राजस्थान की खुशबू – वृन्दावन के रंग
घुमक्कड़ी का शौक रहा है।
वर्ष भर घूमता ही रहता हूँ। लेकिन नजर केवल वहीं पड़ती है जहां नहीं गया। दो जगहों पर काफी समय से जाने की इच्छा थी –
होली पर वृन्दावन और राजस्थान में बिकानेर, श्यामबाबा, सालासर धाम और झुनझुनु। लेकिन, इच्छा रहने के बावजूद भी जाना नहीं हो रहा था। दरअसल, किसी का साथ ढूंढ रहा था और कोई मिल नहीं रहा था। ऐसा नहीं है कि वहाँ कोई
नहीं जाता। बल्कि हर वर्ष इन जगहों पर लाखों लोग जाते हैं। बार बार जाते हैं।
लेकिन प्राय: तूफानी दौरे पर रहते हैं। सुबह की फ्लाइट से दिल्ली या जयपुर गए। सब जगहों
का चक्कर लगाते हुवे रात तक वापस। मुझे स्थिर हो कर आराम से,
धीरे धीरे, उन जगहों की माटी की सोंधी सुगंध लेते हुवे, जीवन का अहसास लेते हुवे जाना था। ऐसी फुर्सत में जाने वाला कोई मिलता
नहीं था। अत: जब अचानक ही होली पर वृन्दावन चलने का निमंत्रण मिला तो तुरंत बिकानेर, खाटू, सालासर और झुनझुनु को भी सफलता पूर्वक यात्रा
में शामिल करवा लिया। और इस तरह 12 दिनों की यात्रा पर हम चार लोग निकल पड़े राजस्थान
की तरफ, रंगों के त्योहार होली तक वृन्दावन पहुँचने के
कार्यक्रम से।
चितपुर के कोलकाता रेलवे स्टेशन से सीधे बिकानेर के लिए
प्रताप एक्सप्रेस पर सवार हो गए। ट्रेन के इतिहास को देखते हुवे हमलोगों ने यह मन
बना लिया था कि गाड़ी कुछ देर से छूटेगी और काफी विलंब से गंतव्य यानि बिकानेर
पहुंचेगी। विचारानुकूल गाड़ी निर्धारित समय से 2 घंटे बाद छूटी और 6 घंटे विलंब से
पहुंची। रास्ते का नजारा देश के हर जगह के नजारे से भिन्न था। न कहीं कोई जलाशय, न नहर, न हरियाली, न खेत, न बस्तियाँ। हर जगह बंजर भूमि, बालुकामय प्रदेश, झाड़ झंगड़। दर असल ये ही, जिसे हम झाड़ झंगड़ समझ रहे
थे, यहाँ की खेती, फसल, गायों का चारा है। जहां कहीं बस्तियाँ दिखीं, कहीं
भी खपरैल के मकान या मट्टी की झोपड़ी नहीं दिखी -
न ट्रेन से, न बाद में गाड़ी में सफर करते समय। हर जगह
छोटे छोटे पक्के मकान ही दिखे। टैक्सी स्टेशन
पर तैयार थी, हम सीधे होटल सागर निवास पहुंचे।
सही माने में बीकानेर जाने का कोई प्रयोजन नहीं था।
लेकिन मेरी वहाँ जाने की इच्छा दो कारणों से थी। पहला-करनी माता का चूहों का मंदिर
देखने की तमन्ना थी, दूसरा-राजस्थानी साहित्य और टेस्सिटोरी से
रूबरू होने की इच्छा थी। इसकी खोज खबर लेने हम सीधे पहुँच गए राजकीय संग्रहालय
पर। रविवार और मरम्मत के कार्य के कारण संग्रहालय
में किसी से मुलाक़ात नहीं हुई। टेस्सिटोरी के मकबरे का भी सही पता नहीं चल पाया।
लेकिन संग्रहालय के प्रांगण में डॉ.टेस्सिटोरी की संगमरमर की लगी मूर्ति
दीख पड़ी।
संग्रहालय के सामने टेस्सिटोरी की मूर्ति |
इसकी स्थापना 1995 में श्री हजारीमल बांठिया, कानपुर
एवं श्री तनसुखराज डागा, बीकानेर ने करवाया था। इससे इस बात
