चिकित्सा व्यवसाय नहीं है
(मारवाड़ी
रिलीफ़ सोसाइटी की मासिक पत्रिका “रिलीफ़” के जनवरी २०१७ अंक से उद्धृत)
चिकित्सा कार्य
व्यवसाय नहीं है,
व्यवसाय सरीखा होते हुवे भी यह एक सेवा कार्य है, साधना है, तपस्या है और रुग्ण प्राणी के रूप में भगवान की पूजा है। व्यवसाय में लेन
देन होता है, एक ग्राहक होता है जो व्यवसायी को आय प्रदान
करता है, इसलिए ग्राहक व्यवसायी के लिए महत्वपूर्ण और
सम्माननीय होता है। लेकिन चिकित्सक के पास जो आता है वह ग्राहक नहीं होता, लेन देन करने वाला नहीं होता बल्कि रोग और कष्ट से परेशान एक दुखी और
लाचार व्यक्ति होता है। इसलिए उसमें ग्राहक जैसी अकड़ नहीं होती बल्कि याचक जैसी
निरीहता और विनम्रता होती है। वह ग्राहक की तरह मोल भाव करने की स्थिति में नहीं
होता बल्कि एक समर्पित और हर बात मानने की स्थिति वाला लाचार व्यक्ति होता है।
चिकित्सक और रोगी का संबंध व्यावसायिक नहीं होता। इसके बावजूद चिकित्सक को भी अपने
और परिवार के निर्वाह के लिए चिकित्सा के बदले धन मिलना जरूरी है। धन के बिना किसी
का काम नहीं चलता है मगर चिकित्सक को सिर्फ धन प्राप्त करने और अधिक से अधिक
प्राप्त करने के उद्देश्य से चिकित्सा नहीं करनी चाहिए। यदि उसका उद्देश्य आधिक से
आधिक धन कमाना ही हो तो उसे चिकित्सा छोड़ कर अन्य व्यवसाय ग्रहण करना चाहिए।
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गांधी जी का सेव
(कुरजां से साभार)
वर्धा के गांधीआश्रम में बुनियाद शिक्षा का मसौदा बन रहा था। डॉ. जाकिर हुसैन, के.टी.शाह, जे.बी.कृपलानी, आशा देवी आदि कई लोग मौजूद थे। बापू
ने पूछा, “के.टी.अपने बच्चों के लिए कैसी शिक्षा तैयार कर
रहे हो?” सब चुप रहे। के.टी.ने पूछा,
“बापू, आप ही बताइये कि कैसी शिक्षा हो?” बापू ने कहा, “ के.टी., अगर
मैं किसी भी कक्षा में जाकर पूछूं कि मैंने एक सेब चार आने में खरीदा और उसे एक
रुपए में बेचा दिया तब मुझे क्या मिलेगा? मेरे इस प्रश्न के
जवाब में अगर पूरी कक्षा ये कहे कि आपको जेल मिलेगी, तब
मानूँगा कि आजाद भारत के बच्चों के सोच के मुताबिक शिक्षा है।” बापू के इस सवाल पर
सब दंग रह गये। वास्तव में किसी व्यापारी को यह हक नहीं कि वह चार आने के चीज पर बारह
आने लाभ कमाये। इस प्रकार बापू ने एक प्रश्न के जरिये नैतिक शिक्षा का संदेश बिना बताये
ही दे दिया।
(आज शिक्षा का संदेश
ही नहीं,
उसका उद्देश्य भी बदल गया है। चार आने के सेव पर चार रुपये किस तरह कमाये जा सकते
हैं, यही पढ़ाया और सिखाया जाता है। कच्चे माल, अनाज, सब्जी और फल को उगाने वाला किसान और मजदूर
भूख से मरता है, बिचौलिये, व्यापारी और
मल्टीनेशनल उसकी उपज पर सौ गुना लाभ कमा रहे हैं। क्या यही हमारी शिक्षा का
उद्देश्य है।?)
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धन्य जीवन
अपने जीवन भर कि
सम्पूर्ण कमाई सामाजिक कार्यों हेतु लगाने वाले विश्व के पहले एवं एकमात्र व्यक्ति
हैं तमिलनाडू (भारत) के श्री कल्याण सुंदरम। पिछले 45 वर्षों से समाज सेवा
के कार्यों में संलग्न लाइब्रेरी साइंस में गोल्ड मेडलिस्ट, इतिहास और साहित्य में एम.ए.
