शुक्रवार, 23 मार्च 2018

अमरा का बास


टॉइलेट, एक सत्य कथा

राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का राष्ट्रीय उद्द्यान है। देश एवं विदेश से अनेक पर्यटक यहाँ आते रहते हैं। यहीं पर है स्टर्लिंग का “टाईगर हैवेन” रिज़ॉर्ट। ठहरने के लिए उत्तम जगह है। यह रिज़ॉर्ट “अमरा का बास” नमक जगह में है। हम इसी रिज़ॉर्ट में ठहरे हुए थे। एक दिन सुबह गाँव देखने निकल पड़े। गाँव मुझे बहुत पसंद है। बचपन में लंबे समय तक छुट्टियों में हम सपरिवार अपने गाँव में रहते थे। इसके अलावा और भी गांवों में रहा हूँ, घूमा हूँ। इन सब गांवों में हमारे परिचितों के अलावा भी बहुत लोग रहते हैं। दुकाने हैं, छोटा सा विद्यालय है, डॉक्टर हैं, मंदिर मस्जिद गिरजा चर्च सब हैं। कहने का मतलब यह कि हर न्यूनतम सुविधा उपलब्ध है और हर जाति एवं धर्म के लोग साथ साथ रहते हैं। इसी ख्याल से हम उधर बढ़े।

अपने अनुभव के आधार पर मन में था कि गाँव हैं तो दुकानें होंगी, बच्चे होंगे, छात्र  दिखेंगे। वहीं की दुकान से खरीद कर कुछ-न-कुछ बच्चों में बांटेंगे। इसी ख्याल से हम घुसे। कुछ एक मकानों के बाद एक मोड़ आया। और यह क्या? गाँव समाप्त, हम गाँव के बाहर थे। मकानों की माली हालत ठीक सी ही लगी। असमंजस में आगे बढ़ रहे थे कि तभी पीछे से आवाज आई “भाईजी राम राम”। मुड़ कर देखते तब तक सज्जन हमारे बराबर पहुँच चुके थे। चलते चलते उनसे बातें होने लगी। पता चला कि इस गाँव में एक ही परिवार रहता है। दादा से लेकर पोते, पड़ पोते  और उसके बाद की पीढ़ी तक। इस प्रकार के कई मकानों या परिवारों के समूह को मिलकर है अमरा का वास। हर परिवार का अपना अपना १००-२०० बीघा के खेत हैं और उसी खेत में पूरा परिवार अपने मकान बनाता है और पूरा परिवार इकट्ठा वहीं एक साथ रहता है। लेकिन हमें दूर दूर तक कोई मकान दिखा नहीं। हमारी खोजती नजरों को उसने यह कह कर विराम दिया कि दूसरों के मकान दूर है फसलों और पेड़ों के बाद। यहाँ से नहीं दिखेगा। और छानबीन करने पर पता चला कि परिवार बंटते जा रहे हैं और नौबत यहाँ तक आ गई है कि अब उसके हिस्से में सिर्फ ३-४ बीघा जमीन ही है। सब अलग अलग खेती करते हैं। इतने में बस गुजारा हो जाता है, बचता कुछ नहीं। आगे बच्चों का क्या होगा? खेत तो और बाँट जाएंगे? इसे लेकर चिंता है लेकिन कोई समाधान भी नहीं, गाँव खेती-बाड़ी छोड़कर नौकरी के लिए शहर जाने के अलावा। हमें सोच में डालकर, भाईजी आगे बढ़ गए।

हम धीरे धीरे खेतों की मेढ़ों पर चलते हुए आगे बढ्ने लगे। एक पेड़ के नीचे, ठंडी छाँव में एक पलंग लगा था और उसपर साफ सुथरा बिस्तर लगा था। दूर दूर तक कोई दिखा नहीं। हम पैर पसार कर बैठ गए। हल्की ठंडी बयार, मिट्टी की सोंधी सुगंध में डूबे, आंखे चारों तरफ घूमा रहे थे। खेतों में जगह जगह अतिलघु मंदिर दीख पड़े। हम यह समझने कि कोशिश कर ही रहे थे कि कौन से देवी देवता हैं अचानक दो वयस्क लड़कियां कहीं से प्रगट हो गईं जैसे कि आसमान से उतरी हों। बातूनी एवं मिलनसार।

पढ़ती लिखती हो?’ के प्रश्न पर पता चला कि दोनों बी.ए. कर रही हैं। उनके गाँव में विद्यालय या कॉलेज नहीं है। गाँव से लगभग ४ किमी पर थानागाजी में ही दुकाने, विद्यालय और कॉलेज हैं।
“रोज वहाँ जाती हो?
“अरे नहीं! घर का सामान तो कोई भी मर्द सप्ताह भर का एक साथ मोटर साइकल में जाकर ले आता है। और कॉलेज तो बस महीने में एक बार जाने से भी हो जाता है”।
?????”
“बी.ए. का कोर्स तो बहुत आसान है। रोज यहाँ घर और खेत में वही करते हैं जो पढ़ाया जाता है। अलग से पढ़ने की कोई दरकार नहीं है”।
“तब कोई कठिन विषय क्यों नहीं लिया”?
“अगर पढ़ने लग जाएँ तो खेत का, घर का काम कौन करेगा? दिन भर एकदम फुर्सत नहीं मिलती है घर और खेत के काम से।”
गाँव गाँव में टॉइलेट बन रहे हैं और हमारे अमिताभ जी ज़ोर ज़ोर से टॉइलेट में जाने की हिदायते दे रहे हैं। अत: हमने विषय बदलते हुए पूछ लिए, “घर में टॉइलेट है?”
“हाँ, है लेकिन प्रयोग करने की मनाही है। जब से बना है वैसा ही पड़ा है”।
???????। और टीवी ?
“हाँ आ आ आ आ....है। लेकिन हम लड़कियां नहीं देख सकतीं”।
“क्यों?”
“दादाजी का नियम है। लड़के देख सकते हैं”।
हमने फिर नया विषय उठाया। गांवों में छोटी उम्र में ही शादी हो जाती है। ये बड़ी बड़ी हो गई थीं फिर भी कुंवारी थी अत: विवाह के बारे में पूछ लिया।
“हमारे परिवार में हम ३२ से १.१/२ साल तक की १८ लड़कियां हैं। दादाजी हम सबों की शादी अगले साल एक साथ कर रहे हैं।“
“क्या? ३२ से १.१/२ साल तक, सब की एक साथ!”
“हाँ, और नहीं तो क्या! बार बार इतना खर्चा कहाँ से आयेगा”।

हम और न तो सह पा रहे थे और न ही समझ। आप कुछ समझे? हमारी जुबान को ताला लग गया। हम लड़खड़ाते कदमों से खेत की पतली मेढ़ पर चलते हुए वापस लौट पड़े। रास्ते भर कोई कुछ नहीं बोला। हमारे बीच एक सन्नाटा पसरा पड़ा था।

हमारी यात्रा का यह आखरी दिन था।


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