की आशा जगी कि अगले दिन संग्रहालय के निर्देशक से कुछ सामग्री या जानकारी मिल जाएगी। लेकिन वैसा हो नहीं सका। मरम्मत के
कार्य के कारण कार्यकाय बंद था और निर्देशक महोदय यात्रा पर बाहर गए हुवे थे। लेकिन
सौभाग्य से, वहाँ के एक कर्मचारी से डॉ.टेस्सिटोरी के मकबरे
का पता चला और वहाँ पहुँच ही गए। छोटे से कब्रिस्तान में डॉ.टेस्सिटोरी का मकबरा
है। संगमरमर से क्रॉस का चिन्ह बना हुआ है। संगमरमर के ही पत्थर पर एक तरफ
राजस्थानी में लिखा है,”डॉ.एल.पी.टेस्सिटोरी री समाधि रो
निर्माण खादूल राजस्थानी रिसर्च इंस्टीट्यूट री प्रेरणा सूं फूलचंद बांठिया री
स्मृति में बांरा पुत्र श्री हजारीमल बांठिया ता. 22-11-56 नै करायौ”।
डॉ.टेस्सिटोरी का मकबरा |
मकबरे पर छतरी का निर्माण भी शायद उन्होने ही
कराया होगा। टैक्सी का ड्राईवर हमारी इस भाग दौड़ से जरा सा परेशान भी था और
आश्चर्यचकित भी। इस नाम से वह तो समझ रहा था कि ये हमारे कोई रिस्तेदार तो नहीं हो
सकते। लेकिन कौन हैं? आखिर उससे नहीं रहा गया तो उसने पूछ ही
लिया। मैंने उसे डॉ.टेस्सिटोरी की राजस्थानी भाषा और साहित्य में योगदान की बात
बताई तो श्रद्धा से नतमस्तक हो गया। तुरंत गाड़ी से कपड़ा लाकर कब्र पर जमी धूल हटाई
और प्रणाम किया। ड्राईवर का मौन श्रद्धा सुमन मेरी मेहनत की सफलता की पूरी कहानी
कह गया।
बिकानेर से करीब 30 किलोमीटर पर है प्रसिद्ध करनी माताका मंदिर। यह मंदिर चूहों के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर में
चूहों की भरमार है। चूहे माता को लगाए गए भोग का निरंतर भोग लगाते रहते हैं और वही
प्रसाद के रूप में श्रद्धालुओं को भी दिया जाता है। किसी समय तो चूहों की ऐसी
भरमार थी कि पैर उठा लेने पर रखने की जगह नहीं मिलती थी। अत: पैरों को घसीट कर
चलना
करनी माता का मंदिर |
पड़ता था। चूहे यात्रियों के पैरों और बदन पर बेखौफ चढ़ जाया करते थे। आज यह
मंदिर विदेशी सैलानियों के लिए, चूहों के कारण, एक प्रमुख आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। मंदिर के विशाल गुंबद के निर्माण
का कार्य जारी है। मंदिर देशनोक रेल्वे स्टेशन के नजदीक ही है। चाँदी के दरवाजे, सोने-चाँदी का सिंहासन एवं गुंबज, नक्काशीदार संगमरमर के खंबे तथा दरवाजे मंदिर की खूबसूरती बयान करती हैं।
कहा जाता है कि करनी माता की प्रेरणा से ही राव बीकाजी ने बीकानेर की स्थापना
की थी।
राजस्थान केवल रेगिस्तान नहीं है। यहाँ केवल हवेलियां और
किले ही नहीं हैं। यहाँ घूमते फिरते बहुतायत में गायें एवं गौशालाएँ दीख
पड़ेंगी। यहां बूढ़ी, अंधी, लाचार गायों को
संरक्षण मिलता है। इन गौशालाओं में हजारों की संख्या में गायें हैं जिनका भरण पोषण
“दान” के ही सहारे होता है। इनका लक्ष्य गाय के दूध से कमाना नहीं बल्कि गाय की
