शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

दिल की धड़कन

 

(आपके शरीर में एक दिल भी है जो धड़कता है। उसका धड़कना काफी नहीं है। यह जरूरी है कि जो भी आपसे मिले उसे लगे कि आपका दिल धड़कता है। एक धड़कना, जीवन की निशानी है और दूसरा, ईश्वरीय अंश की। पहला जब तक धड़कता है तब तक आप जीवित हैं उसके बाद केवल “बॉडी” (body), और दूसरा आपके इंसानियत की और आपके जाने के बाद दूसरों के दिल को धड़काता रहता है। समझते हैं इस कथन को एक घटना से।)  



          रात काफी हो चुकी थी और पहाड़ी इलाके में गंतव्य नगर पहुंचने के बाद हम रात्रि विश्राम के लिए किसी होटल की तलाश में थे। आश्चर्य हुआ कि इस इलाके के प्रायः सभी होटल और लॉज के दरवाजे बंद थे, और रास्ते भी प्रायः निर्जन। हम एक जगह से दूसरी जगह एक दिशा में आगे बढ़ते रहे। इस बीच एक बाईक पर सवार दो युवक ज़रूर दिखे जो हमारी गाड़ी का पीछा करते  प्रतीत हो रहे थे और हमें रुकने का इशारा भी कर रहे थे। हम थोड़े आशंकित हुए। लेकिन हमारी आशंका तब निर्मूल साबित हुई जब गाड़ी रोकने के बाद उनकी बातों से हमें ऐसा लगा कि उन लोगों ने दरअसल हमें कहीं दूर से ही होटल की तलाश करते परेशान हाल देख लिया था।

          वे लोग अपने घर में ही होटल का छोटा-मोटा कारोबार चलाते थे और चाहते थे कि हमलोग उनके साथ चलकर रहने का कमरा देख लें और पसंद आ जाए तो वहीं रुक जाएं। हम बुरी तरह थक चुके थे और हमें तुरंत आराम की ज़रूरत थी। पसंद और नापसंद की बात तो तब होती जब हमारे पास आसान सा दूसरा कोई विकल्प होता। इसलिए हम उनका प्रस्ताव स्वीकार कर उनके साथ हो लिये। वे दो लोग आगे-आगे और हमारी गाड़ी उनके पीछे-पीछे। दो-तीन किलोमीटर चलने के बाद हमलोग एक संकरे रिहायशी इलाके के भीतर थे। गाड़ी एक गली के मुहाने पर खड़ी कर हमें अंदर जाना पड़ा जहां उनका एक पुराना दो मंजिला घर था। ऊपरी मंजिल के छोटे-छोटे चार कमरे उन लोगों ने पर्यटकों के लिए छोड़ रखे थे और नीचे वे लोग खुद अपने परिवार के साथ रहते थे। हमारे पहुंचते ही नीचे परिवार के लोगों के बीच थोड़ी हलचल सी हुई और दो महिलाएं भी ऊपरी मंजिल पर हमें कमरे तक ले जाने के लिए उन दोनों के साथ हो लीं। शायद वे दोनों भाई थे और वे महिलाएं दोनों की पत्नियां। ऊपर के चारों कमरे खाली थे। कमरे में एक मामूली बेड, लकड़ी की एक मेज़ और कुर्सी के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। और चारों कमरों के लिए एक ही साझा टॉयलेट बाहर बरामदे के एक छोर पर था। एक मन हुआ कोई दूसरी जगह देख ली जाए। फिर लगा एक रात की ही तो बात है, थोड़ा कष्ट ही सही, हमारे रुकने से अगर उन लोगों की भी थोड़ी मदद हो जाती है तो हमारे लिए भी संतोष की बात होगी। वैसे यह सोचकर हम उनपर कोई अहसान नहीं करने जा रहे थे। हमारी अपनी भी लाचारी कोई कमतर नहीं थी। वैसे बातचीत में उन लोगों के आग्रह का स्वर भी कुछ ऐसा था कि हम अन्य विकल्पों के बारे में सोच नहीं पाते। यह आदान-प्रदान जैसा व्यापार भर नहीं था। और उनकी तंगहाली का एक कारण शायद यह भी रहा हो, किराया पूछने पर उन्होंने जो बात कही उससे भी हमारी इस आशंका की ही पुष्टि होती थी। उन्होंने कहा- 'वैसे तो किराया पांच सौ रुपए है लेकिन आप जो भी देना चाहेंगे हमें स्वीकार होगा।'

