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(आपके शरीर में एक दिल भी है जो
धड़कता है। उसका धड़कना काफी नहीं है। यह जरूरी है कि जो भी आपसे मिले उसे लगे कि
आपका दिल धड़कता है। एक धड़कना, जीवन की निशानी
है और दूसरा, ईश्वरीय अंश की। पहला जब तक धड़कता है तब तक आप जीवित
हैं उसके बाद केवल “बॉडी” (body), और दूसरा आपके इंसानियत की
और आपके जाने के बाद दूसरों के दिल को धड़काता रहता है। समझते हैं इस कथन को एक
घटना से।)
रात
काफी हो चुकी थी और पहाड़ी इलाके में गंतव्य नगर पहुंचने के बाद हम रात्रि विश्राम
के लिए किसी होटल की तलाश में थे। आश्चर्य हुआ कि इस इलाके के प्रायः सभी होटल और
लॉज के दरवाजे बंद थे, और रास्ते भी
प्रायः निर्जन। हम एक जगह से दूसरी जगह एक दिशा में आगे बढ़ते रहे। इस बीच एक बाईक
पर सवार दो युवक ज़रूर दिखे जो हमारी गाड़ी का पीछा करते प्रतीत हो रहे थे और हमें रुकने का इशारा भी कर
रहे थे। हम थोड़े आशंकित हुए। लेकिन हमारी आशंका तब निर्मूल साबित हुई जब गाड़ी
रोकने के बाद उनकी बातों से हमें ऐसा लगा कि उन लोगों ने दरअसल हमें कहीं दूर से
ही होटल की तलाश करते परेशान हाल देख लिया था।
वे
लोग अपने घर में ही होटल का छोटा-मोटा कारोबार चलाते थे और चाहते थे कि हमलोग उनके
साथ चलकर रहने का कमरा देख लें और पसंद आ जाए तो वहीं रुक जाएं। हम बुरी तरह थक
चुके थे और हमें तुरंत आराम की ज़रूरत थी। पसंद और नापसंद की बात तो तब होती जब
हमारे पास आसान सा दूसरा कोई विकल्प होता। इसलिए हम उनका प्रस्ताव स्वीकार कर उनके
साथ हो लिये। वे दो लोग आगे-आगे और हमारी गाड़ी उनके पीछे-पीछे। दो-तीन किलोमीटर
चलने के बाद हमलोग एक संकरे रिहायशी इलाके के भीतर थे। गाड़ी एक गली के मुहाने पर
खड़ी कर हमें अंदर जाना पड़ा जहां उनका एक पुराना दो मंजिला घर था। ऊपरी मंजिल के
छोटे-छोटे चार कमरे उन लोगों ने पर्यटकों के लिए छोड़ रखे थे और नीचे वे लोग खुद
अपने परिवार के साथ रहते थे। हमारे पहुंचते ही नीचे परिवार के लोगों के बीच थोड़ी
हलचल सी हुई और दो महिलाएं भी ऊपरी मंजिल पर हमें कमरे तक ले जाने के लिए उन दोनों
के साथ हो लीं। शायद वे दोनों भाई थे और वे महिलाएं दोनों की पत्नियां। ऊपर के
चारों कमरे खाली थे। कमरे में एक मामूली बेड, लकड़ी की एक मेज़ और कुर्सी के अतिरिक्त और
कुछ नहीं था। और चारों कमरों के लिए एक ही साझा टॉयलेट बाहर बरामदे के एक छोर पर
था। एक मन हुआ कोई दूसरी जगह देख ली जाए। फिर लगा एक रात की ही तो बात है, थोड़ा कष्ट ही सही, हमारे रुकने से अगर उन लोगों
की भी थोड़ी मदद हो जाती है तो हमारे लिए भी संतोष की बात होगी। वैसे यह सोचकर हम उनपर कोई अहसान नहीं करने जा रहे थे। हमारी अपनी भी लाचारी
कोई कमतर नहीं थी। वैसे बातचीत में उन लोगों के आग्रह का स्वर भी कुछ ऐसा था कि हम
अन्य विकल्पों के बारे में सोच नहीं पाते। यह आदान-प्रदान जैसा व्यापार भर नहीं था।
और उनकी तंगहाली का एक कारण शायद यह भी रहा हो, किराया पूछने
पर उन्होंने जो बात कही उससे भी हमारी इस आशंका की ही पुष्टि होती थी। उन्होंने
कहा- 'वैसे तो किराया पांच सौ रुपए है लेकिन आप जो भी देना
चाहेंगे हमें स्वीकार होगा।'
मैने
पूछा- 'आपलोग इतनी रात
गये घर से दूर निर्जन सड़कों पर क्या कर रहे थे ?"
