शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

सूतांजली फरवरी २०१८

सूतांजली                         ०१/०७                                                 ०१.०२.२०१८

आपण कै चीज रो काम?
कोलकाता एक सांस्कृतिक एवं साहित्यिक शहर है। अंग्रेजों के समय जब राजस्थान से मारवाड़ी काम काज ढूंढते अपनी जन्मभूमी छोड़  बाहर निकले तो कोलकाता की तरफ अपना रुख किया। उस समय कोलकाता का नाम कलकत्ता था। आज कोलकाता को राजस्थान के बाहर, राजस्थान की राजधानी कहते हैं। इसी शहर के एक सुपरिचित व्यापारी एवं उद्योगपति हैं रविजी। अपनी  भाषा एवं संस्कृति के प्रति जागरूक। विद्यालयों एवं सामाजिक संस्थानों से जुड़े हैं। केवल कथनी में नहीं आचरण में भी इसकी झलक देखने को साफ नजर आती है। शहर की एक संस्था  ने कई प्रतिष्ठित राजस्थानियों को अपने जीवन के अनुभव बताने का न्योता दिया था। उसी सभा में  रविजी ने अपने संस्मरण बताये।

उन्होने बताया कि राजस्थान  से आए अपने एक बुजुर्ग चाचा से मिलने वे उनके पास गए। साथ में बेटी भी थी। पढ़ी लिखी एवं अपने पिता के साथ कंधे से कंधा मिला कर उनका व्यापार भी संभालती थी। औपचारिक कुशल क्षेम एवं परिचय के बाद चाचा ने अपनी राजस्थानी भाषा में प्रश्न किया, “आपणो कै चीज रो काम?” (अपने क्या व्यापार  है)। रवि ने बताया। और उसके बाद प्रश्नों की झड़ी लग गई। यथा, कारख़ाना कहाँ है? कितने का माल बेच लेते हो? कहाँ कहाँ बेचते हो? बेचने का क्या तारीका है? कच्चा माल कहाँ से और कैसे खरीदते हो? बनाने की लागत क्या आती है? क्या खर्चा पड़ता है? बचता कितना है? उधारी का क्या हिसाब है? रविजी धैर्य से सब प्रश्नों का जवाब दिये जा रहे थे। बेटी बैठी आश्चर्यचकित एवं अधीर हो रही थी। उसके चहरे पर प्रश्न चिन्ह भी था। लेकिन चाचा उससे बेखबर लगातार प्रश्न किए जा रहे थे साथ ही  जहां जहां उनके समझ में आ रहा था उचित सलाह  भी देते जा रहे थे। रविजी के द्वारा दिये गए आंकड़ों का हाथों हाथ विश्लेषण कर उनके उत्तरों में कहाँ भूल है, क्या होना चाहिये इस पर भी रवि का ध्यान आकर्षित कर रहे थे। वार्ता के अंत में उन्होने उनके व्यापार का एक प्रकार से पूरा तलपट मय नफे नुकसान के उनके सामने रखा दिया। उनकी बेटी पहले ही इस वार्ता से बेचैन बैठी  थी। वहाँ से निकलते ही उसके प्रश्न शुरू हो गए। ये चाचाजी कौन हैं? आज तक इनके बारे में नहीं सुना? इन्होने पूछा  “अपने” क्या काम है? क्या हमारा काम उनका है? हमारे साझेदार हैं? हमारे व्यापार में इनको इतनी रुचि क्यों है? और आपने उनके सब प्रश्नों के उत्तर क्यों दिये, आदि आदि।

रविजी कहते हैं, उसकी यह जिज्ञासा सहज और समयानुकूल  ही थी। मेरे लिए उसे समझाना आसान नहीं था। लेकिन फिर भी मैंने प्रयत्न किया। मैंने उसे बताया कि एक समय हमारा साझा-संयुक्त परिवार था। आज के एक्स्टेंडेड (वृहद) परिवार की  परिभाषा से भी ज्यादा बड़ा। उसमें “मेरा” “तुम्हारा” कुछ नहीं था सब “अपना” था। और इस लिए “तुम्हारा” शब्द का प्रचालन भी नहीं के बराबर था। सब प्रश्न अपनापन लिए ही होते थे। यथा, अपने क्या काम है? अपने कहाँ रहते हैं, अपने कितने बच्चे हैं? क्या अपने बच्चों का विवाह हो गया?  आदि आदि। बुजुर्ग भले ही कम लिखे-पढ़े रहे हों लेकिन उनमें आत्मीयता थी, आपनापन था। सत्य पूछने और बतलाने में संकोच नहीं था। परिवार के सब सदस्य एक दूसरे के अनुभव से लाभ उठाते थे और बिना मांगे उचित सलाह देने में संकोच नहीं करते थे। उनका ध्यान खुद की नहीं पूरे परिवार की प्रसन्नता, सुख और उन्नति की तरफ होता था। वे कर्म सुख लेने के लिए नहीं देने के लिए करते थे।  हमलोगों की अप्रत्याशित उन्नति का यह भी एक कारण था।

रविजी ने आगे कहा बेटी को उसके  सब प्रश्नों के उत्तर मिल गए। लेकिन वह विचार मग्न थी। उसके चेहरा पर कई प्रश्न टंगे थे, यह साफ दिख रहा था। लेकिन उसने न कुछ कहा न कुछ पूछा। शायद वह समझ गई थी कि उन प्रश्नों के उत्तर उसे ही ढूँढने होंगे।
                                                                                                         