          मैने पूछा- 'आपलोग इतनी रात गये घर से दूर निर्जन सड़कों पर क्या कर रहे थे ?"

          एक ने जवाब दिया- 'घाटी जाने वाले बहुत सारे सैलानी अक्सर रातों को यहां तक पहुंच कर होटल की तलाश में भटकते मिल जाते हैं। और इस वक्त तक बड़े-बड़े होटलों के व्यवसायी प्रायः अपने दरवाजे बंद कर लेते हैं। इस तरह वे जो छोड़ देते हैं वही हमारी छोटी-मोटी कमाई है। हम इन्हीं होटलों के आसपास ग्राहकों की तलाश में रोज़ रात के इस वक्त भटकते हैं।'

          उसके भीगे स्वर के आरोह-अवरोह से मुझे महसूस हुआ कि यह युवक बहुत ही संवेदनशील है। अपनी बेबसी को लेकर बेहद सजग और संजीदा भी। और इस वक्त मेरे कुछ भी कहने पर शायद रो पड़े। इसलिए मैं पूरी संजीदगी से बस उसे सुनता रहा। ...लेकिन उसके चेहरे की चमक में हस्तक्षेप करते कृतज्ञता के भाव को देख मैं थोड़ा - निराश भी हुआ

          रात के करीब डेढ़ बजे एक अजनबी शहर में अजनबी लोगों के साथ बिल्कुल अनौपचारिक घरेलू माहौल में इस तरह चाय पीते हुए अचानक मुझे एक अहसास-सा हुआ कि ज़रूरतमंदों की मदद करना बहुत नेकी का काम हो सकता है लेकिन इस बाबत अगर हमारे भीतर श्रेष्ठता-बोध, या जिसकी मदद की गयी है उसके भीतर हीनता-बोध जैसी कोई सुगबुगाहट होने लगी हो तो सहायता करने में अवश्य कोई कमी रह गयी है। निस्पृह और निर्विकार सहायता करना सब लोगों के वश की बात नहीं।  

          हम तो आज अपनी ही बनायी एक ऐसी हिंसक और आत्म- मुग्ध दुनिया में रहने के आदि हो गए हैं जहां एक तरफ पूरा-का-पूरा जंगल तो हम रात के अंधेरे में बिना किसी शोरगुल के काट लेते हैं, लेकिन दूसरी तरफ एक अदद पौधा भी रोपने जब कहीं निकलते हैं तो पूरा लाव-लश्कर हमारे साथ होता है और कई कोणों से उस दृश्य की तस्वीर भी उतरवा लेते हैं कि सुबह-सुबह चाय के साथ, अखबारों में छपा अपना चेहरा देख मुस्कुराते रहें। पूरे पर्यावरण में व्याप्त अश्लील आत्म-मुग्धता, आत्म-प्रचार, और मुफलिसी में जीते वंचित समाज के प्रति खाए-अघाए लोगों की आपराधिक हृदय हीनता जैसे भयावह प्रदूषण के बीच भी हमें निस्पृह और निर्विकार मदद करने वाले लोगों के दर्शन हो जाते हैं।

          ऐसे हृदय-विहीन दुनिया में भी हृदय-वान लोगों की कमी नहीं। जहां एक तरफ ऐसे लोग हैं जिनका दिल केवल इसलिए धड़कता रहता कि वे कहीं बॉडी न बन जाएँ तो ऐसे दिल भी हैं जिनमें ईश्वरीय अंश हैं। आत्म-मंथन कीजिये, आपके हृदय में कौन-सा दिल धड़क रहा है।