एक
ने जवाब दिया- 'घाटी जाने वाले
बहुत सारे सैलानी अक्सर रातों को यहां तक पहुंच कर होटल की तलाश में भटकते मिल
जाते हैं। और इस वक्त तक बड़े-बड़े होटलों के व्यवसायी प्रायः अपने दरवाजे बंद कर
लेते हैं। इस तरह वे जो छोड़ देते हैं वही हमारी छोटी-मोटी कमाई है। हम इन्हीं
होटलों के आसपास ग्राहकों की तलाश में रोज़ रात के इस वक्त भटकते हैं।'
उसके
भीगे स्वर के आरोह-अवरोह से मुझे महसूस हुआ कि यह युवक बहुत ही संवेदनशील है। अपनी
बेबसी को लेकर बेहद सजग और संजीदा भी। और इस वक्त मेरे कुछ भी कहने पर शायद रो
पड़े। इसलिए मैं पूरी संजीदगी से बस उसे सुनता रहा। ...लेकिन उसके चेहरे की चमक
में हस्तक्षेप करते कृतज्ञता के भाव को देख मैं थोड़ा - निराश भी हुआ।
रात
के करीब डेढ़ बजे एक अजनबी शहर में अजनबी लोगों के साथ बिल्कुल अनौपचारिक घरेलू
माहौल में इस तरह चाय पीते हुए अचानक मुझे एक अहसास-सा हुआ कि ज़रूरतमंदों की मदद
करना बहुत नेकी का काम हो सकता है लेकिन इस बाबत अगर हमारे भीतर श्रेष्ठता-बोध, या जिसकी मदद की गयी है उसके भीतर
हीनता-बोध जैसी कोई सुगबुगाहट होने लगी हो तो सहायता करने में अवश्य कोई कमी रह
गयी है। निस्पृह और निर्विकार सहायता करना सब लोगों के वश की बात नहीं।
हम
तो आज अपनी ही बनायी एक ऐसी हिंसक और आत्म- मुग्ध दुनिया में रहने के आदि हो गए
हैं जहां एक तरफ पूरा-का-पूरा जंगल तो हम रात के अंधेरे में बिना किसी शोरगुल के
काट लेते हैं, लेकिन दूसरी
तरफ एक अदद पौधा भी रोपने जब कहीं निकलते हैं तो पूरा लाव-लश्कर हमारे साथ होता है
और कई कोणों से उस दृश्य की तस्वीर भी उतरवा लेते हैं कि सुबह-सुबह चाय के साथ,
अखबारों में छपा अपना चेहरा देख मुस्कुराते रहें। पूरे पर्यावरण में
व्याप्त अश्लील आत्म-मुग्धता, आत्म-प्रचार, और मुफलिसी में जीते वंचित समाज के प्रति खाए-अघाए लोगों की आपराधिक हृदय हीनता
जैसे भयावह प्रदूषण के बीच भी हमें निस्पृह और निर्विकार मदद करने वाले लोगों के
दर्शन हो जाते हैं।
ऐसे
हृदय-विहीन दुनिया में भी हृदय-वान लोगों की कमी नहीं। जहां एक तरफ ऐसे लोग हैं
जिनका दिल केवल इसलिए धड़कता रहता कि वे कहीं बॉडी न बन जाएँ तो ऐसे दिल भी हैं
जिनमें ईश्वरीय अंश हैं। आत्म-मंथन कीजिये, आपके हृदय में कौन-सा दिल धड़क रहा है।
(योगेन्द्र यादव के संस्मरण पर
आधारित)
(...उन्होंने कहा- 'वैसे तो किराया पांच सौ रुपए है लेकिन आप जो
भी देना चाहेंगे हमें स्वीकार होगा।'… जब कोई भुगतान की राशि आपके ऊपर छोड़ देता है, तो उसकी मजबूरी का फायदा न उठाएँ, उसे उसकी अपेक्षा
