शुक्रवार, 29 मई 2020

सच्चा आनंद

एक जिज्ञासु साधक सच्चे आनंद की खोज में एक महात्मा के पास पहुंचा। उसने महात्माजी से बड़े आग्रह के साथ प्रार्थना की कि वे सच्चे आनंद पर प्रकाश डालें। महात्माजी ने अपनी सहज-शांत मुस्कान से उस दु:खी व्यक्ति की ओर देख कर कहा, “आज तो मैं बहुत अधिक व्यस्त हूँ। आज तुम जाओ, दस दिन के बाद आना, मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हें सच्चे आनंद कि प्राप्ति हो जाये। हाँ, इन दस दिनों में तुम परिवार, समाज सबसे अलग रह कर एकांत में मौन व्रत में अपना समय बिताना।”

वह साधक सच्चे आनंद का जिज्ञासु था। उसने महात्माजी की शर्त का अक्षरश: पालन किया। वह दस दिनों तक सबसे पृथक रह कर, पूर्ण मौन रह कर, आत्म-चिंतन में लगा रहा। दस दिन के बाद जब साधक महात्माजी के पास पहुंचा, तब वह उनसे कोई जिज्ञासा करने के स्थान पर बोला, “आपकी शर्त ने मुझे आनंद-सागर में गोते लगाने का अवसर दे दिया। इतने वर्षों में मुझे जो आनंद नहीं मिला, वह मुझे इन दस दिनों में एकांतवास और मौन में मिल गया। अब मेरी कोई जिज्ञासा नहीं रह गई है।”

सच है कि मौन अवस्था में हमारी सब वृत्तियाँ मरती नहीं, वे प्राण के स्त्रोत में पहुँच कर, अंतर्मुखी होकर नव-जीवन का घूंट पीने लगती हैं। जब वे बहिर्मुखी होती हैं, तब अपने को क्षीण करती हैं; अंतर्मुखी होकर वे शक्ति और आनंद का स्त्रोत बन जाती हैं। सच है कि बोलना सीखने में समय नहीं लगता, किन्तु चुप रहना हम उम्र भर नहीं सीख पाते।
 
श्री अरविंद सोसाइटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'अग्निशिखा'

(ऑस्ट्रेलिया से वापस लौट कर जब भारत पहुंचा तब श्री अरविंद सोसाइटी से प्रकाशित पत्रिका अग्निशिखा में श्री नरेंद्र विद्यावाचस्पति का यह लेख पढ़ने को मिला। मुझे लगा जैसे यह पत्रिका बस मेरे इंतजार में ही थी, कि मैं आऊँ और इसे पढ़ूँ।
 
अभी कुछ समय पहले, जब मैं ऑस्ट्रेलिया में था। कभी-कभी किसी-किसी दिन मन बड़ा उदास हो जाता, तो कभी निराशा हावी हो जाती। कभी तनाव रहता, तो कभी चिड़चिड़ाया हुआ। कभी ध्यान भी नहीं गया कि ऐसा क्यों होता है। एक शाम शायद इसी प्रकार की किसी अवस्था में मैदान में बैठा था। बगल में बैठे पंजाब से आए एक सरदार ने शायद मेरे चहरे को पढ़ लिया, पूछा; क्या बात है। मैंने बड़े अनमने भाव से कहा पता नहीं क्यों आज मन अच्छा नहीं है। उन्होने पूछा: क्यों भारत के समाचार देखते और पढ़ते हो? बंद कर दो, उन्हे हटा दो। उनमें विचार नहीं, सत्य को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है। आरोप-प्रत्यारोप के सिवा कुछ नहीं है। सृजनात्मक कुछ नहीं मिलेगा केवल विध्वंसात्मक बातें रहती हैं। क्या सही है क्या गलत समझ पाना आसान नहीं।  उन नकारात्मक बातों को देखना और सुनना बंद करते ही, सब अवसाद समाप्त हो जाएंगे। मैंने सोचा 2-3 दिन करके देखने में क्या हर्ज़ है? मैं आश्चर्यचकित रह गया। पहले तो बड़ी बेचैनी सी रही, लेकिन मैंने अपने को काबू में रखा। मेरा मन ठीक रहने लगा। तब याद आया जब एक-डेढ़ महीना चिन्मय मिशन में या श्री अरविंद आश्रम में रहते हैं, मन बड़ा शांत रहता है। वहाँ न कोई टीवी है न पेपर। पूरी दुनिया से अलग उस छोटी सी दुनिया में आकर सब बड़े दिलवाले बन जाते हैं। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक पूरा दिन कैसे निकल जाता है, पता ही नहीं चलता। न कोई दुख:, न अवसाद, न चिंता। सब बराबर हैं। साथ रहते हैं, साथ खाते हैं। वहाँ के कार्यक्रम में लगे रहते हैं। हंसी-खुशी दिन निकल जाता है। केवल सृजनात्मकता भरी रहती है। )