(योगेन्द्र यादव के संस्मरण पर आधारित)

(...उन्होंने कहा- 'वैसे तो किराया पांच सौ रुपए है लेकिन आप जो भी देना चाहेंगे हमें स्वीकार होगा।'… जब कोई  भुगतान की राशि आपके ऊपर छोड़ देता है, तो उसकी मजबूरी का फायदा न उठाएँ, उसे उसकी अपेक्षा से ज्यादा दें, उसके  होठों की मुस्कान को अपनी मुस्कान बनाएँ। वह आप में ईश्वर के दर्शन कर रहा है, उसे ईश्वर बन कर दिखाएँ।  एक पौधे को लगाने की नकली मुस्कान ओढ़ने के बजाय एक जंगल को बचाने की असली मुस्कुराहट चेहरे पर लटकाएँ। उसे यह अहसास कराएँ कि आपके अंदर एक ईश्वरीय हृदय धड़क रहा है।)

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शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

इंसानियत के सात दिन

                                                               देना ही पाना है  


 
टाइम्स ऑफ इंडिया, कोलकाता प्रकाशन, 16 मई 2023। एक विशेष और महत्वपूर्ण खबर छपी। न न न न...., आप गलत सोच रहे हैं, यह न मोदी के बारे में है न बीजेपी के बारे में, न गांधी परिवार के बारे में न विपक्ष के बारे में, न खिलाड़ी के बारे में न फिल्मी हस्ती के बारे में, न अरबपतियों के बारे में न विश्व की बड़ी हस्तियों के बारे में। बल्कि यह खबर है पूना की एक सॉफ्टवेर कंपनी “Icertis” के बारे में। कैसे इस कंपनी ने अपने कर्मचारियों को बताया कि वे सिर्फ न तो कर्मचारी है, न मालिक, न मानव बल्कि इंसान हैं। वे क्या, किसे, कैसे कुछ दे सकते हैं? कैसे इस कंपनी ने अपने कर्मचारियों को इसकी प्रेरणा दी, जानकारी दी। इंसानियत की दुनिया से रूबरू होने का मौका दिया।

          लेकिन इसके पहले जानिए एक छोटी सी घटना :

          एक धनाड्य महिला अपनी जिंदगी से ऊब गयी थी। उसे लगने लगा कि उसका पूरा जीवन बेकार है, उसका कोई अर्थ नहीं है। सज-धज कर अपने मनोचिकित्सक के पास गई और बोली डॉ साहब मुझे लगता है कि मेरा पूरा जीवन  अर्थहीन है, मेरी खुशियाँ जैसे मर चुकी हैं, क्या आप मेरी खुशियाँ ढूंढने में मदद करेंगे? एक बारगी मनोचिकित्सक मौन हो गया, लेकिन फिर उसने एक बूढ़ी औरत को बुलाया जो वहाँ साफ सफाई का काम करती थी और उस अमीर औरत से बोला मैं तो यह नहीं बता सकता कि आपकी जिंदगी में खुशियाँ कैसे आयेगी लेकिन यह औरत तुम्हें बतायेगी कि कैसे उसने अपने जीवन में खुशियाँ ढूँढी। आप उसे ध्यान से सुनें और विचार करें क्या आपकी खुशी भी लौट कर आ सकती है?

