अभी कुछ दिन पहले टाइम्स अखबार में न्यूयॉर्क टाइम्स के सौजन्य से लिया गया कैथलीन वोहस (Kathleen Vohs) एवं एंड्रू हाफेन्ब्रक्क (Andrew Hafenbrack) का एक लेख पढ़ा। लेख में उन्होने बताया है कि सैकड़ों लोगों
पर किए गए अध्ययन और प्रयोगों से उन्हे यह पता चला कि ध्यान करने से हमारे कार्य की गुणवत्ता और क्षमता में कोई बढ़ोतरी नहीं होती है। अत: बड़ी संस्थाओं, यथा एप्पेल, गूगल, नाइक आदि, द्वारा अपने कर्मचारियों को ध्यान करने का सुझाव देने और उनके लिए ऑफिस में ध्यान करने की सुविधा एवं समय मुहैया करवाने से उन संस्थाओं को कोई लाभ नहीं मिलता। इसका कारण बताते हुए वे लिखते हैं कि ध्यान करने वाले लोगों की भविष्य के प्रति चिंता में कमी आती है, वे सरल हो जाते हैं और उनकी जिंदगी में शांति आती है। इसके कारण उनका कार्य पर एकाग्रता में तो इजाफा होता है लेकिन कार्य के प्रति उत्साह में कमी आने के कारण उनके उत्पादन में कोई फर्क नहीं आता है। अत: कार्य क्षेत्र में ध्यान को
प्रोत्साहन देने से कोई लाभ नहीं। शायद उनका यह प्रयोग सही ही होगा। लेकिन प्रश्न है कि ‘लाभ’ किसका नहीं हुआ? ध्यान करने वाले व्यक्ति का या उस ऑफिस के मालिक का? बिना किसी उत्पादन में गिरावट के भी अगर उस व्यक्ति के जीवन में चिंता और तनाव कम होते हैं, तो क्या इस उपलब्धि का मूल्य आँका जा सकता है? आखिर हम जीवन में इतनी मेहनत-मशक्कत, भाग – दौड़ क्यों कर रहे हैं? अगर बिना गुणवत्ता को प्रभावित किए हमें चिंता और तनाव से मुक्ति मिली तो उससे बड़ी और क्या उपलब्धि हो सकती है?
“जीवन की
आपा धापी में कब वक्त मिला,
कुछ देर
कहीं बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया
कहा माना उनमें भला-बुरा क्या”
कोरोना ने
हमें हमारे जीवन को, आपा-धापी पर लगाम कस कर हमें वक्त उपलब्ध कराया। जिंदगी की रेस में बहुत
दूर दौड़ लगाने के बाद, अपने मन का बहुत कुछ पा जाने के बाद, कई कीर्तिमानों का झण्डा गाड़ने के बाद, सफलता के कई
मक़ाम हासिल कर लेने के बाद भी हमें अपने आप में एक रिक्तता का अनुभव क्यों होता है? आसपास दोस्तों, रिश्तेदारों की कमी क्यों रहती है? हमारे कार्यक्षेत्र के सहयोगी हमें हमारे साथ खड़े दिखते हैं, लेकिन उनकी कमाई, उनका लाभ,
उनका कार्यक्षेत्र हमसे जुड़ा है, इसलिए वे हमें हमारे करीब
लगते है। जिस दिन ये अलग हो जाएंगे, ये सब जुदा हो जायेंगे। बिना
लाभ-नुकसान के हमारे दिल के पास खड़ा कोई क्यों नहीं दिखाता?