शुक्रवार, 22 मई 2020

योगी आदित्यनाथ एवं श्रीमती प्रियंका की प्रशंसनीय घोषणा

ब्लॉग का औडियो (Audio of blog)🔊

इन पूरे खबरों का क्या हश्र हुआ, पढ़ें ब्लॉग के अंत में

खबरों में एक खबर सुनी और पढ़ी –
“श्रीमती प्रियंका गांधी वाद्रा ने योगी आदित्यनाथ  से उत्तर प्रदेश के पैदल चल रहे प्रवासी श्रमिकों को अपने गंतव्य स्थान पर सकुशल पहुँचने के लिए 1000 बसों को चलाने की पेशकश की है। इन बसों का खर्चा प्रियंका जी (काँग्रेस) देगी। उन्हें, इसके लिए उत्तरप्रदेश सरकार की सहमति चाहिए। उनके इस मानवीय कृत्य को ध्यान में रखते हुए योगी आदित्यनाथ  ने इसकी स्वीकृति प्रदान की और बसों के सुचारु संचालन के लिए बसों के आवागमन की आवश्यक सूचना साझा करने का सुझाव दिया।”
 
योगी आदित्यनाथ
मुझे इस बात की जरा भी जानकारी नहीं है कि यह खबर कितनी सत्य है और कितनी अफवाह; इस पर कोई कार्य भी हो रहा है या ये केवल घोषणा तक ही सीमित होकर रह गई हैं, या ये केवल राजनीतिक चालें हैं। इन सबके बावजूद मैं यही कहना चाहूँगा कि अगर यह सही नहीं है तो भी हम सब, व्यक्तिगत-सोशल मीडिया-प्रिंट मीडिया-टीवी चैनल, हर जगह इसकी सकारात्मक चर्चा करें। हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि ये दोनों, योगी आदित्यनाथ  और प्रियंका, इस घोषणा को फलीभूत करने की क्षमता रखते हैं। इस पर किसी प्रकार की न नकारात्मक टीप्पणी करें, न उल्टी अटकलबाजी, न राजनीति, न नज़र अंदाज़। अगर इस पर सकारात्मक टिप्पणी देते हैं, इसे फैलाते हैं, इसकी चर्चा करते हैं तब मुझे विश्वास है कि यह कार्य संपन्न होना प्रारम्भ हो जायेगा।
 
सरकारी बस
हमें यह जानकारी है कि अनेक ट्रेनें और बसें चलाई जा रही हैं। लेकिन इन प्रवासी मजदूरों की संख्या इतनी ज्यादा है कि जब तक हर नागरिक इस कार्य में सहयोग देना प्रारम्भ नहीं करता उन्हें अपने घर तक पहुँचाने का काम सुचारू रूप से होने वाला नहीं। यह न सोचें कि 1000 बसों से ज्यादा कुछ नहीं होने वाला है। जरा सी कल्पना कीजिये देश भर में कितनी सामाजिक संस्थाएं, धार्मिक संस्थाएं, व्यापारी, हाउसिंग सोसाइटी, स्थानीय क्लब एवं अन्यान्य लोग जरूरत मंदों को अनाज बाँट रहे हैं, पका भोजन खिला रहे हैं, मास्क दे रहे हैं, सैनीटाइजर दे रहे हैं। किसी ने यह नहीं सोचा कि उनके थोड़ा सा करने से क्या होगा? लेकिन इन सबका सम्मलित रूप कितना बड़ा कार्य कर रहा है! यही नहीं इन में से कोई भी, प्रचार का मोहताज भी नहीं है। बस एक धुन है, जज़्बा है जो इन्हे इस कार्य में लगा रखा है।
 
श्रीमती प्रियंका गांधी वाद्रा
मैं देख रहा हूँ कि अगर ये बसें एक बार चलने लगीं, तो कैसा सैलाब आयेगा। इन संस्थाओं को सेवा का एक नया आयाम दिखेगा। यही नहीं, देश की केंद्रीय और क्षेत्रीय सरकारें और राजनीतिक पार्टियां भी इस कार्य में जुटेंगी। परिवहन से जुड़ा हर व्यक्ति, संस्था “कोविद वारीयर” बन कर अपना सहयोग देने के लिए उठ खड़ा होगा।  यह समस्या, जिसे हम इतने विकराल रूप में देख रहे हैं, समाप्त प्राय: हो सकती है। हर किसी से मेरी यही विनती है कि इस बात को प्रचारित करें और  हर संभव कोशिश करें कि यह फलीभूत हो। इस पर सकारात्मक चर्चा करें, साझा करें, ट्वीट करें, फ़ेस बूक पर डालें, ब्लॉग में डालें।