          वह वृद्ध औरत बताने लगी - मेरे पति की मलेरिया से मृत्यु हो गई और उसके ३ महीने बाद ही मेरे बेटे की भी सड़क हादसे में मौत हो गई। मेरे पास कोई नहीं था। मेरे जीवन में कुछ नहीं बचा था। मैं सो नहीं पाती थी, खा नहीं पाती थी। मैंने मुस्कुराना बंद कर दिया था। मैं दिन रात स्वयं के जीवन को समाप्त करने की तरकीब सोचने लगी थी। तब एक दिन एक छोटा बिल्ली का बच्चा मेरे पीछे लग गया। जब मैं काम से घर आ रही थी, बाहर बहुत ठंड थी इसलिए मैंने उस बच्चे को अंदर आने दिया। उस बिल्ली के बच्चे के लिए थोड़े से दूध का इंतजाम किया और वह सारी प्लेट सफाचट कर गया। फिर वह मेरे पैरों से लिपट गया और चाटने लगा।

          उस दिन बहुत महीनों बाद मैं मुस्कुराई। तब मैंने सोचा यदि इस बिल्ली के बच्चे की सहायता करने से मुझे इतनी खुशी मिल सकती है तो हो सकता है कि दूसरों के लिए कुछ करके मुझे और भी खुशी मिले। इसलिए अगले दिन मैं अपने पड़ोसी के लिए, जो कि बीमार था, कुछ खाने का बना कर ले गई। वह बहुत खुश हुआ और मुझे भी खुशी मिली। फिर मैं हर दिन कुछ नया और कुछ ऐसा करती थी जिसमें दूसरों को खुशी मिले और उन्हें खुश देख कर मुझे खुशी मिलती थी।

          आज मैंने खुशियाँ ढूँढी हैं, दूसरों को खुशी देकर।  यह सुन कर वह अमीर औरत रोने लगी। उसके पास वह सब था जो वह पैसे से खरीद सकती थी। लेकिन उसने वह चीज खो दी थी जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती।

          तब, अब बताता हूँ टाइम्स ऑफ इंडिया की उस खबर के बारे में जिसकी मैंने चर्चा की थी। इस कंपनी ने एक विशेष अभियान प्रारम्भ किया है अपने कर्मचारियों के लिए। अभियान का नाम है “इंसानियत के 7 दिन” (7 Days for Humanity)। इस अभियान के तहत कंपनी का कोई भी कर्मचारी एक वर्ष में 7 दिन की सवैतनिक छुट्टी (paid holiday) ले सकता है। इन सात दिनों में उसे अपने मन-मुताबिक किसी भी प्रकार की स्वयंसेवा (volunteering) करनी होगी। यही नहीं इस कार्य में वे जितना खर्च करेंगे कंपनी भी बराबर की धन राशि की सहायता करती है।  

          मित्रों हमारा जीवन इस बात पर निर्भर नहीं करता कि हम कितने खुश हैं अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी वजह से कितने लोग खुश हैं। तो आइये आज शुभारम्भ करें इस संकल्प के साथ कि आज हम भी किसी न किसी की खुशी का कारण बनें।

          रोहन सोमन, कंपनी के सहयोगी निर्देशक यह मानते हैं कि समाज को वापस देने का हर अवसर - बड़ा हो या छोटा - "हमें मनुष्य के रूप में हमारे उद्देश्य की याद दिलाता है। मैं आइसर्टिस का हिस्सा बनकर खुश हूं, जो अक्सर हमें व्यवसाय से पहले स्वयं, परिवार और समुदाय की देखभाल करने की हमारी जिम्मेदारी के चार चक्रों की याद दिलाता है।” वे आगे कहते हैं कि “द सोसाइटी फॉर डोर स्टेप स्कूल” (DSS) के साथ काम करने के क्षण अविस्मरणीय हैं। अपने समुदाय को वापस देने का अनुभव और स्कूली बच्चों की आंखों में खुशी देखना बेश-कीमती है।"

          मित्रों यह बहुत महत्वपूर्ण है अतः मैं फिर से दोहरा रहा हूँ हमारा जीवन इस बात पर निर्भर नहीं करता कि हम कितने खुश हैं अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी वजह से कितने लोग खुश हैं तो आइये आज शुभारम्भ करें इस संकल्प के साथ कि आज हम भी किसी न किसी की खुशी का कारण बनें।     

          मैं फिर कहता हूँ – देना ही पाना है।

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शुक्रवार, 7 जुलाई 2023

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