शनिवार, 2 दिसंबर 2017

सूतांजली दिसंबर २०१७

सूतांजली                            ०१/०५                            ०१.१२.२०१७
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सुख की सीमा
जन्म से मृत्यु पर्यंत हम एक ही  चीज ढूंढते रहते हैं सुख। और ज्यादा सुख और ज्यादा आनंद। लेकिन यह सहज ही उपलब्ध वस्तु हमें मिल नहीं पाती। इसकी परिणिति दुख में ही होती है। संत कहते हैं कि असीम सुख की प्राप्ति ईश्वर प्राप्ति में ही है। इसलिए हमें ईश्वर का ही ध्यान करना होगा। वही हमें मनोवांछित सुख दे सकता है। हम इसे सुनते हैं लेकिन ग्रहण नहीं कर पाते और सुख की मरीचिका में भटकते रहते  हैं। आइए थोड़ा विचार करते हैं इस कथन पर।

एक बार बात समझने के लिए हम मान लेते हैं कि एक संत अभी इसी क्षण हमारे सामने प्रगट हों और कहे, “ईश्वर ने मुझे विशेष शक्ति प्रदान की है। मांगो, तुम्हें क्या चाहिए। अभी जो मांगोगे तुम्हें दिलवा सकता हूँ
"सुख चाहिए देव।”
“अरे यह तो बहुत साधारण वर है। अभी दे सकता हूँ। बोलो कितना सुख चाहिए, कितना किलो-टन या किलो मीटर – योजन मील या किलो लीटर-लीटर? प्रश्न बड़ा अटपटा सा लगा लेकिन हिम्मत करके पूछ लिया, “कितना मतलब, जितना मिल जाय। इसकी कोई सीमा तो होती नहीं है?”
“सीमा  तो हर किसी की है, खैर तुम्हें अनन्त सुख चाहिए। यह अनन्त सुख तुम्हें कहाँ चाहिए? घर पर, ऑफिस में, होटल में, सफर में, शहर में, परदेश में या कहीं और?”
यह भी कोई प्रश्न हुआ। मैं बड़बड़ाया। कहा, “हर जगह। जहां जहां मैं जाऊँ, रहूँ, घूमूँ, बैठूँ, चलूँ, सोऊँ, कहीं भी।”
 ओ अच्छा तो तुम्हें अनन्त सुख अनन्त जगहों पर चाहिएउन्होने पूछा।
“हाँ भाई हाँ यह भी कोई पूछने की बात है,मुझ से रहा नहीं गया।”
 "चलो ठीक है। तब तुम्हें अनन्त सुख अनन्त  जगहों पर चाहिए।
लेकिन यह चाहिए कब? आज-कल-परसों-या किसी और दिन –सुबह –शाम-रात, कब?”
यह भी कोई प्रश्न है, मैं  झल्ला उठा, “कब मतलब? हर समय चाहिए, हर रोज चाहिए, मृत्यु पर्यंत चाहिए। और इसके पहले कि तुम और कोई बेहूदा प्रश्न करो मैं यह भी बता देता हूँ कि मेरी मृत्यु कब होगी यह मुझे नहीं पता लेकिन चाहिए आखिरी सांस तक।
अरे नाराज क्यों हो रहे हो! मुझे समझ  लेने दो कि तुम्हें चाहिए क्या? नहीं तो बाद में कहोगे तुम्हें वह नहीं मिला जो तुमने मांगा था। अब बस और एक अंतिम प्रश्न। तुम्हें यह अनन्त सुख अनन्त
जगहों पर अनन्त समय किससे चाहिए? माँ बाप से, बेटा बेटी से, पति पत्नी से, दोस्त कर्मचारी से, संबंधी पड़ोसी से, मालिक नौकर से किससे? समझ रहे हो न?” 
मेरा पारा सातवें आसमान पर पहुँच चुका था। चिल्ला कर बोला,
“माँ बाप, बेटा बेटी, पति पत्नी, दोस्त कर्मचारी, संबंधी पड़ोसी, मालिक नौकर इन सबों से। बल्कि उस सबों से जिनसे मैं मिल चुका हूँ और भविष्य में जिन जिन से मिलूंगा उन सबों से। समझे?”
एक लंबी सांस लेते हुवे उसने कहा, “तुम्हें अनन्त सुख, अनन्त समय, अनन्त जगहों पर, अनन्त लोगों से चाहिए। वत्स यहाँ तो सब क्षणभंगुर है एकमात्र ईश्वर ही अनन्त है यानि तुम ईश्वर की ही कामना रखते हो।हम सबसे सुख चाहते हैं और चैतन्य सुख चाहते हैं। अब अगर हम कुरेदें अपनी समझ को, अपने मस्तिष्क को जिस पर परतें पड़ी हुई हैं तो हमें तुंरत यह स्पष्ट हो जाएगा कि जाने अनजाने हम परमात्मा को ही चाह रहे हैं। वही असीम और अनादि है। हम समझें या न समझें हमारी चाह परमात्मा की ही है। लेकिन अपनी नासमझी के कारण हम सीमित सुख के पीछे दौड़ना शुरू कर देते हैं और  सीमित सुख का अंत हर समय दुःख में ही होता है।