तथा भारत सरकार द्वारा देश के सर्वश्रेष्ठ लाइब्रेरियन पुरस्कार से सम्मानित हैं।
तीस वर्षों तक
लाइब्रेरियन के पद पर सेवा कार्य के दौरान प्रतिमाह प्राप्त सम्पूर्ण वेतन गरीबों की
सहायतार्थ दान किया। स्वयं के व्यक्तिगत खर्च पूर्ति हेतु होटल में वेटर के रूप
में कार्य करते रहे तथा पेंशन में प्राप्त दस लाख की राशि भी दुखी गरीबों के
सहायतार्थ दान कर दी।
गांधीवादी आदर्श से
प्रेरित,
एकदम साधारण जीवन शैली तथा अब तक अविवाहित। दूसरों की सहायता हेतु उनके इस
भावनात्मक अनुपम कार्य से प्रभावित होकर अमेरिकी सरकार ने उन्हे सदी का महानायक (man
of millennium) पुरस्कार से सम्मानित किया तथा 30 करोड़ रुपए की
पुरस्कार राशि प्रदान की, परंतु उस सम्पूर्ण राशि को भी
हमेशा की तरह उन्होने गरीब असह्य लोगों में वितरित कर दिया। उनके इस अद्भुत जज्बे
से प्रभावित होकर दक्षिण भारत के सुपरस्टार रजनीकान्त ने उन्हे बतौर पिता गोद लिया
है। दुखद है कि अमेरिका जैसे सुदूर देश में उन्हे पहचान मिली परंतु हम में से
कितने व्यक्ति को उनके बारे में पता है?
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(मारवाड़ी
रिलीफ़ सोसाइटी की मासिक पत्रिका “रिलीफ़” के दिसम्बर २०१६ अंक का अंश)
मार्टिन लूथर किंग ने कहा था,“अगर तुम उड़ नहीं सकते हो तो
दौड़ो। अगर तुम दौड़ नहीं सकते हो तो चलो। अगर तुम चल भी नहीं सकते हो तो घिसट कर
रेंगो, मगर आगे बढ़ते रहो। क्योंकि एक जगह पड़े और खड़े रह जाने
वाले का स्वागत सफलता नहीं करती है।”
उन्होने यह भी कहा
था कि अगर रास्ते पर पत्थर ही पत्थर हों तो सँभल कर और अच्छा जूता पहन कर उस पर
चला जा सकता है। लेकिन एक अच्छे जूते के अंदर एक भी कंकड़ हो तो अच्छी सड़क होने के
बावजूद उस पर चलना मुश्किल होता है। इसका अर्थ है कि मनुष्य बाहर कि चुनौतियों से
नहीं हारता है बल्कि अपनी अंदर कि कमजोरियों से हारता है।
संत विनोबा भावे कहा करते थे कि अभिमान और
अहंकार फरिश्ते को भी शैतान बना देते हैं, लेकिन धैर्य और विनम्रता में भी कम ताकत
नहीं होती वह मामूली इंसान को भी फरिस्ता बना देती है।
उन्होने यह भी कहा
था कि आवाज को ऊंचा करने से ही दूसरे उसको नहीं सुनते हैं। आदमी का व्यक्तित्व
ऊंचा होना चाहिए ताकि लोग उसे सुनने के लिए उसका इंतजार करें।
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सेवा उचित अथवा सस्ते दर पर सबको सुलभ हो
(मारवाड़ी
रिलीफ़ सोसाइटी की मासिक पत्रिका “रिलीफ़” के अंक अगस्त २०१६ का संपादकीय)
पिछले कुछ दशकों में
मारवाड़ी और हरियाणवी समाज में ही नहीं बल्कि गुजराती, बंगाली और अन्य जातीय समाज में
भी उल्लेखनीय आर्थिक तरक्की और सामाजिक चेतना आयी है। व्यावसायिक सफलता और शिक्षा
के प्रचार-प्रसार के बावजूद एक बात मन को कूरेदती है, वह है, सामाजिक दायित्व और सेवा भावना
की कमी। कोलकाता जैसे महानगर में सामाजिक संगठनों का प्रचुर विकास हुआ है। शिक्षा
और संस्कृति के प्रति भी जागरूकता फैली है, मगर व्यावसायिकता
के स्तर पर ही। पिछले पाँच दशकों में यहाँ एक भी नया सार्वजनिक अस्पताल, पुस्तकालय अथवा शिक्षालय नहीं खुला है। जो भी नए अस्पताल अथवा स्कूल-कालेज
