मैक्स
मुलर और स्वर्णिम भारत
क्यों हम जब अपने देश के इतिहास का
स्मरण करते हैं तो हमारी स्मरण शक्ति एवं साधारण जानकारी हमें मुग़लकालीन भारत तक
ही ले जाती है?
क्यों हमें यह ध्यान नहीं रहता
कि मुग़ल भारत भी ब्रिटिश भारत की तरह दासता व गुलामी के भारत का ही इतिहास है जो लगभग सिर्फ
५०० वर्ष पुराना है?
क्यों हम यह नहीं समझते कि अंग्रेजों
ने, भारत का शोषण कर, अपने देश, ब्रिटेन को समृद्ध किया?
क्या हमें यह मालूम नहीं कि अंग्रेजों
ने दोनों हाथों से जी भर कर हमारे देश को नोचा, लूटा और
खसोटा?
क्या तथ्य इस बात के साक्षी नहीं कि ब्रिटिश
शासन अत्याचार, आतंक और दमन का शासन था?
क्या हम यह भी नहीं जानते हैं कि मुग़ल भी थे तो आक्रान्ता ही, लेकिन यहाँ की सुजला, सुफला भूमि, यहाँ की संपन्नता व वैभव, कला व साहित्य, नैतिक एवं चारित्रिक सबलता देख कर दंग रह गए और यहीं रहने-बसने का इरादा
कर लिया? मुग़लों ने हर प्रकार की नीतियाँ अपना कर हमसे पारिवारिक
संबंध स्थापित किये। इन सम्बन्धों का असर ऐसा हुआ कि आक्रांता मुगलों के पक्ष में भारतीय
शासक और सैनिक ही दूसरे भारतीय शासक के विरुद्ध युद्ध में शरीक हुए। महारणा प्रताप
और शिवाजी जैसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। इन देश प्रेमियों के विरुद्ध लड़ने वाले
राजपूत और मराठे ही थे और उन्ही के कारण प्रताप और शिवा को पराजय का मुंह देखना
पड़ा।
कब तक विद्यालयों में भारत
के इतिहास का प्रमुख पाठ मुग़ल भारत की चर्चा, उनका गुणगान
और उनके विजय की गाथा से भरा रहेगा?
क्यों हमारे विद्यालयों में हमारे
पराभव, पराजय, अपमान और
गद्दारी का इतिहास पढ़ाया जाता है?
क्या कारण है कि हमारे इतिहास के
जिन पन्नों को हमें समेट देना चाहिए था उसकी तो विस्तृत चर्चा करते हैं और जिनकी
विस्तृत चर्चा करनी थी उनको आधे-एक पन्ने में समेट देते है?
क्या हम यह नहीं जानते कि यह
पूरा पाठ्यक्रम ब्रिटिश शासकों का बनाया हुआ है और इसी पाठ्यक्रम को कमोबेश हम चला
रहे हैं?
क्या हमारी इतनी समझ नहीं है कि इस
पाठ्यक्रम से अंग्रेजों का उद्देश्य हमें हीन भावना से ग्रस्त करना था?
लेकिन अब स्वतन्त्रता प्राप्ति के ७० वर्ष बाद भी क्यों हमें
साधारणतया अपने “स्वर्ण-युग” कि जानकारी नहीं है जो हमारी असली पहचान है। क्यों
हमसे हमारा परिचय नहीं है?
