पाठकों के कलम से
यह कहानी नहीं एक संस्मरण है अजय मिश्र जी का :
“यह घटना तब
की है जब मैं मध्यप्रदेश के एक शहर में एक निजी विद्यालय में उच्च श्रेणी में शिक्षक
के पद पर कार्यरत था। प्रायः लोक-मंचीय कार्यक्रमों में देर रात तक विभिन्न शहरों
में प्रस्तुति देने भी जाया करता था। ऐसे में मुझे देर रात्रि तक कार्यक्रम पूर्ण
करके शिक्षकीय कार्य हेतु अपने सुबह की पाली वाले विद्यालय में पहुंचने की
अनिवार्यता भी रहती थी। एक रात मैं लोक-मंचीय कार्यक्रम देकर अपने कार्यस्थल से 100 किलोमीटर दूर वापस अपने विद्यालय पर पहुंचने के लिए मुख्य
सड़क (मेन रोड) के किनारे खड़ा हुआ, किसी भी प्रकार के वाहन का इंतजार कर रहा था, जो मुझे अपने कार्यस्थल तक पहुंचा दे। दिसम्बर का महीना था, ठिठुरा देने वाली ठंडी रात थी। डेढ़ घंटे मैं रोड पर खड़ा
रहा,
पर कोई भी गाड़ी मुझे नहीं मिली। विद्यालय प्रबंधन के
आक्रोश का डर और ऊपर से किसी वाहन का न मिलना मेरे लिए दुखदायी होता जा रहा था।
तभी दूर से किसी वाहन की रौशनी मुझे नजर आई। मैं मदद की उम्मीद के साथ वाहन को
रुकने के लिए हाथ देने लगा। वह वाहन मेरे करीब आकर रुका, तो मैंने देखा वह एक मिनी ट्रक थी।
मैंने वाहन
चालक से लिफ्ट मांगते हुए आग्रहपूर्वक कहा, 'भैया मुझे हर हाल में सुबह तक विद्यालय पहुंचना है। क्या मुझे वहाँ तक छोड़ देंगे?" उसने मजबूरी के भाव चेहरे पर लाते हुए कहा कि आगे की सीट पर तो मेरे छोटे
बच्चे और पत्नी बैठी हुई हैं, सामने थोड़ी भी
जगह नहीं है। ऐसे में आप चाहें तो ट्रक के पीछे बैठ सकते हैं। मैंने तत्काल हामी
भर दी और ट्रक के पीछे जा बैठा। ट्रक में कुछ पुराने लोहे के टुकड़े, बॉटल, डिब्बे और रद्दी
पेपर इत्यादि पड़े थे। ट्रक चल पड़ी। खुली ट्रक में बैठा ठंड में ठिठुरता हुआ मैं
अपने गंतव्य पर पहुंचा। ट्रक से उतरने के बाद धन्यवाद देते हुए मैंने ट्रक चालक से
पूछा,
'भैया कितना भाड़ा दे दूं?" प्रत्युत्तर में ट्रक चालक हाथ जोड़ते हुए बोला, 'साहब जी मैं कबाड़ी का काम करता हूं, कसाई का नहीं। भंगार (कबाड़ी) बेचता हूं, मदद नहीं। किसी की भलाई कोई फल पाने के लिए नहीं की जाती।
माफ़ कीजिए!'
