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इन पूरे खबरों का क्या हश्र हुआ, पढ़ें ब्लॉग के अंत में
खबरों
में एक खबर सुनी और पढ़ी –
“श्रीमती
प्रियंका गांधी वाद्रा ने योगी आदित्यनाथ से उत्तर प्रदेश के पैदल चल रहे प्रवासी श्रमिकों
को अपने गंतव्य स्थान पर सकुशल पहुँचने के लिए 1000 बसों को चलाने की पेशकश की है।
इन बसों का खर्चा प्रियंका जी (काँग्रेस) देगी। उन्हें, इसके लिए उत्तरप्रदेश सरकार की सहमति चाहिए। उनके इस मानवीय कृत्य को
ध्यान में रखते हुए योगी आदित्यनाथ ने
इसकी स्वीकृति प्रदान की और बसों के सुचारु संचालन के लिए बसों के आवागमन की
आवश्यक सूचना साझा करने का सुझाव दिया।”
|
योगी आदित्यनाथ |
मुझे
इस बात की जरा भी जानकारी नहीं है कि यह खबर कितनी सत्य है और कितनी अफवाह; इस पर कोई कार्य भी हो रहा है या ये केवल घोषणा तक ही सीमित होकर रह गई
हैं, या ये केवल राजनीतिक चालें हैं। इन सबके बावजूद मैं यही
कहना चाहूँगा कि अगर यह सही नहीं है तो भी हम सब, व्यक्तिगत-सोशल
मीडिया-प्रिंट मीडिया-टीवी चैनल, हर जगह इसकी सकारात्मक
चर्चा करें। हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि ये दोनों, योगी
आदित्यनाथ और प्रियंका, इस घोषणा को फलीभूत करने की क्षमता रखते हैं। इस पर किसी प्रकार की न
नकारात्मक टीप्पणी करें, न उल्टी अटकलबाजी, न राजनीति, न नज़र अंदाज़। अगर इस पर सकारात्मक
टिप्पणी देते हैं, इसे फैलाते हैं, इसकी चर्चा करते हैं तब मुझे विश्वास है कि यह कार्य संपन्न होना
प्रारम्भ हो जायेगा।
|
सरकारी बस |
हमें
यह जानकारी है कि अनेक ट्रेनें और बसें चलाई जा रही हैं। लेकिन इन प्रवासी मजदूरों
की संख्या इतनी ज्यादा है कि जब तक हर नागरिक इस कार्य में सहयोग देना प्रारम्भ
नहीं करता उन्हें अपने घर तक पहुँचाने का काम सुचारू रूप से होने वाला नहीं। यह न
सोचें कि 1000 बसों से ज्यादा कुछ नहीं होने वाला है। जरा सी कल्पना कीजिये देश भर
में कितनी सामाजिक संस्थाएं, धार्मिक संस्थाएं, व्यापारी, हाउसिंग सोसाइटी,
स्थानीय क्लब एवं अन्यान्य लोग जरूरत मंदों को अनाज बाँट रहे हैं, पका भोजन खिला रहे हैं, मास्क दे रहे हैं, सैनीटाइजर दे रहे हैं। किसी ने यह नहीं सोचा कि उनके थोड़ा सा करने से
क्या होगा? लेकिन इन सबका सम्मलित रूप कितना बड़ा कार्य कर
रहा है! यही नहीं इन में से कोई भी,
प्रचार का मोहताज भी नहीं है। बस एक धुन है, जज़्बा है जो
इन्हे इस कार्य में लगा रखा है।
|
श्रीमती प्रियंका गांधी वाद्रा |
मैं
देख रहा हूँ कि अगर ये बसें एक बार चलने लगीं, तो कैसा सैलाब
आयेगा। इन संस्थाओं को सेवा का एक नया आयाम दिखेगा। यही नहीं, देश की केंद्रीय और क्षेत्रीय सरकारें और राजनीतिक पार्टियां भी इस कार्य
में जुटेंगी। परिवहन से जुड़ा हर व्यक्ति, संस्था “कोविद
वारीयर” बन कर अपना सहयोग देने के लिए उठ खड़ा होगा। यह समस्या, जिसे हम इतने
विकराल रूप में देख रहे हैं, समाप्त प्राय: हो सकती है। हर
किसी से मेरी यही विनती है कि इस बात को प्रचारित करें और हर संभव कोशिश करें कि यह फलीभूत हो। इस