                                                                          मैंने पढ़ा
सहिष्णुता
दस्तोबा दास्ताने                  ( आचार्यकुल सितंबर २०१७)
विनोबाजी ने विभिन्न शास्त्रों, धर्मों और भाषाओं का अभ्यास किया है, लेकिन उसके पीछे विद्वत्ता नहीं बल्कि अध्यात्म की उनकी दृष्टि रही है। हम विध्यार्थियों को मराठी, संस्कृत या अँग्रेजी पढ़ते थे तो आध्यात्मिक ग्रन्थों के द्वारा पढ़ाते थे, जिससे भाषा के साथ साथ आत्मज्ञान की ख़ुराकी भी हमें मिलती रही। मराठी में ज्ञानदेव-तुकाराम, असमी में नामघोष, बंगाली में गुरुदेव और चैतन्य महाप्रभु की वाणी, गुजराती में गांधी की वाणी, पंजाबी में जपुजी, अँग्रेजी में बाइबिल, संस्कृत में गीता और उपनिषद, अरबी में राहुल और कुरान, तमिल में तिरुक्कुरल ऐसे उनके अध्ययन के ग्रंथ रहे। अनेक भाषाओं का भी अध्ययन किया तो सिर्फ भाषा ज्ञान के ख्याल से नहीं, बल्कि उस भाषा के संत वाङ्ग्मय का अवगाहन करने के ख्याल से। और इन ग्रन्थों में से सारभूत अंश चुनकर जिज्ञासुओं के लिए उन्होने मक्खन ही निकाल दिया है। उनकी भूदान यात्रा जिस प्रदेश के संतों के जो ग्रंथ उस प्रदेश की आम जनता में प्रचलित थे उन्ही ग्रन्थों में से चुनिन्दा उद्धरण वे अपनी आम सभाओं में लोगों को सुनाकर समझाते थे विनोबाजी के मुंह से उन ग्रन्थों के उद्धरण ......... अपनी भाषा में सुनकर लोगों को उनके प्रति सहज आत्मीयता हो जाती थी।                           

शिक्षा का उद्देश्य मात्र सांसरिक और भौतिक ज्ञान नहीं है बल्कि उससे आगे बढ़ कर सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक ज्ञान भी है इसके बिना मानव अधूरा है।
 
कर्तव्य पालन
                                                                       प्यारेलाल   (पूर्णाहुति पृ.  २२७)
पटना के रेलवे स्टेशन पर बिहार के मंत्रीगण गांधीजी से मिलने आए। गाड़ी की सीटी बजने ही वाली थी। परंतु उनकी बातें खतम नहीं हुई थीं। स्टेशन मास्टर असमंजस में पड़ गया। वह सकुचाता हुआ आया। उसने पूछा कि गाड़ी चलाने का संकेत दिया जाय? गांधीजी ने कुछ बिगड़ कर जवाब दिया,आप और किसी मुसाफिर के पास जाकर उससे आदेश नहीं लेते, तो फिर यह अपवाद क्यों? आपको अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए और मंत्रियों से डरना नहीं चाहिए। इससे उनका और आपका भला भी होगा। उन्हे नियम की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, अन्यथा लोकतन्त्र छिन्न भिन्न हो जाएगा।"

