‘न’ से ‘स’ तक की यात्रा बड़ी अहम है। अगर इन्हें जोड़ दिया जाए तो बनता है नस। यानी पूरे शरीर में फैली और दौड़ती नलिकायें, कोशिकाएं जिसका कार्य शरीर के हर छोर पर, हर अवयव तक रक्त पहुँचाने तक सीमित नहीं है बल्कि इससे कहीं ज्यादा है। जहां ये अच्छे रक्त को प्रवाहित करती हैं वहीं दूषित रक्त को निकालने का काम भी वही करती हैं। (न)कारात्मक से (स)कारात्मक तक की यात्रा भी यही है। बुरे को निकालना और अच्छे को सँजोना।
श्री अरविंद सोसाइटी के
अध्यक्ष श्री प्रदीप नारंग से मुलाक़ात हुई। उनसे बातचीत करते हुए मैंने कहा – ‘कभी-कभी जीवन में
जड़ता आ जाती है, ठहराव आ जाता है, अंग
शिथिल होने लगते हैं, मानस कमजोर हो जाता है, संगी-साथी बिछड़ जाते हैं, जीने का कोई लक्ष्य नहीं रह जाता है, मृत्यु की
प्रतीक्षा शुरू हो जाती है, लगता है जैसे........।’
उन्होंने बीच में ही टोकते
हुआ कहा - ‘क्यों, ऐसे विचार कभी मन में आने ही नहीं चाहिये, जैसे ही
ये आयें इन्हें खारिज कर दें, किसी भी प्रकार के नकारात्मक
विचार को प्रवेश न करने दें, उसे तुरंत नकार दें। माँ से
कहें ‘नहीं माँ मुझे यह नहीं चाहिए इसे हटाएँ’। उम्र से जड़ता का क्या लेना-देना है? जड़ता शरीर से
नहीं मन से आती है, मन को हर समय तरोताजा, सजग और चुस्त रखें। नकारात्मकता शत्रु है, इसके
पहले की वह अपनी जड़ जमाये उसे उखाड़ फेंकिए। अगर एक बार उसने अपनी जड़ें जमा लीं तब
उसे उखाड़ना कष्टसाध्य हो जाता है। माँ से मांगना
है तो जीवन मांगें, मृत्यु नहीं। माँ से सकारात्मक रहें, काम मांगे। यह न कहें
कि मैं कार्य लायक नहीं रहा, कहें कि मुझे कार्य दें
और उसे करने योग्य बनाएँ। वैसे उस कार्य के योग्य बनाने के लिए भी कहने की
आवश्यकता नहीं है। माँ खुद उसके योग्य बनायेगी। राम का उदाहरण लें, उन्होंने योग्य लोग नहीं खोजे, जो मिला उसे ही उस
कार्य के योग्य बनाया। ईश्वर योग्य लोगों को अपने पास नहीं बुलाते, बल्कि जिन्हें बुलाना होता है उन्हें योग्य बना लेते हैं। हाँ यह कह सकते
हैं कि अगर माँ को लगे कि इस जन्म का मेरा काम हो गया है तो इस प्रकार प्रस्थान
करूँ कि किसी का सहारा न लेना पड़े, किसी का मोहताज न बनूँ, किसी के आश्रित न रहूँ।’
एक बार शत्रु किले में घुस
जाए तो फिर उसे हराना और भगाना आसान नहीं होता। अंग्रेज़ यहाँ आए। धीरे-धीरे वे अपने
पैर फैलाने लगे और अपनी सत्ता जमाई। अगर उसी समय उन्हें उखाड़ दिया जाता, जमने नहीं दिया जाता तो उन्हें बाहर
निकालने का कार्य सहजता से हो जाता। लेकिन जब एक बार उन्होंने अपनी सत्ता जमा ली, जड़ें जमा लीं, तब फिर उन्हें उखाड़ने में सदियाँ
लगीं, लाखों को अपनी कुर्बानी देनी पड़ी, देश के दो टुकड़े हुए तब जा कर उन्हें बाहर निकाल पाये। यह साधारण सी बात
एक अनपढ़ किसान भी अच्छी तरह से समझता है। खेतों में जहां अपनी फसल को सहेजता रहता है वहीं निरंतर स्वयं उगने वाले
पौधों, घास-फूस, जंगल को भी निरंतर उखाड़ता
रहता है। उसे मालूम है कि अगर एक बार ये फैल गए तो वे उसकी फसल का रस चूस लेंगे और
उन्हें काटना कठिन हो जाएगा।
रस्किन बॉन्ड का नाम हम सभी
ने सुना है, जीवन के 90
वसंत देख चुके हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या आप फिर से 29 वर्ष के बनने का सपना
देखते हैं? उन्होंने छूटते ही कहा – ‘29
का सपना क्यों, मैं अनुभव करता हूँ कि मैं 29, 19 या 9 का हूँ। हाँ यह सही है कि कुछ एक दांत अब खो गए हैं और गाल थोड़े
लटक गए हैं लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है! मैं आध्यात्मिक भी नहीं हूँ उस अर्थ में
जिसे प्रायः ‘अध्यात्मिक’ होना कहा या
समझा जाता है। लेकिन मैं धार्मिक हूँ इस अर्थ में कि मैं अपने आप को प्रकृति से
