शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

कैसा हो जीवन का लक्ष्य



 


अभी कुछ समय पहले मैं श्रीअरविंद आश्रम – दिल्ली शाखा में  था। शुक्रवारीय संध्याकालीन ध्यान की संक्षिप्त वार्ता में वहाँ के एक आदरणीय साधक ने इस विषय पर चर्चा की थी। मुझे लगा कि उनके विचार आपके साथ साझा करूँ, फलस्वरूप यह लेखन-

जब मैं स्कूल में था, यकीनन इस विषय पर निबंध लिखाया जाता था – “मेरे जीवन का लक्ष्य” (My aim in life)। और इसका पहला पैरा प्रायः इस प्रकार प्रारम्भ हुआ करता था, “उद्देश्यहीन जीवन एक दयनीय जीवन होता है, एक महान उद्देश्य ही एक महान जीवन की सरंचना करता है। उद्देश्यहीन जीवन, सागर में  बिना पतवार की नाव की तरह हवा के थपेड़ों से इधर-उधर डोलती रहती है, उसका न तो कोई गंतव्य होता है, न ही कोई दिशा।”  तब से अब तक लक्ष्य के अर्थ भी बदल गये हैं और जहां पहले एक लक्ष्य से काम चल जाता था अब अलग-अलग अनेक लक्ष्य, यथा सामाजिक, पारिवारिक, शारीरिक, आध्यात्मिक, व्यावसायिक आदि की बातें होती हैं। अतः मैं लक्ष्य क्या और क्यों होना चाहिए पर चर्चा न कर लक्ष्य में क्या होना चाहिए, पर चर्चा करूंगा?

          एक प्रमुख बात। इसका इस से कोई लेना-देना नहीं है कि हम जीवन के कौन से पड़ाव पर हैं, बच्चे हैं या युवा, या अधेड़ या बुजुर्ग या फिर अति-बुजुर्ग। न ही इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि पुरुष हैं या महिला, नौकरी करते हैं या व्यापार, सन्यासी हैं या गृहस्थ, स्वस्थ्य हैं या रोगी, सही-सलामत हैं या दिव्यान्ग। एक सही लक्ष्य हमें जीवन के अंतिम क्षण तक, हर परिस्थिति में प्रेरणा देती रहती है, मार्ग प्रशस्त करती रहती है। यह निश्चित है कि हमारा जीवन वैसा ही होगा जैसा हमारा लक्ष्य होगा। हमारे जीवन का लक्ष्य ही हमारे जीवन का स्वरूप तय करता है। हमारा लक्ष्य किसी भी प्रकार का हो सकता है, बढ़िया-घटिया, अच्छा-बुरा, लेकिन जीवन वैसा ही होगा जैसा उद्देश्य होगा। तब उद्देश्य में ऐसा क्या होना चाहिए कि उद्देश्य बढ़िया और अच्छा हो। चूंकि इसका संबंध हमारे जीवन से ही है, अतः हमारे लिए महत्वपूर्ण भी है। 

          अगर हम अपने जीवन के लक्ष्य को इन चार स्तम्भों पर खड़ा करें तो हमारे जीवन के लक्ष्य में और जीवन में गुणवत्ता अपने आप आ जाती है। लक्ष्य हम चाहे जो भी बनाएँ लेकिन उन्हें खड़ा करें इन चार खंबों पर -

१। ऊंचा (High) -महान, , २। चौड़ा (Wide)-विस्तारित, ३। दयापूर्ण (Generous), और  ४।निःस्वार्थ (Dis-interested)

यानी, लक्ष्य एक ही होगा, लेकिन उसकी नींव में ये चारों तत्व होने चाहिये :   

१.    ऊंचा-महान – एक ऊंची और महान बात हमारे मन और मस्तिष्क की गहराइयों से आती है। यह क्षणभंगुर नहीं होती बल्कि दीर्घ कालीन होती है। यह हमारे सुलझे मस्तिष्क की देन होती है। किसी कष्ट का निवारण कुछ समय के लिए नहीं, लंबे समय के लिए भी नहीं बल्कि उससे मुक्ति के लिए। आनंद की प्राप्ति भी कुछ समय के लिए नहीं, लंबे समय के लिए भी नहीं बल्कि स्थायी होनी चाहिए। इसके लिए लक्ष्य पर गहराई से विचार करना और उस पर डट कर अडिग भाव से टिके रहना आवश्यक है। अगर हम लंबे समय के लिए उसे पकड़ कर नहीं रख सकते हैं तब इसका अर्थ है कि हम में महानता है तो सही लेकिन वह कभी-कभी अल्प समय के लिए ही प्रकट होती है। हम, किसी एक अच्छे कार्य के बारे में सोचते हैं,  कुछ दिन करते हैं लेकिन फिर छोड़ देते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वह हमारे जीवन का उद्देश्य नहीं है बल्कि एक क्षणिक विचार है जो आया और चला गया। ऊंची पढ़ाई, बड़े पैसे, प्रचुर धन, इज्जत-पद-मान-सम्मान आदि भी अगर देखा जाए तो ऊंचे है लेकिन महान नहीं। जब हम अपने से आगे बढ़ कर दूसरे के बारे में सोचने लगते हैं तब हमारे जीवन का लक्ष्य महान बन जाता है। जब हम दूसरे के लिए सोचने लगते हैं तो इनकी ऊँचाइयाँ असीमित हो जाती हैं। बड़े रुपए, ज्ञान का क्या करेंगे?  इस क्या को लक्ष्य बनाएँ, यही लक्ष्य को असीमित भी बनाता है महान भी। इस क्या का उत्तर दूसरे के बार में विचार करने से ही मिलता है। केवल विचार काफी नहीं है, उस पर कार्य करना होगा, उसके लिए जुनून होगा, तब उसमें तीव्रता आएगी, अन्यथा यह एक क्षणिक विचार तक ही सीमित रह जाएगा, उस पर थोड़ा सा कार्य करके ही संतोष हो जायेगा। बड़ी वस्तु को पाने के लिए छोटी वस्तु छोड़ने के लिए तैयार होना होगा। कुछ देने से ही कुछ मिलता है। जितना ज्यादा और अच्छा चाहिए उतना ही ज्यादा मूल्य देना पड़ता है। हमारे पास हर कुछ पाने की न तो शक्ति होती है न ही समय। ज्यादा के लिए कम को छोड़ना ही पड़ता है। जैसे-जैसे महान लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ते हैं छोटे उद्देश्य स्वतः छूटने लगते हैं, जीवन सुधरने लगता है। महान उद्देश्य की प्राप्ति से मिलने वाला संतोष भी ज्यादा होगा। क्योंकि इससे यह भावना पैदा होगी की मुझे और कुछ नहीं चाहिए मेरे पास सब कुछ है। एवरेस्ट फतेह करने पर जो और जैसा संतोष मिलेगा और कोई दूसरी चोटी पर चढ़ने से नहीं मिलेगा। यही नहीं उसके बाद और किसी चोटी पर चढ़ने की तमन्ना भी नहीं रहेगी।

