शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

कोरोना – अभिशाप या वरदान?

अभी कुछ दिन पहले टाइम्स अखबार में न्यूयॉर्क टाइम्स के सौजन्य से लिया गया कैथलीन वोहस (Kathleen Vohs) एवं एंड्रू हाफेन्ब्रक्क (Andrew Hafenbrack) का एक लेख पढ़ा। लेख में उन्होने बताया है कि सैकड़ों लोगों 

पर किए गए अध्ययन और प्रयोगों से उन्हे यह पता चला कि ध्यान करने से हमारे कार्य की गुणवत्ता और क्षमता में कोई बढ़ोतरी नहीं होती है। अत: बड़ी संस्थाओं, यथा एप्पेल, गूगल, नाइक आदि, द्वारा अपने कर्मचारियों को ध्यान करने का सुझाव देने और उनके लिए ऑफिस में ध्यान करने की सुविधा एवं समय मुहैया करवाने से उन संस्थाओं को कोई लाभ नहीं मिलता। इसका कारण बताते हुए वे लिखते हैं कि ध्यान करने वाले लोगों की भविष्य के प्रति चिंता में कमी आती है, वे सरल हो जाते हैं और उनकी जिंदगी में शांति आती है। इसके कारण उनका कार्य पर एकाग्रता में तो इजाफा होता है लेकिन कार्य के प्रति उत्साह में कमी आने के कारण उनके उत्पादन में कोई फर्क नहीं आता है। अत: कार्य क्षेत्र में ध्यान को 


प्रोत्साहन देने से कोई लाभ नहीं। शायद उनका यह प्रयोग सही ही होगा। लेकिन प्रश्न है कि लाभ किसका नहीं हुआ? ध्यान करने वाले व्यक्ति का या उस ऑफिस के मालिक का? बिना किसी उत्पादन में गिरावट के भी अगर उस व्यक्ति के जीवन में चिंता और तनाव कम होते हैं, तो क्या इस उपलब्धि का मूल्य आँका जा सकता है? आखिर हम जीवन में इतनी मेहनत-मशक्कत, भाग – दौड़ क्यों कर रहे हैं? अगर बिना गुणवत्ता को प्रभावित किए हमें चिंता और तनाव से मुक्ति मिली तो उससे बड़ी और क्या उपलब्धि हो सकती है?

 लेकिन क्या हमारे पास ध्यान करने का समय है? हरिवंशराय बच्चन की कविता याद आ रही है:

“जीवन की आपा धापी में कब वक्त मिला,

कुछ देर कहीं बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया कहा माना उनमें भला-बुरा क्या”

कोरोना ने हमें हमारे जीवन को, आपा-धापी पर लगाम कस कर हमें वक्त उपलब्ध कराया। जिंदगी की रेस में बहुत दूर दौड़ लगाने के बाद, अपने मन का बहुत कुछ पा जाने के बाद, कई कीर्तिमानों का झण्डा गाड़ने के बाद, सफलता के कई मक़ाम हासिल कर लेने के बाद भी हमें अपने आप में एक रिक्तता का अनुभव क्यों होता है? आसपास दोस्तों, रिश्तेदारों की कमी क्यों रहती है? हमारे कार्यक्षेत्र के सहयोगी हमें हमारे साथ खड़े दिखते हैं, लेकिन उनकी कमाई, उनका लाभ, उनका कार्यक्षेत्र हमसे जुड़ा है, इसलिए वे हमें हमारे करीब लगते है। जिस दिन ये अलग हो जाएंगे, ये सब जुदा हो जायेंगे। बिना लाभ-नुकसान के हमारे दिल के पास खड़ा कोई क्यों नहीं दिखाता? क्योंकि हम अपने परिवार को, रिश्ते-नातों को, पड़ोसियों को, दोस्त-मित्रों को नज़रअंदाज़ करते हैं। उनके लिए हमारे पास वक्त नहीं है। अगर हम उन्हे थोड़ा समय दें तो हमारी ज़िंदगी के अर्थ बदल जाएँ, उत्साह और उमंग के रंग भर जायें। लेकिन ऐसे संबंध बनाने और उन्हें पकाने में थोड़ा समय लगता है, कोरोना ने हमें वह समय प्रदान किया है।

