शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

परिवेश की सफाई क्यों?

परिवेश की  सफाई क्यों?

प्रश्न: आप परिवेश की सफाई अपने भीतर करने की वकालत क्यों कर रहे हैं? इस बात की क्या उपयोगिता है?

जे.कृष्णमूर्ति: मैं किसी बात की वकालत नहीं कर रहा। लेकिन आप जानते हैं कि किसी बर्तन की  उपयोगिता तब होती है जब वह रिक्त होता है। हम में से अधिकांश का मन बहुत सी बातों-विचारों से भरा होता है – आराम व कष्ट से, सुखद व दुखद अनुभवों से, ज्ञान से, व्यवहार के नियमों, परिपाटियों, मान्यताओं, परम्परा से तथा इसी प्रकार की और भी अनेक बातों से। हमारा मन कभी खाली नहीं होता। जबकि, सृजन उसी मन में हो सकता है जो पूर्णतया खाली हो। यह तो साधारण व्यवहार की ही बात है कि नव-निर्माण रिक्तता में ही होता है।

 

शायद अपने जीवन में आप सबों को कभी न कभी यह अनुभव हुआ होगा कि जब कोई समस्या आपके समक्ष आती है – भले ही वह गणतीय समस्या हो अथवा मनोवैज्ञानिक समस्या या कोई और समस्या – तब, कभी-कभी क्या होता है? आप उसके बारे में खूब सोचते हैं, उस विषय पर जुगाली किये चले जाते हैं, परन्तु आपको उस समस्या का निदान नहीं मिल पाता। तब आखिर आप उसे छोड़ देते हैं, उससे हट जाते हैं, टहलने निकल जाते हैं। और तब उस रिक्तता में से निदान निकल कर आ जाता है। यह कैसे होता है? आपका मन उस समस्या को लेकर अपनी सीमा में बहुत अधिक क्रियारत हो गया था। परन्तु, जब आपको निदान नहीं मिला तब आपने उस समस्या को उठाकर एक ओर रख दिया। इससे आपका मन काफी हद तक शांत हो गया। और तब, उस मौन में, उस रिक्तता में, समस्या का समाधान संभव हो गया।

इसी प्रकार जब कोई पल-पल अपने भीतर परिवेश के प्रति, भीतरी प्रतिक्रियाओं के प्रति, भीतरी स्मृतियों, गोपनीयताओं तथा व्यग्रताओं के प्रति मृत हो पाता है, तब उसमें एक रिक्तता आ जाती है, और केवल उस रिक्तता में ही कुछ नया घटित हो सकता है।  

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नर्क.......स्वर्ग.......मोक्ष

सन्यासियों का एक दल किसी गाँव से गुजरा। उन्होने कुछ लोगों को छाती पीटते, रोते देखा। पूछा कि क्या मामला है? किसलिए रो रहे हो? कौन सी दुर्घटना घट गई? उन्होने कहा, कोई दुर्घटना नहीं घटी, हम नर्क के भय से घबड़ा रहे हैं। कहाँ है नर्क! मगर मन ने नर्क के भय खड़े कर दिये हैं, हम नर्क के भय से घबड़ा रहे हैं।

सन्यासियों का दल थोड़ा आगे बढ़ा। उन्हें कुछ और लोग दिखे, जो बड़े उदास बैठे थे, जैसा मंदिर में लोग बैठे रहते हैं। बड़े गंभीर। सन्यासियों ने पूछा, क्या हुआ तुम्हें? कौन सी मुसीबत आई? कितने लंबे चहरे बना लिए हैं? क्या हो गया है’? उन्होने कहा, कुछ भी नहीं, हम स्वर्ग की चिंता में चिंतातुर हैं – स्वर्ग मिलेगा या नहीं?

 

सन्यासियों का दल और आगे बढ़ा। उन्हें एक वृक्ष के नीचे कुछ लोग बड़े प्रमुदित, बड़े शांत, बड़े आनंदित बैठे मिले। उन्होने कहा, तुम्हारे जीवन में कौन सी रसधार आ गई? तुम इतने शांत, इतने प्रसन्न, इतने प्रफुल्लित क्यों हो? उन्होने कहा, हम ने स्वर्ग और नर्क का ख्याल छोड़ दिया है

स्वर्ग है सुख, जो तुम पाना चाहते हो। नर्क है दुख, जिससे तुम बचना चाहते हो। दोनों भविष्य हैं। दोनों कामना में है। दोनों मार के फंदे हैं। जब तुम दोनों, सुख-स्वर्ग और दुख-नर्क,  को छोड़ देते हो, अभी और यहीं जिसे मोक्ष कहो, निर्वाण कहो, वह उपलब्ध हो जाता है। 

तुम में जो हो उसमें ही तुम उसे पाओगे। जीने की दौड़ में तुम उससे चूकते चले जाओगे।

                             सुलगना और जीना, यह कोई जीने में जीना है

                             लगा दे आग अपने दिल में दीवाने

          धुआँ कब तक

-       (ओशो के प्रवचन पर आधारित)

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क्या होगा सीधा-सरल होने से?