यह न समझें कि यह सरकार की ज़िम्मेदारी है। यह सरकार है कौन? हम और सरकार अलग अलग नहीं हैं। हम ही सरकार हैं, सरकार ही हम हैं।  यह हम सब का कर्तव्य भी है, उत्तरदायित्व भी।  आप सबों ने एक वाकया पढ़ा होगा। गौतम बुद्ध के जमाने में एक बार देश में भयंकर दुर्भिक्ष (अकाल) पड़ा। लोगों के पास धन था लेकिन खाने को अन्न नहीं। चारों तरफ तबाही थी। मौत का मंजर था। इस अवस्था में गौतम बुद्ध ने, इस समस्या के समाधान के लिए एक सभा का आवाहन किया। सभा में देश के सब राजा-महाराजा, श्रेष्ठी-व्यापारी-धनिक-सेठ-साहूकार, ज्ञानी-विचारक, प्रतिष्ठित और आम जनता शरीक हुई। सबों ने एक स्वर में अकाल से उत्पन्न 
गौतम बुद्ध
अवस्था का बड़ा ही करुण और हृदय विदारक दृश्य प्रस्तुत किया। सबों की सुनने के बाद गौतम बुद्ध बोले, “अवस्था कल्पना से ज्यादा दुरूह और भयंकर है। यहाँ देश के सम्पन्न और समर्थ लोग उपस्थित हैं। मैं यह जानना चाहता हूँ कि इस दुर्दिन में, राहत कार्य करने का उत्तरदायित्व कौन वहन करने को प्रस्तुत है? सभा को काठ मार गया। सब शांत हो गए। किसी के कंठ से कोई स्वर प्रस्फुटित नहीं हुआ। सब अपनी अपनी क्षमताओं को तौल रहे थे और इस महत कार्य का उत्तरदायित्व लेने में अपने को अक्षम अनुभव कर रहे थे। सबों को खामोश देख कर एक मजबूर सी, गरीब सी बुढ़िया लकड़ी के सहारे उठ खड़ी हुई और भगवान को हाथ जोड़ प्रणाम कर बोली,भगवन! मैं यह उत्तरदायित्व लेने को तैयार हूँ।” गौतम बुद्ध समेत वहाँ उपस्थित सब लोग सकते में आ गए। जिस कार्य को उपस्थित राजा-महाराजा-रजवाड़े-श्रेष्ठी करने में सक्षम नहीं, वह कार्य यह बुढ़िया कैसे करेगी? सबों के चहरे के भावों को पढ़ती हुई विनम्र वाणी में उसने कहा, “भगवन! यह सही है कि न मेरे शरीर में इतनी शक्ति है, न मेरे पास अन्न का एक दाना है और न ही एक कौड़ी, लेकिन यहाँ उपस्थित पूरा समाज  मेरे साथ है। मुझे मालूम है कि ये सब अपनी तरफ से पूरा सहयोग देना चाहते हैं लेकिन अपने आप को अकेला अनुभव कर रहे हैं। हम सब सम्मिलित रूप से इस आपदा से निपट सकते है। मैं इनकी वही सम्मिलित शक्ति हूँ। मुझे विश्वास है कि इन सब की सम्मिलित शक्ति से मैं इस आपदा को निपट लूँगी।” भगवन बुद्ध मुस्कुरा उठे और उनका स्वर फूटा, “तथास्तु।”

मैं शनिवार 16 मई 2020 के टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित इस अंश को भी आप के साथ साझा करना चाहूँगा:
टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित 

In the monastery of Sceta, Abbot Lucas gathered the brothers together for a sermon.
‘May you all be forgotten,’ he said.
‘But why?’ one of the brothers asked. ‘Does that mean that our example can never serve to help someone in need?’
‘In the days when everyone was just, no one paid any attention to people who behaved in an exemplary manner,’ replied the abbot. ‘Everyone did their best, never thinking that by behaving thus they were doing their duty by their brother. They loved their neighbour because they understood that this was part of life and they were merely obeying a law of nature. They shared their possessions in order not to accumulate more than they could carry, for journeys lasted a whole lifetime. They lived together in freedom, giving and receiving, making no demands on others and blaming no one. That is why their deeds were never spoken of and that is why they left no stories. If only we could achieve the same thing now: to make goodness such an ordinary thing that there would be no need to praise those who practise it,” the abbot said
-         Paulo Coelho

मैंने अपनी समझ के अनुसार इसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस प्रकार से किया है :
उस धर्मक्षेत्र में सब सेवक इकट्ठे हुए तब उन महान धर्माचार्य ने प्रार्थना की, “आप सब भुला दिये जाएँ।”
“लेकिन क्यों एक सेवक ने पूछा, “क्या इसका तात्पर्य यह है कि हमारे कार्य का उदाहरण, जब इसकी आवश्यकता होगी, दूसरों को प्रेरित करने के लिए कभी नहीं रहेगा?
“इस समय जब सब प्रेरित थे, किसी ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि किसने कैसे उदाहरणात्मक तरीके से कार्य किया।  हर किसी ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। उन्होने इस बात पर जरा भी विचार नहीं किया कि इस प्रकार वे केवल अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं। वे सब अपने पड़ोसियों से मुहब्बत करते हैं क्योंकि वे यह समझते हैं कि यह जीवन का एक हिस्सा है और वे केवल प्रकृति के नियमों का पालन कर रहे हैं। उन्होने उनके पास जो कुछ भी था उसे सब के साथ बांटा। उन्होने यह समझा कि उन्हें उतना ही संग्रह करना है जितना उन्हे जीवन यात्रा में इसकी जरूरत है। वे स्वतंत्र होकर साथ-साथ जिये, लेते-देते हुए, दूसरों से किसी भी प्रकार की कोई मांग नहीं की, न किसी दूसरे को दोषी ठहराया। यही कारण है कि कभी उनके कार्यों की कोई चर्चा नहीं हुई और इसी कारण उनकी कोई कहानियाँ भी नहीं हैं। आज हम भी  वैसी ही भावना रखें, भलाई के कार्यों को एक साधारण कार्य का दर्जा दें जिसे करने वालों की  प्रशंसा करने की जरूरत नहीं,” धर्माचार्य ने कहा।