मैंने पढ़ा

विडम्बना : एक पुस्तक में पड़ी गीता और कुरान आपस में कभी  नहीं लड़तीं और जो उनके लिए लड़ते हैं वो उनको कभी नहीं पढ़ते।
शब्द : शब्द मुफ्त में मिलते हैं, लेकिन उनके चयन पर निर्भर करता है कि उसकी कीमत मिलेगी या चुकनी पड़ेगी।
रुपया और इंसान : रुपया जितना भी गिर जाए, मगर इतना कभी नहीं गिर पाएगा जितना कि रुपए के लिए इंसान गिर चुका है।
असली चेहरे : रहने दो मुझे इन अँधेरों में गालिब, कमबख्त रोशनी में अपनों के असली चेहरे सामने आ जाते हैं।
सीख : अगर सीखना ही है तो,  आँखों को पढ़ना सीख लो, वरना लफ्जों के मतलब तो हजार निकलते हैं।
जवाब : परिंदे से किसी ने पूछा, “आपको गिरने का डर नहीं लगता?” परिंदे ने कहा, “मैं इंसान नहीं, जो जरा सी ऊंचाई पाकर अकड़ जाऊँ।”
प्रस्तुति: अहा!जिंदगी, दिसंबर२०१७, श्रीकांत, मुंबई
संख्यासुर                                                                          
.......फिर आया पश्चिमी ढंग का लोकतन्त्र, जिसने संख्यासुर का  बीज बोया। इसने आदमी की गुणात्मकता को खारिज कर दिया और संख्या को देवता बना दिया। दोष तब भी कम नहीं थे, जब गुणात्मकता को डंडा बना कर, सुविधा प्राप्त लोग आमजन को खारिज कर, भूलुंठित किए, अपनी ऐंठ में चलते थे। फिर जैसे जैसे सामाजिक चेतना फैलने लगी, इस सुविधाप्राप्त वर्ग की विशिष्ट स्थिति पर चोट पड़ने लगी। तब इसी वर्ग ने एक नई चाल चली और संख्याबल का आधार सामने रखा। तबसे बंदों को तौलने का नहीं, गिनने का दर्शन मान्य हुआ; और कहीं अंधेरे में यह बात भी जोड़ दी गई कि गिनने की यह सारी कीमिया उसी विशिष्ट वर्ग के हाथ रहेगी, जिसके हाथ में समाज तब था जब गुणों के आधार पर उसका संचालन-नियम होता था, क्योंकि ऐसे सारे गुणा-भाग की अक्ल तो इनके पास ही थी।

संख्या किसकी है यह गिनने का अधिकार और यह गिनने का तंत्र अपने हाथ में रखकर, इस वर्ग ने संख्यासुर का ऐसा दानव स्थापित कर दिया जिसने समझदारी व विवेक को नहीं, उन्माद को हथियार बना दिया। ******उसकी विष बेल सब दूर ऐसी फैली कि धर्म क्या है , कैसे है, और क्यों है, मानव समाज में इसकी भूमिका क्या है जैसी बातें निरर्थक होती गई और यह गिनती ही अंतिम सत्य बन गई कि किस धार्मिक  संकल्पना के पीछे कितने लोग हैं। लोग यानि भीड़, भीड़ यानि जिसके पास गिनने को सर होते हैं, नापने को विवेक नहीं  होता; चलने वाले अनगणित  पाँव होते हैं, दिशा देखने वाली आँख नहीं होती। भीड़ की ताकत यही है कि उसमें कितने लोग हैं और उनका उन्माद कितना बड़ा है। धर्म हमारे विश्वास  का निजी तत्व नहीं है, एक ऐसा सार्वजनिक हथियार बना दिया गया, जिससे वह हर गर्दन काटी जाने लगी जो सर को थमने का काम करती है।

धर्म का सीधा मतलब होता है – वह जो धरण करता है। वह जो सँभालता है; वह जो दशा समझता है और दिशा देता है। निजी स्तर  पर धर्म वह है जो हमारा स्वभाव है – आग का धर्म है कि वह जलाती है, पानी का धर्म है कि वह गीला करता है, हवा का धर्म है कि वह बहती है, रोशनी का धर्म है कि वह अंधेरा काटती है। करुणा मनुष्य का धर्म है क्योंकि वह सहज स्वभाव से ही करुणा प्रेरित होता है। निजी स्तर  पर यही  धर्म है तो धर्म का सामाजिक मतलब उस संकल्पना से प्रेषित होता है, जिसे समाज धारण करता है ताकि वह उसे धारण कर ले। .......        
                                            कुमार प्रशांत, गांधी मार्ग, जुलाई-अगस्त २०१५ पृ १५

ब्लॉग विशेष
मराठवाड़ा, लातूर की खबरें टी.वी. पर देख मन बहुत दुखी होता है। कलेक्टर ने धारा १४४ लगाई है जल स्त्रोतों पर। पानी को लेकर झगड़ते हैं लोग। और यहाँ हमारे गाँव में इतनी कम मात्र में वर्षा होने के बाद भी पानी को लेकर समाज में परस्पर प्रेम का रिस्ता बना हुआ है। आपने भोजन में मनुहार सुना है। आपके यहाँ भी मेहमान आ जाए तो उसे विशेष आग्रह से भोजन परोसा जाता है। हमारे यहाँ तालाब, कुएं और कुईं पर आज भी पानी निकालने को लेकर मनुहार चलती है – पहले आप पानी लें, पीछे हम लेंगे। पानी ने सामाजिक संबंध जोड़ कर रखे हैं हमारे यहाँ।

