शुक्रवार, 17 जून 2022

जन्मदिन-सालगिरह के उत्सव


 बड़ी मुश्किल है मेरे साथ। लेकिन अब क्या करूँ, मेरे कुछ समझ नहीं आता। मेरी बुद्धि, दिमाग तो बस ऐसे ही चलता है। जब कोई गाय कहता है तो मेरे आँखों के सामने एक चितकबरी रंग की कूबड़ वाली, दूधारू गाय का चित्र  बन जाता है लेकिन जब काऊ कहता है तब काले धब्बे वाली सफ़ेद रंग की सपाट पीठ वाली काऊ का चित्र आता है। मुझे दोनों में साफ फर्क नज़र आता है। मैं कहता हूँ कि नहीं गाय काऊ नहीं है लेकिन पूरी दुनिया कहती थी गाय माने काऊ, और अब कहती है काऊ माने गाय।  मैं कहता हूँ कि नहीं दोनों अलग-अलग हैं एक नहीं है, लेकिन कोई कान  नहीं देता।

          अरे भाई मैं तो मान ही रहा हूँ कि मैं गलत हूँ, लेकिन जैसे आपको मेरी बात समझ नहीं आ रही है वैसे ही मुझे आपकी बात समझ नहीं आती। लेकिन मैं यही कहता हूँ कि आप ही सही हैं, मुझ में समझ की कमी है, या यह भी कह सकते हैं कि मैं सठिया गया हूँ। न न न न, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं सचमुच सठिया गया हूँ। अब जन्मदिन और बर्थडे को ही ले लीजिये। आप फिर कहेंगे, दोनों एक ही है, लेकिन मैं फिर........। जन्मदिन कहते हैं तो मेरे सामने लंबी, नुकीली, रंग-बिरंगी टोपी पहने खेलते-कूदते बच्चे, मंदिर-प्रसाद, जलता दिया, माँ-बाप, परिवार नजर आता है, लेकिन जब बर्थडे कहते हैं तो केक, चक्कू, बुझी मोमबत्ती, दोस्तों का हुजूम नजर आता है। हाँ यह मेरा ही दोष है, मेरी आँखों का, या समझ का,  या कोई बीमारी, मुझे पता नहीं। क्या आपको पता है? क्या आप इसे ठीक कर सकते हैं?

          ठीक ऐसे ही सालगिरह के नाम पर भारतीय लिबास में हाथ जोड़े कोई जोड़ा नज़र आता है, साथ में पूरा घर-परिवार, रिश्तेदार हैं। लेकिन ऐनिवरसरी कहने पर सूटेड-बूटेड पुरुष-महिला नजर आती है। एक में लोगों से, ईश्वर से आशीर्वाद और शुभेच्छा लेता, दीपक जलाता जोड़ा नजर आता है और दूसरे में हाथ में गिलास थामे झूमते-थिरकते  पुरुष-नारी दिखते हैं। दोस्तों और ऑफिस के लोगों से भरा-पूरा है, रिश्तेदार कहीं किसी कोने में बैठे-खड़े दिख जाते हैं। अभी किसी ने मुझे बताया, मेरा दिमाग ठीक है बस चश्मा पुराना हो गया है, उसे बदली करने की जरूरत है। मैं कई बार अपना चश्मा भी बदली करवा चुका हूँ, लेकिन ढाक के वही तीन पात। बड़ा परेशान हूँ, क्या करूँ?

          अभी कुछ समय पहले की बात है। हम कई लोग एक साथ बैठे चर्चा कर रहे थे। अवसर था किसी परिचित के 80 वर्ष की आयु के उत्सव का। बात चीत के दौरान किसी ने सहस्त्रचंद्रदर्शन की चर्चा कर दी। लोगों ने ध्यान नहीं दिया, किसी को शब्द समझ नहीं आया। लेकिन मेरे कान खड़े हो गए, जिस तरह कहीं कोई खुड़का होने से कुत्ते के कान खड़े होते हैं। मैंने महोदय से पूछ लिया, क्या क्या क्या..... क्या कहा अपने’? इस बार उन्होंने धीरे-धीरे कहा सहस्त्र चंद्र दर्शन। शब्द सरल था, शाब्दिक अर्थ तुरंत समझ गया। मैंने पढ़ा है जीवेम शरद: शतम यानि जीवन के एक सौ शरद ऋतु, शरद वर्ष में एक बार आता है यानि एक सौ वर्ष। एक सौ वर्ष की आयु की कामना की प्रार्थना। मुझे लगा कि सहस्त्र चंद्र दर्शन का  भी ऐसा ही कोई अर्थ होना चाहिए। खुजली शुरू हो गई थी, अतः मैंने पूछ लिया। सौभाग्य से बाकी लोग भी उत्सुक थे, अतः बस पूरी चर्चा इसी तरफ मुड़ गई।

          चंद्र दर्शन तो पूर्णिमा के दिन ही हो सकता है, क्योंकि उसी दिन चंद्र अपने पूर्ण स्वरूप में होता है। अतः सबसे पहला प्रश्न तो यही था कि इसकी गणना तो बड़ी कठिन है! पता चला कि गणना उतनी कठिन नहीं है, जितनी प्रतीत होती है। आज ये गणना बड़े वैज्ञानिक-वेधशाला करते हैं, डेटा कम्प्युटर में डालते हैं, और वही बताता है भाई, मोटे रुपये तो लगते ही हैं। अरे, 100 वर्षों की गणना है कोई हंसी मज़ाक थोड़े ही है। एक दम सटीक, विश्वसनीय। हमारे यहाँ तो यह गणना मिनटों में सड़क के किनारे का पंडित भी पंचांग देख कर लेता है – दिन,घंटे, मिनट ही नहीं सेकेंड्स तक की सटीक गणना। कुछ खुचरे पैसों में हो जाती है। लेकिन अब हम उसे अनपढ़-गंवार समझते हैं। उसका क्या भरोसा! और फिर खर्च ज्यादा हो तभी तो विश्वसनीय लगता है, तभी मजा ज्यादा आता है, कहते हैं जितना गुड़ डालोगे उतना मीठा होगा। बिना गुड़ डाले कहीं मिठास  आती  है?