पर सकारात्मक चर्चा करें, साझा करें, ट्वीट करें, फ़ेस बूक पर डालें, ब्लॉग में डालें।
यह
न समझें कि यह सरकार की ज़िम्मेदारी है। यह सरकार है कौन? हम और सरकार अलग अलग नहीं हैं। हम ही सरकार हैं, सरकार ही हम हैं। यह हम सब का कर्तव्य भी है, उत्तरदायित्व भी। आप सबों ने एक
वाकया पढ़ा होगा। गौतम बुद्ध के जमाने में एक बार देश में भयंकर दुर्भिक्ष (अकाल)
पड़ा। लोगों के पास धन था लेकिन खाने को अन्न नहीं। चारों तरफ तबाही थी। मौत का
मंजर था। इस अवस्था में गौतम बुद्ध ने, इस समस्या के समाधान
के लिए एक सभा का आवाहन किया। सभा में देश के सब राजा-महाराजा, श्रेष्ठी-व्यापारी-धनिक-सेठ-साहूकार, ज्ञानी-विचारक, प्रतिष्ठित और आम जनता शरीक हुई। सबों ने एक स्वर में अकाल से उत्पन्न
|
गौतम बुद्ध |
अवस्था का बड़ा ही करुण और हृदय विदारक दृश्य प्रस्तुत किया। सबों की सुनने के बाद गौतम
बुद्ध बोले, “अवस्था कल्पना से ज्यादा दुरूह और भयंकर है।
यहाँ देश के सम्पन्न और समर्थ लोग उपस्थित हैं। मैं यह जानना चाहता हूँ कि इस
दुर्दिन में, राहत कार्य करने का उत्तरदायित्व
कौन वहन करने को प्रस्तुत है?”
सभा को काठ मार गया। सब शांत हो गए। किसी के कंठ से कोई स्वर प्रस्फुटित नहीं हुआ।
सब अपनी अपनी क्षमताओं को तौल रहे थे और इस महत कार्य का उत्तरदायित्व लेने में
अपने को अक्षम अनुभव कर रहे थे। सबों को खामोश देख कर एक मजबूर सी, गरीब सी बुढ़िया लकड़ी के सहारे उठ खड़ी हुई और भगवान को हाथ जोड़ प्रणाम कर
बोली, “भगवन! मैं यह उत्तरदायित्व लेने को तैयार हूँ।”
गौतम बुद्ध समेत वहाँ उपस्थित सब लोग सकते में आ गए। जिस कार्य को उपस्थित
राजा-महाराजा-रजवाड़े-श्रेष्ठी करने में सक्षम नहीं, वह कार्य
यह बुढ़िया कैसे करेगी? सबों के चहरे के भावों को पढ़ती हुई
विनम्र वाणी में उसने कहा, “भगवन! यह सही है कि न मेरे शरीर
में इतनी शक्ति है, न मेरे पास अन्न का एक दाना है और न ही
एक कौड़ी, लेकिन यहाँ उपस्थित पूरा समाज मेरे साथ है। मुझे मालूम है कि ये सब
अपनी तरफ से पूरा सहयोग देना चाहते हैं लेकिन अपने आप को अकेला अनुभव कर रहे हैं।
हम सब सम्मिलित रूप से इस आपदा से निपट सकते है। मैं इनकी वही सम्मिलित
शक्ति हूँ। मुझे विश्वास है कि इन सब की सम्मिलित शक्ति से मैं इस आपदा को
निपट लूँगी।” भगवन बुद्ध मुस्कुरा उठे और उनका स्वर फूटा, “तथास्तु।”
मैं
शनिवार 16 मई 2020 के टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित इस अंश को भी आप के साथ साझा
करना चाहूँगा:
|
टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित |
In the monastery of Sceta, Abbot Lucas gathered the
brothers together for a sermon.
‘May you all be forgotten,’ he said.
‘But why?’ one of the brothers asked. ‘Does that mean
that our example can never serve to help someone in need?’
‘In the days when everyone was just, no one paid any
attention to people who behaved in an exemplary manner,’ replied the abbot.