यह इलाका महाराष्ट्र में पड़ता है। और वर्षा? २०१४ में कुल ११ एम.एम. फिर भी यह क्षेत्र अकाल की खबरों में नहीं आया।  पूरी खबर पढ़ें, चतरसिंह जाम की अकाल अच्छे कामों का भी
साभार – गांधी मार्ग, मई-जून २०१६


बुधवार, 3 जनवरी 2018

सूतांजली, जनवरी २०१८

सूतांजली                                            ०१/०६                       ०१.०१.२०१८
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श्रद्धेय आचार्य श्री नवनीत
प्रश्न: देश के कई मंदिरों में दर्शन के लिए सैंकड़ों हजारों रुपयोंकी पर्चियाँ कटती हैं। यह व्यवस्था अनास्था उत्पन्न करती है।

उत्तर : जीवन में शत-प्रतिशत आदर्श अवस्था कहीं नहीं है। उनकी नाक टेढ़ी हैंमुझे उनको देख कर बात करने का मन नहीं करता। इनकी आँखें ऊँह:, उनके बाल देखो क्या एकदम रीछ की तरह। अनगिनत कारण हों सकते हैं जो मुझे पसंद नहीं और मुझे क्षुब्द  करते हैं। ‘मुझे नहीं चाहिए’ यह एक छोटे बच्चे को शोभा दे सकता है लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते हैं और हमारा विकास होता है जिसे भावनात्मक परिपक्वता कहते हैंऐसा नहीं रहता। हमें यह समझना चाहिए कि सब कुछ सही नहीं होता हैहमारे मन मुताबिक नहीं होता है। यह संसार हमारे नियंत्रण में नहीं है। अगर हम संसार के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भी होंअमेरिका के राष्ट्रपति भी  होंतब भी यह संसार हमारी इच्छानुसार नहीं चलता। तब अव्यवस्थाकमीखोट हो सकते हैं और उसके कारण भी हैं।

एक बार हम यह मान लें कि अगर वह पर्चियाँ नहीं कटे तो क्या होगाहमें पता है कि विश्व के कई प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में उनके वार्षिक उत्सव में क्या होता हैकई जगहों पर तो हर वर्ष होता है और सैकड़ों व्यक्तियों की जानें भी जाती हैं।  हमारे मंदिरों का निर्माण हजारों वर्ष पूर्व हुआ था। वे उस समय जैसे और जितने बड़े थे आज भी वैसे ही हैं। और हम यह भी जानते हैं कि हर प्रकार की प्रक्रियाओं के बावजूद वहाँ जगह बढ़ाई नहीं जा सकती है। लेकिन दर्शन करने वालों की  संख्या  दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। तब कोई व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी। या तो बंदर बाँट कर दो। मुझे यह पसंद नहीं कि दर्शन के लिए कोई टिकट खरीदनी पड़े। अत: य ह व्यवस्था बंद कर दी जाय। तब जरा विचार करें इससे कैसी अव्यवस्था होगीफिर वही होगा जिसमें बल है वह  दो चार बाहुबली को ले कर जाएगा और इच्छानुसार दर्शन कर आयेगा। तबया तो कुछ वैसी व्यवस्था के भरोसे छोड़ दिया जाए या फिर यह पैसों की पर्ची कटे। वैसे यह भी जानकारी होनी चाहिए कि लगभग देश के हर बड़े मंदिरतिरुपति वैष्णव देवी एवं अन्यमें  अगर आपके पास पर्ची के पैसे नहीं हैं तो पैसे या पर्ची के लिए अर्जी देने पर समुचित  व्यवस्था की जाती है।