क्यों क्या आपको यह नहीं लगता  कि खिंचाई करने के बदले अगर हम सहयोग करें तो यह आपदा उतनी बड़ी नहीं है जितनी हम समझ रहे हैं? हमारे इरादे इस आपदा से ज्यादा बड़े हैं, ज्यादा मजबूत हैं, ज्यादा सक्षम हैं? संदेह न कर विश्वास करें। हतोत्साहित न कर प्रोत्साहित करें। आइए, आगे बढ़ें इस यज्ञ में अपनी क्षमता भर आहुति दें। 
                 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अपने सुझाव (comments) दें, आपको कैसा लगा और क्यों, नीचे दिये गये एक टिप्पणी भेजें पर क्लिक करके। आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।
+++++++++++++++++++++++++++++++++++++++

ताज़ा स्थिति : 22 मई 2020

यह पूरा का पूरा एक नाटक ही साबित हुआ - ड्रामेबाजी। पूरी बात, सियासती और  राजनीति के तूफान में उड़ गई। जिसे जो रंग पसंद था उसे वही सही लगा और दूसर गलत। एक का गुणगान किया दूसरे की निंदा। किसी को यह नहीं दिखा कि मरने वाले हम हैं, हम सब हैं, पूरी जनता है, आज वो हैं कल हम होंगे। इस बात का कोई अर्थ ही नहीं है कि कौन सही था कौन गलत, किसने सियासत की और किसने राजनीति?  अर्थ तो केवल इतना ही है कि हमने ने फिर दिखा दिया कि हम क्या हैं? इसके लिए ये दोनों उतने जिम्मेदार नहीं जितने कि हम सब, व्यक्तिगत रूप से-सोशल मीडिया-प्रिंट मीडिया-टीवी चैनल और पूरी जनता जिम्मेदार है। हमने कोई सकारात्मक चर्चा नहीं की, केवल अटकलबाजी की और संदेह का वातावरण ही तैयार किया।  हमारे पास अपरिमित शक्ति है लेकिन हम उसका प्रयोग नहीं करेंगे। अब यह मत पूछिये कि कैसे? क्योंकि जब हमारा स्वार्थ बाधित होता है, हमारा अपना कोई फँसता है तब हम उसमें से निकलने का रास्ता बना लेते हैं। 


शुक्रवार, 15 मई 2020

कोरोना - एक सृजनात्मक दृष्टिकोण


सबों को नमस्कार! जहां भी हों, जैसे भी हों। आशा है स्वस्थ्य और प्रसन्न होंगे। ईश्वर से यही कामना है।

सच्चाई यही है कि दुनिया भर में, कमोबेश प्राय: परिस्थिति वैसी ही चल रही है। दुनिया भर में अब तक लगभग 44 लाख से ज्यादा लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं, 3 लाख के करीब अपनी जान गँवा चुके हैं। अमेरिका में मरने वालों की संख्या  84 हजार  से ज्यादा हो चुकी है। 5 देशों में मरने वालों की संख्या बीस हजार से ज्यादा हो चुकी है। कई देशों में संख्या में उतार-चढ़ाव हो रहा है, यानि संख्या कम होने के बाद फिर बढ़ने लगी है। हम, सिर्फ लोगों के व्यवहार में बदलाव लाने और उसे नियंत्रण करने के तरीकों पर ही काम कर रहे हैं। बीमारी को नियंत्रित करने का एक भी तरीका अभी तक सामने नहीं आया है। वायरस अपनी अलग-अलग नई-नई क्षमताओं को, काबिलियत को लगातार दिखा रहा है। पहले समझा जाता था कि यह वायरस केवल हमारे फेफड़ों पर ही आक्रमण करता है, लेकिन जैसे-जैसे शोध आगे बढ़ रहा है हमें यह पता चल रहा है कि यह हमारे स्नायु तंत्र, मस्तिष्क पर भी असर कर रहा है। स्नायु तंत्र को, मस्तिष्क को नुकसान पहुँचने के मामले बेहद चिंता के विषय हैं। यह हमारी प्रतिरक्षा तंत्र  (इम्यून सिस्टम) को भी प्रभावित करता है। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि इसकी क्षमताओं के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारियाँ प्राप्त हो रही हैं। यह बेहद चिंता का विषय है। इस पर कार्य करने वाले शोधकर्ता और वैज्ञानिक एक मत भी नहीं हैं और निश्चय पूर्वक कुछ भी बता पाने में असमर्थ हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह वायरस हमारे अनुमान से कहीं ज्यादा जटिल होता जा रहा है