स्टेशन मास्टर ने सादर प्रणाम किया और विदा होते होते साहस करके कहा, “यदि आपकी तरह अनुशासन पालने करने वाला एक भी व्यक्ति प्रत्येक विभाग में हो, तो सारे प्रशासन की शकल ही बदली हो जाए। आप नहीं जानते कि बेचारे सरकारी नौकर अपने अफसरों की इच्छानुसार कम न करें, तो उन्हे क्या कीमत चुकनी पड़ती है। मेरी ४० साल की नौकरी में यह मेरा पहला अनुभव है कि किसी ने अपने व्यक्तिगत उदाहरण द्वारा हमें निर्भय होकर कर्तव्य पालन करने का पदार्थ-पाठ पढ़ाया हो। इसीलिए हम आपको राष्ट्रपिता कहते हैं ।

सिग्नल दे दिया गया। गाड़ी गांधीजी को कलकत्ते की दिशा में ले चली।

ब्लॉग विशेष

आजकल खबरें बिजली की गति से चलती हैं। यह पत्रकारिता पाठक की आँख से होते हुए सीधे उसकी जेब में उतरना चाहती है। ऐसे में सन १८९८ में दक्षिण अफ्रीका में खुले एक छापेखाने को याद किया जा सकता है। इसी छापेखाने ने मोहनदास नाम के एक २९ साल के वकील को मंजा हुआ पत्रकार बना दिया था। खबरों और जानकारी की गति का गुलामी से क्या संबंध होता है, यह मोहनदास करमचंद को समझ आ गया था। साम्राज्यवाद और औद्योगीकरण के शोषण टिके थे खबरों, सूचनाओं और जानकारी की मशीनी गति पर। इस दुर्गति से बचाने के लिए मोहनदास करमचंद गांधी ने एक बड़ा विचित्र उपाय सूझा। क्यों न जानकारी देने और पढ़ने की रफ्तार को धीमा किया जाए, मनुष्य के शरीर और मन की गति के हिसाब से? खबरें पाठक की आंखो से होते हुए उसके मन में क्यों न उतरें? इस पत्रकारिता में थे सत्याग्रह और स्वराज के बीज।

धीमी पत्रकारिता का सत्याग्रही संपादक, इसबेल हौफ़्मायर,
   गाँधी मार्ग, मार्च-अप्रैल २०१६, पृ.४९
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बुधवार, 1 नवंबर 2017

सूतांजली, नवंबर २०१७

सूतांजली                                                    ०१/०४                             ०१.११.२०१७
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मंथन
कुछ समय पहले की एक घटना है। कुछ समय, यानि कई एक वर्ष। एक पारिवारिक उत्सव पर हमारा पूरा परिवार जमा था। युवाओंबच्चों, बच्चियोंबहुओं का एक झुंड एक तरफ बैठा था। उसीके समीप हम बुजुर्ग भी बैठे बतिया रहे थे। आदतन मेरा मन जल्दी से बुजुर्गों के बीच कम लगता है। अत: बैठा भले ही उनके साथ था लेकिन मेरे कान बगल में बैठे युवाओं की बातों में घुसपैठ कर रहे थे।
आजकल चलते फिरते दुकानों में हर समय गरमा गरम सामान खाने को मिल जाता है, एक ने कहा।
हाँदुकानों में माइक्रोवेव ओवेन रहता है। जो भी मांगो हाथों हाथ गरम करके देते हैंदूसरे ने टिप्पणी की।
दूध का भी कितना आराम हो गया है। दिन भर जब चाहो एकदम ताजा दूध मिल जाता हैतीसरी ने कहा।
मुझसे रहा नहीं गया और मैं उस दल की ओर मुखातिब हुआ, “मुझे एक संदेह है। गरम खाना किसे कहते हैं? उसे जिसे अभी पकाया गया हो या उसे जिसे अभी फिर से गरम किया गया हो?
एक सन्नाटा पसर गया। इसका फायदा उठाते हुवे मैंने दूसरा प्रश्न दाग दिया, “तुम लोग ताजा दूध की बात कर थे।  ताजा दूध किसे कहते हैं जिसे कुछ समय पहले दूहा गया हो? या गुजरात से अभी कोलकाता पहुंचा हो?या वितरक के हाथों घूमता हुआ दुकान में आया हो? या अभी जिसे हम दुकान से खरीद कर लाये हों? धरोष्ण दूध किसे कहते हैं, जानते हो?
इस बार सन्नाटे को चीरती हुई एक टिप्पणी आई, “अंकल, अब आप बूढ़े हो गये हैं, अपनी कुर्सी वापस उधर घुमा लीजिये।
शायद कुछ समय बाद बच्चे यह भी कहने लगें कि वे अमूल का दूध पीते हैं
परिभाषाएँ बदल गई हैं। मान्यताएँ विस्मृत हो गई हैं। सुविधायेँ  हावी हो गई है। पूरा संसार मुट्ठी भर परिवारों की जागीर हो गई है। हम अनजाने वही देखने, सोचने और करने को मजबूर हैं जो वे चाहते हैं। गांधी ने इसी के मद्देनजर मशीनों का बहिष्कार करने का सुझाव दिया था। उन्हे कार्य की सुविधा से नहीं संसाधनों के केंद्रीय करण पर एतराज था। फोर्बेस के आंकड़ों के अनुसार विश्व का ५० प्रतिशत संसाधन सिर्फ ८५ व्यक्तियों के हाथों में हैं।


