शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

जापान – श्री माँ की दृष्टि में

(जापान में दिया गया श्री माँ का एक भाषण। माँ की गहरी दृष्टि और भाषा का प्रवाह देखने और समझने योग्य है।)

आपने जापान के बारे में मेरे विचार माँगे हैं। जापान के बारे में लिखना एक कठिन काम है। वहाँ के बारे में इतनी सारी चीजें लिखी जा चुकी हैं, बहुत सी उट-पटांग चीजें भी...... लेकिन ये ज़्यादातर देश नहीं, देशवासियों के बारे में हैं। वह देश एक अद्भुत, सुरम्य, बहुमुखी, मनोहर, अप्रत्याशित, जंगली या मधुर है। वह देखने में - उत्तरध्रुवीय ठंडे प्रदेशों से लेकर उष्ण कटि-प्रदेशीय तक – दुनिया भर के सभी देशों का समन्वय लगता है। किसी कलाकार की आँख उसकी ओर से उदासीन नहीं रह सकती। मेरा खयाल है कि जापान के बहुत से सुन्दर वर्णन किए जा चुके हैं। मैं उनमें से एक और नहीं बढ़ा रही, मेरा वर्णन निश्चित रूप से उनकी अपेक्षा बहुत कम रोचक होगा। लेकिन आमतौर पर जापानियों को गलत समझा गया है और गलत रूप से पेश किया गया है और इस विषय पर कहने लायक कुछ कहा जा सकता है।

अधिकतर विदेशी लोग जापानियों के उस भाग के सम्पर्क में आते हैं जो विदेशियों के संसर्ग से बिगड़ चुका है – ये पैसा कमाने वाले, पश्चिम को नकल करने वाले जापानी हैं। वे नकल करने में बहुत चतुर हैं और उनमें ऐसी काफी सारी चीजें हैं जिनसे पश्चिम के लोग घृणा करते हैं। अगर हम केवल राजनेताओं, राजनीतिज्ञों और व्यापारियों के जापान को देखें तो यही लगेगा कि यह यूरोप के शक्तिशाली देशों से बहुत ज्यादा मिलता जुलता देश है, लेकिन उसमें ऐसे देश की जीवनी शक्ति और घनीभूत ऊर्जा भरी है जो अभी तक अपनी पराकाष्ठा पर नहीं पहुंचा है। 

यह ऊर्जा जापान की एक बहुत मजेदार विशेषता है। वह हर जगह, हर एक बूढ़े, बच्चे, मर्द, औरत, विद्यार्थी, मजदूर सभी के अन्दर दिखाई देती है। शायद “नये अमीरों” को छोड़ कर सभी के जीवन में अद्भुत घनीभूत ऊर्जा का भंडार दिखाई देता है। प्रकृति और सौंदर्य के आदर्श प्रेम के साथ साथ यह संचित शक्ति भी जापानियों की विशिष्ट और सबसे अधिक व्यापक विशेषता है। उदयाचल के उस प्रदेश में पाँव रखते ही आप इस चीज को देख सकते हैं, जहाँ इतने सारे लोग और इतनी निधियाँ एक छोटे से टापू में जमा हैं।

यदि आपको उन जापानियों से मिलने का सुअवसर मिले, जैसा कि हमें मिला था, जिनमें अभी तक प्राचीन सामुराई का शौर्य और अभिजात्य अछूता है तो आप समझ सकते हैं कि सच्चा जापान क्या है, आप उनकी शक्ति और रहस्य को पा सकते हैं। वे चुप रहना जानते हैं और यद्यपि उनमें बहुत अधिक तीव्र संवेदनशीलता होती है, लेकिन मैं जिन लोगों से मिली हूँ उनमें ये सबसे कम इसका प्रदर्शन करने वाले लोग हैं। यहाँ एक मित्र तुम्हारे प्राण बचाने के लिए बड़ी ही सरलता से अपनी जान दे सकता है; लेकिन वह कभी तुम्हारे सामने यह न कहेगा कि उसे तुम्हारे लिए इतना गहरा और नि:स्वार्थ प्रेम है। वह इतना तक भी नहीं कहेगा कि वह तुमसे प्रेम करता है। और अगर तुम बाहरी आभासों के पीछे छिपे हुए हृदय को न पढ़ सको तो तुम्हें बहुत अच्छे बाह्य शिष्टाचार के सिवाय कुछ न दिखाई देगा जिसमें सहज भावों के लिए कोई स्थान नहीं होता। फिर भी भाव होते हैं और बाहर अभिव्यक्त न होने के कारण और भी ज्यादा प्रबल होते हैं और कभी मौका आ जाए तो उनके किसी काम द्वारा अचानक प्रेम की गहराई का पता चलता है, वह भी विनयशील और कई बार छिपा हुआ। यह जापानी विशेषता है। संसार के जातियों में सच्चे जापानी, जो पश्चिम के प्रभाव में नहीं आए है, शायद सबसे कम स्वार्थी होते हैं। और यह नि:स्वार्थता पढे-लिखे, विद्वान या धार्मिक लोगों की ही विशेषता नहीं है। यह समाज के सभी स्तरों में पायी जाती है। यहाँ कुछ लोकप्रिय और अत्यन्त मनोहर उत्सवों को छोड़ कर धर्म रूढ़ि या सम्प्रदाय नाम की चीज नहीं है। यह उनके दैनिक जीवन में आत्म-त्याग, आज्ञा-पालन और आत्म-समर्पण के रूप में दिखाई देता है।   