से ज्यादा दें, उसके होठों की मुस्कान को अपनी मुस्कान बनाएँ। वह आप
में ईश्वर के दर्शन कर रहा है, उसे ईश्वर बन कर दिखाएँ। एक पौधे को लगाने की नकली मुस्कान ओढ़ने के बजाय
एक जंगल को बचाने की असली मुस्कुराहट चेहरे पर लटकाएँ। उसे यह अहसास कराएँ कि आपके
अंदर एक ईश्वरीय हृदय धड़क रहा है।)
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देना ही पाना है
लेकिन इसके पहले जानिए एक छोटी सी घटना
:
एक धनाड्य महिला अपनी जिंदगी से ऊब गयी
थी। उसे लगने लगा कि उसका पूरा जीवन बेकार है, उसका कोई
अर्थ नहीं है। सज-धज कर अपने मनोचिकित्सक के पास गई और बोली डॉ साहब मुझे लगता है
कि मेरा पूरा जीवन अर्थहीन है, मेरी खुशियाँ जैसे मर चुकी हैं, क्या आप मेरी
खुशियाँ ढूंढने में मदद करेंगे? एक बारगी मनोचिकित्सक मौन हो
गया, लेकिन फिर उसने एक बूढ़ी औरत को बुलाया जो वहाँ साफ सफाई
का काम करती थी और उस अमीर औरत से बोला मैं तो यह नहीं बता सकता कि आपकी जिंदगी
में खुशियाँ कैसे आयेगी लेकिन यह औरत तुम्हें बतायेगी कि कैसे उसने अपने जीवन में
खुशियाँ ढूँढी। आप उसे ध्यान से सुनें और विचार करें क्या आपकी खुशी भी लौट कर आ
सकती है?
वह वृद्ध औरत बताने लगी - मेरे पति की
मलेरिया से मृत्यु हो गई और उसके ३ महीने बाद ही मेरे बेटे की भी सड़क हादसे में
मौत हो गई। मेरे पास कोई नहीं था। मेरे जीवन में कुछ नहीं बचा था। मैं सो नहीं
पाती थी, खा नहीं पाती थी। मैंने मुस्कुराना बंद कर दिया था। मैं दिन
रात स्वयं के जीवन को समाप्त करने की तरकीब सोचने लगी थी। तब एक दिन एक छोटा
बिल्ली का बच्चा मेरे पीछे लग गया। जब मैं काम से घर आ रही थी, बाहर बहुत ठंड थी इसलिए मैंने उस बच्चे को अंदर आने दिया। उस बिल्ली के
बच्चे के लिए थोड़े से दूध का इंतजाम किया और वह सारी प्लेट सफाचट कर गया। फिर वह
मेरे पैरों से लिपट गया और चाटने लगा।
उस दिन बहुत महीनों बाद मैं मुस्कुराई।
तब मैंने सोचा यदि इस बिल्ली के बच्चे की सहायता करने से मुझे इतनी खुशी मिल सकती
है तो हो सकता है कि दूसरों के लिए कुछ करके मुझे और भी खुशी मिले। इसलिए अगले दिन
मैं अपने पड़ोसी के लिए, जो कि बीमार था, कुछ खाने का बना कर ले
गई। वह बहुत खुश हुआ और मुझे भी खुशी मिली। फिर मैं हर दिन कुछ नया और कुछ ऐसा
करती थी जिसमें दूसरों को खुशी मिले और उन्हें खुश देख कर मुझे खुशी मिलती थी।
आज मैंने खुशियाँ ढूँढी हैं, दूसरों को खुशी देकर। यह सुन कर
वह अमीर औरत रोने लगी। उसके पास वह सब था जो वह पैसे से खरीद सकती थी। लेकिन उसने
वह चीज खो दी थी जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती।