एक अच्छी बात यह है कि इस वायरस से संक्रमित 80 प्रतिशत लोगों में कोई असर नहीं है, बीमारी के कोई संकेत नहीं दिखते हैं। यह जहां एक अच्छी बात है, वहीं एक बेहद चिंता का विषय भी है। क्योंकि ये 80 प्रतिशत लोग ही इस बीमारी को हर कहीं पहुंचा रहे हैं। उन्हे यह पता ही नहीं होता कि वे इस रोग को संक्रमित कर रहे हैं। यह एक बहुत ही भयंकर स्थिति है। इसका अर्थ यह है कि हमें इन लोगों को क्वारंटाइन (quarantine) करना होगा जिनमें किसी भी प्रकार का कोई भी लक्षण नहीं है। इन लोगों का इलाज करना होगा, यह बहुत ही मुश्किल कार्य है। ये एक प्रकार से आतंकवाद में प्रयोग किये जाने वाले, स्लीपिंग सेल की तरह हैं जिनका प्रयोग आतंकियों ने दुनिया भर में आतंकी हमले करने में किया। न स्लीपिंग सेल्स को और न उनके घर वालों का इस बात की जरा भी भनक थी कि इन हमलों को अंजाम देने वाले हम या हमारे परिवार का सदस्य ही था। यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है। क्योंकि यही और इनके परिवार वाले ही इस रोग से लड़ने वाले (कोरोना वैरियर्स)  के ऊपर हमले करते हैं। इन्हीं के कारण से बाध्य होकर सरकार को इन्हें रोकने और सहायता कर्मचारियों की रक्षा के लिए एक बहुत सख्त कानून लाना पड़ा।

दुनिया के साथ-साथ भारत में भी सामाजिक और व्यक्तिगत बेचैनी बढ़ रही है। एक लम्बे समय तक घर में बंद रहने से लोग पकने लगे हैं। आर्थिक चिंता और मानसिक दर्द से अधिकतर लोग परेशान हो रहे हैं, चिंतित हो रहे हैं।  रोज कमाने वाले लोग ही नहीं, मानसिक कमाई करने वाले लोगों को भी नुकसान हो रहा है। लोग इस बात को लेकर बहुत चिंतित हैं कि शायद आने वाले समय में, कुछ समय के लिए या लम्बे समय के लिए बेरोजगार हो जाएँ, उनका व्यापार घाटे में आ जाये या बन्द हो जाये। बहुत से संस्थान जैसे कि सॉफ्टवेयर संस्थान इस बात पर विचार कर रहे हैं कि कैसे, कुछ समय के लिए ही सही, कर्मचारियों की संख्या कम की जाये; क्योंकि अब उन्हे उनकी आवश्यकता नहीं रहेगी या अब वे उनका वेतन दे पाने की स्थिति में नहीं हैं। कपड़ा उद्योग, फैशन उद्योग एवं अन्य कई व्यापारों और उद्योगों की भी यही स्थिति है। इन्हें लगता है कि उनके उत्पादनों की मांग में भारी गिरावट आयेगी। शायद पर्यावरण के शुभचिंतक खुश हैं; वे कह रहे हैं कि यह अच्छा है, वे यही चाहते थे। हाँ, यह बात सही है कि इसकी अवश्यकता है कि लोग अपने कपड़ों, फ़ैशन की, विलासिता के सामग्रियों की आवश्यकताओं को कम करें। लेकिन यह इसके लिए उत्सव मनाने का समय नहीं है। अभी इस प्रकार की बातें बोलने का समय नहीं है, जब बड़ी संख्या में लोग अपनी नौकरियाँ खोने के कगार पर हैं या खो चुके हैं। ऐसा होना चाहिए, यह सही है, लेकिन एक सोची-समझी नीति के अनुसार, सुनियोजित तरीके से ही इसे अंजाम देना होगा। इस तरह से अमानवीय तरीके से नहीं।  इसे एक कसाई की तरह काट कर अलग नहीं करना है, एक डॉक्टर की तरह इसका इलाज करना होगा

एक तरफ चुनौतियाँ कई गुना बढ़ती जा रही हैं दूसरी तरफ देश अपना धैर्य खोते जा रहे हैं। देश लॉक डाउन को बनाये रखने की ताकत खोते जा रहे हैं। बहस लम्बी होती जा रही है। क्या यह लॉक डाउन आवश्यक है? लोग लॉक डाउन के नियमों को ताक पर रख कर बाहर निकलने के लिए बेचैन हैं!  चलो अपने बाहर निकलते हैं! देखें यह वायरस मेरा क्या बिगाड़ लेता है? जो होगा देखा जाएगा! इस प्रकार का साहस लोगों में भर रहा है। लेकिन हमें मालूम होना चाहिए कि लगभग 3 लाख लोग मर चुके हैं। यह संख्या कम नहीं है। यही असली चुनौती है

