाई देता नहीं है अत: लोगों के मैं समझ पा रही हूँ। आप चाहे जो भी बोलें मेरे लिए, मुझे कहीं न कहीं चेहरे पे ऐसा कुछ नजर आ जाता है जो मुझे बता देता लगता है कि नहीं यह दिखा कुछ और रहा है, बोल कुछ और। सच्चाई जानने का मेरे जिंदगी में इससे बढ़िया मौका शायद और कोई नहीं है।

पहली उपयोगिता लोगों की पहचान। साधारणतया यह अवस्था ५०-६० वर्ष की उम्र में आती है। तब, जब हम बहुत कमजोर हो जाते हैं, मानसिक या शारीरिक रूप से। बहुत लोगों को तो मृत्यु शैय्या पर यह अनुभव होता है कि कौन आपका शुभचिंतक है, किसका आपको सहारा है? लेकिन अब भगवान मुझे अपने आप बता देते हैं कि देख-देख ये तेरे बारे में क्या कहते हैं, “मैं तुम्हारे लिए हर मुसीबत में खड़ा रहूँगा” लेकिन सोचते क्या हैं? बहुत लोग थे जिनसे मुझे आशा थी लेकिन उन्होंने मुझे एक संदेशा तक नहीं भेजा। अब मेरे लिए यह अलग अलग करना इतना आसान हो गया है। मुझे उन लोगों से कोई असुविधा नहीं है, शिकवा नहीं है, नकारत्मकता नहीं है लेकिन मेरे लिए यह एक आत्मबोध है, अनुभूति है।  मिलना तो अब भी उन सौ से ही है, लेकिन अब देखना सिर्फ दस को है। उन सौ के कारण मेरे पास हर समय समय की किल्लत रहती थी अब उन दस को मैं समय दे पाऊँगी।

दूसरी उपयोगिता जो मुझे  अब समझ में आई कि मैं जो यह सोच रही थी,  “भगवान मुझे न जाने कौन से पाप की सजा दे रहे हैं” अब तो मुझे यह पाप की सजा लग ही नहीं रही है। मुझे तो यह लग रहा है कि यह तो मुझे मेरे अच्छे कर्मों का फल मिल रहा है। आप लोग जो भी पूजा पाठ, मंत्र जाप हवन आदि के बारे में इसे पाप समझ कर सोच रहे थे, ऐसा अब मत सोचिए। मुझे विश्वास है कि जिस दिन भगवान चाहेगा उस दिन यह ठीक हो जाएगा। भगवान ने हो सकता है मुझे कुछ दिनों के लिए ही ऐसा बनाया हो ताकि मेरी बेबुद्धि वाली जितनी बातें थीं वे सब ठीक हो जाए। मुझे सब समझ आ जाए। और मुझे एक नई जिंदगी मिल जाए। सबसे अच्छी बात यह है कि मैं अब किसी से भी, चाहे वे कुछ भी करें, घृणा नहीं करती। कोई, कब, क्या, कैसे करता है? नहीं पता। वह केवल कुछ परिस्थितियों के वश कुछ करता है। हम लोग इसे लेकर इसका इतना विश्लेषण करते हैं, क्यों करते हैं? हम क्यों अपने आप की जांच नहीं करते? क्या हम अपनी तरफ से अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं? अब सब मैंने देखा, समझा, अनुभव किया। जिसे शायद लोगों को अपनी पूरी जिंदगी में नहीं मिलती, वह मुझे अभी ही इतने सहज रूप में मिल गई।

तीसरी, “जियो दिल से, दिल खोल कर” का पूरा अर्थ समझ में आ गया। जो सुनना था सुन लिया, हो सकता है अब और कुछ नहीं सुन सकूँ। लेकिन मैंने दिल खोल कर जिया। दिल के अरमान कभी कल के लिए नहीं टाला। हर वह चीज की जिसकी तमन्ना थी। पता नहीं, जिंदगी न मिले दोबारा।

मैं बहुत बहुत खुश हूँ कि ईश्वर ने मुझे इस उम्र में मुझे यह मौका दिया कि मैं यह समझ सकूँ। हे ईश्वर आपको ध्न्यवाद है। आपको धन्यवाद  सब कुछ के लिए। उन सब के लिए जो अपने किया या नहीं किया, जो दिया या नहीं दिया।

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