कहने का मतलब है कि कई प्रकार की  व्यवस्था है और हम किसी को भी पूरी तरह सही और व्यवस्थित नहीं कर सकते। कई बार हम बच्चों की  तरह प्रतिक्रिया करते हैं। यह ऐसा है मुझे पसन्द नहींयह वैसा है मुझे पसंद नहीं। तुम्हारे अंदर क्या क्या है जो औरों को पसंद नहींहर कहींहर किसी में कहीं न कहीं कमियाँ है। कमियों को इतना व्यापक रूप दे देते हैं कि वह अनुपानित हो जाता है। हम यह क्यों नहीं कह सकते कि इसका यह उपाय होयह ज्यादा बेहतर हैयह ग्रहणीय भी है और विचारणीय भी। लेकिन इस कारण अगर किसी की आस्था कम हो जाती है तब यह उसकी मुसीबत है। इतनी सी गड़बड़ी से अगर कोई अव्यवस्थित हो जाता है तो गड़बड़ी कहाँ हैकहीं किसी की पूजा में एक चूहा आ गया और प्रसाद खा गया उसने पूजा बंद कर हवन अपना लिया। हवन की  सामाग्री में कीड़े निकल गए तो हवन भी बंद कर कुछ और पकड़ लिया। इस प्रकार अगर बंद करते चलें तो क्या क्या बंद करोगेदर असल हम कहीं किसी प्रकार की गलती निकालने में लगे हुवे हैं और दोषारोपण या एक के बाद दूसरे कार्य बंद करने में लगे हैं। इस सोच के कारण नए नए आधुनिक ‘विद्रोहीमत निकल पड़े।  लेकिन जिन आडंबरों एवं रीति रिवाजों के  विरोध या जिनको त्यागने के लिए उनकी स्थापना हुई थी क्रमश: वे भी वापस उन्ही  आडंबरों में पड़ गए। हम इस पर विचार करें और अपनी सोच का दायरा बढ़ाएँ। यह स्वीकार करें कि पूर्ण कुछ भी नहीं है। अत: हमें विचार करना चाहिए कि क्या उस देश-काल के अनुसार और बेहतर व्यवस्था हो सकती हैसुझाव देंउस पर चर्चा करेंउस विचार को फैलाएँ। हो सकता है इस नए प्रतिपादित व्यवस्था को स्वीकार कर लिया जाए। लेकिन यह भी हो सकता है कि वह स्वीकार न हो और उसे रद्द कर दिया जाए। तब उस सर्व स्वीकार्य  व्यवस्था  को अपनाएं – चलो वही ठीक है। दोष दृष्टि नहीं होनी चाहिए। शिकायत के साथ सुझाव आना चाहिए। अगर सुझाव नहीं है तब आप बच्चे हो क्योंकि बच्चे केवल शिकायत कर सकते हैं सुझाव नहीं दे सकते। अगर आपके पास वर्तमान से बढ़िया सुझाव नहीं है तब बुराई देखना बंद कर दें।
(श्री अरविंद आश्रम वन निवासनैनीतालजून २०१७)
                                                                                                                                   मैंने पढ़ा
माँ की ममता                                                                                        
माँआज मैं किसी काम से एम्सटर्डम आया था और अब आपसे मिलने गाँव आ रहा हूँ।” फोन के दूसरे हिस्से से आवाज आई, “बेटा आज तो मैं बहुत व्यस्त हूँ। मैंने पास के कस्बे के ब्युटि पारलर से समय ले रखा है। शाम को लौटने में देर हो जाएगीइसलिए बेहतर होगा कि तुम कल ही आओ।” माँ का यह जवाब सुनते ही बेटे ने कार सड़क किनारे खड़ी कर दी। वह सिर पकड़ कर सोचने लगा कि अब आगे क्या करूँहुआ ये कि मैं अपने मित्र लुकास के साथ जर्मनी के हनोवर शहर से एम्स्टर्डम किसी काम से आया था। उसका पैतृक घर नजदीक हीसाठ किलोमीटर दूर पर स्थित एक गाँव में था। काम खत्म होने के बाद वो अचानक घर पहुँच माँ को आश्कर्यचकित  कर देना चाहता था। हम दोनों ने एम्स्टर्डम से एक कार किराए पर ली और चल पड़े उसके गाँव की ओर। मैं भी नीदरलौंड्स का ग्राम्य जीवन देखने को लेकर बड़ा उत्साहित था।

आधे रास्ते तक पहुँच कर लुकास को सरप्राइज देने के बजाय फोन करना उचित लगाजिसका नतीजा सामने था। चूंकि उनकी बातचीत डच भाषा में हो रही थीइसलिए मुझे कुछ समझ में नहीं आया। एडी ने माँ के साथ हुई चर्चा के बारे में मुझे बताया और मुझसे पूछा कि यदि हिंदुस्तान में तुम्हारे साथ ये घटना होती तो क्या करतेमैं उसका दिल दुखाना नहीं चाहता थाफिर भी बताया कि हिंदुस्तना में कोई भी माँबेटे के विदेश से आने कि खबर सुनते हीएक सप्ताह पहले से सारे अपोइंटमेंट रद्द कर बेटे का पसंदीदा खाने का सामान बनाना शुरू कर देती है। दस मिनट तक हम दोनों सड़क किनारे यू हीं खड़े रहे। फिर जैसे कि हम हिंदुस्तानी मुफ्त की सलाह देने में पारंगत होते हैंमैंने भी उससे कहा कि एक बार और माँ को फोन लगाओ। लुकास ने कुछ सोचकर हिम्मत जुटाई और दुबारा फोन किया, “माँ मैं आपसे दूरकिसी दूसरे देश में रहता हूँ। आज छमहीने बाद मिलने आ रहा हूँऔर आप मुझे “ना” कर रही हैं। मेरे बजाय आपको ब्युटि पारलर वाले को ना करना चाहिएउसका अपोइंटमेंट तो फिर भी कभी मिल जाएगा। आज अगर मैं लौट गयाफिर न जाने आपसे मिलने कब आ पाऊँगा।

माँ ने जो जवाब दिया उसका अंदाज तो मुझे घर पहुँच कर ही लगाजब वह लुकास से लिपटकर बहुत देर तक रोती रही व माफी मांगती रही। फिर मुझ से बोली, “हम यूरोपियन लोग इतने मशीन हो चुके हैं कि एक रोबोट कि तरह व्यहवार करने लगे हैं। अगर इसने दोबारा फोन न किया होता तो मुझे अपनी भूल का एहसास तक  नहीं होता।

हिंदुस्तान की तरह हम यूरोप में अचानक किसी के यहाँ मिलने नहीं जा सकते हैं। चाहे वह हमारा कितना ही नजदीकी मित्र या रिश्तेदार क्यों न हो।      
विनोद जैन, अहा!जिंदगीअक्तूबर २०१७ पृ ३८
ममता - भावुकता पूरे विश्व में है। यही हमें पशु से इंसान बनाती हैं। कहीं मुक्त रूप में है कहीं गौण हैथोड़ा सा  कुरेदना पड़ता है। 