‘Everyone did their best, never thinking that by behaving thus they were doing
their duty by their brother. They loved their neighbour because they understood
that this was part of life and they were merely obeying a law of nature. They
shared their possessions in order not to accumulate more than they could carry,
for journeys lasted a whole lifetime. They lived together in freedom, giving
and receiving, making no demands on others and blaming no one. That is why
their deeds were never spoken of and that is why they left no stories. If only
we could achieve the same thing now: to make goodness such an ordinary thing
that there would be no need to praise those who practise it,” the abbot said
-
Paulo Coelho
मैंने
अपनी समझ के अनुसार इसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस प्रकार से किया है :
उस
धर्मक्षेत्र में सब सेवक इकट्ठे हुए तब उन महान धर्माचार्य ने प्रार्थना की, “आप सब भुला दिये जाएँ।”
“लेकिन
क्यों” एक सेवक ने पूछा, “क्या इसका तात्पर्य यह है कि
हमारे कार्य का उदाहरण, जब इसकी आवश्यकता होगी, दूसरों को प्रेरित करने के लिए कभी नहीं रहेगा?”
“इस
समय जब सब प्रेरित थे, किसी ने भी इस बात पर ध्यान
नहीं दिया कि किसने कैसे उदाहरणात्मक तरीके से कार्य किया। हर किसी ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया।
उन्होने इस बात पर जरा भी विचार नहीं किया कि इस प्रकार वे केवल अपने कर्तव्य का
निर्वाह कर रहे हैं। वे सब अपने पड़ोसियों से मुहब्बत करते हैं क्योंकि वे यह समझते
हैं कि यह जीवन का एक हिस्सा है और वे केवल प्रकृति के नियमों का पालन कर रहे हैं।
उन्होने उनके पास जो कुछ भी था उसे सब के साथ बांटा। उन्होने यह समझा कि उन्हें
उतना ही संग्रह करना है जितना उन्हे जीवन यात्रा में इसकी जरूरत है। वे स्वतंत्र
होकर साथ-साथ जिये, लेते-देते हुए,
दूसरों से किसी भी प्रकार की कोई मांग नहीं की, न किसी दूसरे
को दोषी ठहराया। यही कारण है कि कभी उनके कार्यों की कोई चर्चा नहीं हुई और इसी
कारण उनकी कोई कहानियाँ भी नहीं हैं। आज हम भी
वैसी ही भावना रखें, भलाई के कार्यों को एक साधारण
कार्य का दर्जा दें जिसे करने वालों की
प्रशंसा करने की जरूरत नहीं,” धर्माचार्य ने कहा।
क्यों
क्या आपको यह नहीं लगता कि खिंचाई करने के
बदले अगर हम सहयोग करें तो यह आपदा उतनी बड़ी नहीं है जितनी हम समझ रहे हैं? हमारे इरादे इस आपदा से ज्यादा बड़े हैं, ज्यादा
मजबूत हैं, ज्यादा सक्षम हैं? संदेह न
कर विश्वास करें। हतोत्साहित न कर प्रोत्साहित करें। आइए,
आगे बढ़ें इस यज्ञ में अपनी क्षमता भर आहुति दें।
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ताज़ा स्थिति : 22 मई 2020
यह पूरा का पूरा एक नाटक ही साबित हुआ - ड्रामेबाजी। पूरी बात, सियासती और राजनीति के तूफान में उड़ गई। जिसे जो रंग पसंद था
उसे वही सही लगा और दूसर गलत। एक का गुणगान किया दूसरे की निंदा। किसी को यह नहीं दिखा
कि मरने वाले हम हैं, हम सब हैं, पूरी जनता
है, आज ‘वो’ हैं कल
हम होंगे। इस बात का कोई अर्थ ही नहीं है कि कौन सही था कौन गलत, किसने सियासत की और किसने राजनीति? अर्थ तो केवल इतना ही है कि हमने ने फिर दिखा दिया
कि हम क्या हैं? इसके लिए ये दोनों उतने जिम्मेदार नहीं जितने
कि हम
सब, व्यक्तिगत रूप से-सोशल मीडिया-प्रिंट मीडिया-टीवी चैनल और पूरी जनता जिम्मेदार
है। हमने कोई सकारात्मक चर्चा नहीं की, केवल अटकलबाजी की और संदेह
का वातावरण ही तैयार किया। हमारे पास अपरिमित
शक्ति है लेकिन हम उसका प्रयोग नहीं करेंगे। अब यह मत पूछिये कि कैसे? क्योंकि जब हमारा स्वार्थ बाधित होता है, हमारा अपना
कोई फँसता है तब हम उसमें से निकलने का रास्ता बना लेते हैं।