कोई असत्यवादी आकर कहे, मुझे सत्य बोलना सिखाओ। क्या उसे सत्य बोलना सिखाया जा सकता है? झूठ में वह पहले ही उलझा हुआ है, अब सत्य में भी उलझना चाहता है। झूठ उसे उद्वेलित, अशांत करता रहेगा। वह अपने आप को सत्यवादी दिखाने की कोशिश करेगा। एक क्रोधी कहे, मुझे क्रोध छोड़ना सीखना है’? अगर वह चुप चाप कमरे में भी बैठा रहेगा तो बैठे-बैठे क्रोध करता रहेगा। वह अपने आप को अ-क्रोधी दिखाने की कोशिश करने लगेगा। एक हिंसक कहे, मुझे अहिंसक होना है, मेरा चित्त अहिंसक कैसे होगा’?  वह भी अपने आप को अ-हिंसक दिखाने की तरकीब ढूंढ लेगा। वैसे की एक कामुक अपने आप को ब्रह्मचारी दिखाने का स्वांग तैयार कर लेगा।

 

न हमें क्रोध को छोड़ना है, न अ-सत्य को। न  हिंसा को छोड़ना है और न ही काम को। क्रोधी हो तो अ-क्रोधी होने की चेष्टा मत करो बल्कि क्रोध क्या है? क्रोध को जानने की चेष्टा करो। क्रोध को स्वीकार करो। जो हो, वही दिखो। कहो कि हाँ, मैं क्रोधी हूँ। सबको बता दो कि तुम क्रोधी हो। उसे छुपाने की चेष्टा मत करो। क्या छिपाने से कोई रोग मिटा है? उसे खोल दो, शायद बह जाए, शायद नहीं! पक्का है कि वह बह जायेगा। अगर अ-सत्यवादी हो तो उसे स्वीकार करो, छुपाओ मत। अगर हिंसक हो तो अ-हिंसक मत बनो, सब को बता दो कि तुम हिंसक हो। अहिंसा, हिंसा को ढँकेगी नहीं। लेकिन सब को बता दो, तो बह जायेगी। छोड़ने या छिपाने के चेष्टा मत करो। उसे समझने की कोशिश करो, जानने की कोशिश करो। । क्रोध क्या है? असत्य क्या है? हिंसा क्या है? काम क्या है? गंदगी पर इत्र का छिड़काव करने से क्या होगा? घाव पर फूल चिपकाने से क्या होगा? दान कर रहे हैं इस लोभ से कि एक पैसा यहाँ दें, तो एक करोड़ वहाँ मिलेगा’, तो क्या लोभ गया? क्या यह दान हुआ? दान तो तभी होगा जब लोभ मिटेगा।

 जो हो उसके विपरीत बनने की कोशिश मत करो। उसको जानो उसको समझो। कोशिश करो यह जानने की कि असत्य क्या है, क्रोध क्या है, हिंसा क्या है, लोभ क्या है। इनको ढँको मत, छुपाओ मत। जीवन को झूठ से मत छुपाओ, प्रगट करो। चमत्कार हो जायेगा। अगर तुम अपने क्रोध को स्वीकार कर लो, अपनी घृणा को, ईर्ष्या को, द्वेष को, जलन को स्वीकार कर लो, तुम सरल होने लगोगे। तुम सीधे होने लगोगे। तुम पाओगे एक साधुता स्वयं उतरने लगी है। तुम्हें पता चलेगा कि तुम बदलने लगे हो। तुम सीधे और सरल होने लगे। तुम अचानक हैरान हो जाओगे; हिंसा गई अहिंसा आ गई, क्रोध गया अ-क्रोध आ गया, असत्य गया सत्य आ गया।  

शायरी में कहें तो:

है हुसूले-आरजू का राज, तर्के-आरजू

(मैंने दुनिया छोड़ दी तो मिल गई दुनिया मुझे)

कविता में कहें तो:

भागती फिरती थी दुनिया, जब तलब करते थे हम

जब हमें नफरत हुई, वह बेकरार आने को है।

-       (ओशो के प्रवचन पर आधारित)

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