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ब्लॉग विशेष
१९१५ में दक्षिण अफ्रीका से आने के बाद से गांधी अंग्रेजों के लिए जितनी बड़ी मुसीबत बने, उतनी ही बड़ी मुसीबत काँग्रेस के लिए भी बन गए। गांधी ने काँग्रेस की  भाषा बदल दी, भूषा बादल दी, संगठन की काया बदल दी, इसकी आत्मा बदल दी। पार्टी के आयोजनों के तरीके बदल गये, शब्दों के मानी बदल गए, लड़ाई के हथियार बदल गए, दुश्मन का मतलब बदल गया, दोस्ती के मानक बदल गए, आज और कल का तालमेल बदल गया और संघर्ष और रचना की दूरी पाट दी।
गांधी मार्ग, मार्च-अप्रैल २०१६, कुमार प्रशांत, पृ.५९
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शनिवार, 2 दिसंबर 2017

सूतांजली दिसंबर २०१७

सूतांजली                            ०१/०५                            ०१.१२.२०१७
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सुख की सीमा
जन्म से मृत्यु पर्यंत हम एक ही  चीज ढूंढते रहते हैं सुख। और ज्यादा सुख और ज्यादा आनंद। लेकिन यह सहज ही उपलब्ध वस्तु हमें मिल नहीं पाती। इसकी परिणिति दुख में ही होती है। संत कहते हैं कि असीम सुख की प्राप्ति ईश्वर प्राप्ति में ही है। इसलिए हमें ईश्वर का ही ध्यान करना होगा। वही हमें मनोवांछित सुख दे सकता है। हम इसे सुनते हैं लेकिन ग्रहण नहीं कर पाते और सुख की मरीचिका में भटकते रहते  हैं। आइए थोड़ा विचार करते हैं इस कथन पर।

एक बार बात समझने के लिए हम मान लेते हैं कि एक संत अभी इसी क्षण हमारे सामने प्रगट हों और कहे, “ईश्वर ने मुझे विशेष शक्ति प्रदान की है। मांगो, तुम्हें क्या चाहिए। अभी जो मांगोगे तुम्हें दिलवा सकता हूँ
"सुख चाहिए देव।”
“अरे यह तो बहुत साधारण वर है। अभी दे सकता हूँ। बोलो कितना सुख चाहिए, कितना किलो-टन या किलो मीटर – योजन मील या किलो लीटर-लीटर? प्रश्न बड़ा अटपटा सा लगा लेकिन हिम्मत करके पूछ लिया, “कितना मतलब, जितना मिल जाय। इसकी कोई सीमा तो होती नहीं है?”
“सीमा  तो हर किसी की है, खैर तुम्हें अनन्त सुख चाहिए। यह अनन्त सुख तुम्हें कहाँ चाहिए? घर पर, ऑफिस में, होटल में, सफर में, शहर में, परदेश में या कहीं और?”
यह भी कोई प्रश्न हुआ। मैं बड़बड़ाया। कहा, “हर जगह। जहां जहां मैं जाऊँ, रहूँ, घूमूँ, बैठूँ, चलूँ, सोऊँ, कहीं भी।”
 ओ अच्छा तो तुम्हें अनन्त सुख अनन्त जगहों पर चाहिएउन्होने पूछा।
“हाँ भाई हाँ यह भी कोई पूछने की बात है,मुझ से रहा नहीं गया।”
 "चलो ठीक है। तब तुम्हें अनन्त सुख अनन्त  जगहों पर चाहिए।
लेकिन यह चाहिए कब? आज-कल-परसों-या किसी और दिन –सुबह –शाम-रात, कब?”
यह भी कोई प्रश्न है, मैं  झल्ला उठा, “कब मतलब? हर समय चाहिए, हर रोज चाहिए, मृत्यु पर्यंत चाहिए। और इसके पहले कि तुम और कोई बेहूदा प्रश्न करो मैं यह भी बता देता हूँ कि मेरी मृत्यु कब होगी यह मुझे नहीं पता लेकिन चाहिए आखिरी सांस तक।
अरे नाराज क्यों हो रहे हो! मुझे समझ  लेने दो कि तुम्हें चाहिए क्या? नहीं तो बाद में कहोगे तुम्हें वह नहीं मिला जो तुमने मांगा था। अब बस और एक अंतिम प्रश्न। तुम्हें यह अनन्त सुख अनन्त
जगहों पर अनन्त समय किससे चाहिए? माँ बाप से, बेटा बेटी से, पति पत्नी से, दोस्त कर्मचारी से, संबंधी पड़ोसी से, मालिक नौकर से किससे? समझ रहे हो न?” 
मेरा पारा सातवें आसमान पर पहुँच चुका था। चिल्ला कर बोला,
“माँ बाप, बेटा बेटी, पति पत्नी, दोस्त कर्मचारी, संबंधी पड़ोसी, मालिक नौकर इन सबों से। बल्कि उस सबों से जिनसे मैं मिल चुका हूँ और भविष्य में जिन जिन से मिलूंगा उन सबों से। समझे?”
एक लंबी सांस लेते हुवे उसने कहा, “तुम्हें अनन्त सुख, अनन्त समय, अनन्त जगहों पर, अनन्त लोगों से चाहिए। वत्स यहाँ तो सब क्षणभंगुर है एकमात्र ईश्वर ही अनन्त है यानि तुम ईश्वर की ही कामना रखते हो।हम सबसे सुख चाहते हैं और चैतन्य सुख चाहते हैं। अब अगर हम कुरेदें अपनी समझ को, अपने मस्तिष्क को जिस पर परतें पड़ी हुई हैं तो हमें तुंरत यह स्पष्ट हो जाएगा कि जाने अनजाने हम परमात्मा को ही चाह रहे हैं। वही असीम और अनादि है। हम समझें या न समझें हमारी चाह परमात्मा की ही है। लेकिन अपनी नासमझी के कारण हम सीमित सुख के पीछे दौड़ना शुरू कर देते हैं और  सीमित सुख का अंत हर समय दुःख में ही होता है।