                                                                                                 मैंने पढ़ा
प्रश्न पूछो ध्यान से
अहा जिंदगी, जुलाई २०१७आंद्रे मोक्विर्ज़, पृ. ७९
जीवन की निराशाओं का एक बड़ा कारण यह है कि हम ऐसे प्रश्नों के समाधान ढूंढते हैं, जो प्रश्न स्वयं ही गलत हैं। हमारा प्रश्न होता है, “मुझे ऐसा प्रेम पात्र कैसे मिले, जो सब प्रकार से सुंदर हो, निर्दोष हो और निस्वार्थ हो?ऐसी कौन-सी व्यवस्था हम खोज निकालें कि हमारे देश में सदा के लिए सब प्रकार कि समृद्धि और शांति स्थापित हो जाए? “मैं कौन सा पेशा अपनाऊँ कि ऊंचे से ऊंचे पद पर पहुँच जाऊँ? जो व्यक्ति अपनी समस्याओं को इस रूप में रखते हैं, उनके लिए कोई भी व्यक्ति संतोषप्रद समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकता। तो फिर प्रश्न का सही रूप क्या हो? यह मैं ऐसा प्रेम पात्र कहाँ पाऊँ जो मेरी ही तरह कमजोरियाँ रखता हो, किन्तु जिसके साथ पारस्परिक सद्भावना के आधार पर प्रगाढ़ मैत्री का संबंध स्थापित किया जा सके, जो हमें संसार के आघातों को सहने की  शक्ति दे? मेरा देश कौन से गुण प्राप्त करने के लिए कठोर श्रम करे कि उसका अस्तित्व खतरे में न पड़े?मैं अपना समय और शक्ति किन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अर्पित करूँ कि आत्म विश्वास के साथ उनकी प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकूँ।   
  गीता के (४.३४)   श्लोक का हरि गीतामें अनुवाद है
सेवा विनय प्रणिपात पूर्वक प्रश्न पूछो ध्यान से ।
उपदेश देंगे तब ज्ञान का तत्व-दर्शी ध्यान से ।।