तब, अब बताता
हूँ टाइम्स ऑफ इंडिया की उस खबर के बारे में जिसकी मैंने चर्चा की थी। इस कंपनी ने
एक विशेष अभियान प्रारम्भ किया है अपने कर्मचारियों के लिए। अभियान का नाम है
“इंसानियत के 7 दिन” (7 Days for Humanity)। इस अभियान के
तहत कंपनी का कोई भी कर्मचारी एक वर्ष में 7 दिन की सवैतनिक छुट्टी (paid
holiday) ले सकता है। इन सात दिनों में उसे अपने मन-मुताबिक किसी भी
प्रकार की स्वयंसेवा (volunteering) करनी होगी। यही नहीं इस
कार्य में वे जितना खर्च करेंगे कंपनी भी बराबर की धन राशि की सहायता करती है।
मित्रों हमारा जीवन इस बात पर निर्भर नहीं
करता कि हम कितने खुश हैं अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी वजह से कितने
लोग खुश हैं। तो आइये आज शुभारम्भ करें इस संकल्प के साथ कि आज हम भी किसी न किसी
की खुशी का कारण बनें।
रोहन
सोमन,
कंपनी के सहयोगी निर्देशक यह मानते हैं कि समाज को वापस
देने का हर अवसर - बड़ा हो या छोटा - "हमें मनुष्य के रूप में हमारे
उद्देश्य की याद दिलाता है। मैं आइसर्टिस का हिस्सा बनकर खुश हूं, जो अक्सर हमें व्यवसाय से पहले स्वयं, परिवार और समुदाय की देखभाल करने की हमारी जिम्मेदारी के
चार चक्रों की याद दिलाता है।” वे आगे कहते हैं कि “द सोसाइटी फॉर डोर स्टेप
स्कूल” (DSS) के साथ काम करने के क्षण अविस्मरणीय
हैं। अपने समुदाय को वापस देने का अनुभव और स्कूली बच्चों की आंखों में खुशी देखना
बेश-कीमती है।"
मित्रों यह बहुत महत्वपूर्ण है अतः मैं
फिर से दोहरा रहा हूँ हमारा जीवन इस बात पर निर्भर नहीं करता कि हम कितने
खुश हैं अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी वजह से कितने लोग खुश हैं।
तो आइये आज शुभारम्भ करें इस संकल्प के साथ कि आज हम भी किसी न किसी की खुशी का
कारण बनें।
मैं फिर कहता हूँ – देना ही पाना है।
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(कुछ तो होती हैं कहानियाँ, कुछ घटनाएँ और कुछ आपबीती। अब कही गई बात इन तीनों में से क्या है यह पूरी तरह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या आपने वैसा क्षण जिया है या आपने ऐसा देखा है या आपको इसका कोई अहसास ही नहीं है। तो फिर, अब यह ‘प्रीति’ की आपबीती है, या घटना है, या कहानी है? यह तो या तो प्रीति ही बता सकती है या शायद आप ही तय कर करें, मैं नहीं बता सकता। लेकिन हाँ मैं यह जरूर कह सकता हूँ कि मैंने इसे एक लंबे समय तक होते देखा है, और आज भी देख रहा हूँ, लेकिन क्या अब आगे देख सकूँगा.......?)