अपने माँ-बाप, जो हमारा इंतज़ार करते हैं, उनके पास थोड़ी देर बैठें (बिना मोबाइल फोन लिये)। हमारे बच्चे, जो हमारे साथ हँसना-खेलना चाहते हैं, वे हमें कभी इस मिजाज में देखते ही नहीं कि  कुछ नखरे दिखा सकें। पत्नी, जो केवल हमारे सहारे अपना पूरा परिवार छोड़ कर हमारे पीछे चली आई, उसे हमारी एक मुस्कुराहट, प्रशंसा के दो बोल और थोड़े से समय की ही तो प्रतीक्षा रहती है! लेकिन हमारे पर इस बात की अहमियत समझने का समय ही कहाँ था? लेकिन, अभी तो है।

हाँ हमारा व्यापार कम हुआ है, लेकिन खर्च में भी तो कमी आई  है! हमारी दैनिक आवश्यकताओं में कोई रुकावट नहीं आई है, हमें वे सब मिल रही हैं। हमारी रोटी-कपड़ा-मकान की ज़रूरतें पूरी हो रही हैं। केवल अनावश्यक, ईर्ष्या, द्वेष, दिखावे के लिए किए जा रहे फिज़ूल के खर्चों में कमी आई है। ऐसे बहुत से लोग हैं, जो वह पैसा खर्च करते हैं, जो उन्होने कमाया नहीं है, उस चीज को खरीदने में खर्च करते हैं, जिसकी उन्हे आवश्यकता नहीं है और उन लोगों पर प्रभाव जमाने के लिए खरीदते हैं, जिन्हे वे पसंद नहीं करते।  अब एक बार उनपर  लगाम लगा है तो वह लगाम लगा रहने दीजिये। एक भरपूर ज़िंदगी जीने की कला सीख लीजिये। मायावी और छद्म आनंद के तलाश में भटकते रहने के बाद, रिश्तों की मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ते रहने के बाद, अब उदासीन होते परिवार-रिश्तों को थोड़ा समय दे कर उनमें नयी गर्माहट-जोश भर लीजिये। अकेलेपन की कीमत हम चुका रहे थे, अब साथ रहने का प्रसाद भी चख कर देखिये।

मुझे एक महात्मा की आप बीती याद आती है। शहर का सबसे धनवान व्यक्ति उनका सबसे नजदीकी भक्त था। लेकिन वह कभी उन्हें अपने घर नहीं बुलाता था, जबकि शहर के अनेक भक्तों के घरों पर वे दिनों, सप्ताहों और महीनों तक रहे। एक बार संयोग से ऐसा वक्त आन पड़ा कि महात्मा उसी भक्त के घर पर कई महीनों के लिए अटक गए। प्रारम्भ के कुछ दिनों तक सेठ स्वभाविक ही रहा। लेकीन फिर कुछ दिनों बाद सुस्त, अन्यमनस्क, बुझा-बुझा रहने लगा। महात्मा के पूछने पर उससे  रहा नहीं गया और बोला बिना आपको बताए मेरा उपचार नहीं होगा, अत: बताता हूँ। मुझे पीने की आदत है और आपके आने से मेरा पीना बंद हो रखा है। मैं क्या करूँ’? महात्मा ने कहा, अरे! तुम्हारा इतना बड़ा बंगला है, कहीं किसी कोने में बैठ कर, छुप कर पी लेते तो कुझे क्या पता चलता’? उसने कहा, यही तो मुसीबत है, जब भी कोई पीता है – असली पीने वाला – अकेले में नहीं पी सकता। जब तक पीने वालों की महफिल नहीं जमती, पीने का आनंद नहीं आता है। अकेले में क्या पीना? पीना कोई दुख थोड़े ही है, पीना तो एक उत्सव है। महात्मा ने कहा जरा सा सोचो जब जीवन की साधारण मदिरा को मिल-बाँट कर पीते हो तभी आनंद आता है, तब जो जीवन भी मिला है उसे अगर मिल-बाँट कर साथ-साथ जियो तो कैसा आनंद आयेगा। बांटो, शक्ति का आविर्भाव हुआ है, लुटाओ। जितना ज्यादा उसे लुटाओगे, देखना  आनंद में कितने गुने का इजाफ़ा होता है।

कोरोना से मिले इस वरदान के बारे में सोचें कि इसने हमें यह कीमती वक्त प्रदान किया है, यह समझने, सीखने और करने के लिए। ईश्वर तुम्हारा लाख-लाख शुक्रिया।

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शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

परिवेश की सफाई क्यों?