परवरिश बच्चों को लीडर बनाओ
अहा! जिंदगी, सितंबर २०१७ पृ २९, डॉ.अबरार मुल्तानी
थॉमस एल्वा एडिसन प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे। एक दिन स्कूल से घर आए और माँ को एक कागज देकर कहा,टीचर ने दिया है। उस कागज को पढ़कर माँ की आँखों में आँसू आ गए। एडिसन ने पूछा क्या लिखा है? आँसू पोंछ कर माँ ने कहा इसमें लिखा है – “आपका बच्चा जीनियस है। हमारा स्कूल छोटे स्तर का है और शिक्षक बहुत प्रशिक्षित नहीं है, इसे आप स्वयं शिक्षा दें।कई वर्षों बाद माँ गुजर गई। तब तक एडिसन प्रसिद्ध वैज्ञानिक बन चुके थे।
एक दिन एडिसन को अलमारी के कोने में एक कागज का टुकड़ा मिला। उन्होने उत्सुकतावश उसे खोल कर पढ़ा। यह वही कागज था, जिसे टीचर ने दिया था। उसमें लिखा था, “आपका बच्चा  बौद्धिक तौर पर कमजोर है। उसे स्कूल न भेजें।
एडिसन घंटो रोते रहे .... फिर अपनी डायरी में लिखा, “एक महान माँ ने बौद्धिक तौर पर कमजोर बच्चे को सदी का महान वैज्ञानिक बना दिया।
महान थॉमसन एल्वा का उदाहरण यह बताता है कि हमारे बच्चों में छुपी प्रतिभा को बच्चे के अभिभावक ही समझ पाते हैं। अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने उत्तरदायित्व को समझें। न दूसरों पर निर्भर हों और न अपनी इच्छा उनपर थोपें। खुद बच्चों पर ध्यान दें और उनमें छिपी प्रतिभा को निखारें। 

                                            मैंने सुना
श्रद्धेय आचार्य श्री नवनीत जी
श्री अरविंद आश्रम, दिल्ली शाखा, नैनीताल, जून २०१७
प्रश्न : क्या पूजा पाठ एक घंटे करना आवश्यक है?
उत्तर: ४८ मिनट का एक मुहूर्त होता है। एक मान्यता है कि आप जब कोई भी कार्य करते हैं तो उसे कम से कम एक मुहूर्त तक करें ताकि उस कार्य की गहराई तक पहुंचा जा सके। या फिर आप कबड्डी की तरह भी कर सकते हैं। सांस बंद कर दौड़ते हुवे आए और छू कर वापस भाग लिए। ऐसे भी दर्शन हो सकता है और पूजा भी। लेकिन इसे तो हम कबड्डी पूजा / दर्शन ही कहेंगे। इसे हम बुरा नहीं कहते हैं लेकिन उसका अपना उद्देश्य और परिणाम है। लेकिन ४८ मिनट, जो एक घंटे के करीब हैमें चित्त  शांत हो कर निश्छलता प्राप्त होती है। यह एक नियम सा है लेकिन इसके अपवाद हैं।
एक बच्चा एक कवि से पूछता है, “मुझे आप जैसा कवि बनना है। इसके लिए मैं क्या करूँ?
कवि ने कई एक कवियों का नाम बताते हुवे कहा कि इनकी पुस्तकें पढ़ो और लिखने की कोशिश करो शायद कवि बन जाओगे।
बच्चा फिर पूछता है, “आपने कौन से कवियों की पुस्तक पढ़ी थी?
मैंने तो किसी को नहीं पढ़ा।
अरे! जब आप नहीं पढ़े तो मुझे पढ़ने क्यों बोल रहे हो?
प्यारे बच्चे मेरे मन में कवि बनने का प्रश्न उठा ही नहीं। मैंने कविता लिखनी शुरू कर दी, लोगों ने बताया कि मैं एक कवि हूँ और अच्छी कवितायें लिखता हूँकवि ने कहा।
इसे अपवाद कहते हैं, अन्यथा अपवाद अपवाद नहीं सुविधाहो जाती है।

ब्लॉग में विशेष
विकास का मतलब
इवान इलिच, गांधी मार्ग, सितंबर-अक्तूबर २०१५ पृ.२०१५
अब यह मांग बढ़ रही है कि अमीर देश शस्त्र आदि पर खर्च करना रोक कर पिछड़े देशों के विकास पर खर्च करें। यह मांग ठीक नहीं है। लोगों को विदेशी मदद के प्रति सावधान रहना चाहिए। समझना चाहिए कि एक अमेरिकी ट्रक एक अमेरिकी टैंक से ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है।
क्यों और कैसे? जानने के लिए यहाँक्लिक करें


गुरुवार, 5 अक्टूबर 2017

सूतांजली, अक्तूबर २०१७

सूतांजली                                              ०१/०३                                        ०१.१०.२०१७
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मजबूरी का नाम म** *धी
मजबूर! किसे कहते हैं मजबूर? उसे जो परिस्थितिवश बदल जाय  या उसे जो  परिस्थिति को बदल दे ? मैं पूरी तरह भ्रमित हूँ।

