शुक्रवार, 8 जून 2018

इमानदार हैं तो क्या हुआ?                                                                                                       

डाक्टरशम्भूनाथ साहित्य के प्रति लोगों की  बेरुखी की पीड़ा वागर्थ में कुछ इस तरफ व्यक्त करते हैं, “शिक्षित लोगों को साहित्य की जरूरत महसूस न होने की कई वजहें हैं। उनके जीवन और अवकाश के क्षणों को घेरने के लिए सतही मनोरंजन और राजनीतिक चीजें जैसे-जैसे ज्यादा होती गईं, साहित्य का स्थान सिकुड़ता गया। ऐसी चीजें चमक, आकर्षण और भुलावे से भरी होती हैं। आज शिक्षित लोगों को साहित्य की जरूरत इसलिए भी महसूस नहीं होती है कि वे हर चीज को उपयोगितावादी नजरिए से देखने लगे हैं, साहित्य पढ़ कर क्या मिलेगा? कुछ भी करके क्या मिलेगा, यह उपयोगितवाद है जो बुद्धिवाद ही नहीं, मनुष्यता का भी शत्रु है। आज कोई काम करने से पहले आदमी सोचता है कि उसे क्या मिलेगा? यदि न्याय की  बात है, सच बोलना है तो पहला प्रश्न है, क्या मिलेगा? अगर झूठ एक बड़ा दाता है तो आज लोगों की नजर में सच की तुलना में  झूठ की उपयोगिता ज्यादा है। झूठ ही आज का हीरो है, साहित्य जीरो है। कहना न होगा कि सच हर जगह से हार कर साहित्य में ही सांस लेता है।” सत्य बोलना, ईमानदार होना कोई उपलब्धि नहीं है अगर उससे किसी भी प्रकार का अर्थोपार्जन नहीं होता, ख्याति नहीं मिलती। इनका हाल एक वेश्या की तरह है जिसे चाहते सब हैं लेकिन अपनाता कोई नहीं।

श्री अशोक वाजपेयी का दर्द भी लगभग वैसा ही है, “हम बहुत हिसाबी किताबी हो गए हैं। हमारे जमाने में भी अफसरों के बीच में यह बातें होती थीं कि भाई ईमानदार हुए तो क्या हुआहासिल क्या हुआ? वह ऑफिसर ईमानदार है तो न ठीक से उन्नति हुईन ठीक जगह पोस्टिंग हुईन उसका नोएडा में संगमरमर का महल बना। न उसके बच्चे अमेरिका पढ़ने गए। तबईमानदार हो कर क्या कियाजब ऐसी दुनिया बन गई होऐसी मानसिकता बन गई होकि हरेक चीज से कुछ न कुछ हासिल होगा। ईमानदार को क्या जरूरत है और कुछ हासिल करने की? ईमानदार है तो आदमी ईमानदार है। इतना काफी है। लेकिन उसको भी ईमानदारी से कुछ नहीं मिलता तो हमारा ये हिसाबी किताबी दिमाग बन गया है। उसमें साहित्य से भी कुछ नहीं मिलता। क्या हासिल होगाकुछ नहीं। बहुत हुआ तो आप थोड़े बहुत सभ्य हो जाएंगे। फिर वही प्रश्नसभ्य होने से क्या हासिलउस से टालीगंज में कोई बंगला थोड़े ही बन जाएगाहासिल वाली जो जहमीयत है कि हर चीज से कुछ हासिल होना चाहिएतो साहित्य से कुछ भी हासिल नहीं होता। ऑस्कर वाइल्ड ने एक बार कहा थाall artists are useless” (सब चित्रकार बेकार हैं)। यह उसने तंग आकर कहा थाक्योंकि हर कोई पूछता था कि इससे फायदा क्या हैहमको इससे मिलेगा क्यामिलेगा तो कुछ भी नहीं।” यानि कुछ मिले नहीं तो ईमानदार नहीं होना है।

शिक्षण संस्थाएं यह नहीं बताती कि उनके यहाँ शिक्षक कैसे हैं और शिक्षा कि क्या सुवधा उपलब्ध है? बच्चे के सर्वागीण विकास कि क्या सुविधा प्राप्त है? वे तो यह बताती हैं कि उनके यहाँ पढे बच्चे कितना कमा रहे हैं। उन्हे कहाँ नौकरी मिली। जिस दुनिया में शिक्षा का यह उद्देश्य हो वहाँ से पढे बच्चों के लिए पैसा ही सब कुछ होना स्वाभाविक है।
क्या हम ऐसा ही समाज चाहते हैं? एक बार्बर जाति?

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