सूतांजली ०१/०५ ०१.१२.२०१७
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सुख
की सीमा
जन्म से मृत्यु पर्यंत हम एक ही चीज
ढूंढते रहते हैं – सुख। और ज्यादा सुख और ज्यादा आनंद।
लेकिन यह सहज ही उपलब्ध वस्तु हमें मिल नहीं पाती। इसकी परिणिति दुख में ही होती
है। संत कहते हैं कि असीम सुख की प्राप्ति ईश्वर प्राप्ति में ही है। इसलिए हमें
ईश्वर का ही ध्यान करना होगा। वही हमें मनोवांछित सुख दे सकता है। हम इसे सुनते
हैं लेकिन ग्रहण नहीं कर पाते और सुख की मरीचिका में भटकते रहते हैं। आइए थोड़ा विचार करते हैं इस कथन पर।
एक बार बात समझने के लिए हम मान लेते हैं कि एक संत अभी इसी क्षण हमारे सामने प्रगट
हों और कहे, “ईश्वर ने मुझे विशेष शक्ति
प्रदान की है। मांगो, तुम्हें क्या चाहिए। अभी जो मांगोगे तुम्हें
दिलवा सकता हूँ”।
"सुख चाहिए देव।”
“अरे यह तो बहुत साधारण वर है। अभी दे सकता हूँ। बोलो कितना सुख चाहिए, कितना किलो-टन या किलो मीटर – योजन मील या
किलो लीटर-लीटर? प्रश्न बड़ा अटपटा सा लगा लेकिन हिम्मत करके
पूछ लिया, “कितना मतलब, जितना मिल जाय।
इसकी कोई सीमा तो होती नहीं है?”
“सीमा तो हर किसी की है, खैर तुम्हें अनन्त सुख चाहिए। यह अनन्त सुख
तुम्हें कहाँ चाहिए? घर पर, ऑफिस में, होटल में, सफर में, शहर में, परदेश में या कहीं और?”
यह भी कोई प्रश्न हुआ। मैं बड़बड़ाया। कहा, “हर जगह। जहां जहां मैं जाऊँ, रहूँ, घूमूँ, बैठूँ, चलूँ, सोऊँ, कहीं भी।”
“ओ अच्छा तो तुम्हें अनन्त सुख अनन्त जगहों पर चाहिए” उन्होने पूछा।
“हाँ भाई हाँ यह भी कोई
पूछने की बात है,मुझ से रहा नहीं गया।”
"चलो ठीक है। तब तुम्हें अनन्त सुख अनन्त जगहों पर चाहिए।
लेकिन यह चाहिए कब? आज-कल-परसों-या किसी और दिन –सुबह –शाम-रात, कब?”
यह भी कोई प्रश्न है, मैं झल्ला उठा, “कब मतलब? हर समय चाहिए, हर रोज चाहिए, मृत्यु पर्यंत चाहिए। और इसके पहले कि तुम
और कोई बेहूदा प्रश्न करो मैं यह भी बता देता हूँ कि मेरी मृत्यु कब होगी यह मुझे
नहीं पता लेकिन चाहिए आखिरी सांस तक।”
“अरे नाराज क्यों हो रहे हो! मुझे समझ लेने दो कि तुम्हें चाहिए क्या? नहीं तो बाद में कहोगे तुम्हें वह नहीं मिला जो तुमने मांगा था। अब बस और
एक अंतिम प्रश्न। तुम्हें यह अनन्त सुख अनन्त
जगहों पर अनन्त समय किससे चाहिए? माँ बाप से, बेटा बेटी से, पति पत्नी से, दोस्त कर्मचारी से, संबंधी पड़ोसी से, मालिक नौकर से किससे? समझ रहे हो न?”
मेरा पारा सातवें आसमान पर पहुँच चुका था। चिल्ला कर बोला,
“माँ बाप, बेटा बेटी, पति पत्नी, दोस्त कर्मचारी,
संबंधी पड़ोसी, मालिक नौकर इन सबों से। बल्कि उस सबों से
जिनसे मैं मिल चुका हूँ और भविष्य में जिन जिन से मिलूंगा उन सबों से। समझे?”