हम जिस गौरवशाली भारत, महान
आर्यावर्त, “सोने की चिड़िया” की बात करते हैं क्या वे
केवल कपोल कल्पनाएं हैं? क्या इनका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं
है? क्या हम कहानियों के आधार पर ही अपनी महानता का झूठा दंभ
दिखाते फिरते हैं? दर असल हम प्राय: जहां से भारत के इतिहास
की चर्चा करते हैं वहाँ से इसका प्रारम्भ नहीं समापन है। उसके बाद तो केवल हमारी
दासता की कहानी है जो समाप्त होती है १९४७ में, अंग्रेजों के
जाने के बाद। यह हजार वर्षों का काल खंड भारत की नहीं गुलाम भारत की दास्तां है। उज्ज्वल
भारत, स्वर्णिम भारत, हमारी
पहचान तो उसके पहले का स्वतंत्र भारत है।
भारत को समझने के लिए हमें हजारों वर्ष पहले जाना होगा, गुलामी के पहले, स्वतंत्र भारत की तरफ। मौर्य
वंश (३२२-१८५ बीसी) और गुप्त वंश (३२०-५५०) के साम्राज्य का इतिहास भारत का परिचय है। यही वह
समय था जब ग्रीक यात्री मेगास्थनीज (३२०-२९० बीसी), चीनी यात्री फ़ाहियन (३३७-४२२) एवं हुवेनसांग
(६०२-६४४) भारत आए थे और अपनी यात्रा तथा तत्कालीन भारत के बारे में लिखा। इस समय
के इतिहास को ठीक से खँगालने, शोध एवं खोज करने की आवश्यकता है, क्योंकि बहुत
कुछ है जिसकी हमें जानकारी नहीं है। कहते हैं इतिहास को सुख और शांति का काल पसंद
नहीं। उसे तो क्रांति और युद्ध का ही समय चाहिए। संभव है, गुप्त
काल सुख और शांति का समय होने के कारण उसके बारे में इतिहास में विशेष कुछ लिखा न गया
हो। खोज-बीन कर पुनर्वालोकन करने की आवश्यकता है।
यह हमें खुद सोचना और विचार करना चाहिए कि क्या कारण था कि
अपने देश को छोड़ कर मुग़ल भारत में बस गए? क्यों
अंग्रेज़ भी इतनी दूर आकर भारत में इतना निवेश किया? क्या
कोई भी व्यापारी, समाज, मुल्क किसी भी गरीब
– दीन – हीन से व्यापार करता है? क्या चोरों, लुटेरों, बेईमानों, डाकुओं से
व्यापार संभव है? क्या ऐसे लोगों के मध्य बसता है? क्या कोई अनपढ़, गंवार, असभ्य
के बीच रहना पसंद करता है? हम इन प्रश्नों के तह तक जाएँ तो हमें
खुद अपना स्वरूप दिखाई पड़ जाएगा कि हम किसकी संतान हैं?
हमारा हम से साक्षात्कार होगा।
अंग्रेजों को इस बात का इल्म था कि अगर हमें अपनी महानता का
परिचय हुआ तो बगावत हो सकती है जिसे अंग्रेज़ किसी भी अवस्था में सँभाल नहीं
पाएंगे। अत: हमारे गौरवशाली और स्वर्ण युग को नजरंदाज करके दासता, पराभव, पराजय, हीनता, अपमान की ही चर्चा की। जिससे हम मानसिक रूप
से यह मान बैठे कि हम निरीह, अज्ञानी और अपमानजनक व्यवहार
के योज्ञ हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने “Discovery of India” में भारत का इतिहास लिखा है। यह लगभग ६००
पृष्ठों का ग्रंथ है। इसमें आदिकाल,
वेद-पुराण-रामायण-महाभारत काल से अंग्रेजों के शासन तक का इतिहास लिपिबद्ध है। इस
पुस्तक में भी उन्होने इस स्वर्ण युग का बहुत कम जिक्र किया है। इसके तीन ही कारण
हो सकते हैं -
१। नेहरू जी को इसकी विस्तृत जानकारी नहीं थी,
२। नहरुजी ने इस काल खंड को नजर अंदाज किया, और
३। इस इतिहास की ज्यादा जानकारी उपलब्ध ही नहीं है।
पहले दो कारण सही नहीं हो सकते। और अगर तीसरा कारण सही है
तो इसके लिए अथक परिश्रम की आवश्यकता है। स्वतंत्र भारत की सरकार ने जो भी जानकारी
उपलब्ध है उसे विस्तृत रूप में विदद्यालयों तक पहुँचने में विशेष दिलचस्पी नहीं
दिखाई, यह हमारा दुर्भाग्य है।
जर्मन विद्वान मैक्स मुलर ने
भारत का गहन अध्ययन किया और भारत की सही तस्वीर दुनिया के सामने रखी। उसने भारत और
हिंदुओं के बारे में जो लिखा उस पर हमें खुद को सहसा विश्वास नहीं होता। लगता है
कि कोई भ्रम है, अतिशयोक्ति है। हम अपनी ही नजरों में इतने
गिर चुके हैं कि हम उस पर विश्वास करने से कतराते हैं। सही बात तो यह है कि उस समय
भी अनेक विदेशी विद्वान मैक्स मुलर से
सहमत नहीं थे और इसका विरोध और आलोचना की थी। आलोचना थी लेखक कि इस घोषणा पर
जिसमें उसने भारत और हिंदुओं को “सर्वश्रेष्ठ” कहा था। जिस देश को
अंग्रेजों ने पूरे विश्व में दीन-हीन, गंवार-अशिक्षित, गरीब-भूखा-नंगा, चोर-डाकू-ठग,
साँप-जंगल-जानवर के प्रदेश के रूप में चित्रित कर रखा था उस देश के लिए ऐसी घोषणा
पर प्रश्न चिन्ह लगाना स्वाभाविक है।
भारत मेँ प्रशासन हेतु भेजे जाने वाले ICS अधिकारियों को भारत से परिचत करवाने के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय
ने मैक्स मुलर के एक व्यख्यानमाला का १८८२
में आयोजन किया था। यह पूरी व्याख्यानमाला एक पुस्तक (India:What Can it
teach us) के रूप मेँ उपलब्ध है। उस पुस्तक के
केवल एक अध्याय, जिस पर सबसे ज्यादा उंगली उठाई गई, के कुछ अंश को मैं पाठकों कि जानकरी के लिए उद्धृत कर रहा हूँ। विश्लेषण
आप खुद करें।
1. If
we were to look over the whole world to find out the country most richly
endowed with all the wealth, power and beauty that nature can bestow – in some
parts a very paradise on earth – I should point to India.