सेवा करना ही है। भारत में सबसे ज्यादा गायें राजस्थान में ही हैं। यह अपने आप में
एक विलक्षण अनुभव था। श्री रामसुख दास जी का स्थान नकदीक ही है। उनके पास
बड़ी संख्या में श्रद्धालु आया करते थे और उनकी प्रेरणा से गौशाला को समुचित अनुदान
भी मिल जाता था। लेकिन उनके देहांत के बाद अनुदान कम हो गया है। आमदनी से खर्च
ज्यादा है।
बीकानेर में देश का ऊंठों का सबसे बड़ा केंद्र है जहां अलग
अलग जातियों और नस्लों के ऊंट देखे जा सकते हैं। ऊंठों की अनुसंधानशाला भी
है। यहाँ अगल बगल में देखने और बताए जाने पर ऊंटों
के रंग और बनावट में साफ फर्क
नजर आया। केवल देखने में ही नहीं लेकिन गुणों में भी भेद है। कोई नस्ल दूध ज्यादा
देती है, कोई ज्यादा माल ढो सकता है तो कोई
रेगिस्तान में बिना पानी के ज्यादा दिन रह सकता है, आदि आदि।
अपनी आवश्यकता के अनुसार ही चयन करके लोग यहाँ से ऊंट लेते हैं।
शाम बल्कि रात ही कहना चाहिए, 10
बजे के बाद, बीकानेर के प्रसिद्ध लक्ष्मी नाथ जी के मंदिर
में शयन आरती के दर्शन करने गए। कम से कम एक बार सुनने और देखने का तो बनता ही है।
शयन आरती की राग एकदम अलग है। प्रत्येक अक्षर को लंबा टानते हैं। कहा जाता है कि बीकानेर
की नींव इसी मंदिर से शुरू हुई थी।
बीकानेर अगर पर्यटन की दृष्टि से आए हैं तो जूनागढ़
तो देखना ही होगा। जूनागढ़ के नाम से एक
जूनागड़ में दरवाजे पर चित्र |
जूनागड़ का भीतरी हिस्सा |
शहर है, गुजरात में।
इस किले से उसका क्या संपर्क है? यह मेरे समझ में नहीं आ रहा
था। पूछे बिना नहीं रह सका। पता चला “जुणा” एक राजस्थानी शब्द है जिसका अर्थ है
पुराना या पहले वाला। जगह की कमी होने के बाद एक नया गढ़ बनाया गया, तभी से इसे “जुणा” कहा जाने लगा और यही इसका नामकरण हो गया। गढ़ विशाल है, अनेकोनेक कमरे, गलियारे, छोटे
बड़े अनेक सभाकक्ष भी हैं, फिर यह छोटा कैसे पड़ गया? बड़ों की बड़ी बातें। अपने दिमाग न ही लगायें तो अच्छा।
शहर की सबसे विलक्षण बात लगी शहर के सीने को चीर कर जाती
हुई रेल। वैसे तो रेल पुराने शहर के परकोटे के ठीक बाहर ही है। लेकिन यह तो दशकों पहले
की बात है। नया तो नया पुराना शहर भी इस
परकोटे के बाहर कई गुना बढ़ चुका है। लेकिन
रेल की पटरी अब शहर के बीचों बीच हो गई है और वहीं की वहीं मौजूद है। रेलवे
स्टेशन भी पास में ही है। शायद इसी कारण रेल पटरी को दूर करने में दिक्कत है। यह बीकानेर
रेल मार्ग की प्रमुख पटरी है। बिकानेर आने जाने वाली सब गाडियाँ इसी पटरी से
गुजरती हैं। एक ही पटरी होने के कारण चौड़ाई भी बहुत कम है। एकदम ऐसा लगता है जैसे
रेल सड़क को चीरती हुई कोलकाता की बांसतल्ला या बड़तल्ला में या फिर दिल्ली की
चाँदनी चौक की संकड़ी गलियों में घुस गई। जैसे रेल में बैठे बैठे या घर के चबूतरे
से हाथ बढ़ाकर खाने का टिफिन ले लें या दे दें।