इससे कैसे निपटा जाये। हमें अपने में बदलाव लाने ही होंगे। हम जैसे रहते हैं, जैसे कार्य करते हैं, उनमें बदलाव लाना होगा। एक तरफ, एक के बाद एक लॉक डाउन करते जाना सम्भव नहीं दिखता। दूसरी तरफ लॉक डाउन में राहत देना, हमें पता नहीं कहाँ ले जायेगा।  लेकिन हम अभी इसी मोड़ पर हैं। हमें सब पहलुओं पर ध्यान देना होगा, विचार करना होगा। कुछ लोग कहते हैं कि यह मानवता को समाप्त कर सकता है, कुछ लोग कहते हैं कि यह हमें आर्थिक रूप से तबाह कर देगा, तो कुछ लोग कहते हैं कि कुछ नहीं होगा, हम बाहर जा सकते हैं, जो चाहें कर सकते हैं, आर्थिक जगत को फिर से चालू कर सकते हैं। और इस प्रकार के हजारों मत हैं और उन्हे सुनना भी महत्वपूर्ण है क्योंकि निश्चित तौर पर कोई भी कुछ भी नहीं कह सकता। एक सही निर्णय लेने के लिये जिन जानकारियों की आवश्यकता है वे उपलब्ध ही नहीं हैं।  उनके अभाव में सही निर्णय नहीं लिया जा सकता क्योंकि किसी के पास भी यह समझ नहीं है कि यह वायरस समाज में क्या कर सकता है और समाज में यह कैसे आगे बढ़ सकता है? लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिन्होने कंगारू निर्णय लिया है और उसके पक्षधर हैं। कंगारू निर्णय, यानि केवल एक पक्ष की बात सुन कर निर्णय लेना, बिना दूसरे पक्ष के बात सुने और उसकी चिंता किये । ऐसे निर्णय लेने वाले लोग पूरी दुनिया में भरे हुवे हैं।  ऐसे लोग केवल एक ही बात सुनना चाहते हैं और कहते हैं कि देखते हैं कि यह काम करता है क्या? लेकिन, हम इस तरह से निर्णय नहीं ले सकते। बहुत से लोगों का जीवन दाँव पर लगा है। यह एक व्यक्ति या एक देश की बात नहीं है। यह पूरी दुनिया की बात है, समस्त मानव की बात है। हमें छोटी से छोटी बात को समझना चाहिए, उस पर विचार करना चाहिए और एक सम्मलित निर्णय पर पहुंचना चाहिए।

हमारे देश, भारत में एक विशेष अवस्था है। बीमार पड़ने वाले लोगों में मरने वालों की संख्या तुलनात्मक ढंग से बहुत कम है और ठीक होने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन क्या यह स्वस्थ्य होने वालों में कोई नुकसान कर रहा है? लम्बे समय को ध्यान में रखें, तो इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? लम्बे समय के बाद ही इसका पता चलेगा। इसका मूल्यांकन बाद में किया जा सकता है। लेकिन कम से कम, अभी तो हम अपने पैरों पर खड़ा करके उन्हे वापस घर  भेज रहे हैं। यह हर्ष की बात है। एक अच्छा संकेत है। हो सकता है कि इस मामले में हम ज्यादा लचीले हों, हमारा इम्यून सिस्टम औरों की तुलना में ज्यादा मजबूत हो! लेकिन अभी हम यह निश्चित तौर पर नहीं कह सकते। उधर दूसरी तरफ अमेरिका में मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। यह एक बेहद चिंता का विषय है। ऐसा क्यों है? जबकि उन्हें चिकित्सा की सुविधा जल्द से जल्द मिल रही है। उन्हे मिलने वाली चिकित्सकीय सुविधा हमारे देश की  तुलना में कई गुना बेहतर है। फिर ऐसा क्यों है? इसकी अलग-अलग कई व्याख्याएँ की गईं। पहले तो यह कहा गया कि मरने वालों में अधिकतर वरिष्ठ लोग हैं; लेकिन फिर आंकड़ों की जाँच-पड़ताल की गई तो यह सही नहीं थी। 40 से 60 उम्र के लोगों के मरने वालों की संख्या भी बहुत है। 40 से कम उम्र के लोगों की  भी मौत हुई है लेकिन उनकी संख्या कम है। दूसरी व्याख्या यह है कि मरने वाले ज्यादातर लोग किसी न किसी लत के शिकार हैं। जिन्हें कोई बुरी लत हो, उनका इम्यून सिस्टम कमजोर होता है, अत: यह एक कारण हो सकता है। लेकिन यह केवल एक अनुमान भर है। यह एक ऐसी चीज है जिसे वैज्ञानिक ढंग से देखने और समझने की जरूरत है। क्या कारण है कि एक ऐसे देश में जिसमें चिकित्सा की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हैं वहाँ मौतें ज्यादा हो रही हैं, बनिस्पत कि उस देश के,  जहां चिकित्सा की वैसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। इस पर अगर ठीक तरह से शोध किया जाये तो शायद इस वायरस के बर्ताव करने के तरीके को समझा जा सकता है। इस वायरस को तीन अलग अलग क़िस्मों में बांटा जा रहा है - ए, बी और सी। यह भी हो सकता है कि ये वायरस के अलग अलग किस्में हैं जिनके कारण यह फर्क पड़ रहा हो या फिर यह लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य की  अलग-अलग स्थिति है जिसके कारण यह फर्क हो रहा है? इसका पता लगाना होगा। तब हमें यह ज्यादा समझ आयेगी कि हमें अपने आप को कैसे संभालना है, हमें कैसे और क्या बदलाव लाने हैं। हमें और किसे क्या करना है और क्या नहीं करना है इसकी सही समझ आयेगी।
इस स्थिति पर आधारित रोजगारी और बेरोजगारी पर विचार करना होगा और यह देखना होगा कि इसे कैसे व्यवस्थित किया जाये। हमें यह सीखना होगा कि हम अपनी जीवन शैली में क्या परिवर्तन कर सकते है। लम्बे समय से चलने वाले लॉक डाउन के कारण हमारी जीवन शैली में बहुत से परिवर्तन आ चुके हैं। हमारे खान-पान में, रहन-सहन में, पहनावे में, काम-काज में, अनेक बदलाव आ चुके हैं और उनके साथ-साथ जीना सीख चुके हैं। हम उन सब के बिना जी रहे हैं, जिन्हें कुछ समय  पहले तक, आवश्यक समझते थे। जिनके बिना हम जीवन की कल्पना तक नहीं कर पा रहे थे, वे सब हम देख रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं, जी रहे हैं। शायद ऐसा सभी के साथ हो रहा है। हमें यह विचार करना चाहिए कि हम अपनी जीवन शैली को कैसे बदलें ताकि कोई बेरोजगार न हो? यानि, नौकरी से हटाने के बजाय सबों के वेतन में कटौती करना, ताकि लोगों को निकालने के बजाय सब कोई 25 से 50 प्रतिशत तक वेतन में कटौती करें ताकि हर किसी के पास रोजगार हो।  इन विशाल लोगों को दूसरे कार्यों में लगाया जा सकता है जिसे हम नज़र अंदाज़ करते आए हैं। जैसे पर्यावरण के कार्य, नीतिगत पहलू, प्रशासन के पहलू, और ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जो होनी चाहिए थीं लेकिन नहीं की गईं, उन्हे किया जा सकता है। अभी जब बाज़ार बन्द हैं, गतिविधियां कम और धीमी हो गई हैं, इन पर ध्यान देने का यही सही समय है। हाँ, यह बोलना जितना आसान है करना उतना ही कठिन है। लोगों को पुनर्गठित करना, लोगों को नई दिशा देना, लोगों को प्रशिक्षित करना, उन्हें इन कार्यों में लगाना आसानी से होने वाला कार्य नहीं है। लेकिन हमें ये सब करने ही होंगे नहीं तो यह परिस्थिति बहुत से लोगों के लिए निर्दयी साबित होगी जिन्हें वायरस ने छुआ भी नहीं है।  
-       श्रद्धेयश्री सद्गुरु जी के व्याख्यान पर आधारित
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अपने सुझाव (comments) दें, आपको कैसा लगा और क्यों, नीचे दिये गये एक टिप्पणी भेजें पर क्लिक करके। आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।