परिवेश की  सफाई क्यों?

प्रश्न: आप परिवेश की सफाई अपने भीतर करने की वकालत क्यों कर रहे हैं? इस बात की क्या उपयोगिता है?

जे.कृष्णमूर्ति: मैं किसी बात की वकालत नहीं कर रहा। लेकिन आप जानते हैं कि किसी बर्तन की  उपयोगिता तब होती है जब वह रिक्त होता है। हम में से अधिकांश का मन बहुत सी बातों-विचारों से भरा होता है – आराम व कष्ट से, सुखद व दुखद अनुभवों से, ज्ञान से, व्यवहार के नियमों, परिपाटियों, मान्यताओं, परम्परा से तथा इसी प्रकार की और भी अनेक बातों से। हमारा मन कभी खाली नहीं होता। जबकि, सृजन उसी मन में हो सकता है जो पूर्णतया खाली हो। यह तो साधारण व्यवहार की ही बात है कि नव-निर्माण रिक्तता में ही होता है।

 

शायद अपने जीवन में आप सबों को कभी न कभी यह अनुभव हुआ होगा कि जब कोई समस्या आपके समक्ष आती है – भले ही वह गणतीय समस्या हो अथवा मनोवैज्ञानिक समस्या या कोई और समस्या – तब, कभी-कभी क्या होता है? आप उसके बारे में खूब सोचते हैं, उस विषय पर जुगाली किये चले जाते हैं, परन्तु आपको उस समस्या का निदान नहीं मिल पाता। तब आखिर आप उसे छोड़ देते हैं, उससे हट जाते हैं, टहलने निकल जाते हैं। और तब उस रिक्तता में से निदान निकल कर आ जाता है। यह कैसे होता है? आपका मन उस समस्या को लेकर अपनी सीमा में बहुत अधिक क्रियारत हो गया था। परन्तु, जब आपको निदान नहीं मिला तब आपने उस समस्या को उठाकर एक ओर रख दिया। इससे आपका मन काफी हद तक शांत हो गया। और तब, उस मौन में, उस रिक्तता में, समस्या का समाधान संभव हो गया।

इसी प्रकार जब कोई पल-पल अपने भीतर परिवेश के प्रति, भीतरी प्रतिक्रियाओं के प्रति, भीतरी स्मृतियों, गोपनीयताओं तथा व्यग्रताओं के प्रति मृत हो पाता है, तब उसमें एक रिक्तता आ जाती है, और केवल उस रिक्तता में ही कुछ नया घटित हो सकता है।  

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नर्क.......स्वर्ग.......मोक्ष

सन्यासियों का एक दल किसी गाँव से गुजरा। उन्होने कुछ लोगों को छाती पीटते, रोते देखा। पूछा कि क्या मामला है? किसलिए रो रहे हो? कौन सी दुर्घटना घट गई? उन्होने कहा, कोई दुर्घटना नहीं घटी, हम नर्क के भय से घबड़ा रहे हैं। कहाँ है नर्क! मगर मन ने नर्क के भय खड़े कर दिये हैं, हम नर्क के भय से घबड़ा रहे हैं।

सन्यासियों का दल थोड़ा आगे बढ़ा। उन्हें कुछ और लोग दिखे, जो बड़े उदास बैठे थे, जैसा मंदिर में लोग बैठे रहते हैं। बड़े गंभीर। सन्यासियों ने पूछा, क्या हुआ तुम्हें? कौन सी मुसीबत आई? कितने लंबे चहरे बना लिए हैं? क्या हो गया है’? उन्होने कहा, कुछ भी नहीं, हम स्वर्ग की चिंता में चिंतातुर हैं – स्वर्ग मिलेगा या नहीं?

 

सन्यासियों का दल और आगे बढ़ा। उन्हें एक वृक्ष के नीचे कुछ लोग बड़े प्रमुदित, बड़े शांत, बड़े आनंदित बैठे मिले। उन्होने कहा, तुम्हारे जीवन में कौन सी रसधार आ गई? तुम इतने शांत, इतने प्रसन्न, इतने प्रफुल्लित क्यों हो? उन्होने कहा, हम ने स्वर्ग और नर्क का ख्याल छोड़ दिया है

