शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

हमारा तो परम धर्म निष्क्रियता ही है                                                              

विधायक - एक व्यक्ति जीतता है, पाँच साल रहता है, कुछ नहीं करता। पाँच साल बाद चुनाव होते हैं और वह फिर से जीत जाता है। एक व्यक्ति ऐसा भी है जो जीतता है, पाँच साल रहता है, क्षेत्र में विकास के खूब काम करता है, पाँच साल बाद चुनाव होते हैं और उसकी जमानत जब्त हो जाती है। जनता का कहना है कि काम मत करो? हमें अपने हाल पर रहने दो, हमारी आदतें बिगाड़ने की कोशिश मत करो।

प्रशासक - जनता घर की खिड़की पर बैठे बैठे देखती रहती है कि किस प्रकार से डामर में जला हुआ तेल मिलाकर सड़कें बनाई जाती है। वह कुछ नहीं बोलती। जनता छत पर खड़े खड़े देखती  है कि किस प्रकार पहले वर्ष में एक, दूसरे वर्ष में दो  और तीसरे वर्ष में प्रशासक का मकान तीन मंज़िला हो रहा है। फिर भी कुछ नहीं बोलती। उसका मानना होता है कि कम से कम कुछ हो तो रहा है। बंद तो नहीं हुआ है।

लोक – लोक ने निर्लिप्तता का पाठ अच्छे से कंठस्थ किया है। लोक में साक्षी भाव कूट कूट कर भरा हुआ है। लोक सब सुनता है, सब देखता है, सब समझता है – साक्षी भाव से। इसलिए वह न कुछ बोलता है, न देखता है, न सुनता है। गांधी के तीन बंदरों का पाठ, न बोलना-न देखना-न सुनना, चरितार्थ करता है। हर कुछ में लिप्त होते हुए भी निर्लिप्त हैं। हर जगह उपस्थित होते हुए भी कहीं नहीं है।


विधायक एवं प्रशासन लोक से हमेशा डरती रही है। वे बड़ी सावधानी और जागरूकता से लोकशक्ति को प्रकट होने से रोकती रही है। यही नहीं, लोगों के असहाय और हतबल रहने में ही उसने अपनी कुशलता देखी है। परिणाम यह कि लोगों को सरकार का रत्ती भर भरोसा न होते हुए भी उसे हर बात में सरकार का मुंह ताकने की दु:साध्य आदत हो गई है। देश की सुरक्षा और कानून व्यवस्था से लेकर देश की सफाई करना, नदियों को स्वच्छ बनाए रखना, भ्रष्टाचार को रोकना, काले धन को पकड़ना, आपसी सौहार्द बनाए रखना सब सरकार का ही काम है। इस सब संकटों और इनके अलावा किसी भी प्रकार का संकट आए तो उससे हमारी रक्षा करने का उत्तरदायितत्व सरकार का है। हमारा तो परम धर्म निष्क्रियता ही है।  

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