माँ अक्सर
ही अपनी रोटियां जल्दी में बनाया करती थीं। सब को गरमागरम, मुलायम, घी लगी रोटियां
परोसने के बाद कभी अध-सिकी,
अध-पकी, कभी जली हुई, कभी दो तो कभी उतने ही आटे से बनी एक मोटी रोटी पास ही
तश्तरी में रख ली जाती। उसके बाद चूल्हा साफ किया जाता, फिर प्लेटफॉर्म,
उसके बाद आंचल से हाथ पोंछते हुए उसी तश्तरी में सब्जी, चटनी, सलाद सारी घिच्च-पिच्च
करके और एक कटोरी में दाल ले, जैसे-तैसे खाना
निबटाया जाता। पापड़ अपने लिए तो कभी सेका ही नहीं, किसी-न-किसी का बचा हुआ, ढीला, सीला खाकर ही संतुष्ट हो जातीं। बहुत चिढ़ हुआ करती थी मुझे
कितनी बार गुस्सा भी किया,
कई बार उठकर उनके लिए दूसरी रोटी बना लाती, पर वो हमेशा यही कहतीं, 'अरे... मेरा तो चलता है, स्वाद तो वही है
न।'
मैं पलटकर कहती... अगर स्वाद वही है, तो कल से हम सभी को भी वैसी ही रोटी बनाकर दो।' वो निरुत्तर हो जाती,
गर्दन को एक झटका दे हंसने लगतीं। कभी-कभी मुस्कुराकर कह भी देती थीं, जब माँ बनोगी, तब समझोगी।'
मैं झुंझला जाती और चिल्लाती।'
पर चिल्लाने
से क्या होता है... शादी हुई, ससुराल आई। आम
भारतीय नारी की तरह जीवन चलने लगा। पूज्य ससुर जी के निधन के बाद हम सासू-माँ के
साथ हमारे शहर में रहने लगे। एक दिन अचानक ही कुछ बात चली और उन्होंने मुझे कहा...
'तू मेरे लिए कुछ स्पेशल न बनाया कर, मैं तो सुबह का बचा भी खा लेती हूँ। उस दिन बहुत दिल दुखा
मेरा,
और मैंने उन्हें कहा... 'आप घर की सबसे बड़ी हैं और विशिष्ट भी आपके लिए कुछ करना मुझे अच्छा लगता है, करने दीजिए।' वो हैरान हो मेरा चेहरा देख रही थीं, पर उन्हें ये सुनकर कहीं प्रसन्नता भी हुई थी, उनकी आंखों की नम कोरें इसका प्रमाण थीं।
उन्हीं
दिनों मेरा भाभी जी (जेठानी जी) के यहाँ भी जाना हुआ। वहाँ भी मिलता-जुलता दृश्य...
भाभी बच्चों की प्लेट में ही अपना खाना लगा लिया करतीं और उनके प्लेट में बचे-खुचे
के साथ थोड़ा और परोसकर भोजन शुरू कर देतीं। कई बार ऐसा भी होता कि कुछ बचा
होता... तो बच्चों को कहतीं... इधर दे जाओ, मैं खा लूंगी।'
मुझसे रहा नहीं गया और मैंने तुरंत ही कहा... 'भाभी, आपका खाना तो हो
गया था,
फिर आपने क्यों लिया?' उनका जवाब था,
'अरे,
फेंकना पड़ता, बेकार जाता,
सो... खा लिया।' मैंने सवाल किया.... 'आप डस्टबिन हो, जो सब का बचा-खुचा आपको ही समेटना है, आपको स्वास्थ्य की परवाह नहीं?' वो सोच में पड़ गई थीं। पर एक वर्ष बाद जब हम मिले, तो उन्होंने कहा कि... 'मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया था इस बात पर, मेरे बढ़ते हुए वजन का एक कारण ये भी था। उन्हें खुश देख मैं और भी खुश
हो गई थी। समय बीतता गया।
पर आज कुछ
ऐसा हुआ कि ये सभी यादें एक साथ ताजा हो गई। मैं खाना लेकर बैठी ही थी, बेटी जिद पर थी कि आपके ही साथ खाऊंगी। मेरे आते ही उसने
रोटियां बदल लीं। मैंने उसके हाथों से छीनने की बहुत कोशिश की, पर वो नहीं मानी। उसके चेहरे पर वही चिढ़ थी और आंखों में
वैसा ही दुख! सच में बहुत ही बुरा लगा मुझे! आंखें नम हैं, वक्त के साथ पता ही नहीं चला कि कब मेरी बेटी बड़ी हो गई और
मैं 'माँ'
जैसी!