          किसी समय हमारी औसत आयु 60 वर्ष ही थी। अत: उम्र से संबन्धित समारोहों और अनुष्ठान का आयोजन 50वें वर्ष से प्रारम्भ हो जाता था। इन अनुष्ठानों के आयोजन का उद्देश्य  स्वास्थ्य, सुख, शांति और लंबी आयु की कामना और साथ ही ईश्वर का, बड़ों का आशीर्वाद लेने हेतु होता था। उसके पश्चात हर पाँच वर्ष पर इस प्रकार के आयोजन हुआ करते थे और इन सबों का अलग-अलग विधान था, अलग-अलग अनुष्ठान और अलग-अलग नाम। रजत, स्वर्ण, हीरक और शताब्दी का आगमन तो कई शताब्दियों बाद अंग्रेजों के आगमन के बाद हुआ। देश के अलग-अलग हिस्सों में इनके नाम भी अलग-अलग हैं और अनुष्ठान में भी थोड़ा बदलाव है। 55 वर्ष की आयु पर वरुण, 60 पर उग्ररथ (कई प्रान्तों में इसे षष्ठी पूर्ति भी कहा जाता था), 65 पर मृत्युंजय, 70 पर भौंरथी, 75 पर ऐंद्रि, 80वें पर यह स्वीकार किया जाता था कि सहस्त्र चंद्र  (एक हजार चंद्र) के दर्शन हो गए, 85 पर रौद्री, 80 पर कालस्वरूप, 95 पर त्र्यंबक और 100 पर त्र्यंबक-महामृत्यंजय शांति का अनुष्ठान होता था। परिवार जमा होता था, पूजा-हवन और भोज का आयोजन होता था।

           सहस्त्र चंद्र के साथ और एक अनुष्ठान प्रचलित था – सहस्त्र पूर्ण-चंद्र दर्शन। पुर्णिमा को होने वाले चंद्र-ग्रहण को बाद दे दिया जाता था, क्योंकि उस दिन पूर्ण नहीं होता, और इसकी भी गणना आसानी से कर ली जाती थी।

          विचारणीय है कि केवल चंद्रमा को ही क्यों? सूर्य क्यों नहीं? क्योंकि चंद्रमा हमारी भावनाओं को प्रभावित करता है। 60 के बाद व्यक्ति वंचित, अकेला और दूसरों के लिए अनुपयोगी होने लगता है। वह घबरा जाता है और संदेह करता है कि लोग उससे बच रहे हैं। साथ ही उच्च रक्तचाप और मधुमेह उस पर हमला करते हैं। इसलिए, उसे यह महसूस कराते हैं कि वह अभी भी हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। फिर 80 साल सहन करने के लिए बहुत अधिक है। यहां तक ​​​​कि उनके बच्चे भी बूढ़े हैं, इसलिए यह सबसे जरूरी बात है कि हमें उन्हें खुश करना चाहिए क्योंकि वे जीने का प्रबंधन कर सकते हैं,  80 वर्ष की आयु लंबी आयु है। इसलिए, यह सहस्त्र चंद्र समारोह महत्वपूर्ण है। हमें उनकी खुशी और भावना के लिए जश्न मनाना चाहिए कि वे अभी भी उपयोगी हैं, हमारे द्वारा वांछित हैं, लांछित नहीं। इस उम्र में उनके साथी भी स्वर्ग-निवास के लिए जा चुके होते हैं। इसलिए, वे वास्तव में अकेलापन महसूस करते हैं। उन्हें प्यार-स्नेह की जरूरत है, जिसे वे हमें देते रहे हैं। हमें तो बस उनका दिया हुआ ही वापस लौटाना है। उनका हाथ माथे पर रखें और देखें कि वे कैसे सुखी और शांत महसूस करते हैं।

          दूसरों की नकल करने के बजाय इस घटना को उनकी भावना के अनुसार करें और देखें कि वे कैसे संघर्ष करते हैं, मुस्कुराते हैं और आपको आशीर्वाद देते हैं। आज हम यह भूल कर रजत, स्वर्ण, हीरक जयंतियाँ मना रहे हैं, मनमाने ढंग से। कम-से-कम दीपक बुझाने के बदले दीपक जलाएं, जीवन में अंधकार न कर उसे रौशन करें  दूसरों की  संस्कृति जानना–उनका आदर करना ही चाहिए, लेकिन अपनी संस्कृति को भूलना, कष्ट दायक है। अपना वजूद बचाएं, अपनी संस्कृति अपनाएं।

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शुक्रवार, 10 जून 2022

जीने का तरीका

 जीने का तरीका                                              खबरें जरा हट के

 

(इस बात से हम अच्छी तरह से परिचित हैं कि हमारी  मीडिया / सोशल मीडिया / प्रिंट मीडिया हमें क्या और कैसी बातें बताती-दिखाती हैं, एक बार, बार-बार, दिन भर। लेकिन इन सब के बीच कभी-कभी अखबारों के भीतरी पृष्ठों पर, टीवी के एक कोने में, अनजान सोशल मीडिया में ऐसी खबरें छप जाती हैं जो पढ़ने, समझने और एक भारतीय नागरिक हेतु हमें जानना चाहिए। ऐसी ही एक और खबर रविवार, 3 अप्रैल, 2022 को टाइम्स ऑफ इंडिया, कोलकाता में छपी)