स्वर्ग है सुख, जो तुम पाना चाहते हो। नर्क है दुख, जिससे तुम बचना चाहते हो। दोनों भविष्य हैं। दोनों कामना में है। दोनों मार के फंदे हैं। जब तुम दोनों, सुख-स्वर्ग और दुख-नर्क,  को छोड़ देते हो, अभी और यहीं जिसे मोक्ष कहो, निर्वाण कहो, वह उपलब्ध हो जाता है। 

तुम में जो हो उसमें ही तुम उसे पाओगे। जीने की दौड़ में तुम उससे चूकते चले जाओगे।

                             सुलगना और जीना, यह कोई जीने में जीना है

                             लगा दे आग अपने दिल में दीवाने

          धुआँ कब तक

-       (ओशो के प्रवचन पर आधारित)

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क्या होगा सीधा-सरल होने से?

कोई असत्यवादी आकर कहे, मुझे सत्य बोलना सिखाओ। क्या उसे सत्य बोलना सिखाया जा सकता है? झूठ में वह पहले ही उलझा हुआ है, अब सत्य में भी उलझना चाहता है। झूठ उसे उद्वेलित, अशांत करता रहेगा। वह अपने आप को सत्यवादी दिखाने की कोशिश करेगा। एक क्रोधी कहे, मुझे क्रोध छोड़ना सीखना है’? अगर वह चुप चाप कमरे में भी बैठा रहेगा तो बैठे-बैठे क्रोध करता रहेगा। वह अपने आप को अ-क्रोधी दिखाने की कोशिश करने लगेगा। एक हिंसक कहे, मुझे अहिंसक होना है, मेरा चित्त अहिंसक कैसे होगा’?  वह भी अपने आप को अ-हिंसक दिखाने की तरकीब ढूंढ लेगा। वैसे की एक कामुक अपने आप को ब्रह्मचारी दिखाने का स्वांग तैयार कर लेगा।

 

न हमें क्रोध को छोड़ना है, न अ-सत्य को। न  हिंसा को छोड़ना है और न ही काम को। क्रोधी हो तो अ-क्रोधी होने की चेष्टा मत करो बल्कि क्रोध क्या है? क्रोध को जानने की चेष्टा करो। क्रोध को स्वीकार करो। जो हो, वही दिखो। कहो कि हाँ, मैं क्रोधी हूँ। सबको बता दो कि तुम क्रोधी हो। उसे छुपाने की चेष्टा मत करो। क्या छिपाने से कोई रोग मिटा है? उसे खोल दो, शायद बह जाए, शायद नहीं! पक्का है कि वह बह जायेगा। अगर अ-सत्यवादी हो तो उसे स्वीकार करो, छुपाओ मत। अगर हिंसक हो तो अ-हिंसक मत बनो, सब को बता दो कि तुम हिंसक हो। अहिंसा, हिंसा को ढँकेगी नहीं। लेकिन सब को बता दो, तो बह जायेगी। छोड़ने या छिपाने के चेष्टा मत करो। उसे समझने की कोशिश करो, जानने की कोशिश करो। । क्रोध क्या है? असत्य क्या है? हिंसा क्या है? काम क्या है? गंदगी पर इत्र का छिड़काव करने से क्या होगा? घाव पर फूल चिपकाने से क्या होगा? दान कर रहे हैं इस लोभ से कि एक पैसा यहाँ दें, तो एक करोड़ वहाँ मिलेगा’, तो क्या लोभ गया? क्या यह दान हुआ? दान तो तभी होगा जब लोभ मिटेगा।

 जो हो उसके विपरीत बनने की कोशिश मत करो। उसको जानो उसको समझो। कोशिश करो यह जानने की कि असत्य क्या है, क्रोध क्या है, हिंसा क्या है, लोभ क्या है। इनको ढँको मत, छुपाओ मत। जीवन को झूठ से मत छुपाओ, प्रगट करो। चमत्कार हो जायेगा। अगर तुम अपने क्रोध को स्वीकार कर लो, अपनी घृणा को, ईर्ष्या को, द्वेष को, जलन को स्वीकार कर लो, तुम सरल होने लगोगे। तुम सीधे होने लगोगे। तुम पाओगे एक साधुता स्वयं उतरने लगी है। तुम्हें पता चलेगा कि तुम बदलने लगे हो। तुम सीधे और सरल होने लगे। तुम अचानक हैरान हो जाओगे; हिंसा गई अहिंसा आ गई, क्रोध गया अ-क्रोध आ गया, असत्य गया सत्य आ गया।  