वैसे तो यहाँ दो दिन रहा और गाड़ी में पुराने शहर की पुरानी
गलियों के चक्कर भी लगाया। लेकिन शहर से साक्षात्कार हो नहीं पाया। ठहरना नए शहर में
हुआ था और घूमना गाड़ी में। अत: शहर से अपरिचित सा ही रहा। सुना था कि होली के समय
शाम को खुले में अच्छे एवं मधुर राजस्थानी फाग के गीत सुनने को मिल जाएंगे। लेकिन
न कुछ दिखा न सुना। हाँ, दो बाते हुईं। पहली, बिकनेर
के कपड़े, विशेष कर बंधेज की साड़ी और मसाले खरीदने के चक्कर
में कुछ समय शहर घूमा, देखा और अनुभव किया। अपना सा लगा, देखा सुना परिचित सा। और दूसरा, एक मित्र कि अनुकंपा से लेखक
श्री शुभू पटवा जी का आतिथ्य स्वीकार किया। उनके घर पर जैसे पूरी राजस्थानी संस्कृति
के दर्शन हो गए। भोजन और खाने की व्यवस्था तो राजस्थानी संस्कृति के अनुरूप थी ही, मनुहार – परिवार के प्रत्येक सदस्य द्वारा, साथ में
क्या और कैसे खाना है इसके निर्देश एवं उस क्रिया में सहयोग। राजस्थानी होने के
बावजूद, ऐसा मैंने इसके पहले कहीं नहीं देखा था और इस बात की
आशा भी नहीं है कि कभी देखूंगा। उनके आतिथ्य में हम सबों का रोम रोम भीग गया।
बीकानेर से रेल द्वारा जयपुर पहुंचे और स्टेशन से ही गाड़ी
से निकल पड़े सीधे खाटू श्याम बाबा के दर्शन के लिए। वार्षिक मेले का समय
था। भीड़ मिलने की पूरी आशा थी। लेकिन जब भीड़ के दर्शन हुवे तो हिम्मत जवाब दे गई।
कल्पना के बाहर लोगों का जमावड़ा, बेशुमार गाड़ी, बसें और ट्रैक्टर। इसके ऊपर गर्मी। मन बना लिया कि सुविधा पूर्वक जहां तक
जा सकूँगा, जाऊंगा और वहीं से हाथ जोड़ कर वापस हो लूँगा, बाकी साथी जो करना चाहें करें। व्यवस्था सुचरू होने के कारण इन सबके
बावजूद कहीं जाम नहीं, गंदगी नहीं,
शोरगुल नहीं। टैक्सी चालक एक के बाद एक प्रवेश स्थल को पार करता हुआ गाड़ी आगे ही बढ़ाये
जा रहा था। कोई जानकारी न होने के कारण न तो कुछ पूछने कि अवस्था में थे न बता
सकने की। फिर अचानक लगा कि मेला तो पीछे छूटता जा रहा है। शायद हमारी खामोशी और
चेहरों से हमारे प्रश्न को ड्राईवर ने पढ़ लिया। खुद बताया कि ऐसी जगह ले जा रहा
हूँ जहां से मंदिर नजदीक पड़ेगा, जाने में सहूलियत रहेगी और
निकल कर आगे के सफर पर बढ़ने के लिए मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। हम खामोश बने बैठे
रहे। गाड़ी लगाई। उसने निर्देश दिये लेकिन अंत में कहा, “उसके
बाद आप जाने और जाने आपका श्याम बाबा”। ऊहापोह में हम उसके निर्देशानुसार आगे बढ़ने
लगे। लोगों का आना जाना तो लगा हुआ था
लेकिन वह रेलम-पेल, भीड़ भाड़
कहीं नजर नहीं आई। लोगों के साथ साथ चलते हुवे एक दरवाजे पर पहुंचे। देखा, दरवाजे पर तैनात पुलिस, लोगों का परिचय पत्र देख कर
ही जाने दे रहा है। किसका पत्र, कैसा पत्र? कोई जानकारी नहीं। हमारे पास न तो किसी का कोई पत्र, न कोई पहचान, न कोई परिचय। जैसे ही दरवाजे पर