क्योंकि हम अपने परिवार को, रिश्ते-नातों को, पड़ोसियों को, दोस्त-मित्रों को नज़रअंदाज़ करते हैं। उनके
लिए हमारे पास वक्त नहीं है। अगर हम उन्हे थोड़ा समय दें तो हमारी ज़िंदगी के अर्थ
बदल जाएँ, उत्साह और उमंग के रंग भर जायें। लेकिन ऐसे संबंध
बनाने और उन्हें पकाने में थोड़ा समय लगता है, कोरोना ने हमें
वह ‘समय’ प्रदान किया है।
अपने माँ-बाप, जो हमारा इंतज़ार करते हैं, उनके पास थोड़ी देर बैठें (बिना मोबाइल फोन लिये)। हमारे बच्चे, जो हमारे साथ हँसना-खेलना चाहते हैं, वे हमें कभी इस मिजाज में देखते ही नहीं कि कुछ नखरे दिखा सकें। पत्नी, जो केवल हमारे सहारे अपना पूरा परिवार छोड़ कर हमारे पीछे चली आई, उसे हमारी एक मुस्कुराहट, प्रशंसा के दो बोल और थोड़े से समय की ही तो प्रतीक्षा रहती है! लेकिन हमारे पर इस बात की अहमियत समझने का समय ही कहाँ था? लेकिन, अभी तो है।
हाँ हमारा व्यापार कम हुआ है, लेकिन खर्च में भी तो कमी आई है! हमारी दैनिक आवश्यकताओं में कोई रुकावट नहीं आई है, हमें वे सब मिल रही हैं। हमारी रोटी-कपड़ा-मकान की ज़रूरतें पूरी हो रही हैं। केवल अनावश्यक, ईर्ष्या, द्वेष, दिखावे के लिए किए जा रहे फिज़ूल के खर्चों में कमी आई है। ऐसे बहुत से लोग हैं, जो वह पैसा खर्च करते हैं, जो उन्होने कमाया नहीं है, उस चीज को खरीदने में खर्च करते हैं, जिसकी उन्हे आवश्यकता नहीं है और उन लोगों पर प्रभाव जमाने के लिए खरीदते हैं, जिन्हे वे पसंद नहीं करते। अब एक बार उनपर लगाम लगा है तो वह लगाम लगा रहने दीजिये। एक भरपूर ज़िंदगी जीने की कला सीख लीजिये। मायावी और छद्म आनंद के तलाश में भटकते रहने के बाद, रिश्तों की मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ते रहने के बाद, अब उदासीन होते परिवार-रिश्तों को थोड़ा समय दे कर उनमें नयी गर्माहट-जोश भर लीजिये। अकेलेपन की कीमत हम चुका रहे थे, अब साथ रहने का प्रसाद भी चख कर देखिये।
मुझे एक महात्मा की आप बीती याद आती है। शहर का सबसे धनवान व्यक्ति उनका सबसे नजदीकी भक्त था। लेकिन वह कभी उन्हें अपने घर नहीं बुलाता था, जबकि शहर के अनेक भक्तों के घरों पर वे दिनों, सप्ताहों और महीनों तक रहे। एक बार संयोग से ऐसा वक्त आन पड़ा कि महात्मा उसी भक्त के घर पर कई महीनों के लिए अटक गए। प्रारम्भ के कुछ दिनों तक सेठ स्वभाविक ही रहा। लेकीन फिर कुछ दिनों बाद सुस्त, अन्यमनस्क, बुझा-बुझा रहने लगा। महात्मा के पूछने पर उससे रहा नहीं गया और बोला ‘बिना आपको बताए मेरा उपचार नहीं होगा, अत: बताता हूँ। मुझे पीने की आदत है और आपके आने से मेरा पीना बंद हो रखा है। मैं क्या करूँ’? महात्मा ने कहा, ‘अरे! तुम्हारा इतना बड़ा बंगला है, कहीं किसी कोने में बैठ कर, छुप कर पी लेते तो कुझे क्या पता चलता’? उसने कहा, ‘यही तो मुसीबत है, जब भी कोई पीता है – असली पीने वाला – अकेले में नहीं पी सकता। जब तक पीने वालों की महफिल नहीं जमती, पीने का आनंद नहीं आता है। अकेले में क्या पीना? पीना कोई दुख थोड़े ही है, पीना तो एक उत्सव है’। महात्मा ने कहा ‘जरा सा सोचो जब जीवन की साधारण मदिरा को मिल-बाँट कर पीते हो तभी आनंद आता है, तब जो जीवन भी मिला है उसे अगर मिल-बाँट कर साथ-साथ जियो तो कैसा आनंद आयेगा। बांटो, शक्ति का आविर्भाव हुआ है, लुटाओ। जितना ज्यादा उसे लुटाओगे, देखना आनंद में कितने गुने का इजाफ़ा होता है।
कोरोना से मिले इस वरदान के बारे में सोचें कि इसने हमें यह कीमती वक्त प्रदान किया है, यह समझने, सीखने और करने के लिए। ईश्वर तुम्हारा लाख-लाख शुक्रिया।
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