                                                                          मैंने पढ़ा
सहिष्णुता
दस्तोबा दास्ताने                  ( आचार्यकुल सितंबर २०१७)
विनोबाजी ने विभिन्न शास्त्रों, धर्मों और भाषाओं का अभ्यास किया है, लेकिन उसके पीछे विद्वत्ता नहीं बल्कि अध्यात्म की उनकी दृष्टि रही है। हम विध्यार्थियों को मराठी, संस्कृत या अँग्रेजी पढ़ते थे तो आध्यात्मिक ग्रन्थों के द्वारा पढ़ाते थे, जिससे भाषा के साथ साथ आत्मज्ञान की ख़ुराकी भी हमें मिलती रही। मराठी में ज्ञानदेव-तुकाराम, असमी में नामघोष, बंगाली में गुरुदेव और चैतन्य महाप्रभु की वाणी, गुजराती में गांधी की वाणी, पंजाबी में जपुजी, अँग्रेजी में बाइबिल, संस्कृत में गीता और उपनिषद, अरबी में राहुल और कुरान, तमिल में तिरुक्कुरल ऐसे उनके अध्ययन के ग्रंथ रहे। अनेक भाषाओं का भी अध्ययन किया तो सिर्फ भाषा ज्ञान के ख्याल से नहीं, बल्कि उस भाषा के संत वाङ्ग्मय का अवगाहन करने के ख्याल से। और इन ग्रन्थों में से सारभूत अंश चुनकर जिज्ञासुओं के लिए उन्होने मक्खन ही निकाल दिया है। उनकी भूदान यात्रा जिस प्रदेश के संतों के जो ग्रंथ उस प्रदेश की आम जनता में प्रचलित थे उन्ही ग्रन्थों में से चुनिन्दा उद्धरण वे अपनी आम सभाओं में लोगों को सुनाकर समझाते थे विनोबाजी के मुंह से उन ग्रन्थों के उद्धरण ......... अपनी भाषा में सुनकर लोगों को उनके प्रति सहज आत्मीयता हो जाती थी।                           

शिक्षा का उद्देश्य मात्र सांसरिक और भौतिक ज्ञान नहीं है बल्कि उससे आगे बढ़ कर सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक ज्ञान भी है इसके बिना मानव अधूरा है।
 
कर्तव्य पालन
                                                                       प्यारेलाल   (पूर्णाहुति पृ.  २२७)
पटना के रेलवे स्टेशन पर बिहार के मंत्रीगण गांधीजी से मिलने आए। गाड़ी की सीटी बजने ही वाली थी। परंतु उनकी बातें खतम नहीं हुई थीं। स्टेशन मास्टर असमंजस में पड़ गया। वह सकुचाता हुआ आया। उसने पूछा कि गाड़ी चलाने का संकेत दिया जाय? गांधीजी ने कुछ बिगड़ कर जवाब दिया,आप और किसी मुसाफिर के पास जाकर उससे आदेश नहीं लेते, तो फिर यह अपवाद क्यों? आपको अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए और मंत्रियों से डरना नहीं चाहिए। इससे उनका और आपका भला भी होगा। उन्हे नियम की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, अन्यथा लोकतन्त्र छिन्न भिन्न हो जाएगा।"

स्टेशन मास्टर ने सादर प्रणाम किया और विदा होते होते साहस करके कहा, “यदि आपकी तरह अनुशासन पालने करने वाला एक भी व्यक्ति प्रत्येक विभाग में हो, तो सारे प्रशासन की शकल ही बदली हो जाए। आप नहीं जानते कि बेचारे सरकारी नौकर अपने अफसरों की इच्छानुसार कम न करें, तो उन्हे क्या कीमत चुकनी पड़ती है। मेरी ४० साल की नौकरी में यह मेरा पहला अनुभव है कि किसी ने अपने व्यक्तिगत उदाहरण द्वारा हमें निर्भय होकर कर्तव्य पालन करने का पदार्थ-पाठ पढ़ाया हो। इसीलिए हम आपको राष्ट्रपिता कहते हैं ।