जापानियों को बचपन से ही सिखाया जाता है कि जीवन कर्तव्य है, सुख नहीं है। वे उस कर्तव्य को स्वीकार करते हैं। प्राय: कठोर और कष्टकर कर्तव्य को सहनशील आत्म-समर्पण के साथ स्वीकार करते हैं। वे अपने आप को सुखी बनाने के विचार से परेशान नहीं करते। यह सारे देश के जीवन को आनन्द और मुक्त अभिव्यक्ति नहीं, एक असाधारण आत्म-नियंत्रण प्रदान करता है। यह तनाव, प्रयास और मानसिक तथा स्नायविक दबाव का वातावरण पैदा करता है, उस तरह की आत्मिक शांति नहीं देता जैसी, उदाहरण के लिए, भारत में अनुभव की जा सकती है। वास्तव में, जापान में ऐसी कोई चीज नहीं है जिसकी तुलना भारत में व्याप्त शुद्ध भागवत वातवरण से की जा सके। यह वातावरण ही भारत देश को ऐसा अनोखा और बहुमूल्य बनाता है। जापान के मंदिरों में, वहाँ के पवित्र दुर्गम मठों में जो कभी कभी ऊंचे पर्वत की चोटी पर बने होते हैं, बड़े बड़े देवदार के पेड़ों से ढके होते हैं, जो नीचे की दुनिया से बहुत दूर हैं, उनमें भी यह वातावरण नहीं है। वहाँ बाहरी नीरवता है, विश्राम और निश्चलता है, लेकिन शाश्वत का वह आनंदमय संवेदन नहीं है जो एकमेव की जीवन सन्निधि से आता है। यह सच है कि यहाँ सब कुछ एकता के मन और आँखों को सम्बोधित करता है – मनुष्य की भगवान से एकता, प्रकृति की मनुष्य से एकता और मनुष्य मनुष्य की एकता से। लेकिन यह एकता कम ही अनुभव की जाती है या जीवन में उतारी जाती है। निश्चय ही जापानियों में उदार आतिथ्य, पारस्परिक सहायता, पारस्परिक अवलम्ब की भावना बहुत विकसित है। लेकिन अपने संवेदनों, विचारों और सामान्य क्रियाओं में यह सबसे अधिक व्यक्तिवादी और पृथकतावादी जाति है। इन लोगों के लिए रूप प्रधान है, रूप आकर्षक है। वह अभिव्यंजक भी होता है। वह किसी अधिक गहरे सामंजस्य या सत्य, प्रकृति या जीवन के किसी विधान की कहानी कहता है।  प्रत्येक रूप, प्रत्येक क्रिया, बगीचे की व्यवस्था से लेकर प्रसिद्ध चाय समारोह तक, प्रतिकात्मक है, और कभी कभी एक बहुत ही सादी और सामान्य चीज में गहरा, अलंकृत, इच्छित प्रतीक मिल जाता है जिसे अधिकतर लोग जानते और समझते हैं। लेकिन यह जानना और समझना केवल बाहरी और परम्परागत होता है। वह आध्यात्मिक अनुभवों से आने वाला जीवंत सत्य नहीं होता जो दिल और दिमाग को प्रबुद्ध करे। जापान मौलिक रूप में संवेदनों का देश है। वह अपनी आँखों के द्वारा जीता है। उस पर सौंदर्य का एकछत्र राज्य है और उसका वातावरण मानसिक और प्राणिक क्रिया कलाप, अध्ययन, निरीक्षण, प्रगति और प्रयास को उत्तेजित करता है, लेकिन शांत, आनंदमय चिंतन मनन को नहीं। लेकिन इस सारे क्रिया कलाप के पीछे एक उच्च अभीप्सा उपस्थित है जिसे उस जाति का भविष्य ही व्यक्त करेगा। 

(श्री अरविंद सोसाइटी की अग्निशिखा में प्रकाशित)

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