शुक्रवार, 8 मई 2020

छोड़ना-पाना

छोड़ना-पाना


(गांधी मार्ग नवंबर-दिसम्बर से शोभारानी गोयल का संस्मरण)
मैं ऑफिस बस से आती जाती हूँ। उस दिन भी बस काफी देर से आई – लगभग पौन घंटे बाद। खड़े खड़े पैर दुखने लगे थे पर चलो, बस मिली तो! बस काफी भरी हुई थी। मैंने चारों तरफ नजर दौड़ाई। कहीं उम्मीद की कोई किरण नहीं थी। तभी एक मज़दूरन ने आवाज लगाई और अपनी सीट देते हुए कहा, मैडम, आप यहाँ बैठ जाइए। धन्यवाद देते हुए उसकी सीट पर बैठ कर मैंने राहत की सांस ली। और अब मैंने याद किया कि वह मजदूरन भी मेरे साथ ही बस स्टॉप पर खड़ी थी। कुछ आगे जाकर मेरे पास वाली सीट खाली हुई। मैंने उसे बैठने का इशारा किया लेकिन तब तक उसने उस महिला को सीट पर बैठा दिया जिसकी गोद में एक छोटा बच्चा था।

वह खुद भीड़ की धक्का-मुक्की सहती एक पोल (डंडा) पकड़ कर खड़ी  थी। थोड़ी देर बाद बच्चे वाली औरत अपने गंतव्य पर उतर गई। इस बार मज़दूरन ने वही सीट एक बुजुर्ग को दे दी, जो लंबे समय से खड़े थे। मुझे आश्चर्य हुआ – हम, दिन-रात, बस की सीटों के लिए लड़ते रहते हैं, और मजदूरन सीट मिलती है तो दूसरों को दे देती है!