सिग्नल दे दिया गया। गाड़ी गांधीजी को कलकत्ते की दिशा में ले चली।

ब्लॉग विशेष

आजकल खबरें बिजली की गति से चलती हैं। यह पत्रकारिता पाठक की आँख से होते हुए सीधे उसकी जेब में उतरना चाहती है। ऐसे में सन १८९८ में दक्षिण अफ्रीका में खुले एक छापेखाने को याद किया जा सकता है। इसी छापेखाने ने मोहनदास नाम के एक २९ साल के वकील को मंजा हुआ पत्रकार बना दिया था। खबरों और जानकारी की गति का गुलामी से क्या संबंध होता है, यह मोहनदास करमचंद को समझ आ गया था। साम्राज्यवाद और औद्योगीकरण के शोषण टिके थे खबरों, सूचनाओं और जानकारी की मशीनी गति पर। इस दुर्गति से बचाने के लिए मोहनदास करमचंद गांधी ने एक बड़ा विचित्र उपाय सूझा। क्यों न जानकारी देने और पढ़ने की रफ्तार को धीमा किया जाए, मनुष्य के शरीर और मन की गति के हिसाब से? खबरें पाठक की आंखो से होते हुए उसके मन में क्यों न उतरें? इस पत्रकारिता में थे सत्याग्रह और स्वराज के बीज।

धीमी पत्रकारिता का सत्याग्रही संपादक, इसबेल हौफ़्मायर,
   गाँधी मार्ग, मार्च-अप्रैल २०१६, पृ.४९
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बुधवार, 1 नवंबर 2017

सूतांजली, नवंबर २०१७

सूतांजली                                                    ०१/०४                             ०१.११.२०१७
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मंथन
कुछ समय पहले की एक घटना है। कुछ समय, यानि कई एक वर्ष। एक पारिवारिक उत्सव पर हमारा पूरा परिवार जमा था। युवाओंबच्चों, बच्चियोंबहुओं का एक झुंड एक तरफ बैठा था। उसीके समीप हम बुजुर्ग भी बैठे बतिया रहे थे। आदतन मेरा मन जल्दी से बुजुर्गों के बीच कम लगता है। अत: बैठा भले ही उनके साथ था लेकिन मेरे कान बगल में बैठे युवाओं की बातों में घुसपैठ कर रहे थे।
आजकल चलते फिरते दुकानों में हर समय गरमा गरम सामान खाने को मिल जाता है, एक ने कहा।
हाँदुकानों में माइक्रोवेव ओवेन रहता है। जो भी मांगो हाथों हाथ गरम करके देते हैंदूसरे ने टिप्पणी की।
दूध का भी कितना आराम हो गया है। दिन भर जब चाहो एकदम ताजा दूध मिल जाता हैतीसरी ने कहा।
मुझसे रहा नहीं गया और मैं उस दल की ओर मुखातिब हुआ, “मुझे एक संदेह है। गरम खाना किसे कहते हैं? उसे जिसे अभी पकाया गया हो या उसे जिसे अभी फिर से गरम किया गया हो?
एक सन्नाटा पसर गया। इसका फायदा उठाते हुवे मैंने दूसरा प्रश्न दाग दिया, “तुम लोग ताजा दूध की बात कर थे।  ताजा दूध किसे कहते हैं जिसे कुछ समय पहले दूहा गया हो? या गुजरात से अभी कोलकाता पहुंचा हो?या वितरक के हाथों घूमता हुआ दुकान में आया हो? या अभी जिसे हम दुकान से खरीद कर लाये हों? धरोष्ण दूध किसे कहते हैं, जानते हो?
इस बार सन्नाटे को चीरती हुई एक टिप्पणी आई, “अंकल, अब आप बूढ़े हो गये हैं, अपनी कुर्सी वापस उधर घुमा लीजिये।
शायद कुछ समय बाद बच्चे यह भी कहने लगें कि वे अमूल का दूध पीते हैं
परिभाषाएँ बदल गई हैं। मान्यताएँ विस्मृत हो गई हैं। सुविधायेँ  हावी हो गई है। पूरा संसार मुट्ठी भर परिवारों की जागीर हो गई है। हम अनजाने वही देखने, सोचने और करने को मजबूर हैं जो वे चाहते हैं। गांधी ने इसी के मद्देनजर मशीनों का बहिष्कार करने का सुझाव दिया था। उन्हे कार्य की सुविधा से नहीं संसाधनों के केंद्रीय करण पर एतराज था। फोर्बेस के आंकड़ों के अनुसार विश्व का ५० प्रतिशत संसाधन सिर्फ ८५ व्यक्तियों के हाथों में हैं।


                                                                                                 मैंने पढ़ा
प्रश्न पूछो ध्यान से
अहा जिंदगी, जुलाई २०१७आंद्रे मोक्विर्ज़, पृ. ७९
जीवन की निराशाओं का एक बड़ा कारण यह है कि हम ऐसे प्रश्नों के समाधान ढूंढते हैं, जो प्रश्न स्वयं ही गलत हैं। हमारा प्रश्न होता है, “मुझे ऐसा प्रेम पात्र कैसे मिले, जो सब प्रकार से सुंदर हो, निर्दोष हो और निस्वार्थ हो?ऐसी कौन-सी व्यवस्था हम खोज निकालें कि हमारे देश में सदा के लिए सब प्रकार कि समृद्धि और शांति स्थापित हो जाए? “मैं कौन सा पेशा अपनाऊँ कि ऊंचे से ऊंचे पद पर पहुँच जाऊँ? जो व्यक्ति अपनी समस्याओं को इस रूप में रखते हैं, उनके लिए कोई भी व्यक्ति संतोषप्रद समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकता। तो फिर प्रश्न का सही रूप क्या हो? यह मैं ऐसा प्रेम पात्र कहाँ पाऊँ जो मेरी ही तरह कमजोरियाँ रखता हो, किन्तु जिसके साथ पारस्परिक सद्भावना के आधार पर प्रगाढ़ मैत्री का संबंध स्थापित किया जा सके, जो हमें संसार के आघातों को सहने की  शक्ति दे? मेरा देश कौन से गुण प्राप्त करने के लिए कठोर श्रम करे कि उसका अस्तित्व खतरे में न पड़े?मैं अपना समय और शक्ति किन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अर्पित करूँ कि आत्म विश्वास के साथ उनकी प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकूँ।   
  गीता के (४.३४)   श्लोक का हरि गीतामें अनुवाद है
सेवा विनय प्रणिपात पूर्वक प्रश्न पूछो ध्यान से ।
उपदेश देंगे तब ज्ञान का तत्व-दर्शी ध्यान से ।।