जुड़ा हुआ पाता हूँ। पक्षी, पेड़, पौधे, फूल, नदी, तालाब, पहाड़ की पवित्रता मुझे स्पर्श करती है। यह तो प्रकृति ही है जिसने हमें बनाया है।’
हाँ, प्रकृति से जुड़ें,
प्रकृति से जुड़ना आध्यात्मिकता ही है। बढ़ती उम्र के साथ कुछ-एक बातें ध्यान में
रखनी चाहिए, मसलन ‘अकेलापन’। यह मत सोचिए कि आपके अनेक दोस्त हैं, परिचित हैं
और वे अभी लंबे समय तक आपके साथ रहेंगे। उनका
कोई भरोसा नहीं वे कब आपको अकेला छोड़ कर चल दें। जरा विचार कीजिये जैसे आप सोच रहे
हैं वैसे वे भी सोच रहे हैं। भरोसा दोनों में से किसी का भी नहीं है। ‘अकेलापन’ वैश्विक तौर पर संक्रामक माना गया है। यह
हमारी जिंदगी में एकदम अचानक अप्रत्याशित रूप से उस समय आता है जब हमें इसकी जरा
भी आवश्यकता नहीं होती है। अकेलापन और एकांत एक नहीं हैं। एकांत वह अवस्था है जिसे
हम कई बार खोजते रहते हैं विशेषकर तब जब इस भाग-दौड़ की जिंदगी से हम कुछ समय के
लिए दूर जाना चाहते हैं, उससे बचना चाहते हैं, उससे ऊब होने लगती है। और तब अपनी कर्म स्थली से बाहर जाकर, कुछ समय रह कर पुनः तरो-ताजा होकर वापस आते हैं। बड़े शहरों में यह अकेलेपन की अनुभूति ज्यादा
होती है जहां किसी के पास किसी दूसरे के लिए समय ही नहीं होता है, सही अर्थों में अपने खुद के लिए भी समय नहीं होता। एक दूसरे को और अपने आप को जानने की फुर्सत
नहीं होती। हर कोई हर दूसरे को संदिग्ध दृष्टि से देखता है। झुंड में रहने वाले, अनेक दोस्तों और परिचितों से घिरे रहने वाले लोग भी भीड़ में अकेले होते
हैं। बड़े-बड़े कॉम्प्लेक्स में रहने वाले भी अकेलापन महसूस करते हैं।
इसकी तैयारी आपको पहले से
करनी है। कोई-न-कोई शौक पाल लें, जिस में आप
अपने आप को झोंक सकें – दिन दहाड़े या मध्य रात्रि की नीरवता में भी। अकेले रहने से
भी अकेलापन अनुभव होता है। इसका सबसे आसान और बेहतरीन उपाय है – दोस्त, पुस्तकें और अध्यात्म। दोस्तों
का पता नहीं कौन पहले जाएगा, सुबह मिल कर आए शाम को छोड़ कर
चला गया। पुस्तकों को अपना साथी बनाएँ। अलग-अलग विषय और भाषा में। इनमें बच्चों के
कॉमिक्स, जासूसी
कहानियाँ, हंसी-व्यंग, कविता-गजल, कहानी-उपन्यास, आध्यात्मिक-साहित्य, इतिहास-भूगोल,
विज्ञान-वाणिज्य, काल्पनिक-यथार्थ,
पत्र-पत्रिकाएँ। कहने का मतलब यह कि कोई भी हो, कैसी भी हो, जैसा मूड हो वैसी ही सही। पढ़ने
के साथ लिखने का मन हो तो लिखिए भी। आपका
समय तो निकल जाएगा लेकिन हो सकता है रहें अकेले ही।
पढ़ने के अलावा जहां आप अपने
को व्यस्त कर सकते हैं वे हैं, अध्यात्म, सेवा। अगर
इनमें अपना मन रमा लें तो ये छोड़ कर भी जाने वाले नहीं। बहुतों से सेवा नहीं होती।
धन तो दूर की बात है, एक मुस्कुराहट,
दो मीठे शब्द, अपना समय भी नहीं दे पाते। लेकिन सही मायने
में अपने को सकारात्मकता के साथ व्यस्त रखने का सबसे अच्छा उपाय सेवा भाव ही है।
इसमें आप अकेले भी नहीं होते। लेकिन इसकी
भी अपनी शर्तें हैं – अहम से बचना। धन, मान, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा से
ज्यादा खतरनाक अहम है सेवा भाव का। किसी की सहायता करते समय यह मत सोचिये कि
भविष्य में वह आपके काम आएगा। यह भी आशा मत रखिए कि आपने दान दिया है या निष्काम
भाव से सेवा की है तो आपको फूलों की माला मिलेगी, काँटों का
ताज भी मिल सकता है, इसके लिए निर्विकार रूप से तैयार रहिए। बस
सहायता करके, भूल जाइए। क्योंकि यह आशा का भाव ही भविष्य में
आपके दुख का कारण बनता है । आप जो भी कर रहे हैं वह परमात्मा देख रहा है.. उससे
छिपा नहीं है। दूसरे जो कर रहे हैं उसे भी वह देख रहा है। ना किसी को जताइये, ना ही बताइये। बस इतना विश्वास रखिये कि जब ईश्वर ने
उसकी सहायता के लिए आपको भेजा है तो निश्चित है कि जब आपको आवश्यकता होगी वह किसी
न किसी को भेजेगा।
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