एक लंबी सांस लेते हुवे उसने कहा, “तुम्हें अनन्त सुख, अनन्त समय, अनन्त जगहों पर, अनन्त लोगों से चाहिए। वत्स यहाँ
तो सब क्षणभंगुर है एकमात्र ईश्वर ही अनन्त है यानि तुम ईश्वर की ही कामना रखते
हो।हम सबसे सुख चाहते हैं और
चैतन्य सुख चाहते हैं। अब अगर हम कुरेदें अपनी समझ को, अपने मस्तिष्क को जिस पर परतें पड़ी हुई हैं तो हमें
तुंरत यह स्पष्ट हो जाएगा कि जाने अनजाने हम परमात्मा को ही चाह रहे हैं। वही असीम
और अनादि है। हम समझें या न समझें हमारी चाह परमात्मा की ही है। लेकिन अपनी नासमझी
के कारण हम सीमित सुख के पीछे दौड़ना शुरू कर देते हैं और सीमित सुख का अंत हर समय दुःख में ही
होता है।
मैंने पढ़ा
सहिष्णुता
दस्तोबा दास्ताने ( आचार्यकुल सितंबर २०१७)
विनोबाजी ने विभिन्न शास्त्रों, धर्मों और भाषाओं का अभ्यास किया है, लेकिन उसके पीछे विद्वत्ता नहीं बल्कि
अध्यात्म की उनकी दृष्टि रही है। हम विध्यार्थियों को मराठी, संस्कृत या अँग्रेजी पढ़ते थे तो आध्यात्मिक
ग्रन्थों के द्वारा पढ़ाते थे, जिससे भाषा के साथ साथ आत्मज्ञान की ख़ुराकी भी हमें मिलती
रही। मराठी में ज्ञानदेव-तुकाराम, असमी में नामघोष, बंगाली में गुरुदेव और चैतन्य महाप्रभु की
वाणी, गुजराती में गांधी की वाणी, पंजाबी में जपुजी, अँग्रेजी में बाइबिल, संस्कृत में गीता और उपनिषद, अरबी में राहुल और कुरान, तमिल में तिरुक्कुरल ऐसे उनके अध्ययन के
ग्रंथ रहे। अनेक भाषाओं का भी अध्ययन किया तो सिर्फ भाषा ज्ञान के ख्याल से नहीं, बल्कि उस भाषा के संत वाङ्ग्मय का अवगाहन
करने के ख्याल से। और इन ग्रन्थों में से सारभूत अंश चुनकर जिज्ञासुओं के लिए
उन्होने मक्खन ही निकाल दिया है। उनकी भूदान यात्रा जिस प्रदेश के संतों के जो
ग्रंथ उस प्रदेश की आम जनता में प्रचलित थे उन्ही ग्रन्थों में से चुनिन्दा उद्धरण
वे अपनी आम सभाओं में लोगों को सुनाकर समझाते थे विनोबाजी के मुंह से उन ग्रन्थों
के उद्धरण ......... अपनी भाषा में सुनकर लोगों को उनके प्रति सहज आत्मीयता हो
जाती थी।
शिक्षा का उद्देश्य मात्र सांसरिक और भौतिक ज्ञान नहीं है
बल्कि उससे आगे बढ़ कर सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक ज्ञान भी है इसके बिना मानव अधूरा है।
कर्तव्य पालन
प्यारेलाल (पूर्णाहुति पृ. २२७)
पटना के रेलवे स्टेशन पर बिहार के मंत्रीगण गांधीजी से मिलने आए। गाड़ी की सीटी
बजने ही वाली थी। परंतु उनकी बातें खतम नहीं हुई थीं। स्टेशन मास्टर असमंजस में पड़
गया। वह सकुचाता हुआ आया। उसने पूछा कि गाड़ी चलाने का संकेत दिया जाय? गांधीजी ने कुछ बिगड़ कर जवाब दिया,“आप और किसी मुसाफिर के पास जाकर उससे आदेश
नहीं लेते, तो फिर यह अपवाद क्यों? आपको अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए और
मंत्रियों से डरना नहीं चाहिए। इससे उनका और आपका भला भी होगा। उन्हे नियम की
अवहेलना नहीं करनी चाहिए, अन्यथा लोकतन्त्र छिन्न भिन्न हो जाएगा।"
स्टेशन मास्टर ने सादर प्रणाम किया और विदा होते होते साहस करके कहा, “यदि आपकी तरह अनुशासन पालने करने वाला एक
भी व्यक्ति प्रत्येक विभाग में हो, तो सारे प्रशासन की शकल ही बदली हो जाए। आप
नहीं जानते कि बेचारे सरकारी नौकर अपने अफसरों की इच्छानुसार कम न करें, तो उन्हे क्या कीमत चुकनी पड़ती है। मेरी ४०
साल की नौकरी में यह मेरा पहला अनुभव है कि किसी ने अपने व्यक्तिगत उदाहरण द्वारा
हमें निर्भय होकर कर्तव्य पालन करने का पदार्थ-पाठ पढ़ाया हो। इसीलिए हम आपको राष्ट्रपिता कहते हैं ।
सिग्नल दे दिया गया। गाड़ी गांधीजी को कलकत्ते की दिशा में ले चली।
ब्लॉग
विशेष
आजकल खबरें बिजली की गति से चलती हैं। यह पत्रकारिता पाठक की आँख से होते हुए
सीधे उसकी जेब में उतरना चाहती है। ऐसे में सन १८९८ में दक्षिण अफ्रीका में खुले
एक छापेखाने को याद किया जा सकता है। इसी छापेखाने ने मोहनदास नाम के एक २९ साल के
वकील को मंजा हुआ पत्रकार बना दिया था। खबरों और जानकारी की गति का गुलामी से क्या
संबंध होता है, यह मोहनदास करमचंद को समझ आ
गया था। साम्राज्यवाद और औद्योगीकरण के शोषण टिके थे खबरों,
सूचनाओं और जानकारी की मशीनी गति पर। इस दुर्गति से बचाने के लिए मोहनदास करमचंद गांधी
ने एक बड़ा विचित्र उपाय सूझा। क्यों न जानकारी देने और पढ़ने की रफ्तार को धीमा
किया जाए, मनुष्य के शरीर और मन की गति के हिसाब से? खबरें पाठक की आंखो से होते हुए उसके मन में क्यों न उतरें? इस पत्रकारिता में थे सत्याग्रह और स्वराज के बीज।
धीमी पत्रकारिता का सत्याग्रही संपादक, इसबेल हौफ़्मायर,
‘गांधी’ज प्रिंटिंग प्रेस: एक्सपेरीमेंट्स इन स्लो रीडिंग’ के अंशों पर आधारित
गाँधी मार्ग, मार्च-अप्रैल २०१६, पृ.४९
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