२.    चौड़ा-विस्तारित – यानी जैसे हमारा जीवन उद्देश्य ऊंचा-महान है वैसे ही यह चौड़ा-विस्तारित भी होना चाहिए। संकुचित न हो कर इसमें अनेक लोगों का समावेश होना चाहिए, ज्यादा-से-ज्यादा। सब से सीमित हुआ केवल मैं, इसे थोड़ा विस्तारित करें तो मैं और मेरा परिवार, वृहत परिवार थोड़ा और विस्तारित हुआ लेकिन फिर भी सिकुड़ा हुआ ही है। इसमें जैसे-जैसे, मुहल्ला, समाज, शहर, देश और उससे भी आगे बढ़ कर समस्त मानव-जाति, प्राणी मात्र को जोड़ना अपने जीवन के उद्देश्य को पूर्ण विस्तार देना है। यह कहना कि मैं पूरी मानव-जाति को प्यार करता हूँ कहना आसान है लेकिन करना कठिन। दूर देश के लोगों के बारे में सोचना बड़ा आसान है लेकिन अपने सामने खड़े 10 लोगों के लिए करना बड़ा कठिन है। मैं प्राणी मात्र की चिंता करता हूँ कहना बड़ा आसान है, सामने खड़े प्राणी के लिए करना बड़ा कठिन है। अपने लक्ष्य को विस्तारित कीजिये, ज्यादा-से-ज्यादा लोगों का समावेश कीजिये।

३.    दयापूर्ण - यानी उदारता का भी समावेश हो, हम देने के लिए तैयार हों। अब हमारा जीवन विस्तारित और महान है, और हम कुछ देने के लिए भी तैयार हैं। हम क्या दे सकते हैं? हम वही दे सकते हैं जो हमारे पास है। और किसे दे सकता हूँ? जिसे उसकी आवश्यकता है। यह जानना जरूरी नहीं है कि वह कौन है, न उसका हमारा परिचित होना जरूरी है, जरूरी है सिर्फ इतना ही कि उसे इसकी आवश्यकता है। जबरदस्ती किसी को कुछ नहीं दिया जा सकता। और-तो-और अच्छी बात, ज्ञान भी आप उसे ही दे सकते हैं जो उसे लेना चाहता है। हम व्हाट्सएप्प भेज तो सकते हैं लेकिन उसे सुनना, देखना, पढ़ना तो पाने वाले की इच्छा पर ही निर्भर करता है। देने का कार्य तो तभी किया जा सकता है जब आप उदार होंगे। और अगर उदार होंगे तो आपको कब, किसे किसकी जरूरत है यह भी दिखने और समझ में आने लगेगा। 

४.    निःस्वार्थ – यह यथार्थ रूप में बहुत कठिन है। यह अँग्रेजी का un-interested नहीं बल्कि dis-interested है, यानी ऐसा नहीं है कि मेरी उसमें मेरी कोई रुचि नहीं है बल्कि इसका अर्थ हुआ में इसमें मेरा कोई मतलब नहीं है, स्वार्थ नहीं है। इससे मुझे क्या मिलेगा इस पर हमारा ध्यान नहीं है। मिलेगा जरूर एक शांति, पूर्णता का अहसास, संतोष, तृप्ति की भावना। लेकिन यह स्वतः प्राप्त हो रही है, न हमें इसकी चाह थी और न ही हम इस भावना से दे रहे थे। देने में हमारा कोई स्वार्थ नहीं है, हम केवल इस लिए दे रहे हैं क्योंकि हम देना चाहते हैं, क्योंकि हम उदार है और इसमें मेरा कोई भी स्वार्थ नहीं है। हमें जो भी मिल रहा है वह हमारा मुख्य उत्पाद नहीं है बल्कि गौण-उत्पाद (by-product) है।

 

    अगर इन चारों – महान, विस्तार, उदार और निःस्वार्थ – को एक साथ जोड़ दें तो एक ही चीज निकलती है वह है अपने बारे में न सोच कर दूसरों के बारे में सोचना। केवल सोचना काफी नहीं है, बल्कि करना। जीवन में एक ऐसा उद्देश्य ही हमें पूर्णता प्रदान करता है, असीम ऊंचाई प्रदान करता है।

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