Why Indian millennials are downsizing their careers

(क्यों भारतीय युवा वर्ग अपने भविष्य का खुद निर्माण कर रहे हैं)

 

इस रिपोर्ट में कई भारतीयों की चर्चा है जिन्होंने अपने सधे-सधाए, सुव्यवस्थित उज्ज्वल भविष्य को तिलांजली दी और एक अलग-नया जीवन प्रारम्भ किया। ये भारत या विदेशों में बसे हुए थे और भविष्य सुरक्षित था। लेकिन इन युवाओं को वह जिंदगी रास नहीं आ रही थी। इन्हें लग रहा था कि हाँ पैसा बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नहीं। ये सब, अपने जीवन में एक बेचैनी महसूस कर रहे थे। यह वह जिंदगी नहीं थी जिसकी उन्होंने कल्पना की थी। कइयों को अपने घर-परिवार से दूर रह कर अकेले आनंद लेना कष्ट दायक लग रहा था, तो कइयों को यह आनंद दायक ही नहीं लग रहा था। वे अपने देश, परिवार, समाज और दायित्व को लेकर बेचैन थे और आखिर उन्होंने उस जीवन का त्याग कर नई शुरुआत की।

          छपी रिपोर्ट बताती है कि आश्लेघ बर्ती, विश्व की चोटी की टैनिस खिलाड़ी और तीन बार ग्रांड स्लैम की विजेता ने अचानक 25 वर्ष की उम्र में खेल से सन्यास लेने की घोषणा की। उस समय वे अपने खेल के शीर्ष पर थीं, उन्हें विज्ञापनों से बड़ी मोटी रकम मिल रही थी। बहुत से युवाओं ने उनके इस फैसले की प्रशंसा की तो कई अचंभित रह गए। बर्ती ने कहा कि बहुत से लोग यह नहीं समझ पायेंगे कि पैसा कमाने के अलावा भी एक खूबसूरत जीवन है। लेकिन कई युवा जो बर्ती के साथ पहचाने जाते हैं, वे भी जीवन में संतुलन, धीमी जीवन शैली और बिना रुके (नॉनस्टॉप) के बजाय पूर्णता की भावना की इच्छा में अपरंपरागत कैरियर और जीवन शैली को अपनाने के लिए स्थायी  नौकरी छोड़ रहे हैं।

          लंदन के आई बी एम में  कार्यरत शुवाजीत पाइन के पास वह सब कुछ था जो एक युवा अपने लिए और एक अभिभाववक अपने बच्चे के लिए सपने देखता है। लेकिन फिर 12 साल पहले बिना किसी योजना के अपनी मोटी वेतन वाली, स्थायी नौकरी छोड़ दी। "मैंने एक पारंपरिक कैरियर से परे शायद ही कभी सोचा था, लेकिन कुछ वर्षों के बाद मुझे एहसास हुआ कि यह वह नहीं था जो मैं वास्तव में करना चाहता था," 39 वर्षीय शुवाजित कहते हैं, वे  कुछ छान-बीन करने के बाद महाराष्ट्र के एक ग्रामीण इलाके में शिक्षाविशारद बन गए। उन्होंने कहा, "काम करने के अपने वर्षों में, जीवन में यह पहली बार था जब मैंने अपना काम करते हुए महसूस किया कि मैं कुछ कर रहा हूँ। मैं अब 11 साल से विकास क्षेत्र में कार्य कर रहा हूं।"

          एक पत्रकार के रूप में लेखिका सोमी दास की अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी थी, लेकिन जब उन्होंने इसके कारण उत्पन्न मानसिक तनाव और गिरते स्वास्थ्य का अनुभव हुआ उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ कर स्वतंत्र लेखन और पत्रकारिता का कार्य प्रारम्भ किया। इसके लिए उन्हें अपनी दिनचर्या में परिवर्तन करने पड़े लेकिन अब वे अनुभव करती हैं कि अब न तो उनका शोषण हो रहा है और न ही अब वे एक रोबोट मात्र बन कर रह गई हैं। जीवन में कई संघर्ष हैं लेकिन वे खुश हैं कि उन्होंने ऐसा करने का साहस जुटाया, बहुत लोग ऐसा करने का साहस नहीं जुटा पाते। कई लोग एक प्रकार के चक्रव्यूह में फंस गए हैं और उनके पास इससे बाहर निकलने का विशेषाधिकार या साधन नहीं है।"

          “व्हाट मिलेनियल्स वांट” के शोधकर्ता और लेखक विवान मारवाह का कहना है कि इस तरह के फैसले देश के छोटे उपखंडों तक सीमित हैं। "जिन लोगों के माता-पिता ने मध्यम वर्ग में आने के लिए कड़ी मेहनत की, वे ही इन विकल्पों पर विचार करने में सक्षम हैं। वे एक ही विचार से प्रभावित महसूस नहीं करते हैं। हमारी सबसे बड़ी मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान है, जिसकी हमें चिंता नहीं है। और इसके बाद जो आता है वह है खुशी और तृप्ति, जिस पर वे ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।"

          विवेक शाह स्वीकार करते हैं कि वित्तीय स्थिरता ने उन्हें और उनकी पत्नी बृंदा को अलग-अलग निर्णय लेने की अनुमति दी। सिलिकॉन वैली में एक विशिष्ट स्टार्टअप में काम करते हुए, शाह को पता था कि उनके जुनून कहां हैं। "हम इस तरह के काम के बारे में कुछ नहीं जानते थे, लेकिन जानते थे कि हम भारत में इसके बारे में सीखना चाहते हैं। यही वह जगह है जहां हमारा दिल है और हम यहाँ अहमदाबाद के नजदीक इस फार्म पर आ गए। और अब हम इस फार्म पर तथा लैंडस्केप और बगीचे स्थापित करने के प्रोजेक्ट्स पर काम करते हैं। वे आगे कहते हैं कि इस नयी जिंदगी में कई समझौते करने पड़ते हैं, लेकिन हम एक सरल जीवन व्यतीत करते हैं, कम संसाधनों के साथ।