शायरी में कहें तो:

है हुसूले-आरजू का राज, तर्के-आरजू

(मैंने दुनिया छोड़ दी तो मिल गई दुनिया मुझे)

कविता में कहें तो:

भागती फिरती थी दुनिया, जब तलब करते थे हम

जब हमें नफरत हुई, वह बेकरार आने को है।

-       (ओशो के प्रवचन पर आधारित)

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शनिवार, 11 जुलाई 2020

ज़ुबान

ज़ुबान

पाइथागोरस अपने समय के बहुत बड़े विद्वान थे। एक बार शिष्यों को पढ़ाते समय उन्होने कहा, “देखो, कुदरत ने जानवरों को ज़ुबान नहीं दी, ये अपने दुख: दर्द को जाहिर नहीं कर सकते। इन पर जो मुसीबतें आती हैं, वे ज़्यादातर इनकी बेजुबानी के कारण ही आती हैं”।

“लेकिन मनुष्य तो ज़ुबान रखता है, फिर उस पर मुसीबतें क्यों आती हैं”? एक शिष्य ने प्रश्न किया।

पाइथागोरस बोले, “जिस तरह जानवर अधिकांश मुसीबतें अपनी बेजुबानी के कारण उठाता है, उसी तरह मनुष्य ज़्यादातर मुसीबतें अपनी जुबानी की वजह से झेलता है”।

-       विनोबा (अग्निशिखा, अक्तूबर,2019)

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नेताओं का प्रशिक्षण

(नवजात जी का सम्बंध श्री अरविंद आश्रम, पांडिचेरी से रहा। यह उनके लिखे एक लेख का अंश है)

........ यहाँ मैं यह बतला देना चाहूँगा कि हम एक बड़ा कार्यक्रम शुरू करना चाहते हैं। देश में आध्यात्मिक शिक्षा और समाज-सेवा के लिए बहुत से केंद्र होंगे। लोगों को पता होना चाहिए कि आध्यात्मिक शिक्षा क्या है – यह तो केवल एक हिस्सा है। लेकिन जैसे जैसे व्यक्ति चेतना में विकसित होता जाये उसे यह सीखना चाहिए कि उस आध्यात्मिक शिक्षा को वह सारे जीवन में कैसे चरितार्थ करें। गृह-विज्ञान के लिए एक विभाग होना होगा, अध्यापकों के प्रशिक्षण का एक विभाग होगा, नेताओं के प्रशिक्षण का विभाग होगा क्योंकि राजनीति को भी बदलना चाहिये। आज हमारे देश पर नब्बे प्रतिशत नेता अज्ञान में शासन करते हैं और अधिकतर धन उन्हीं के हाथ में हो तो देश कभी प्रगति नहीं  करेगा। यह लज्जा की बात है, हमारे जैसे महान देश में इस प्रकार की  मूर्खता सह ली जाती है और सबसे अधिक दोष है उन लोगों का है जिनका श्री अरविंद के साथ सम्बन्ध है क्योंकि हम ऐसे लोग हैं जो ठीक मार्ग अपना सकते हैं और हमें अपनाना भी चाहिए। हम किसी को दोष नहीं दे सकते। हमारे अन्दर अतिमानसिक अवतरण के लिए सतत अभीप्सा होनी चाहिए। अतिमानसिक अवतरण के सिवा और कोई चीज परिवर्तन नहीं ला सकती। लड़ाइयाँ लड़ने और जीतने से परिवर्तन नहीं आने वाला। एक अति चेतना ही परिवर्तन ला सकती है। ............

-       नवजातजी (अग्निशिखा, अक्तूबर 2019)

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विकास, प्रगति और सफलता (Growth, Progress and Success)

