शुक्रवार, 18 मई 2018

चाचा-चाची, ताऊ-ताई, काकू-काकी, मामा-मामी, मासा-मासी और भी न जाने कितने शब्द और रिश्ते हैं हमारे पास । ये हमारे सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के द्योतक हैं और साथ ही शब्दों विशालता के भी। लेकिन फिर भी हम क्यों इन्हे छोड़ कर इन सब को समेट देते हैं केवल दो शब्दों, अंकल-आंटी में? अँग्रेजी का भूत और गुलामी की जंजीरें अभी भी हमें जकड़ रखीं हैं और हम उसी बंधन को आधुनिकता समझ कर अपनी पीढ़ियों में बाँट रहे हैं।
 ....... पहली बार रूपा, जोशी दंपति से मिली तो अपनी अँग्रेज़ियत वाली आम आदत के कारण उन्हें अंकल-आंटी कहा। जोशीजी तुरंत बोल पड़े, “बेटी, तुम मुझे अंकल कह रही हो, मंकलडंकल क्यों नहीं कहती?”
रूपा हंस पड़ी, “ये मंकल-डंकल क्या होता है?”
जोशीजी ने भूल सुधरने के अंदाज में कहा, “ चलो हटाओ। तुम मंकल और डंकल दोनों शब्दों के अंतिम अक्षर काट दो।“
रूपा बोली, “फिर तो मंक और डंक हो जाएगा।
जोशीजी सोच में पड़, “ऐसा? हाँ ऐसा करो, दोनों शब्दों के अंतिम अक्षर पर बड़ी मात्रा लगा दो।
रूपा कुछेक क्षण सोच कर बोली, “अरे, ये तो मंकी और डंकी हो जाएगा”।
खुश होते हुए जोशीजी बोले, “हाँ, यह हुई न बात। अब तुम मुझे डंकी और आंटी को मंकी कह सकती हो।
शर्माती हुई रूपा बोली, धत, हम भला ऐसा क्यों कहेंगे?”
जोशीजी ने पलटवार किया, “फिर अंकल-आंटी क्यों कहोगी? मेरे चेहरे से या तुम्हारी आंटी के चेहरे से ऐसा कुछ लगता है कि हम दोनों अंग्रेज़ की औलाद हैं?”
.........
“ऐसा तो मैंने नहीं कहा।”
“तो हमें अंकल-आंटी क्यों कहती हो?
“क्योंकि डैडी-मम्मी के फ्रेंड्स को अंकल-आंटी ही कहा जाता है।”
“फिर तुम्हारा नाम “रूपा” नहीं “रुपेल” होगा।”
“रुपेल तो अंग्रेजों का नाम होता है।”
“तो क्या अंकल-आंटी, डैडी मम्मी हिन्दी के शब्द हैं?”
“नहीं, ऐसा तो नहीं है।”
“तो फिर, सुनो बेटी आज से तुम डैडी-मम्मी” को “बाबा” और “माँ” कहोगी और मुझे और आंटी को ताऊ और ताई कहोगी।”
“बाबा और माँ तो ठीक है लेकिन ताऊ और ताई?”
“हाँ, अपने पिता के बड़े भाई को ताऊ कहते हैं।”
“मगर आप बाबा के बड़े भाई से कहाँ लगते हैं? मैं तो आपको काकू कहूँगी और आंटी को काकी माँ। अब तो ठीक है।”
खुश होकर जोशी जी बोले, “बिलकुल ठीक है।“
........”
-मगरमुंहा, प्रभात कुमार भट्टाचार्य
छोटी छोटी बातें ही बड़े बड़े संस्कार डालती हैं।


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