दक्षिण अफ्रीका पहुँचते ही वहाँ की रंग भेद नीति की गंध महसूस होने के बावजूद सब की सलाह को दरकिनारे करते हुवे रेल के प्रथम श्रेणी में सफर करने वाला इंसान मजबूर ही रहा होगा?
·        रेल में सफर करने वाले गोरे यात्रियों की परवाह न कर पुलिस के कहने पर भी तीसरे दर्जे में सफर करने  के बजाय प्लैटफ़ार्म पर फेंके जाने के लिए तैयार व्यक्ति मजबूर रहा होगा?
·     अदालत द्वारा पगड़ी को हटाने का निर्देश देने पर पगड़ी हटाने के बदले अदालत छोड़ कर जाने वाला इंसान मजबूर तो रहा ही होगा?
·     बीच सड़क पर अपने ही वतन के लोगों द्वारा इतनी पिटाई खाई की अगर गोरे बचाने नहीं आ जाते तो  वह शायद उसके जीवन का अंतिम दिन होता। कारण-वह अपने सिद्धांतो और विचारों सेमजबूर था।
·   गोरी सरकार और गोरों के हिंसात्मक विरोधों के बावजूद मय परिवार के वापस दक्षिण अफ्रीका पहुंचा। फिर से सड़क पर मार पड़ी। गोरे दोस्तों के कारण बचा। उसकी मजबूरी थी अपने देश वासियों के प्रति अपने उत्तरदायित्व और दिये गए वचन के निर्वाह की।
·    बनारस में मंच पर उपस्थित राजे-महाराजे एवं विशिष्ट-गणमान्य व्यक्तियों की परवाह  न कर उनके ही खिलाफ वक्तव्य देने की कोई तो मजबूरी रही होगी?
·     जब देश के सब साधन सम्पन्न शीर्ष एवं बड़े नेता चंपारण को अनदेखा कर रहे थे किसी मजबूरी के कारण ही वह वहाँ पहुंचा होगा।
·     चंपारण में नीलहे मालिकजिलाध्यक्षन्यायालय एवं सरकार द्वारा चंपारण छोड़ने के हुक्म को मनाने से इंकार करने की भी कोई मजबूरी रही होगी।
·     एक के बाद एक दो मुकदमों- न्यायालय की अवमानना और देशद्रोहमें अपने पर लगे इल्जाम को कबूलते हुवे कहा कि उसे कड़ी से कड़ी सजा सुनाई जाए।  बेचारा मजबूर इंसान।
·    जब पूरा देश आजादी का जश्न मना रहा था उस समय नोआखाली के मुस्लिम बाहुल्य प्रदेश में जहां हिंदुओं का कत्लेआम किया गया था अपने मुट्ठीभर साथियों के साथ निहत्थे लेकिन निर्भय घूमने के पीछे भी कोई मजबूरी ही रही होगी?
·      नोआखाली में मुसलमानों का हिंदुओं द्वारा मुसलमानों को माफीनामादेने का प्रस्ताव”  रद्द कर कहा कि जघन्य अपराधियों को सबसे पहले बिना किसी शर्त के समर्पण करना चाहिए। कोईमजबूरी ही रही होगी इस निर्णय  की?
·      बिहार के दंगा ग्रस्त इलाके में  एक हिन्दू एक   मुसलमान परिवार की ह्त्या कर  उस परिवार के 2 माह के एक बच्चे को लाया आया और पूछा कि बताओ मैं इस बच्चे का क्या करूँउसने सुझाव दिया कि इस बच्चे के लालन पालन का उत्तरदायित्व तुम लो और इस बात का ध्यान रखो कि यह बच्चा बड़ा हो कर एक सच्चा मुसलमान बने।  क्या मजबूरी रही होगी इस फैसले  की ?