खुले है, वे सब कॉर्पोरेट स्तर पर,
व्यवसाय के उद्देश्य से खोले गए हैं। वहाँ समाज के साधारण वर्ग के लिए चिकित्सा
अथवा शिक्षा सुलभ नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़ कर सामाजिक संस्थाओं द्वारा संचालित
ज़्यादातर पुराने स्कूलों और अस्पतालों में भी पहले वाली सेवा और सुविधा उपलब्ध
नहीं है, जिसके हेतु उनकी स्थापना हुई थी। इसका कारण क्या है? त्रुटियाँ और समस्याएँ सभी जगहों में है मगर इस पर गंभीरतापूर्वक सोचने
और विचार करने में भी किसी की भी रुचि नहीं है। सेवाभाव के स्थान पर कहीं
व्यक्तिगत प्रचार नजर आता है तो कहीं अपरोक्ष स्वार्थ। समाज के कर्णधारों के पास इतना
समय नहीं है कि वे पुरानी संस्थाओं की समस्याओं को मिलकर समझें और सुलझाएँ। ऊपरी
तौर से तो यही नजर आता है कि अर्थाभाव, उचित संचालन और सेवाभाव
की कमी ही वह कारण है जिससे कतिपय सार्वजनिक अस्पताल और विद्यालय बंद पड़े हैं, और कुछ बंद होने के कगार पर हैं। इस स्थिति में यह कर्तव्य पूरे समाज का बनता
है कि वह सामाजिक संस्थाओं को सँभाले और स्वस्थ्य करे। जो सामाजिक कार्यकर्ता, कठनाइयों के बावजूद विभिन्न अस्पतालों, शिक्षालयों
और पुस्तकालयों से जुड़ें हैं और उनसे संबन्धित समस्याओं से जूझ रहे हैं, उनका सहयोग करना और उनका उत्साह बढ़ाना भी पूरेमाह समाज का कर्तव्य है। समाज
के पास धार्मिक आयोजन के लिए धन की कमी नहीं होती है, मगर जब
किसी सेवासंस्था अथवा रियायती दर पर चिकित्सा करने वाले अस्पताल का सवाल आता है तब
पता नहीं क्यों समाज में कृपणता नजर आने लगती है। यह किसी भी संस्था अथवा संगठन के
प्रति शिकायत नहीं है, बल्कि एक आम निवेदन है, सुझाव है, जो इस आशा के साथ दिया जा रहा है कि समाज
के अग्रणी महानुभाव इस पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करेंगे। किसी भी जातीय अथवा
प्रांतीय समुदाय द्वारा स्थापित क्यों न हो, नगर की सभी
संस्थाएं समान रूप से पूरे समाज की धरोहर हैं और उनके उद्देश्य जाति और धर्म से
ऊपर उठकर मानवमात्र की सेवा करना है। यह सेवा उचित अथवा सस्ते दर पर सबको सुलभ हो, यही हमारा उद्देश्य है।
स्वतन्त्रता दिवस की शुभ बेला पर हम सभी देशवासियों का सादर
अभिनंदन करते हैं और उन्हे हमारी शुभकामनायें देते है।
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विदेशी
ब्रांड के पैक्ड खाद्य पदार्थ हमें मानसिक रूप से गुलाम बनाते है
(मारवाड़ी
रिलीफ़ सोसाइटी की मासिक पत्रिका “रिलीफ़” के जुलाई २०१६ अंक का संपादकीय)
एक कथा है। एक शेर, एक भेड़िया और एक लोमड़ी इकट्ठे
मिलकर शिकार कर रहे थे। उन्होने तीन जानवरों का शिकार किया,
एक गधा, एक हिरण और एक खरगोश। शेर ने भेड़िये से पूछा, “बताओ, हम शिकार का बंटवारा कैसे करें?” भेड़िया बोला, “आप बड़े हैं, गधा आप ले लीजिये, लोमड़ी खरगोश ले लेगी और मैं हिरण
से संतुष्ट हो जाऊंगा।” शेर क्रोध से गरजा और सलाह के
पुरस्कार स्वरूप पंजे के एक ही वार से भेड़िये का सिर कुचल दिया। फिर उसने लोमड़ी से