परवरिश बच्चों को लीडर बनाओ
अहा! जिंदगी, सितंबर २०१७ पृ २९, डॉ.अबरार मुल्तानी
थॉमस एल्वा एडिसन प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे। एक दिन स्कूल से घर आए और माँ को एक कागज देकर कहा,टीचर ने दिया है। उस कागज को पढ़कर माँ की आँखों में आँसू आ गए। एडिसन ने पूछा क्या लिखा है? आँसू पोंछ कर माँ ने कहा इसमें लिखा है – “आपका बच्चा जीनियस है। हमारा स्कूल छोटे स्तर का है और शिक्षक बहुत प्रशिक्षित नहीं है, इसे आप स्वयं शिक्षा दें।कई वर्षों बाद माँ गुजर गई। तब तक एडिसन प्रसिद्ध वैज्ञानिक बन चुके थे।
एक दिन एडिसन को अलमारी के कोने में एक कागज का टुकड़ा मिला। उन्होने उत्सुकतावश उसे खोल कर पढ़ा। यह वही कागज था, जिसे टीचर ने दिया था। उसमें लिखा था, “आपका बच्चा  बौद्धिक तौर पर कमजोर है। उसे स्कूल न भेजें।
एडिसन घंटो रोते रहे .... फिर अपनी डायरी में लिखा, “एक महान माँ ने बौद्धिक तौर पर कमजोर बच्चे को सदी का महान वैज्ञानिक बना दिया।
महान थॉमसन एल्वा का उदाहरण यह बताता है कि हमारे बच्चों में छुपी प्रतिभा को बच्चे के अभिभावक ही समझ पाते हैं। अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने उत्तरदायित्व को समझें। न दूसरों पर निर्भर हों और न अपनी इच्छा उनपर थोपें। खुद बच्चों पर ध्यान दें और उनमें छिपी प्रतिभा को निखारें। 

                                            मैंने सुना
श्रद्धेय आचार्य श्री नवनीत जी
श्री अरविंद आश्रम, दिल्ली शाखा, नैनीताल, जून २०१७
प्रश्न : क्या पूजा पाठ एक घंटे करना आवश्यक है?
उत्तर: ४८ मिनट का एक मुहूर्त होता है। एक मान्यता है कि आप जब कोई भी कार्य करते हैं तो उसे कम से कम एक मुहूर्त तक करें ताकि उस कार्य की गहराई तक पहुंचा जा सके। या फिर आप कबड्डी की तरह भी कर सकते हैं। सांस बंद कर दौड़ते हुवे आए और छू कर वापस भाग लिए। ऐसे भी दर्शन हो सकता है और पूजा भी। लेकिन इसे तो हम कबड्डी पूजा / दर्शन ही कहेंगे। इसे हम बुरा नहीं कहते हैं लेकिन उसका अपना उद्देश्य और परिणाम है। लेकिन ४८ मिनट, जो एक घंटे के करीब हैमें चित्त  शांत हो कर निश्छलता प्राप्त होती है। यह एक नियम सा है लेकिन इसके अपवाद हैं।
एक बच्चा एक कवि से पूछता है, “मुझे आप जैसा कवि बनना है। इसके लिए मैं क्या करूँ?
कवि ने कई एक कवियों का नाम बताते हुवे कहा कि इनकी पुस्तकें पढ़ो और लिखने की कोशिश करो शायद कवि बन जाओगे।
बच्चा फिर पूछता है, “आपने कौन से कवियों की पुस्तक पढ़ी थी?
मैंने तो किसी को नहीं पढ़ा।
अरे! जब आप नहीं पढ़े तो मुझे पढ़ने क्यों बोल रहे हो?
प्यारे बच्चे मेरे मन में कवि बनने का प्रश्न उठा ही नहीं। मैंने कविता लिखनी शुरू कर दी, लोगों ने बताया कि मैं एक कवि हूँ और अच्छी कवितायें लिखता हूँकवि ने कहा।
इसे अपवाद कहते हैं, अन्यथा अपवाद अपवाद नहीं सुविधाहो जाती है।

ब्लॉग में विशेष
विकास का मतलब
इवान इलिच, गांधी मार्ग, सितंबर-अक्तूबर २०१५ पृ.२०१५
अब यह मांग बढ़ रही है कि अमीर देश शस्त्र आदि पर खर्च करना रोक कर पिछड़े देशों के विकास पर खर्च करें। यह मांग ठीक नहीं है। लोगों को विदेशी मदद के प्रति सावधान रहना चाहिए। समझना चाहिए कि एक अमेरिकी ट्रक एक अमेरिकी टैंक से ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है।
क्यों और कैसे? जानने के लिए यहाँक्लिक करें