सामान्यत: हमलोगों में इन तीन शब्दों, विकास-प्रगति-सफलता, में एक भ्रम है, गलतफहमी है। जैसे जैसे हमारे व्यापार की बिक्री बढ़ने लगती है, 50 करोड़ से 100 करोड़, 100 करोड़ से 500 करोड़ दुनिया कहने लगती है कि हमें सफलता मिल रही है। हमें भी इस बात की गलतफहमी होने लगती है कि हम सफल हो रहे हैं। क्यों ऐसा है कि नहीं? हाँ या नहीं? नहीं ..... नहीं...... नहीं। विकास, प्रगति और सफलता में बहुत बड़ा फर्क है, जिसे समझने की दरकार है। जब हमारे व्यापार की  बिक्री बढ़ती है 50 करोड़ से 100 करोड़, 100 करोड़ से 500 करोड़ यह हमारा सिर्फ विकास (growth) है। यह हमारी सफलता नहीं है। हमारी भौतिक संपत्ति में बढ़ोतरी हमारे विकास का मापदंड है। अगर यह विकास नीतिगत (ethics) यानि इसकी प्राप्ति अनुशासन से, ईमानदारी से, नियमों के पालन आदि के साथ हुआ है तब यह हमारी प्रगति (progress) है। नीति के साथ विकास हमारी प्रगति है। और इस प्रगति में मानवता, नैतिकता और आध्यात्मिकता का तड़का लगने पर मिलती है सफलता (success)।

यह हमारे लिये बहुत मत्वपूर्ण है अत: मैं एक बार फिर कहना चाहूँगा, अगर हमारे व्यापार की बिक्री में बढ़ोतरी होती है तब यह हमारी सफलता नहीं है। यह हमारा विकास है। जब यह प्रगति नीतिगत होती है तब यह विकास कहलाता है। और जब इस विकास में मानवता, नैतिकता और आध्यात्मिकता का समावेश होता है तब होती है सफलता। यह समझना बहुत ही आसान है। अपने बैंक में हजारों करोड़ रुपये होने के बाद भी हमें आंतरिक प्रसन्नता नहीं मिलती क्योंकि हमें सफलता नहीं मिली।  सफलता वह अवस्था है जिसमें स्थायित्व, प्रसन्नता और शांति तीनों खुद-ब-खुद प्राप्त हो जाती है। सफलता में हमारा विकास और प्रगति दोनों छिपे हुवे हैं। अब इस पर विचार कर आप अपने नए लक्ष्य खुद निर्धारित कीजिये की आप को क्या चाहिए? आप को केवल विकास (ग्रोथ) चाहिए, या प्रगति (प्रोग्रैस) चाहिए या सफलता (सक्सेस) चाहिए।

(इंटरनेट / व्हाट्सएप से प्राप्त)

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शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

सूतांजली, जुलाई २०२०

सूतांजली के जुलाई अंक का संपर्क सूत्र (लिंक) नीचे दिया गया है:

 https://sootanjali.blogspot.com/2020/07/2020.html

आपकी सुविधा के लिए, संपर्क सूत्र (लिंक) पर अंक का औडियो भी डाल रहे हैं। इसके अलावा प्रसंगोचित फोटो, संपर्क सूत्र  (लिंक) एवं अन्य प्रासंगिक सामाग्री भी मुहैया करवा रहे हैं। आशा है आपको पसंद आयेगा।

सूतांजली के जुलाई अंक में निम्नलिखित दो विषयों पर चर्चा है:

१। “अविकसित”.......कौन?

मेरे भाई केविन को पता है कि गिरिजाघर से कहीं ज्यादा भगवान उसकी खाट के नीचे बसते हैं।..... एक रात उसके कमरे के सामने से गुज़रते हुए मैंने उसे कहते सुना था, “लो यीशु, मैं आ गया सोने, तुम भी आ गये क्या अपने बिस्तर पर?”..... मेरी हल्की खिलखिलाहट फूट पड़ी थी, ..... मैंने दरार से झांक कर देखा, केविन पलंग के पास उकड़ूँ बैठा नीचे झांक रहा था, “थक गये क्या यीशु? क्या.....

(अग्निशिखा में प्रकाशित वंदना जी की रचना)

२। प्रार्थना

“अगर चूल्हे पर सब कुछ डालकर खाना बनाना शुरू किया जाए तो खाना तो पकता ही है ..... लेकिन वह कितनी देर में पकेगा, यह चूल्हे की लौ पर निर्भर करता है। जितनी तेज लौ होगी, खाना उतनी ही जल्दी बनता है”।

“सूखे से ग्रस्त गाँववाले, मंदिर में, ईश्वर से वर्षा की सामूहिक प्रार्थना करने जमा हुए। लेकिन छाता लेकर तो केवल एक बच्चा ही आया था”।

 “आप मांगों, ईश्वर आपको देगा। आप खोजना शुरू करो, ईश्वर उसका पता देगा। आप खटखटाओ.....

संपर्क सूत्र (लिंक):

https://sootanjali.blogspot.com/2020/07/2020.html