2. If I were asked under what sky the human mind has
most fully developed some of its choicest gifts, has most deeply pondered
on the greatest problems of life, and has found solutions of some of them which
will deserve the attention even of those who have studied Pluto and Kant – I
should point to India.
3. And if I were to ask myself from what literature
we, here in Europe, we who have been nurtured almost exclusively on the
thoughts of Greeks and Romans, and one Semitic race the Jewish, may draw that
corrective which is most wanted in order to make our inner life more perfect,
more comprehensive, more universal, in fact more truly human, a life, not for
this life only, but for transfigured and eternal life – again I should point
to India.
4. A very common characteristic of these men (Hindu) and of the
Hindus especially, was simplicity truly childish, and a total
un-acquaintance with the business and manners of life. Where that features was
lost? It was chiefly by those who had been long familiar with Europeans.
5. Polished manners, clearness and comprehensions of
understanding, liberty of feeling and independence of principle that would have
stamped them (Hindu) gentlemen
in any country in the world.
6. Let me add that I have been repeatedly told by English
merchants that commercial honour stands higher in India than in any
other country and that a dishonoured bill is hardly known there (India).
इसके अलावा इसी अध्याय में मैक्स मुलर ने कई अधिकारियों, शासकों, विदेशी यात्रियों एवं इतिहासकारों की
उक्तियाँ भी उद्धृत की हैं। ये भी पढ़ने एवं मनन करने योग्य हैं:-
1. कर्नल स्लीमैन भारत में कई वर्षों तक “Commissioner for the
suppression of thuggee” रहे और इस सिलसिले में उन्हे भारत में भ्रमण करते रहे और उन्हे आम जनता के निरंतर
संपर्क में रहना पड़ा। मैक्स मुलर ने लिखा कि वे लिखते हैं - “In their panchayats, men adhere habitually, and religiously to the
truth and I had before me hundreds of cases, in which a man’s property, liberty
and life has depended upon his telling a lie, and he has refused to
tell it.”
2. हुवेंनसंग कि पंक्तियां भी उन्होने उद्धृत कि हैं, “Though the Indians are
of light temperament, they are distinguished by the straightforwardness and
honesty of their character. With regard to riches, they never take
anything unjustly: with regard to justice they even make excessive concessions
....... Straightforwardness is the distinguished features of their
administration.
3. ११वीं सदी के स्पेन के इतिहासकर
मोहम्मद इद्रीसी की पुस्तक से मैक्स मुलर ने उद्धृत की है ये पंक्तियाँ “The Indians are naturally inclined to justice,
and never depart from it in their actions. Their good faith, honesty and
fidelity to their engagements are well known they are so famous for these
qualities that people flock to their country from every side.
4. अकबर के मंत्री आबु फजल की “आईने अकबरी” से ये पंक्तियाँ, “The Hindus are religious,
affable, cheerful, lovers of justice, given to retirement, able in business,
admirers of truth, grateful and of unbounded fidelity: and their soldiers
know not what it is to fly from the field of battle.”
5. वारेन हेस्टिंगस से हम सब परिचित हैं। वे लिखते हैं, “They (Indian) are gentle and benevolent, more
susceptible of gratitude for kindness shown them, and less prompted to vengeance
for wrongs inflicted than any people on the face of the earth: faithful,
affectionate, submissive to legal authority.”