          छोटे शहरों में जाना और एक गैर परंपरागत कैरियर को चुनने की तरफ अब युवाओं का रुझान बढ़ने  लगा है लेकिन अगर आज से 20 वर्ष पूर्व देखें तो यह मान्य नहीं था। जब जून 2003 में मंसूर खान ने बॉलीवूड में निर्देशक के काम को तिलांजली दे कर कून्नूर के छोटे से चीज हाउस पर कार्य आरंभ किया था मुंबई में लोगों को यह विश्वास ही नहीं हुआ कि मंसूर मुंबई छोड़ कर कून्नूर चले गए हैं। वे कहते हैं कि उनके पास अनेक युवा आते हैं और उनसे जानने चाहते हैं कि उन्होंने यह सब कैसे किया? वे यह बताते हैं कि मुंबई में ब्रीच कैंडी में बैठ कर युवाओं को यह समझाना बहुत कठिन है लेकिन यहाँ मैं उन्हें ऐसी जिंदगी के लिए प्रोत्साहित कर सकता हूँ कि वे बड़े शहरों को छोड़ कर छोटी जगहें चुने।

          बहुत से लोग आज भी यह नहीं समझते हैं कि हमें तो एक ही जीवन मिला है, अपनी मर्जी से जीने के लिए। वे हमें आलसी ही मानते हैं। लेकिन इन नव-जवानों का मानना है कि सफलता की कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं है, इसे हमें अपने हिसाब से गढ़नी है। यह हमारी अपनी जिंदगी है, एक, घर पर माँ-बाप के साथ रह कर नौकरी करते हुए रहना पसंद कर सकता है तो दूसरा  बड़ी कंपनी में नौकरी करना या उसका सीईओ बनना। लेकिन ये ही सफलता के मापदंड नहीं हैं, सब की अपनी-अपनी कहानी है, अपनी-अपनी मर्जी है, अपने-अपने मापदंड हैं।   

(अगर आप को भी कोई बेचैनी महसूस हो रही है तो आप भी अपनी कहानी खुद  लिखिए, अपने मापदंड खुद तय कीजिये। उनके केवल सपने मत देखिये, उसे यथार्थ में  परिवर्तित कीजिये। आखिर आपको जीने के लिए एक ही जिंदगी मिली है। सफलता, आनंद, सुख, शांति को खुद परिभाषित कीजिये, दूसरों की परिभाषा मत दोहराइये।)

(अखबार में छपी रिपोर्ट का आंशिक हिन्दी रूपान्तरण, पूरे रिपोर्ट को नीचे दिया गया है।)



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आपने भी कहीं कोई विशेष खबर पढ़ी है जिसे आप दूसरों से बांटना चाहते हैं तो हमें भेजें। हम उसे यहाँ, आपके संदर्भ के साथ  प्रकाशित करेंगे।

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https://youtu.be/InUOgyjcj0c


 

शुक्रवार, 3 जून 2022

सूतांजली जून 2022

 सूतांजली के जून अंक में एक लम्बी लघु कथा, योग दिवस पर मन का योग, लघु कहानी और धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी की अट्ठारहवीं किश्त है।



१। एक लम्बी लघु कथा

एक कहानी और साथ में एक विदेशी महिला का मार्मिक अनुभव

२। मन का योग

योग दिवस पर क्या है योग और उसका महत्व। क्या योग केवल एक शारीरिक व्यायाम मात्र है?

३। संवेदना  - लघु कहानी - जो सिखाती है जीना

हर किसी के हृदय में एक बचपन भी होता है और सरलता भी, चाहे बड़ा अधिकारी हो या चपरासी।

४। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी (१८) – धारावाहिक

धारावाहिक की अट्ठारहवीं किश्त

 

ब्लॉग  का संपर्क सूत्र (लिंक): à  

https://sootanjali.blogspot.com/2022/06/2022.html

 

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शुक्रवार, 27 मई 2022

139 का कमाल

 139 का कमाल  -  यात्रा संस्मरण                                                देश बदल रहा है  

 


एक लंबे अंतराल के बाद फिर एक लंबी यात्रा पर निकले। कई नए अनुभव हुए, तो कई नयी जगहों पर भी गए। सबसे अद्भुत और अप्रत्याशित अनुभव तो 139 का था जिसका अनपेक्षित अनुभव, यात्रा समाप्ति के चंद घंटों पहले ही हुआ।

रानीखेत

कोलकाता से दिल्ली होते हुए काठगोदाम और फिर अपने पहले पड़ाव रानीखेत के नजदीक एक गाँव मजखाली के वूड्स विला रिज़ॉर्ट पहुंचे। चूंकि हम यहाँ एक पारिवारिक विवाह में आए थे सब प्रबंध मेजबान की ही तरफ से था, कार्यक्रम सुनिश्चित था अतः कहीं घूमना नहीं हुआ। 2019 के बाद हम इस क्षेत्र में पहली बार आए थे। इस वर्ष एक नया नजारा देखने को मिला। पहाड़ों पर, सड़कों के किनारे, जहां समुचित स्थान था, मोबाइल वाहनों में रेस्तरां देखने को मिले। विदेशों में राज-मार्ग पर ऐसे रेस्तरां प्रायः देखने को मिल जाते है। लेकिन सब में, प्रायः एक ही प्रकार की सामग्री मिलती है। शायद समय के साथ इनमें विविधता आ जाए। पता चला कि ऐसे रेस्तरां खुलने के प्रमुख दो कारण रहे – पहला, कोरोना के बाद अनेक लोग शहरों को छोड़ गांवों में आ गए थे। इनमें जज्बा था और हुनर भी। ये वापस भी जाना भी नहीं चाहते थे और बहुतों के पास लौटने का विकल्प भी नहीं था। बस शुरुआत हो गई। दूसरा, कोरोना के समय में सड़कों की मरम्मत हो जाने के कारण अपने वाहनों से घूमने का प्रचलन बहुत बढ़ गया। यही नहीं,

