शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

मीडिया महाठगनी हम जानी

(आज अचानक ज्ञानोदय का एक पुराना अंक हाथ लगा। उसमें मुकेश कुमार का यह लेख पढ़ा। उसके कुछ अंश प्रस्तुत है आपके देखने और समझने के लिए।)

मीडिया की अति हो गई है। परम ब्रह्म की तरह आकाश-पृथ्वी हर तरफ वही दिखलाई देता है। कोई उसे देखने से बच नहीं सकता। अगर आंखें बन्द कर लेगा तब भी उसे मीडिया दिखाई देगा, क्योंकि पूरा वातावरण मीडियामय हो चुका है।

लेकिन मीडिया की अति ही नहीं हुई है, वह अतिवादी भी हो गया है। दिन-रात इसी जुगत में लगा रहता है कि कैसे किस खबर में अति-रिक्त जोड़ दे। अति-रिक्त का मतलब रिक्तता की अति। वह खबरों को खोखला बना देता है। उसके जरूरी तत्त्वों को निकालकर उसमें हवा भर देता है। और फिर खबर गुब्बारे की तरह उड़ने लगती है।

अतियों की अति से मीडिया भ्रांतियों का ऐसा ताना-बाना बुनता चला जाता है कि सब भ्रमित हो जाते हैं। उन्हें हवा में उड़ते रंग-बिरंगे गुब्बारे दिखलाई देने लगते हैं, वह उन्हीं में खो जाता है। उन्हीं को वह सत्य मान लेता है भले ही उसमें कोई तत्त्व ही न बचा हो।

अगर मान लें कि ऐसा नहीं हुआ तो अत्यधिक सूचनाओं के इतने अधिक गुब्बारे उसकी आँखों के सामने तैरने लगते हैं कि सत्य को ढूँढना असम्भव हो जाता है। ऐसे में सत्य की तलाश वैसे  ही शुरू हो जाती है जैसे भूसे के ढेर में से सुई तलाशना।

मिडियायुगीन सत्य तो यह है कि सत्य की खोज समाचारों के जंगल में जाकर गुम हो जाती है। समाचार सत्य भी होते हैं और असत्य भी, मगर यह पहचानना मुश्किल हो जाता है कि वास्तव में कौन सा क्या है। कई बार जिसे सत्य समझा जाता है वह असत्य निकलता है और जिसे हम असत्य मानकर दरकिनार कर देते हैं वह हमें सातवें आश्चर्य की तरह चौंकाता हुआ बताता है कि जनाब आप मुगालते में थे।

मीडिया सत्य और असत्य को ताश की पत्ती की तरह फेंटता रहता है और फिर बीच में से एक पत्ता फेंककर बोलता है – पहचान?  ज़ाहीर है कि खेल दिलचस्प है और जब जेब से दमड़ी न जानी हो तो और भी रोमांचक हो जाता है। लिहाजा, हर कोई खेलने लगता है।

अब क्या है कि हिदुस्तान की आधी से अधिक आबादी के पास कोई काम-धाम तो है नहीं। निठल्ली बैठी रहती है, इसलिए वह भी मीडिया का यह खेल खेलती रहती है। वैसे उसे सच से ज्यादा लेना-देना ही नहीं है। वह तो कुछ ऐसा चाहती है जिसे जुगाली करती रहे और जब बेस्वाद हो जाए तो पिच्च से थूककर दूसरा बीड़ा दांतों के नीचे दबा ले। .......

..........  दास कबीर होते तो कहते मीडिया महाठगानी हम जानी। उनके पास ऐसी आँख थी कि वे मीडिया की माया को अच्छे से देख-समझ लेते। ये जरूर है कि उसे महठगनी कहने से प्रेस के स्वतंत्रतावादी गदा-तीर-कमान लेकर टूट पड़ते। मगर वे तब भी कहते, चुप नहीं रहते। आखिर जब वे उस दौर के बाम्हन-मुल्लों से नहीं डरे तो भले आज के कटमुल्लों से क्या डरते! हाँ, ये बात जरूर है कि इस बार वे बच नहीं पाते।

......... ठग्गू के लड्डू खरीदना है या नहीं, इस पर विचार किया जाए। इस फेंक और फेंकुओं के जमाने में सारी बुद्धि-विवेक इसी बात पर लगती है कि लड्डू खाना है या फेंकना है। ...........