यह केवल
खुद रूखा-सूखा खा कर परिवार को अच्छा गरम खाना देना तक सीमित नहीं है बल्कि यह
है खुद कष्ट उठा कर भी दूसरे के सुख का ध्यान रखना है।
(पिछली
बार मैंने लिखा था ‘अपना कर्ज चुकाया’,
यही है अपना असली कर्ज चुकाना और इसकी शिक्षा उपदेश से नहीं उदाहरण से ही दी जा
सकती है। याद रखिये आपने दिया तभी आपने पाया।
(प्रीति एक गुजरात में रहने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता व ब्लॉगर हैं)
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चिंतन
कर्ज का अर्थ जानते हैं? क्या इसका अर्थ सिर्फ ऋण या उधार या लोन में मिल धन ही है? चलिये, एक बार आपके मतानुसार इसका अर्थ सिर्फ यहीं तक सीमित भी कर दें तो आपको कर्ज मिला कैसे? देने वाले ने आपको कर्ज क्यों दिया? आप इस काबिल कैसे हुए कि दुनिया ने आपको कर्ज दिया?
जब हम इस दुनिया
में आए थे उस समय हम खुद खा-पी नहीं सकते
थे, चल और खड़े नहीं हो पाते थे, और-तो-और बैठ भी नहीं सकते थे। न कपड़े पहनना आता था न खाना-पीना, मल-मूत्र का त्याग भी बिस्तर में ही कपड़ों में किया करते थे। न अक्षर
ज्ञान था न कोई उपाधि। अगर हम वैसे ही रहे
होते तो हमें कर्ज मिलता? कर्ज मिलना तो दूर शायद भीख भी
नहीं मिलती। लोग दुत्कार कर दूर भगा देते। यह तो कोई और ही था जिसने हमें खाना, पीना, बैठना, चलना, दौड़ना सिखाया। कपड़े दिये और उन्हें पहनना भी सिखाया। पढ़ाया-लिखाया-सिखाया
और इस काबिल बनाया कि आज हम समाज में उठ-बैठ सकते हैं।
हमें बहुत कुछ मिला, अनेक सफलताएँ हासिल कीं। हाँ, ऐसा भी
कुछ है जो हम हासिल नहीं कर सके, हमें नहीं मिला। लेकिन वे
शायद हमारी काबिलीयत से ज्यादा रहीं हों या हमने उसे हासिल करने के लिए आवश्यक और
उचित कर्म ही नहीं किया! प्रारम्भिक लालन-पालन के बाद हमारे जीवन
में अनेक लोग आते रहे जिनका हमारे जीवन को बनाने, सँवारने और
निखारने में योगदान रहा। हमने बहुत कुछ पढ़ा, सुना, देखा। आज हमें पता भी नहीं किससे क्या सीखा? किसका
लिखा, किसका पढ़ा, किसका सुना वह क्या
था जो हमारे दिमाग में आया और हमारा यह स्वरूप गढ़ता गया और हम आज जैसे हैं वैसे
बने। उन सब ने हमारे वर्तमान स्वरूप को बनाने में अपना-अपने ढंग से सहयोग दिया।
जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं ने
बुरी आदतें बदल डालीं,
अच्छे संस्कारों से संस्कारित किया:
1) नन्ही बिटिया के प्रश्न “पापा क्या हम महीने में एक दिन
अच्छे होटल में खाना नहीं खा सकते?” ने पिता को उसका उत्तरदायित्व समझाया,
2) देर रात लोगों को घर आते-जाते देख पड़ोसी समझ गए कोई दिक्कत
है और सहायता के लिए बिन-बुलाये पहुंचे तो पड़ोसी धर्म समझ आया,
3) अपने दोस्त से