पहुंचे, पता नहीं कहाँ से एक अधिकारी आ पहुंचा हमें हाथ जोड़ा
और आगे बढ़ने का इशारा किया। तैनात सब पुलिस कर्मी पीछे हट गए। दरवाजे को पार करते
ही दर्शनार्थियों का अथाह सागर दिखाई पड़ा। लेकिन हम कुछ ही मिनटों में ठाकुर के सामने थे, दर्शन
किया और वापस। लौटने पर अहसास हुआ कि जिस कार्य के लिए आए थे वह तो आशा के विपरीत
बड़ी सुगमता से और द्रुत गति से हो गया। कैसे हुआ? श्याम बाबा
ही जाने।
महाभारत के
युद्ध की नींव पड़ चुकी थी। कौरव और पांडव अपने अपने मित्रों से सहायता एकत्रित
करने में लगे हुवे थे। कौरवों ने बड़ी चतुराई एवं छल से पांडवों के संबंधी शल्य
को अपनी तरफ कर लिया था। शल्य अतुलनीय सारथी थी। रथ हाँकने में उसका कोई सानी
नहीं। युद्ध में चतुर सारथी की बहुत बड़ी भूमिका होती है। अर्जुन यह समझते थे और
इसलिए चिंतित भी। कर्ण का रथ शल्य चलाएँगे और अगर उसके पास कुशल सारथी नहीं हुआ तो
कर्ण को परास्त करना दुर्भर हो सकता है। शल्य की बराबरी केवल कृष्ण कर सकते थे। शायद
यही कारण था कि अर्जुन ने कृष्ण का चुनाव किया। एक अच्छे सारथी का महत्व
हमलोगों के समझ में आ रहा था। उसने हमारी पूरी यात्रा को सफल, सुखी एवं आरामदायक बना दिया था। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमें खाटू श्याम
बाबा के यहाँ मिला और उसके बाद भी हर जगह हमने उसके सूझ-बूझ और अनुभव को महसूस
किया।
रात का पड़ाव सालासर धाम में था, लेकिन हमारे पास समय भी था और फुर्सत में भी थे। अत: ड्राईवर के सुझाव पर
गाड़ी जीण माता की तरफ घुमा ली। यहाँ मेले का समय नहीं होने के कारण यात्री
बहुत कम थे। लेकिन वहाँ लगी दुकानें, मंदिर तथा अन्य
व्यवस्था देख कर प्रतीत हुआ कि मेले के
समय लाखों श्रद्धालु यहाँ जमा होते होंगे। धर्म के नाम पर लोगों में कैसा कैसा
उन्माद छा जाता है। लोग धर्म के नाम पर कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहते हैं।
एक दमड़ी न खर्च करने वाले भी लाखों रुपए लुटा देते हैं। बिना किसी शारीरिक क्षमता के
अनेक शारीरिक कार्य कर गुजरते हैं। कई बुद्धिजीवियों को इन सबों से शिकायत है, नफरत है, चिढ़ है। उनके विचार से धन और बल का इससे
ज्यादा दुरुपयोग और नुकसान कुछ नहीं हो सकता। इतनी मेहनत और धन किसी सत्कार्य पर
खर्च किया जाय तो मनुष्य की बहुत सी समस्याएँ हल हो जाएँ। मुझे भी यह सोच कर
आश्चर्य होता है कि यह वर्ग यह क्यों नहीं
देख पाता कि वह सत्कार्य, जिसके वे चर्चा कर रहे हैं, इसी से निकल कर आती है। वे यह क्यों नहीं समझ पाते कि यह एक ऐसा उन्माद
है जिससे अनेक रचनात्मक और सृजनात्मक कार्य हुवे थे और हो रहे हैं। इसको सही दिशा
दे कर असंभव कार्य कराये जा सकते हैं, और कराने वाले कराते
भी हैं। गरीबों एवं जरूरतमंदों के लिए अनेक पाठशालाएं,
औषधालय, धर्मशालाएँ, भवन एवं सड़कों का