कुछ देर बाद बुजुर्ग भी अपने स्टॉप पर उतर गए। अब वह सीट पर बैठी तो मुझ से रहा नहीं गया। मैं पूछ बैठी; तुम्हें तो सीट मिल गई थी, एक या दो बार नहीं, तीन बार, फिर भी तुमने सीट क्यों छोड़ी? तुम दिन भर ईंट-गारा ढोती हो, आराम की जरूरत तो तुम्हें भी होगी। फिर क्यों नहीं बैठी? सीट पर बैठने के इत्मीनान और जीवन का एक ठौर पा जाने के सहज विश्वास से भरी आवाज में वह बोली; मैं भी थकती हूँ। मैं आप से पहले से स्टॉप पर खड़ी थी। मेरे पैरों में भी दर्द  होने लगा था। जब मैं चढ़ी तब यही एक सीट खाली थी। लेकिन मैंने देखा कि पैरों में तकलीफ होने के कारण आप धीरे धीरे चल और चढ़ पा रही थीं। ऐसे में आप कैसे खड़ी रहतीं! इसलिए मैंने आपको सीट दी। फिर उस महिला को सीट दे दी क्योंकि वह बच्चे को उठाए हुए खड़ी थी। बच्चा बहुत देर से रो रहा था। बुजुर्ग खड़े रहते फिर मैं कैसे बैठती? सो उन्हे सीट दे दी। और उनका ढेरों आशीर्वाद लिया। कुछ देर का सफर है मैडम जी, सीट के लिए क्या लड़ना! वैसे भी सीट तो बस में  ही रह जाएगी, घर तो जाएगी नहीं। मैं ठहरी ईंट-गारा ढोनेवाली! मेरे पास क्या है – न दान देने लायक धन, न पुण्य कमाने की लियाकत! इसलिए रास्ते से कचरा हटा देती हूँ, रास्ते के पत्थर बटोर देती  हूँ, कभी कोई पौधा लगा देती हूँ और खुशी से भरी रहती हूँ। यहाँ सीट थी, तो दे दी!....यही है मेरे पास, यही करना मुझे आता है। वह एकदम स्निग्ध हंसी के साथ बस से उतर गई। मैं पता नहीं कितनी दूर तक उसके साथ चलती गई। यह भी जीने का एक तरीका है न, जिसमें छीनना नहीं, छोड़ना है। छोड़ने से पाना है।
(यह कोई विरल घटना नहीं है, होती रहती हैं। इसके ठीक उलट भी होती हैं। त्रासदी यह है कि दुर्घटना तो बयां होती हैं लेकिन सुघटना घट कर रह जाती है। वो क्या है कि, कहते हैं न, जब तक सुगंध फैलना शुरू करती है तब तक दुर्गंध पूरे बगीचे में घूम आती है।

कोलकाता मेट्रो में बुजुर्गों के लिए अलग से आरक्षित स्थान है। वहाँ बहुत बार युवा बैठ जाते हैं – आँखें बंद कर या सिर  झुका आँखें मोबाइल में ऐसे गड़ा कर जैसे कुछ और दिख ही नहीं रहा। लेकिन हाँ, कम से कम बोलने पर तुरन्त उठ जाते हैं। बहुत बार युवा महिलाएं बैठी रहती हैं। महिलाओं के लिए अलग से आरक्षित स्थान भी हैं। लेकिन ये वहीं बैठेंगी, बुजुर्गों के सीट पर, और पूरे अधिकार के साथ। उठाने से इधर-उधर झाँकने लगेंगी या बड़े अनमने ढंग से मुंह बना कर उठेंगी, जैसे की कोई बड़ा अहसान कर रही हैं और उठाने वाला पापी है। 

अभी श्री लंका से आते समय, वहाँ एयरपोर्ट पर काफी भीड़ थी। लोग ज्यादा; बैठने की जगह कम। मैं अपना सामान पकड़े, पत्नी के साथ बैठा था। तभी एक और दंपत्ति वहाँ पहुंची, पिता के गोद में एक छोटा बच्चा और पत्नी के हाथ में सामान। पिता, बैठने की जगह न पा कर दीवार के सहारे खड़ा हो गया। मेरे खड़े होने के पहले मेरी पत्नी खड़ी हो गई और पिता-पुत्र को बैठा दिया। यह देख एक अन्य सज्जन खड़े हो गए और मेरी पत्नी को बैठा दिया। यह देख, अब तीसरे सज्जन खड़े हो कर बच्चे की माँ को सीट दे दी। फूल बिखेरने से सुगंध फैलती है, कूड़ा तो दुर्गंध ही देगा।)
                 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

अपने सुझाव (comments) दें, आपको कैसा लगा और क्यों, नीचे दिये गये एक टिप्पणी भेजें पर क्लिक करके। आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।

शुक्रवार, 1 मई 2020

सूतांजली मई 2020


सूतांजली के मई अंक का संपर्क सूत्र (लिंक) नीचे दिया हुआ है।  

१। हरिहर काका और मनबोध मउआर
 हरिहर काका और मनबोध मउआर दोनों मिथिलेश्वर जी की कहानियाँ हैं। हरिहर काका ज्यादा पसंद की गई है। हरिहर काका जैसे पात्र बहुत हैं और उनसे हमें कोई डर-भय भी नहीं लगता। लेकिन मनबोध मउआर लुप्त प्रजाति है और हर किसी को ऐसे पात्रों से डर है, भय है। लेकिन, अगर मनबोध मउआर जैसा एक पात्र भी हर मुहल्ले में हो, तो दुनिया से अमानवीय और अनैतिक कार्य लुप्त हो जाए। .........

२। सच की राहों में बिखरी जिंदगी
यह शीर्षक मेरा दिया हुआ नहीं है। मुझे नहीं पता, यह से.रा.यात्री का दिया हुआ है या अहा! जिंदगी का। हाँ, जून 2011 में अहा! जिंदगी में छपे एक लेख का यही शीर्षक था, जिसके लेखक थे से.रा.यात्री। सच हमेशा सुंदर नहीं होता। उसके कई रूप होते हैं। मैक्सिम गोर्की की आत्मकथा मेरे विश्वविद्यालय में यह बात पूरी तरह चरितार्थ होती है। ..........

अपने विचारों से हमें अवगत कराएं।