 अगर इसे ही मजबूर इंसानकहते हैं तो हे ईश्वर! हे परवरदिगार! या अल्लाह! अगर तू कहीं है और मुझे सुन रहा है तो हमें ऐसा ही एक, सिर्फ एक ही मजबूर व्यक्ति दे दे।


                                                                           मैंने पढ़ा
गांधी जी का सेव                          (कुरजां से साभार)
वर्धा के गांधी आश्रम में बुनियाद शिक्षा का मसौदा बन रहा था। डॉ. जाकिर हुसैन, के.टी.शाह, जे.बी.कृपलानी, आशा देवी आदि कई लोग मौजूद थे। बापू ने पूछा, “के.टी. अपने बच्चों के लिए कैसी शिक्षा तैयार कर रहे हो? सब चुप रहे। के.टी. ने पूछा, “बापू, आप ही बताइये कि कैसी शिक्षा हो? बापू ने कहा, “के.टी., अगर मैं किसी भी कक्षा में जाकर पूछूं कि मैंने एक सेब चार आने में खरीदा और उसे एक रुपए में बेचा दिया तब मुझे क्या मिलेगा? मेरे इस प्रश्न के जवाब में अगर पूरी कक्षा यह कहे कि आपको जेल मिलेगी, तब मानूँगा कि आजाद भारत के बच्चों के सोच के मुताबिक शिक्षा है।बापू के इस सवाल पर सब दंग रह गये। वास्तव में किसी व्यापारी को यह हक नहीं कि वह चार आने के चीज पर बारह आने लाभ कमाये। इस प्रकार बापू ने एक प्रश्न के जरिये नैतिक शिक्षा का संदेश बिना बताये ही दे दिया।

एक विश्लेषण के अनुसार भारत की  प्रथम १०० कंपनियों (निजी एवं सरकारी मिलाकर) का वर्ष २०१६ में शुद्ध लाभ ३,७४,५५७.८१ करोड़ थायानि औसतन ३७४५.५८ करोड़। इस आंकड़े के  १००वां प्रतिष्ठान का दैनिक लाभ २ करोड़ रुपये है।  इन आंकड़ों को गांधी के विचारों के साथ जोड़ कर  समझने की आवश्यकता है। यह न किसी सरकार से संभव है न किसी कानून के तहत। गांधी की  आर्थिक आजादी तो जागरूकता के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।


अहा जिंदगी, जुलाई 2017, अनुपमा ऋतु, पृ. 11
आज दुनिया भर के अर्थशास्त्री पूंजी के नये मायने तय कर रहे हैं। उनकी नई परिभाषा में सबसे ऊपर है मानवीय पूंजी यानि मनुष्यता। दूसरे नंबर पर है सामाजिक पूंजी यानि रिश्ते। तीसरे पर है प्राकृतिक पूंजी यानि पर्यावरण। चौथे पर मानवनिर्मित पूंजी यानि इन्फ्रास्ट्रक्चर और सबसे निचली पायदान पर है आर्थिक पूंजी यानि मुद्रा। 2010 में हुवे एक शोध में यह निष्कर्ष दिया गया कि किसी भी समाज के सुख का मुख्य कारण वैयक्तिक पूंजी नहीं सामाजिक जुड़ाव है। पर विडम्बना यह है कि हमारी दौड़ इस आखरी पायदन पर आकर ठहर गई है।
महात्मा गांधी ने जब कहा कि यंत्र और उद्योग कि परवशता और उससे जन्मी अर्थ पिपासा का इलाज होना चाहिए,तब वे भी हमें विकास, प्रगति और सुख के इन्ही मायनों पर पुनर्विचार के लिए आग्रह कर रहे थे जिनके लिए आज विज्ञान कर रहा है।

हमें अंग्रेजों का राज्य तो चाहिए पर अंग्रेज़ नहीं चाहिए। इस बाघ  का  स्वभाव तो चाहते हैं पर बाघ को नहीं चाहते। मतलब यह कि हम हिंदुस्तान को अंग्रेज़अँग्रेजी तौर-तरीकेशक्ल सूरतवाला बनाना चाहते हैं। पर तब तो वह हिंदुस्तान नहीं इंगलिस्तान कहलाएगा। मैं ऐसा स्वराज नहीं चाहता।
आजादीलेकिन किसकी आजादीकिससे आजादी और कैसी आजादीयह भी तय करना पड़ेगा क्योंकि इसके बिना आजादी आती नहीं हैगुलामी ही रूप बदल कर आ धमकती है।