मोबाइल फास्ट फूड 
वे जो पहले सरकारी या निजी बसों में सफर किया करते थे वे भी दुपहिया वाहनों से चलने लगे। ऐसे दुपहिया वाहनों में वृद्धि स्पष्ट दीखती है। इनके कारण मार्ग पर खाना ढूँढने वाले भी बढ़े। पहाड़ों पर हर जगह सड़क किनारे बड़ी जगह उपलब्ध भी नहीं होती है ताकि बड़ा रेस्तरां खोला जा सके। जिस कोरोना ने बेरोजगार किया उसी कोरोना ने व्यवसाय के नए आयाम भी खोल दिये।

         दो शब्द वूड्स विला के संबंध में भी। शादी थी और पूरा रिज़ॉर्ट आरक्षित था अतः सही आकलन करना कठिन है। लेकिन कुछ एक बातें जो साफ दृष्टिगोचर होती हैं कि रिज़ॉर्ट बढ़िया और सुंदर है, पूर्व-मुखी है, 

कमरे से सूर्योदय


सूर्योदय का आनंद ले सकते हैं, बड़े-बड़े कमरे हैं, डुप्लेक्स हैं, साफ सुथरा है और भोजन भी स्वादिष्ट है। परेशानी है चढ़ने-उतरने की, आवश्यकता से ज्यादा। शहर – गाँव से जरा हट कर है, अतः बिना वाहन के कहीं आना जाना संभव नहीं।

नैनीताल

          दूसरा पड़ाव था नैनीताल। बल्कि सटीक कहूँ तो नैनीताल से लगभग 7 किलोमीटर पहले जोखिया में स्टर्लिंग रिज़ॉर्ट में। वैसे तो हम नैनीताल हर वर्ष ही जाते हैं लेकिन हर समय वहाँ श्रीअरविंद आश्रम में ही ठहरते हैं। श्रीअरविंद आश्रम मल्ली और स्टर्लिंग तल्ली नैनीताल की तरफ है। जैसे हम उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम,  मध्य के नाम से शहरों के अलग-अलग क्षेत्रों को चिह्नित करते हैं, वहीं पहाड़ों पर तल्ली-मल्ली का प्रयोग किया जाता है। तल्ली यानि नीचे और मल्ली यानि ऊपर। वे जो नैनीताल से परिचित हैं उन्हें ऐसे समझा सकता हूँ कि नैनीताल जाते समय झील के पहले का क्षेत्र तल्ली है और झील के बाद का मल्ली। 

स्टर्लिंग 4 तल्ले का भवन है लेकिन लिफ्ट भी है। यहाँ ठहरने से पहली बार अनुभव हुआ कि अनेक लोग अल्प समय बिताने या अवकाश के बाद जिंदगी के बचे दिन गुजरने के लिए ऐसे स्थानों पर मकान, बंगला, फ्लैट लेकर शहर के शोर गुल से दूर आ जाते हैं। मौसम अच्छा रहता है। वैसे हर-स्थान का अपना सुख और दुःख होता है। अगर प्राप्त दुःख के साथ आप गुजारा कर सकते हैं तो आप भी ऐसे विकल्प पर विचार कर सकते हैं। रानीखेत, अपने ऐसे ही एक परिचित के लड़के की शादी में आए थे जिसने समय से पहले कार्य से निवृत्ति लेकर बाकी की जिंदगी वहीं गुजारने के लिए अपने घर में आ गए थे।

          इस यात्रा में हम पहली बार हनुमान गढ़ी गए। हर वर्ष सुनना होता था लेकिन जाना नहीं होता था। जाने पर पता चला की इस क्षेत्र में दो हनुमान गढ़ी हैं – असली और नकली – शायद बहुतों को ये शब्द अच्छा न लगे, उनसे क्षमा याचना सहित मैं कह सकता हूँ योग-स्थली और पर्यटन-स्थली। योग-स्थली तल्ली नैनीताल के नजदीक ही है, नीम करोली बाबा ने इसकी स्थापना की थी, समय-समय पर इस प्रांगण में कई देवताओं को प्रतिष्ठित कर उनके मंदिर भी बनाए गए। यहाँ लोग कम आते हैं और शायद इसी कारण यहाँ की पवित्रता-शांति बनी हुई है, फोटो लेना मना है। दूसरी हनुमान गढ़ी भीमताल के नजदीक है। यह स्थान मार्ग पर ही है, खुले में हनुमान की भीमकाय प्रतिमा आते-जाते दिखती है, पर्यटकों की भीड़ रहती है, अतः गूगलमैप भी नैनीताल के स्थान को कम और भीमताल के  स्थान को ज्यादा दिखाता है।

          यहाँ के ग्रीष्म-कालीन राज्यपाल निवास (गवर्नर्स हाउस) भी देखा। उद्यान में  अनेक लंबे और मोटे देवदार के वृक्ष हैं। बताया गया की इन एक-एक वृक्ष का मूल्य दस लाख से ज्यादा है। इन वृक्षों का एक ही लंबा ताना होता है लेकिन यहाँ एक वृक्ष से त्रिशूल के आकार में तीन तने निकले हुए थे। प्रकृति का चमत्कार।

हृषिकेश (ऋषिकेश)