(तब से अब गुब्बारों की संख्या भी बढ़ गई है। यही नहीं रंग व आकार भी अनेक हो गए हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि ठगुओं ने अपना-अपना एक नया आसमान भी रच डाला है। पहले तो मीडिया अकेले थी अब तो उसके साथ सोशल और जुड़ गया है। सच कहता हूँ, मैंने तो इन लड्डुओं को खरीदना बन्द कर दिया है और जब से बन्द किया है जीवन में शांति-और सुकून बढ़ गया है।)  

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जाने माने पत्रकार गुलाब कोठारी  लिखते हैं-

“हमारे देश में प्रचार-प्रसार के लिये कथाएँ, लोक-नाटिकाएँ, गीत आदि का प्रचालन था। ये सारे किसी मन्दिर अथवा छोटे-छोटे ग्रामीण समूहों में प्रदर्शन के रूप में चलते थे। दूसरा माध्यम धार्मिक संत होते थे। इसी तरह हमारे ग्रंथ, संस्कृति और परम्पराएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ी हैं। शब्द हृदय में अंकित होते थे, जिनसे संस्कार और व्यक्तित्व का निर्माण होता था। आज सम्प्रेषण का यह धरातल पूर्णत: छूट गया। नई विधाओं के आने से पूरानापन सिमट गया। अत: सम्प्रेषण के नाम पर हम भाषा में आकार ही अटक गए। यह भूल गए कि शब्द स्वयं  में विशेष अर्थ नहीं रखते। ये तो भावों के वाहक हैं। इसलिए कहा जाता है की क्या कहा गया है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है क्यों कहा गया

गुलाब कोठारी 

 समाचारों में केवल सूचना एवं जानकारी होती है। प्रज्ञा नहीं होती। कोई व्यक्ति या पाठक पुराने अखबारों को किताबों की तरह दो-तीन बार नहीं पढ़ता। भावपूर्ण लेखन पत्रकारिता का अंग ही नहीं है। वहाँ तो केवल शिल्प है, शब्दों का शिल्प। ज्ञान के अभाव में, स्पर्धा के वातावरण में, वह भी अपनी विश्वनीयता खो रहा है। पत्रकार शब्दों में उलझकर रह जाते हैं। किसी भी नेता के वक्तव्य को लेकर शब्दों का जाल खड़ा कर देते हैं। किसी अध्यात्म-गुरु के प्रवचन से कुछ शब्द पकड़कर आक्रोश पैदा कर देते हैं।

 सब मिलाकर एक बात सिद्ध हुई कि हमें नयेपन से भी जुड़ना है, आगे भी बढ़ते रहना है। जो हमारा अंश देश-काल के साथ नहीं बदलता, उससे संबंधित ज्ञान को भी बनाए रखना है। आज हम देख सकते हैं कि जो भी संत हमें पुरातन ज्ञान को ज्यों को त्यों परोसते हैं, वहाँ नई पीढ़ी नहीं जाती। जो भी व्यक्ति इस ज्ञान को समयानुकूल भाषा देता है, उसका सब अनुसरण करते हैं। उनका सम्मान संतों से कम नहीं होता। हमें ऐसे संतों की आवश्यकता है। हर काल को आवश्यकता होगी और ये ही शांति की मशाल लेकर नेतृत्व देने में सक्षम हो सकेंगे।

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शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

जापान – श्री माँ की दृष्टि में

(जापान में दिया गया श्री माँ का एक भाषण। माँ की गहरी दृष्टि और भाषा का प्रवाह देखने और समझने योग्य है।)

आपने जापान के बारे में मेरे विचार माँगे हैं। जापान के बारे में लिखना एक कठिन काम है। वहाँ के बारे में इतनी सारी चीजें लिखी जा चुकी हैं, बहुत सी उट-पटांग चीजें भी...... लेकिन ये ज़्यादातर देश नहीं, देशवासियों के बारे में हैं। वह देश एक अद्भुत, सुरम्य, बहुमुखी, मनोहर, अप्रत्याशित, जंगली या मधुर है। वह देखने में - उत्तरध्रुवीय ठंडे प्रदेशों से लेकर उष्ण कटि-प्रदेशीय तक – दुनिया भर के सभी देशों का समन्वय लगता है। किसी कलाकार की आँख उसकी ओर से उदासीन नहीं रह सकती। मेरा खयाल है कि जापान के बहुत से सुन्दर वर्णन किए जा चुके हैं। मैं उनमें से एक और नहीं बढ़ा रही, मेरा वर्णन निश्चित रूप से उनकी अपेक्षा बहुत कम रोचक होगा। लेकिन आमतौर पर जापानियों को गलत समझा गया है और गलत रूप से पेश किया गया है और इस विषय पर कहने लायक कुछ कहा जा सकता है।

अधिकतर विदेशी लोग जापानियों के उस भाग के सम्पर्क में आते हैं जो विदेशियों के संसर्ग से बिगड़ चुका है – ये पैसा कमाने वाले, पश्चिम को नकल करने वाले जापानी हैं। वे नकल करने में बहुत चतुर हैं और उनमें ऐसी काफी सारी चीजें हैं जिनसे पश्चिम के लोग घृणा करते हैं। अगर हम केवल राजनेताओं, राजनीतिज्ञों और व्यापारियों के जापान को देखें तो यही लगेगा कि यह यूरोप के शक्तिशाली देशों से बहुत ज्यादा मिलता जुलता देश है, लेकिन उसमें ऐसे देश की जीवनी शक्ति और घनीभूत ऊर्जा भरी है जो अभी तक अपनी पराकाष्ठा पर नहीं पहुंचा है। 