निर्माण इसी उन्माद की देन है। अब पढ़े लिखे और धनवान लोगों में यह उन्माद न होने के
कारण पाठशालाएं नहीं बनती हैं, शिक्षा का व्यापार होता है।
रोगियों के लिए अस्पताल नहीं बनते, मल्टी स्पेसियलिटी हॉस्पिटल
के नाम से कारखाने खुलते हैं, धर्मशालाएँ नहीं बनती होटल
बनते हैं। पहल सही दिशा देने की होनी चाहिए, विराम
चिन्ह लगाने की नहीं।
जब तक सालासर धाम पहुंचे अंधकार घिर आया था। ठहरने
कि व्यवस्था करने के पहले बाबा के दर्शन करने का मन में आया। मंदिर में गए। बड़ी
निराशा हुई। जरा भी श्रद्धा या भक्ति भाव नहीं जगा। लगा जैसे कोई दर्शनीय स्थल देखने
आए हैं जिसके लिए केवल चंद लमहे दिये जाते हैं। लम्हे जहां मिनटों में बदले, कि आगे बढ़ने की हुंकार। और ये लम्हे भी सामने से गुजरने के नहीं, बल्कि किनारे से निकल जाने तक ही सीमित है। मेले का समय हो, भीड़ हो तब ऐसी व्यवास्था समझ में आती है। लेकिन आम दिन भी वही। यही हाल
था ठाकुर के भोग का। मंदिर में तैयार मिलता है। खरीद लीजिये और छुट्टी। ठहरने की
जगह भी रास नहीं आई। गंध ऐसी मिली कि आम जनता कम आती है,
लक्ष्मी पुत्र ही ज्यादा आते हैं। मन खट्टा हो गया। हो सकता है मेरा आकलन गलत हो।
लेकिन मैं यहाँ से निकला इसी उधेढ़-बुन में, बुझे मन से।
यहाँ से निकालकर सीधे पहुंचे फ़तेहपुर धोली सती दादी
के। फ़तेहपुर में कई सती मंदिर के दर्शन
किए। हर मंदिर में उत्तम व्यवस्था।
इन मंदिरों एवं सतियों का भी एक अलग ही किस्सा है। सार्वजनिक होते हुवे भी ये सब
मंदिर एक प्रकार के निजी मंदिर से हैं। अलग अलग वृहद परिवार की अपनी अपनी सती
दादी। सब परिवार पैसे वाले। अच्छे रुपए खर्च करके एक से एक मंदिर स्थापित कर लिए, व्यवस्था कर दी। सब अपनी अपनी सती को पूजते हैं। हाँ, झुनझुनु की राणीसती दादी इनमें सबसे प्रमुख है जिसको सब मानते हैं। शायद
उनका इतिहास सबों से अलग है।
मंडावा होते हुवे झुञ्झुणु पहुँचे। ड्राईवर ने बताया कि मंडावा
की कोठियाँ देखने लायक हैं और शिवलिंग भी। लेकिन फ़तेहपुर से यहाँ का रास्ता भी
अच्छा नहीं था और भूख भी लगने लगी थी। अत: गाड़ी में बैठे बैठे जितना दिखा वही देखा
और आगे बढ़ गए। बाद में इसकी वृस्तित जानकारी मिली तो अफसोस हुआ। लेकिन अब पछताए
होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।
मंडावा से झुञ्झुणु चले तो विचार राणीसती मंदिर में
ही ठहरने का था। लेकिन फिर वहाँ मोदीजी की हवेली में व्यवस्था हो गई। कोठी शहर के
बाज़ार में है। अच्छा हुआ। यहाँ ठहरने से शहर देखने, सुनने
और समझने का मौका मिला। अपने वतन का यही फर्क है। राजस्थान में कहीं भी चले जाएँ
लगता है अपनों के ही बीच हैं। कोठी काफी बड़ी है, व्यवस्थित
है और बे-हिसाब खिड़कियाँ हैं –
400 खिड़की की कोठी का एक भाग |
400 खिड़की वाली कोठी के नाम से भी जानी जाती