          यहाँ से निकल हम पहुंचे हृषिकेश जिसे अब बिना समझे अप-भ्रंश कर दिया गया है ऋषिकेश। नैनीताल से ऋषिकेश तक की यात्रा हमने एसी स्लीपर बस में की। यह अलग अनुभव था लेकिन पूर्ण आरामदायक नहीं। ट्रेन की यात्रा में भी कई समस्याएँ थी, अतः इसका चुनाव किया। नैनीताल से हल्द्वानी तक गाड़ी से और फिर बस से। बस ठीक थी और पर्याप्त ठंडी भी। लेकिन समस्या थी – हल्द्वानी में हमें, दूसरे लोग भी थे,  एक पेट्रोल पम्प पर खड़ा कर दिया गया, 3 घंटे के लिए। हृषिकेश में भी हमें नेपाली फार्म पर प्रातः 5 बजे छोड़ दिया गया। ऑटो थे, लेकिन वह एक अलग समस्या ही थी। किसी प्रकार आश्रम तक पहुंचे।

          हृषिकेश में  पहुँचते ही बड़ा भयानक अनुभव हुआ। किसी परिचित और उसके समस्त परिवार के विशेष अनुमोदन पर हम पहुंचे शिव-आनंद आश्रम पर। यहाँ 3-4 घंटे में हमें लगभग 20-25 तल्ले की ऊंचाई पर पैदल चढ़ना और उतरना पड़ा। बड़ी कठिनाई से हमें वानप्रस्थ आश्रम में 5 दिन ठहरने की अनुमति मिली। पिछली यात्रा में जिस ऑटो वाले से हमारा परिचय हुआ था उसका फोन था, उसे बुलाया और उसने, इस मर्मांतक पीड़ा से हमारा उद्धार किया। यहाँ से छुटकारा लेकर हम पहुँच गए वानप्रास्थ आश्रम में। इतनी 

थकावट हो गई थी की जैसे-तैसे कुछ खा कर हम जो सोये तो दूसरे दिन सुबह ही उठे। लेकिन इस पीड़ा ने हमारे शरीर को इस प्रकार तोड़ा कि फिर हम न तो ऋषिकेश में कहीं जा पाये, न उत्तरकाशी गए, न और कहीं। 5 दिन बाद वापसी के सफर में  हरिद्वार पहुंचे।

औरो-वैली

          हृषिकेश और हरिद्वार के मध्य रायवाला में प्रमुख मार्ग से थोड़ा अंदर है ऋषिद्वार-औरोवैली। श्रीअरविंद से जुड़ा होने के कारण यह स्थान भी देखने की इच्छा थी। यहाँ स्वामी ब्रह्मदेव से मुलाक़ात हुई। पौष्टिक जलपान करने के बाद उन्होंने स्वयं हमें पूरा स्थान घूम-घूम कर दिखाया। स्थान आकर्षक है, निर्माण कार्य चल रहा है,  ठहरने की भी व्यवस्था है। वैसे इसका श्रीअरविंद सोसाइटी, श्रीअरविंद आश्रम- पांडिचेरी या दिल्ली से कोई सीधा संबंध नहीं है। स्वामी ब्रह्मदेव श्रीअरविंद और श्रीमाँ के अनुयायी हैं।

हरिद्वार

          हरिद्वार में भी हमें एक नए आश्रम में ही ठहरना था – श्री उमामहेश्वर, बैरागी आश्रम। शिवानंद आश्रम के अनुभव के बाद बड़ा डर लग रहा था, लेकिन यहाँ पहुँच कर आश्वस्त हुए। एक सीढ़ी भी नहीं चढ़नी थी, हमें नीचे का ही कमरा दिया गया था, कमरा साफ-सुथरा, बड़ा और  एसी भी था। भोजन की व्यवस्था अच्छी थी एवं पौष्टिक तथा स्वादिष्ट भी। आश्रम का अपना घाट है, पर्याप्त रूप से सुरक्षित भी।

          आराम करने के बाद हम पहुंचे हर-की-पैड़ी। बड़ी निराशा हुई। कहीं भी किसी भी प्रकार की जरा भी न तो पवित्रता, न शांति, न आध्यात्मिकता, न श्रद्धा, न ......... केवल शोर-शराबा, गंदगी, बे-हताशा भीड़। और यह तो तब जब कोई भी, किसी भी प्रकार का त्यौहार नहीं था। केवल व्यापार-व्यापार और व्यापार – दान करना भी व्यापार ही लगा। इसकी पवित्रता को वापस लाने का केवल एक ही  उपाय मुझे नजर आता है – उस पूरे क्षेत्र से पूरे व्यापार को हटा दिया जाए।  खाने-पीने-बेचने की सब दुकानें वहाँ से हटा दी जाएँ। क्षेत्र को इसकी पवित्रता लौटाई जाए। क्या यह संभव है? क्या किसी भी मंदिर में आप इस प्रकार के बाजार की अनुमति देते हैं?

वापसी और 139 का कमाल

          हरिद्वार से हम दिल्ली होते हुए वापस कोलकाता की तरफ चले। इस पूरी यात्रा में हमें कूलियों से बड़ा अच्छा व्यवहार मिला, जैसा पहले नहीं मिला था। मुझे लगता है कि यह उनका कमाल नहीं था, बल्कि हमारे अपने व्यवहार का कमाल था – जैस बोया वैसा काटा। हमने बड़ी इज्जत और अपनेपन से उनसे बात की और उन्होंने भी वैसा ही प्रत्युत्तर दिया