6. कलकत्ता के बिशप हेबर का उद्धरण, “The Hindus are brave, courteous, intelligent, most
eager for knowledge and improvement: sober, industrious, dutiful to parents,
affectionate to their children, uniformly gentle and patient, and more
easily effected by kindness and attention to their wants and feelings than any
other people I ever met.”
7. मौन्स्तुयार्ट एल्फिन्स्तोन, जो ब्रिटिश भारत में मुंबई
के राज्यपाल थे ने लिखा है, “Including the Thugs and Dacoits, the mass of crime is less in India
than in England”.
8. सर थॉमस मुनरो, जो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के
अधिकारी थे, ने तो यहाँ तक लिखा है कि,
“if civilisation is to become an
article of trade between England and India, I am convinced that England will
gain by the import cargo.”
मैक्स मुलर ने इसी
अध्याय में स्लीमन कि पुस्तक के आधार पर यह बताया है कि भारत में न्यायालयों में
कुरान शरीफ एवं गंगा की शपथ दिलाई जाती है। अगर इसे बदल कर “ईश्वर” की शपथ दिलाई
जाए तो उसका क्या असर होगा?
सर्वे से पता चला कि निवासियों को प्रमुखत: तीन विभागों में विभाजित किया जा सकता
है :
१। ऐसे लोग जो बिना
शपथ के भी सत्य ही कहेंगे,
२। अगर शपथ नहीं दिलाई जाए तो स्वार्थवश सत्य से विमुख हो सकते हैं। लेकिन शपथ
कुरान शरीफ या गंगा कि ही होनी चाहिए,
३। शपथ से कोई फर्क नहीं पड़ता, स्वार्थ वश झूठ कहने में नहीं
हिचकिचाएँगे।
जोड़-घटाव करने से यह
चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया कि संख्या
के आधार पर २रे प्रकार के लोग सबसे ज्यादा हैं जो प्राय: गांवों में रहते हैं। १ले
प्रकार के लोगों की संख्या उनसे कम है और वे भी गांवो में रहने वाले है। ३रे
प्रकार के लोग सबसे कम हैं और प्राय: शहर के निवासी हैं। यह अवस्था सिर्फ २००-२५०
वर्षों पुरानी है जिसकी नींव पड़ी थी १५००
वर्ष पूर्व। महात्मा गांधी के सचिव प्यारेलाल कि पुस्तक से भी सत्य के
प्रति हमारी वचन बद्धता सिद्ध होती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व बिहार में
फैले दंगो को नियंत्रण में लेने के लिए नेहरुजी ने बिहार का दौरा किया था।
प्यारेलाल ने “गांधी पूर्णाहुति” खंड २ पृ ३७८ में इस यात्रा का जिक्र करते हुए
लिखा, “पीड़ित
क्षेत्रों में हुई इन सभाओं में चारों ओर के गांवों से बहुत बड़ी संख्या में किसान उपस्थित
हुए। प्रत्येक सभा के अंत में पंडित नेहरू ने हाथ उठवा कर श्रोताओं से प्रतिज्ञा
कराई कि इस प्रकार का दुराचरण फिर कभी नहीं करेंगे। बाद के समाचारों से पता चला कि
इस प्रकार प्रतिज्ञा लेने वाले इन किसानों ने अपने वचन का महत्व समझा और सचमुच
दूसरों से उन्होने ने कहा कि जब हम वचन दे चुके हैं तो उसका पालन करना होगा।“
यह है हमारी वंश
परंपरा और हमारा इतिहास। हम वंशज हैं ऐसी महान कौम के जो सत्य पर कायम रहते हैं
भले ही सर्वस्व लुट जाए। इसे बार बार दोहरने और नई पीढ़ी को बताने कि आवश्यकता है।
हम वो नहीं हैं जो अंग्रेजों ने सबको दिखाया और दुनिया तथा हमने माना। हमें अपने
इस अतीत के गौरव को,
अपने स्वर्णिम युग को जानना, समझना और बताना है। इससे हमारी हीन भावना समाप्त होगी और हम पूरे आत्मविश्वास के साथ सर
उठा कर कह सकेंगे कि हम भारत के वासी हैं। आत्म विश्वास प्रगति और उत्थान के नए
आयामों तक पहुंचाने की क्षमता रखता है।
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