कहता हुआ वह बिना देर किए ट्रक आगे बढ़ा ले गया। दूर जाती
हुई ट्रक की बैक लाइट की रोशनी तब भी मुझे अंधेरे में चलने के लिए मददगार सिद्ध हो
रही थी। मेरे पास कोई शब्द शेष नहीं रह गए थे, उसके प्रति आभार व्यक्त करने के लिए।
मैं आज भी
उस अनजान ट्रक चालक को याद करता हूं। उसकी प्रेरणा से अपनी हर सुबह की
शुरुआत आमजनों की भलाई का संकल्प लेते हुए करता हूं।"
ट्रक वाले ने अनजाने में ही किसी को
प्रेरित किया ‘भलाई का संकल्प’ लेने
के लिए। एक साहित्यकार ने लिखा है, ‘जो
खुद भी दूसरों के सहारे है, जिसे दो जून की रोटी भी नसीब
नहीं, वह भी और कुछ नहीं तो मुस्कुरा तो सकता ही है, दो लब्ज प्यार के तो बोल ही सकता है।’
दशकों पहले, जब पिताजी थे, हमारे यहाँ एक संत आया
करते थे। वार्तालाप के दौरान उन्होंने कहा ‘समाज सेवा
के लिए दिल और धन दोनों चाहिए। किसी एक के होने से नहीं होता। लेकिन धन के पहले
दिल होना चाहिए, दिल है तो रास्ते अनेक हैं लेकिन अगर दिल ही
नहीं हैं तो धन किस काम का’।
उन्होंने
स्पष्ट किया कि समाज के उत्थान के लिए बहुत बड़े धन की आवश्यकता है। समाज में ऐसे
लोग बड़ी तादात में हैं जिन्हें जीवन की न्यूनतम आवश्यकतायें – रोटी, कपड़ा और मकान - उपलब्ध नहीं हैं। अगर आज की अवश्यकता अनुसार
शिक्षा और स्वास्थ्य जोड़ लें तो संख्या और बढ़ जाती है। इन्हें पूरा करने के लिए
बड़े धन की आवश्यकता है। लेकिन धन होने बावजूद भी अगर दिल नहीं है तब वह धन किसी
काम का नहीं। लेकिन अगर धन नहीं है और दिल है तो सामर्थ्य अनुसार वह कुछ-न-कुछ तो
करेगा है। ईश्वर और समाज भी उसकी सहायता के लिए पहुँच जाते हैं। ज्यादा नहीं भी तो
कुछ लोगों को सहायता तो पहुँचती ही है और दूसरों को प्रेरणा तो मिलती ही है।
एक सज्जन
से मुलाक़ात हुई, एक आश्रम में। मैंने देखा वे आश्रम में
प्रायः चले आते, 1000-500 का समान खरीदते, भुगतान करते, काउंटर पर बैठी महिला को चौकलेट देते
और चले जाते। एक दिन मैंने उस महिला से पूछा ‘ये कौन हैं’। उसने जो बातें बताई मेरी उनसे मिलने की तीव्र इच्छा हुई। दूसरे दिन मैं
उनकी प्रतीक्षा करने लगा।
मिलनसार, हंसमुख और शहर के सरकारी विद्यालय से प्रिन्सिपल के पद से
सेवानिवृत्त। कैमेस्ट्रि और अँग्रेजी में भी एम.ए. किया। सारा जीवन अध्ययन, अध्यापन में ही बिताया। पत्नी नहीं है। दो बेटियाँ हैं। ग्रैचुटी के मिले
पैसों से दोनों का विवाह किया, एक छोटा सा फ्लैट लिया। आगे उन्होंने बताया कि साठ हजार की पेंशन है, कट-कटा कर 40 मिलते हैं। मेरे लिए जरूरत से ज्यादा है, मैं क्या करूंगा इतने रुपयों का, घूमते-फिरते
खरीदता रहता हूँ। घर छोटा है, खरीदा हुआ सामान रखने की जगह
नहीं है अतः एक छोटा सा कमरा भाड़े पर ले लिया है। जब कमरा पूरा भर जाता है, टेम्पो में भर कर ले जाता हूँ, पिछले इलाके के
गांवों में बाँट आता हूँ। बस यही क्रम चलता रहता है।
मेरी तो बोलती
बंद हो गई, एक तरफ समाज ‘रक्तबीजों’ से भरा है, जितना रक्त पीते हैं प्यास बुझती ही
नहीं और रक्त पीने की लालसा बढ़ती जाती है, चर्चे भी इन्हीं
के होते हैं और दूसरी तरफ ये हैं जिनकी कोई लालसा नहीं, समाज
को देने में लगे हैं और इनकी कोई चर्चा ही नहीं।
भला हो इस
सरकार का जिनकी नजर ऐसे लोगों पर पड़ी और उनको सम्मान देना प्रारम्भ किया। ये लोगों
की नजर में आए, जनता को भी प्रोत्साहन मिला। पता चला कि समाज
में केवल रक्तबीज ही नहीं हैं बल्कि औक्सिजन देने वाले लोग भी हैं। ऐसे लोगों की
चर्चा करो, इन कार्यों को प्रोत्साहित करो।
हित का कार्य, सत्कार्य,
प्रेम के लिए करो, किसी पुरस्कार की आशा से नहीं। अच्छे
बने रहने के हर्ष के लिए अच्छे बनो, दूसरों की कृतज्ञता पाने के
लिए नहीं।
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