पूछा, “तुम्हारा क्या सुझाव है?” लोमड़ी
बोली, “सीधी सी बात है, आप सुबह का
भोजन गधे से करें, शाम का हिरण से और दोपहर का हल्का नाश्ता
खरगोश से।” सारा का सारा शिकार अकेले अपने को मिलते देख खुश
होकर बोला, “बहुत ठीक, पर ऐसी बुद्धिमानी
और न्यायप्रियता की बात करना तुमको सिखाया किसने?’ लोमड़ी ने
उत्तर दिया, “श्रीमान, भेड़िये ने।”
लोमड़ी के इस उत्तर
के पीछे उसके मन में क्या था? भय था, शेर के प्रति भक्ति थी अथवा शेर
का बचाखुचा पाने का लोभ था। इस बात का निर्णय आप स्वयं करें। जो बात हम कहना चाहते
हैं वह यह है कि जीवन के हर क्षेत्र में
“शेर” भरे पड़े हैं। राजनीति हो चाहे उदद्योग और व्यवसाय,
मजहब और धर्म का मामला हो अथवा शिक्षा और समाज सेवा का, हर
जगह सत्ताधारी सारा का सारा शिकार खुद हड़प जाना चाहते हैं। हम आम लोग, लोमड़ी हैं, स्वेच्छा से सबकुछ “शेर” को दे देना
पसंद करते हैं। विदेशी मल्टीनेश्नल कंपनियां आज हमारे उदद्योग और व्यवसाय पर हावी
हैं। देश का धन और जनता का परिश्रम सब उनके मुंह में चला जाता है। हमें इस वस्तुस्थिति
को समझना होगा और इस व्यवस्था को बदलना होगा। इसके लिए भेड़िये की तरह जान गँवाने
की जरुरत नहीं है। जरुरत है शेर का साथ छोड़ कर अपना शिकार खुद करने और खाने की, याने विलासता और आराम के सामानों का मोह त्याग कर अपनी जरूरतों को सीमित
करने की। विदेशी कंपनियों का अस्तित्व उपभोगताओं पर टिका है,
यदि उपभोगता उनके उत्पादों को खरीदना और इस्तेमाल करना बंद कर दें तो वे “शेर”
भूखों मर जाएंगे। एक बात और, विदेशी ब्रांड के पैक्ड खाद्य
पदार्थों में जो धीमा जहर मिलाकर हमें खिलाया जा रहा है वह न सिर्फ हमारी सेहत को
नुकसान पंहुचता है बल्कि एक नशे की तरह हमारी आदत बन कर हमारी सोच को भी विकृत
करता है और हमें मानसिक रूप से गुलाम बनाता है।
इस माह रथ-यात्रा का
पावन-पुण्यमय त्यौहार है। बाल गंगाधर तिलक और चन्द्रशेखर आजाद कि जयंती भी है। एक
और स्मरणीय दिवस भी है जो हाल में मनाया जाने लगा है, “डॉक्टर्स डे”। डॉक्टरों के
प्रति श्रद्धा जताना हमारे संस्कारों में है। हम डॉक्टरों को भगवान मानते हैं। दुविधा
उत्पन्न होती है जब इस सम्मानीय पेशे के कुछ लोग अपने को सचमुच भगवान समझकर
रोगियों कि अवहेलना करते हैं और उन्हे पैसा कमाने का माध्यम मानते हैं। ऐसे बहुत
थोड़े लोग हैं, मगर वे सम्मानीय चिकित्सक समाज को बुरा नाम
देते हैं। आशा करते हैं कि वे सभी अपने पेशे के महत्व और उसकी गरिमा को समझते हुए, सचमुच सेवा जगत के भगवान बनने का प्रयत्न करेंगे।
राजेंद्र
केडीया
परिचय
श्री राजेंद्र केडीया
कोलकाता के मारवाड़ी रिलीफ़ सोसाइटी के सौजन्य से प्रकाशित पत्रिका “रेलीफ” के
स्वयं-सेवकीय संपादक हैं। ६५ वर्ष की आयु में जब अन्य अपनी लेखनी रखने पर आ जाते
हैं,
राजेन्द्रजी ने लेखनी उठाई। ‘पुराना राजस्थान’ की पृष्ठभूमि पर आधारित कई मौलिक कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हो
चुके हैं। यहाँ उसी पत्रिका के कतिपय लेख तथा संपादकीय उद्धृत हैं।
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