          बहरहाल, जनशताब्दी से हरिद्वार से नयी दिल्ली और वहाँ से दुरान्तो से कोलकाता के लिए रवाना हुए। दुरान्तो अपने सही समय 12.40 पर छूट गई। भूख लगी थी, खाने का इंतजार करते रहे, दोपहर के 2 बज गए लेकिन कहीं कोई अता-पता नहीं। धैर्य छूट गया, पैंट्री कार पर पहुंचा। सूट-बूट में खड़े व्यक्ति को देख कर मैंने प्रश्न दाग दिया, क्या आपलोग लंच, डिनर के समय देंगे?’ वे महानुभाव मेरा प्रश्न नहीं समझ पाये, बगल में खड़ा व्यक्ति समझा और बताया की खाना भिजवाया जा चुका है। मैंने अगला प्रश्न किया, मैं तो शिकायत दर्ज करने आया हूँ। मैं मैनेजर से मुखातिब हुआ, स्वर ऊंचा हो गया, क्या आपलोग डिनर के समय लंच देंगे?’ स्थिति की नाजुकता का अहसास कर अंदर से एक अन्य अधिकारी पधारे, उपस्थित सब लोगों को डांट बताई और तुरंत एक व्यक्ति को खबर लेने नियुक्त किया। मैं अपने कोच की तरफ बढ़ा, वह मेरे से आगे दौड़ता हुआ गया और हमारा भोजन मेरे पहुँचने के पहले पहुंचा दिया। पेट में भोजन जाते ही, सर की गर्मी निकल गई और हम खा-पीकर सो गए।

          लेकिन रात का भोजन फिर रात्री 9 बजे के बाद। आइस-क्रीम रात 10 बजे के बाद लाया, लेकिन तब तक हम और दूसरे कई यात्री सो चुके थे। सुबह उठा, तब तक निश्चय कर चुका था कि शिकायत / सुझाव खाते में लिखूंगा। पैंट्री वाले को कहा उसने बताया कि मुझे जाने की जरूरत नहीं है वह खबर कर देगा यहीं बर्थ पर पुस्तिका ला देगा। लेकिन कोई खबर नहीं। जलपान के बाद फिर याद दिलाया। लेकिन कुछ नहीं हुआ। सोचने लगा क्या करूँ। ट्रेन 10.35 पर हावड़ा पहुँच जाती है और 9.45 हो गए थे। अनिच्छा से 139 डायल किया। सब विकल्पों को ध्यान से सुनने के बाद प्रतिनिधि से बात करने का विकल्प चुना। उसे बताया कि मैं अभी ट्रेन में सफर कर रहा हूँ शिकायत पुस्तिका मांग रहा हूँ लेकिन पैंट्री वाले नहीं दे रहे हैं। उसने मेरा पीएनआर नंबर 

मांगा, नाम पूछा  और हाथों-हाथ मेरी जानकारी जांच करते हुए मेरा कोच, बर्थ और ट्रेन सभी सही-सही बताया। मैं सँभाल कर बैठ गया, मुझे लगा कुछ तो अलग हो रहा है। फिर उसने बताया कि मेरी शिकायत दर्ज कर ली गई है और एसएमएस द्वारा मुझे विवरण प्राप्त हो जाएगा। मैं इस पूरे वाकिये पर गौर कर ही रहा था कि पैंट्री मैनेजर, कोच अटेंडेंट के साथ मेरे समक्ष मौजूद थे। वह देरी होने की सफाई दे रहा था, पर मैं शिकायत पुस्तिका की मांग पर अड़ा था। तभी उच्च अधिकारी भी उपस्थित हो गया और पूरे घटना क्रम की जिम्मेवारी लेते हुए क्षमा याचना करने लगे।

          क्यों, देश बदल रहा है! यह मान कर मत चलिये कि कुछ नहीं होगा’, कुछ करने से ही कुछ होगा। करके तो देखिये। कोशिश निरंतर करते रहें तो वह दिन दूर नहीं जब बहुत कुछ बदल जाएगा। मैंने छोटी-छोटी अनेक लड़ाइयाँ लड़ी हैं घर पर बैठे-बैठे ही, कभी कहीं कोई तकलीफ नहीं हुई, और सफलता मिली, बदलाव आया। प्रारम्भ के दिनों में मल्टीप्लेक्स द्वारा वीकेंड की गलत व्याख्या, धूआं छोड़ते वाहन, बैंक द्वारा खाता बंद करने में परेशानी, पीपीएफ़ के रुपए देने में मनमानी, बैंक में नोमिनी के हस्ताक्षर करवाने की बाध्यता आदि कई बदलाव मैंने सफलता पूर्वक करवाए हैं।

          एक लोकतन्त्र की सफलता के लिए केवल वोट देना काफी नहीं है, बल्कि एक जागरूक नागरिक बन कर हर समय सजग और चौकन्ना रहने की जरूरत है। लगे रहेंगे तो सब बदलेगा।

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आपने भी कहीं कोई यादगार यात्रा की है और दूसरों को बताना चाहते हैं तो हमें भेजें। आप चाहें तो उसका औडियो भी बना कर भेज सकते हैं। हम उसे यहाँ, आपके नाम के साथ  प्रस्तुत करेंगे।

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शुक्रवार, 13 मई 2022

सस्ते बहाने, महंगी सफलता

 किसी भी कार्य को टालने या न करने के हमारे पास दो बड़े महत्वपूर्ण कारण होते हैं :

1। पहले कभी किया नहीं और

2। पहले पन्ने पर कठिनाई नजर आती है।

          आपने अपने जीवन में जो कुछ भी किया, माँ के गर्भ से निकलने के बाद से आज तक, उन सब में ये दोनों कठिनाइयाँ मौजूद थीं, लेकिन बावजूद इसके आप करते रहे और बढ़ते रहे। इस कारण आप वहाँ हैं जहां अपने आप को देख रहे हैं।

शेक्सपीयर ने कहा था, 'जो मक्खी के डंक से डरता है, वो कभी शहद नहीं पा सकता।' उन्नति की पहली शर्त है जोख़िम लेने का साहस और चुनौतियां स्वीकारने का जज्बा - यदि हम जीवन को भय और असुरक्षा के ख़याल से बांधे रखेंगे, तो कभी भी नई शुरुआत की हिम्मत नहीं पा सकेंगे। जीवन चाहता है कि हम उसे मक्खी का डंक नहीं शहद का छत्ता मानें और चुनौतियों का सामना करने के लिए साहस का कंबल खोज लें।

          जीवन की सबसे अहम चुनौती को तो आपने पूरे गाजे-बजे और शान-शौकत के साथ स्वीकार कर विवाह कर लिया फिर अब क्यों घबड़ा रहे हैं? बहाने ढूँढ रहे हैं?  