पार्क में बात कर रहा थे तो अचानक एक अंजान व्यक्ति हाथ जोड़ खड़ा हो गया “आपकी बात
सुन आज मेरी एक समस्या हल हो गई”, क्यों अच्छी बातें ही करनी चाहिए समझ आई,
4) विद्यालय की एक
प्रधानाध्यापक (प्रिन्सिपल) ने कहा “आपकी लिखी एक सलाह मानी तो मेरी दुनिया बदल गई, मुझे विश्वास ही नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है।” अच्छा ही क्यों लिखते-पढ़ते
रहना चाहिए,
समझे,
5) दुर्घटना हुई, होश ही नहीं रहा, न जाने किसने उठाया
हॉस्पिटल तक पहुंचाया, घर पर खबर की,
जान बची, अपाहिज होने से बच गये। कौन थे वे लोग पता ही नहीं! अनजानों की भी सहायता करनी चाहिए,
6) जब सड़क पर पटक कर गुंडे पीट रहे थे एक अंजान महिला बीच में
कूदी और गुंडों से छुड़ाया। कौन थी वह महिला आज तक पता नहीं। राहगीर के कर्तव्य का पाठ पढ़ा,
7) ट्रेन में सफर के दौरान दाल का दोना हाथ से गिरा और पूरी दाल
फर्श पर फैल गई। इसके पहले समझें कि क्या करें, सामने की बर्थ की महिला ने तुरंत अखबार से पोंछ
कर साफ कर दिया। सहयात्री क्या होता है समझ आई।
ऐसी ही अनेक बातें-घटनाएँ हमारे साथ घटीं-पढ़ीं-सुनीं जिसने
हमें प्रभावित किया,
हमें शिक्षा दी।
इनमें से कइयों को हमने उस समय के मुताबिक ‘कुछ’ दिया, बहुतों को कुछ भी नहीं दिया। न हमें पता है कि हमने क्या लिया और न देने वालों
को पता है कि उन्होंने क्या दिया। हमारे लिये उसका क्या महत्व था, क्या
मूल्य था, क्या भूमिका थी इसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
ऐसे भी अनेक थे जिन्हें हमने कुछ दिया ही नहीं क्योंकि हमें पता ही नहीं चला कि उसने
कुछ दिया है। इस बात पर हमें चिंतन करना है कि आप-हम जो हैं उसकी तुलना में हमने
उन्हें कितना दिया? क्या हमें जो मिला उस के अनुरूप उन्हें
दिया गया? उनमें से कितनों को तो आपके माता-पिता-अभिभावकों
ने अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार ही
दिया होगा न? क्या वह समुचित था? क्या
उनका बकाया किसी ने चुकाया?
इन में केवल हमारे माता-पिता, भाई-बहन,
आस-पड़ोस, परिवार-संबंधी, दोस्त-सहपाठी, शिक्षक-गुरु ही नहीं बल्कि इनसे इतर सहयात्री,
पुस्तक, लेख, कहानी, कविता, फिल्म, पोस्टर, विज्ञापन, प्रकृति, पशु-पक्षी
और भी न जाने किस-किस ने और किन-किन ने हमारे स्वरूप को प्रभावित किया। और-तो-और
दुश्मन ने भी सिखाया। क्या आप यह सोच रहे हैं कि यह तो उनका कर्तव्य था, उनका कार्य था, जिसे उन्हें निभाना ही था। बहुत खूब, सही कहा आपने। लेकिन जिसने आपको
बताया कि यह उनका कर्तव्य था क्या उन्होंने आपको आपका कर्तव्य भी बताया? क्या हमें अपना कर्तव्य पता है? या अपने कर्तव्य को
बांध कर रद्दी की टोकरी में फेंक आए हैं?
