अभी पिछले माह, जुलाई 2022 में मैं चिन्मय तपोवन आश्रम, सिद्धबारी, धर्मशाला में दस दिवसीय श्रीमदभागवत पुराण, स्कन्ध एक की व्याख्या के शिविर में था। शिविर में वक्ता थे पूज्य स्वामी श्री अभेदानंदजी। स्वामीजी चिन्मय मिशन दक्षिण अफ्रीका से इस शिविर के आयोजन के लिए विशेष रूप से आए थे। जिस प्रकार राम चरित मानस और रामायण श्री राम कथा है उसी प्रकार श्रीमदभागवत महापुराण श्रीकृष्ण कथा है।
स्वामीजी के सामने भागवत पुराण रहती थी और वे उसके पन्ने पलटते रहते थे। एक दिन बोलते-बोलते स्वामीजी अचानक रुक गए। कुछ समय पश्चात उन्होंने फिर से बोलना प्रारम्भ किया – आप देख रहे हैं। इस ग्रंथ के पन्ने निकल गए हैं। बहुत पुरानी हो गई है। काफी मैली सी भी दिखती है। पूरा ग्रंथ ढीला हो गया है। इसे बहुत यत्न से रखना पड़ता है, पन्नों को बड़ी सावधानी से पलटना होता है। आप लोगों में से कइयों ने और दूसरों ने भी अनेक बार इसके बदले नया लेने को कहा, बल्कि लाकर रख भी दिया। लेकिन मैं बार-बार इसी पर लौट आता हूँ। मैं जब भी नयी पुस्तक खोलता हूँ मुझे उसमें कागज और स्याही के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखता। मुझे वह बेजान और नीरस प्रतीत होती है। मैं, न तो उसे पढ़ पता हूँ और न ही कोई नया विचार, अर्थ मेरे मन में आता है।
लेकिन जब
इस पुरानी पुस्तक को खोलता हूँ तो ऐसे लगता है जैसे मैं भागवत पढ़ नहीं रहा हूँ, बल्कि भागवत खुद-ब-खुद मेरे कानों में बोल रही है। न जाने
कितने वर्षों से मेरी अंगुलियों ने इसे छुआ है, इस पर चली
हैं, मेरी आँखों ने इसे देखा है, इन पर
छपी पंक्तियों की बीच के खज़ानों ने मेरे कानों में कुछ गुनगुनाया है। शायद इसने
गुरुदेव की अंगुलियों के स्पंदन और दृष्टिपात का भी अनुभव किया होगा। उनके अलावा
और भी कई गुरु-भाइयों, संतों,
स्वामियों ने इसमें प्राण फूंके होंगे। इसमें
चेतना है, प्राण है, स्पंदन है।
जगह-जगह मेरे निशान हैं, टिप्पणियाँ हैं। ये मुझ से बात करती
हुई प्रतीत होती है।
हमारे
सदियों पुराने मंदिर, चार धाम, बारह
ज्योतिर्लिंग, इक्यावन शक्ति पीठ,
प्राचीन मंदिर और आस्थास्थल अपनी गंदगी, भीड़-भाड़, सँकड़ा प्रवेश, प्राचीन बनावट,
छोटे प्रांगण और अन्य बुराइयों के बावजूद हमारे पूजनीय स्थल हैं, हमारी आस्था के प्रतीक हैं। लाखों नहीं करोड़ों लोग वहाँ जाते हैं, बार-बार जाते हैं, उनकी ‘मनौती’ मानते हैं। इन आम जनता और राजा-महाराजाओं की श्रद्धा ने, संतों और महात्माओं के स्पर्श ने, विद्वानों और
पंडितों के ज्ञान ने, कलाकारों और साहित्यकारों की कृतियों
ने, श्रद्धालुओं और दीन-दुखियों की नजरों ने इनमें प्राण
फूँक दिये हैं। इनकी रक्षा के लिए न जाने कितने लोगों ने अपना सर्वस्व स्वाहा कर
दिया है। इनके दर पर न जाने कितने लोगों ने अपने सिर पटके हैं। ये जाग्रत देव हैं, इनमें शक्ति का निवास है। इनकी याद आने पर, यहाँ
पहुंचने पर हम स्वयंमेव श्रद्धानवत हो जाते हैं हमारी सात्विकता प्रखर हो जाती
है।
अगर आपके
घर में भी कोई ग्रंथ है, भले ही किसी भी अवस्था में हो, उसे न हटाएँ। उसमें आपके पूर्वजों के संस्कार, उनकी
आत्मा, उनके स्पंदन, उनकी यादें समाई
हैं। उस ग्रंथ को वही आदर दीजिये जो आप अपने पूर्वज को देते हैं। आदर पूर्वक
आहिस्ते से खोलिये, उसे प्रणाम कीजिये,
उसका सम्मान कीजिये, उसकी पूजा कीजिये। अगली पीढ़ी को
संस्कारित करने का यह भी एक सरल सा उपाय है।
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