          विलियम काबेट ने लिखा है, 'मैंने आठ साल तक खेत में हल चलाया। जब मुझे छह पैसे मज़दूरी के एवज में मिल रहे थे, तब मैं रात को व्याकरण पढ़ा करता था। खाने के पैसों में कटौती करके काग़ज़ क़लम ख़रीदता था। मुझे वे दिन बार-बार याद आता है, जब मैंने 1 सेंट बचाकर जेब में रख लिया था, मछली ख़रीदने के इरादे से। पर वह सिक्का जाने कहां गुम हो गया। मैं भूख और तक़लीफ़ से रात भर रोता रहा। ये जीवन के कठिन दिन थे, पर मैं इन कठिनाइयों के आगे की सपनीली भोर के बारे में सोचता था। और ये कठिनाइयां मेरे जीवन का सबसे बड़ा सबक़ बन गईं। यह सबक़ सीखने के बाद न कोई बाधा मुझे डरा सकी, न कोई कठिनाई मेरा रास्ता रोक सकी।'



         क्या आप जीवन की एकरसता से ऊबकर जम्हाइयां लेते हैं?

         विलियम काबेट जैसे अनगिनत जीवन हमारे लिए सबक़ की तरह बिखरे पड़े हैं। उनकी संघर्ष और जीवटता से भरी कहानियां हमें सिखाती हैं कि जिंदगी की किताब को कभी भी इस वजह से बंद मत कीजिए कि जो पन्ना सामने है, वो आपको पसंद नहीं। थोड़ा जोख़िम उठाइए और पन्ना बदलकर देखिए, क्योंकि जीवन के सबसे उजले पन्ने संघर्ष के उस पार छिपे होते हैं। बेशक पीछे मुड़कर नया अंत लिखना मुमकिन नहीं, पर एक नई शुरुआत करके एक सुखद अंत लिखा जा सकता है। इसीलिए ख़तरों, प्रतिकूलताओं और जीवन की अनिश्चितता से बचकर मत भागिए, योद्धा की तरह उनका सामना कीजिए।

·       एक चीज दुनिया की सारी सेनाओं से भी ताक़तवर है - आपकी विचार शक्ति। जीवन में नया उजास लिखने के लिए आप इस शक्ति का आह्वान कीजिए।

·       जो बेहतर है, वो अभी घटित नहीं हुआ है - द बेस्ट इज़ येट टु बी ।

·       याद रखिए कि जैसे बेहद अजीज होने के बावजूद आप किताब के पन्ने को एक सीमा के बाद पलट देना चाहते हैं, उसी तरह जिंदगी का कोई लम्हा भले कितना ही ख़ास क्यों न हो, आप उसी पर ठहरे नहीं रह सकते। आपको चलना होगा। क्योंकि अगर आप नहीं चले, तो कभी एक नया अध्याय नहीं लिख पाएंगे। कभी नहीं जान पाएंगे कि अगले पन्ने पर जिंदगी आपके लिए कौन-सा मौक़ा, कौन-सा आश्चर्य, कौन-सा सुख लेकर खड़ी थी।

आगे बढ़ते रहिए, पन्ने बदलते रहिए, नई ऊँचाइयाँ हासिल करते रहिए।

जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो-शाम।

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शुक्रवार, 6 मई 2022

सूतांजली मई 2022


 सूतांजली के मई अंक में कई विषय, लघु कहानी और धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी की सत्रहवीं किश्त है।

१। धूप-छाँह - मेरे विचार

सूर्योदय जितना अटल है, सूर्यास्त भी उतना ही अटल है।    अगर प्रकृति के ये नियम अवश्यंभावी हैं तो फिर इससे क्या घबराना? लेकिन इनका सामना करने के लिए तैयारी  करनी पड़ेगी! क्या आपने इसकी तैयारी की है? आर्थिक सुरक्षा के नाम

२। पढ़ना, सुनना, गुनना, घुलना   

जैसे दूध में चीनी डाल देने मात्र से दूध में मिठास नहीं आती। क्योंकि चीनी तो दूध के बर्तन के पेंदे में बैठ जाती है। जब उसी चीनी को मिलाया जाता है तब वह

३। बचपन की भाषा  – मैंने पढ़ा

उसकी इस बात पर मैंने कुछ नहीं कहा, क्योंकि अब तक मैं भी बचपन की भाषा भूल गया था

४। जीवन की नदी में हर कहानी बह रही है...-    मैंने पढ़ा  

हर चीज बहती है। हम एक ही नदी को दोबारा नहीं देख सकते, क्योंकि हर बीतते क्षण के साथ नदी का बहाव नया

५। तरीका - लघु कहानी - जो सिखाती है जीना

छोटी कहानियाँ - बड़े अर्थ

६।कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी (१७) – धारावाहिक

धारावाहिक की सत्रहवीं किश्त

...किन्तु पुलिस को ठग उनका केस मिट्टी कर देने की आशा भी उन्हें थी। चालाकी और असदुपाय से कार्यसिद्धि ही दुष्प्रवृत्ति की स्वाभाविक प्रेरणा है। तभी से समझ गया था कि गोसाईं पुलिस के वश हो सच झूठ...

 

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