है। विशाल मंदिर और वैसी ही व्यवस्था। मेला तो नहीं था और न ही मेले जैसी भीड़, लेकिन मेला सा ही लगा हुआ था। मंदिर का अपना भोजनालय भी है और कैंटीन भी
जो 12हों महीने चलता है। मेले के समय तो इतने कमरे काम में आ जाते हैं। बाकी वर्ष
भर बंद ही पड़े रहते हैं।
यहाँ से अब हमारी यात्रा वृन्दावन की तरफ बढ़ी। जयपुर से
ट्रेन लेनी थी। रास्ते में शाकम्बरी देवी के पहुँच गये। मेरे नयनों में, कई दशकों पहले जब आया था उस समय की धुंधली सी याद थी कि यहाँ का प्रकृतिक
सौंदर्य देखने लायक है। मार्ग ने निराश नहीं किया। अभी तक के बालुकामय रास्ते तथा
झाड-झंखाड़ देखते-देखते आँखें दुखने लगी थी। यहाँ आँखों को राहत मिली। मनोहारी एवं
मनोरम दृश्य देख कर आँख ठंडी हुई। लेकिन मंदिर पर पहुँच कर फिर वही कंक्रीट के
टीले। कुछ पता नहीं चलता कि इसके बाहर प्रकृति ने कैसी छटा बिखेर रखी है। भोजन का
समय हो चला था। मंदिर के बासे में भोजन तैयार था। कार्यकर्ताओं के मनुहार के सामने
हमने अपने हथियार डाल दिये और सुस्वादु प्रसाद ग्रहण किया। न बासे ने, न मंदिर के कार्यालय ने किसी
प्रकार का अनुदान स्वीकार किया। अंत में दान पेटी में ही श्रद्धा सुमन चढ़ाये। यहाँ
से जयपुर, जयपुर से ट्रेन से सीधे मथुरा पहुंचे।
वृन्दावन, मथुरा, बरसाना, नंदगांव, गोकुल, एक शब्द में कहूँ तो ब्रजभूमि। कृष्ण की जन्मभूमि, बाल गोपाल की लीलाओं की साक्षी भूमि, राधा के रज की
भूमि, गोपियों के विरह गीत से गुंजित भूमि। पिताजी के रहते
कभी यह खयाल नहीं आया कि वृन्दावन में क्या करेंगे, कहाँ
ठहरेंगे। ठहरने के लिए बिरागी बाबा का आश्रम था और पूरी दिनचर्या उन्ही के
इर्द गीर्द घूमती थी। लेकिन अब दोनों ही नहीं रहे। ठहरने कि विशेष समस्या थी। जगह
अच्छी भी चाहिये थी सस्ती भी और बाँके बिहारी के मंदिर के नजदीक भी। खोज खाज कर मोर
भवन में आरक्षण भी करवा लिया था। अत: निश्चिंत था। लेकिन गाज गिरि। रात 9 बज गए थे, वर्षा भी हो रही थी। भवन वाले ने भवन का सबसे गंदा कमरा खोल दिया। वहाँ
ठहरना संभव नहीं था। खैर, ठाकुर की कृपा। रात तो जैसे तैसे
कहीं और गुजारी और सुबह जयपुरिया भवन में आ गए। इस समय इसमें जगह मिलना
अपने आप में एक आश्चर्यजनक घटना थी। महंगा तो पड़ा लेकिन 5 दिन आवास ठीक न हो तो
गुजारना कठिन हो जाता। मंदिर - धार्मिक स्थलों में घूमना और बाँके बिहारी के दर्शन
करना। यही दिनचर्या रही।
बाँके बिहारी मंदिर का समय |
वृन्दावन की होली की स्मृति नहीं थी। सब कुछ नया और पहली
बार सा लगा। कुछ अच्छा - कुछ बुरा। लेकिन मन लगा, श्रद्धा
हुई, भीड़ में पिसे लेकिन कई बार दर्शन किए। मेरी निगाह में
यह पहला मंदिर है जो ब्रह्म-मुहूर्त में नहीं खुलता। दर्शन 8-9 बजे ही होते हैं।
क्यों? अरे यहाँ के ठाकुर तो बाल गोपाल हैं। बच्चा तो देर से
धीरे धीरे अंगड़ाई लेते हुवे ही न उठेगा। भोर में कैसे उठेगा?