ऐसे लोग जिन्होंने हमारे व्यक्तित्व
को बनाने में, जाने-अनजाने
में जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनका कर्ज हमारे ऊपर बाकी
है। जिन्हें हम जानते हैं उनका भी और जिन्हें नहीं जानते उनका भी। हमें उनके ऋण चुकाने
हैं, उन्हें चुकायें। हम अपने आप को उ-ऋण करें। और जिन्हें हम नहीं जानते
उनके बदले समाज को, प्रकृति को, पशु-पक्षी
को, शिक्षक को, लेखक-कवि को और ऐसे
अनेक अनजान मानव के ऋण से अपने को मुक्त करें।
जैसे-जैसे हम देते जाएंगे, उन्हें जिन्हें हम जानते हैं और उन्हें भी
जिन्हें हम नहीं जानते तो पुष्पित-पल्लवित होते रहेंगे। अगर हम देते रहेंगे, अपने कर्ज को चुकाते रहेंगे तो हम फलते-फूलते रहेंगे। यह आवश्यक नहीं कि
धन देकर ही इन ऋणों को चुकाया जाये। वही दीजिये, जो आपके पास
है। वही दें जो पाया। अपना समय दें, प्यार दें, स्नेह दें, मुस्कुराहट दें,
शिक्षा दें, सेवा दें। फेहरिस्त बहुत लंबी है, हम इसमें अपने सामर्थ्य अनुसार जोड़ते रहें, देते
रहें। यह एक परम्परा है जिसे अपने लिये, अपने लोगों के लिए
जीवित रखिये, पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाते रहिये।
किसी समय हमने अपने आँगन में
एक पौधा लगाया। जब लगाया तब वह मात्र एक बीज था। उसे खाद देते रहे, पानी देते रहे,
अंधी-तूफान से बचाते रहे। हवा-धूप की व्यवस्था करते रहे। उसकी देख भाल करते रहे।
शनैः-शनैः पौधा बढ़ने लगा, पौधे से पेड़ बना गया। अब उसकी उतने
देख-भाल की जरूरत नहीं रही। कुछ खाद, हवा, पानी की व्यवस्था वह खुद करने में सक्षम हो गया,
लेकिन फिर भी उसे हमारी निरंतर आवश्यकता बनी रही। धीरे-धीरे उसमें बढ़िया पत्ते, फल, फूल आ गए। हमें प्रसन्नता के साथ-साथ सुंदर
सुगंधित फूल मिलने लगे, स्वादिष्ट फल मिलने लगे, हवा, शीतलता, छाँह, औषधियाँ मिलने लगीं। अब अगर हम यह सोचने लगें कि इस पौधे को तो हमने बहुत
कुछ दिया है अब और देने की क्या जरूरत है? अब हमारा अधिकार
है लेने का और उसका देना का! उसे देना बंद कर दें, उसकी
देख-भाल बंद कर दें। धीरे-धीरे हमें भी मिलना बंद हो जाएगा। डटे रहेंगे तो हमें ही
नहीं हमारी पीढ़ियों को भी मिलेगा।
उनसे मिलने वाले फल-फूल का
स्वाद लेते रहिए। चरित्र हमारा निखरेगा, सुवास हमारा फैलेगा। जिस प्रकार आपने जितना दिया था उससे कहीं
ज्यादा मिला। वैसे ही आप जितना देंगे आपको उससे कहीं ज्यादा मिलेगा।
याद रखिए – देना ही पाना
है।
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