और एक बात, बाँके बिहारी के दर्शन लगातार नहीं कर सकते। बार
बार बीच में पड़दा लाकर ध्यान भंग कर देते हैं। कहते हैं, एक
भक्त ऐसा आया, बिहारी जी को एकटक देखता रहा। ठाकुर उसकी
आँखों में देखते देखते खुद उस की आँखों में खो गए और उसके साथ चल दिये। भक्ति के
भी कैसे कैसे और कितने रूप होते हैं।
राधा टिला
जाकर दर्द हुआ। अगल बगल बहु मंज़िली इमारत बन जाने के कारण अब तोते बहुत कम आते हैं, मोर तो आने बंद ही हो गए। प्रेम-मंदिर नवीन मंदिर है। मंदिर कम
पर्यटन स्थल ज्यादा।
प्रेम मंदिर |
निधिवन, कृष्ण – राधा – गोपियों की महारासलीला स्थल। अनेक दन्त कथाएँ। इन कथाओं की
सत्यता और प्रामाणिकता पर ध्यान गया, तब तो बस लखनऊ की भूल
भुलय्या की तरह उलझ कर रह जाएंगे। इनमें डूब कर भक्ति भाव से छक कर रसपान कीजिये, स्वाद का
प्रेम मंदिर का समय |
आनंद लीजिये। तभी इसे समझ पाएंगे, नहीं तो
केवल धूल हाथ लगेगी। इसकी छटा अभी भी निराली है। पहले का अब स्मृति में नहीं। अत:
कितना और क्या बदलाव आया इसका अंदाज नहीं लगा सका। रमन रेती भी अच्छी जगह
है। देख कर ही अहसास होता है। यहाँ की रज में गुरगंडी भी खाया लेकिन न रज मिली, न सुगंध, न भाव। खोजता रहा लेकिन हाथ लगी नहीं। नया
गोकुल - पुराना गोकुल - नन्द भवन - नन्द किला में हम उलझ गए। अंत तक निकल पाये
कि नहीं भरोसा नहीं। हर कोई अपने ही स्थान
को असली जगह बताता है। गूगल से जो जगह मिली, वहाँ पहुंचे, लेकिन लगा नहीं कि वह सही जगह है। लेकिन निष्कर्ष यही निकला कि नन्द किला
नए गोकुल में और नन्द भवन पुराने गोकुल में है। गोल गोल घूमते रहने के कारण पुराने
गोकुल तक पहुँचते पहुँचते रात हो गई थी। बाल
गोपाल की लीला स्थली नहीं देख पाये। लेकिन गोकुल में दर्द बहुत हुआ। यहाँ हर जगह
पंडे-पुजारी ज्यादती कर रखे हैं। हर जगह एक ही दर्शन, एक ही
तरीका-नियम। दर्शनों में पड़दा लगा रखे हैं। आराम से बैठ जाइए। एक ही कहानी सुनिए।
और फिर कितना क्या भेंट चढ़ाना है चढ़ाईये। तब पर्दा हटेगा,
दर्शन होंगे। केवल धांधली और लूट।
वृन्दावन की एक विशेष बात है – वहाँ के बंदर। ये चश्मा और पर्स
के शातिर चोर हैं या डाकू। शायद विश्व में ऐसा कहीं नहीं मिलेगा। चश्मे पर नजर
गड़ाए रखते हैं और मौका मिलते ही आँखों पर से चश्मा उतार कर मकान के मुंडेर पर चढ़
जाएंगे। लोगों की भीड़ में से हाथ में पकड़े
हुवे चश्मे को लेकर भागते हुवे भी मैंने बंदरों को देखा। हाथ से पर्स लेकर छीन कर भाग
जाएंगे, उसे खोल कर नोट दिखाएंगे। मांग पूरी नहीं
हुई तो नोट हवा में और चश्मे की भद्रा। मांग पूरी कर दीजिये अपना समान वापस ले
लीजिये। किसी समय मांग थी खाने के समान की।
लेकिन अब तो मांग हो गई है पीने की, और वह भी फ्रूटी की।
चशमा पॉकेट में रखें और पर्स सँभाल कर, हाथ से छीन कर ले जाने
का कलेजा रखते हैं ये हनुमान। निधिवन के नजदीक सुबह सुबह मेरे सर पर से गरम ऊनी
टोपी लेकर भाई भाग खड़ा हुआ। कोई दुकान खुली नहीं थी, अत: फ्रूटी
मिली नहीं। नई बिस्किट का पैकेट मेरे मुंह पर वापस दे मारा। पैकेट खोल कर रखा, तो मुंह उठा कर देखा तक नहीं। किसी से लेकर रोटी दी, उसे देखा, उठाया, चखा, तब मेरी टोपी वापस मिली। जय हनुमान।
खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ, नहीं
खट्टे अनुभव तो कहीं नहीं हुवे, यात्रा समाप्त हुई।
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