यह ऊर्जा जापान की एक बहुत मजेदार विशेषता है। वह हर जगह, हर एक बूढ़े, बच्चे, मर्द, औरत, विद्यार्थी, मजदूर सभी के अन्दर दिखाई देती है। शायद “नये अमीरों” को छोड़ कर सभी के जीवन में अद्भुत घनीभूत ऊर्जा का भंडार दिखाई देता है। प्रकृति और सौंदर्य के आदर्श प्रेम के साथ साथ यह संचित शक्ति भी जापानियों की विशिष्ट और सबसे अधिक व्यापक विशेषता है। उदयाचल के उस प्रदेश में पाँव रखते ही आप इस चीज को देख सकते हैं, जहाँ इतने सारे लोग और इतनी निधियाँ एक छोटे से टापू में जमा हैं।

यदि आपको उन जापानियों से मिलने का सुअवसर मिले, जैसा कि हमें मिला था, जिनमें अभी तक प्राचीन सामुराई का शौर्य और अभिजात्य अछूता है तो आप समझ सकते हैं कि सच्चा जापान क्या है, आप उनकी शक्ति और रहस्य को पा सकते हैं। वे चुप रहना जानते हैं और यद्यपि उनमें बहुत अधिक तीव्र संवेदनशीलता होती है, लेकिन मैं जिन लोगों से मिली हूँ उनमें ये सबसे कम इसका प्रदर्शन करने वाले लोग हैं। यहाँ एक मित्र तुम्हारे प्राण बचाने के लिए बड़ी ही सरलता से अपनी जान दे सकता है; लेकिन वह कभी तुम्हारे सामने यह न कहेगा कि उसे तुम्हारे लिए इतना गहरा और नि:स्वार्थ प्रेम है। वह इतना तक भी नहीं कहेगा कि वह तुमसे प्रेम करता है। और अगर तुम बाहरी आभासों के पीछे छिपे हुए हृदय को न पढ़ सको तो तुम्हें बहुत अच्छे बाह्य शिष्टाचार के सिवाय कुछ न दिखाई देगा जिसमें सहज भावों के लिए कोई स्थान नहीं होता। फिर भी भाव होते हैं और बाहर अभिव्यक्त न होने के कारण और भी ज्यादा प्रबल होते हैं और कभी मौका आ जाए तो उनके किसी काम द्वारा अचानक प्रेम की गहराई का पता चलता है, वह भी विनयशील और कई बार छिपा हुआ। यह जापानी विशेषता है। संसार के जातियों में सच्चे जापानी, जो पश्चिम के प्रभाव में नहीं आए है, शायद सबसे कम स्वार्थी होते हैं। और यह नि:स्वार्थता पढे-लिखे, विद्वान या धार्मिक लोगों की ही विशेषता नहीं है। यह समाज के सभी स्तरों में पायी जाती है। यहाँ कुछ लोकप्रिय और अत्यन्त मनोहर उत्सवों को छोड़ कर धर्म रूढ़ि या सम्प्रदाय नाम की चीज नहीं है। यह उनके दैनिक जीवन में आत्म-त्याग, आज्ञा-पालन और आत्म-समर्पण के रूप में दिखाई देता है।   

जापानियों को बचपन से ही सिखाया जाता है कि जीवन कर्तव्य है, सुख नहीं है। वे उस कर्तव्य को स्वीकार करते हैं। प्राय: कठोर और कष्टकर कर्तव्य को सहनशील आत्म-समर्पण के साथ स्वीकार करते हैं। वे अपने आप को सुखी बनाने के विचार से परेशान नहीं करते। यह सारे देश के जीवन को आनन्द और मुक्त अभिव्यक्ति नहीं, एक असाधारण आत्म-नियंत्रण प्रदान करता है। यह तनाव, प्रयास और मानसिक तथा स्नायविक दबाव का वातावरण पैदा करता है, उस तरह की आत्मिक शांति नहीं देता जैसी, उदाहरण के लिए, भारत में अनुभव की जा सकती है। वास्तव में, जापान में ऐसी कोई चीज नहीं है जिसकी तुलना भारत में व्याप्त शुद्ध भागवत वातवरण से की जा सके। यह वातावरण ही भारत देश को ऐसा अनोखा और बहुमूल्य बनाता है। जापान के मंदिरों में, वहाँ के पवित्र दुर्गम मठों में जो कभी कभी ऊंचे पर्वत की चोटी पर बने होते हैं, बड़े बड़े देवदार के पेड़ों से ढके होते हैं, जो नीचे की दुनिया से बहुत दूर हैं, उनमें भी यह वातावरण नहीं है। वहाँ बाहरी नीरवता है, विश्राम और निश्चलता है, लेकिन शाश्वत का वह आनंदमय संवेदन नहीं है जो एकमेव की जीवन सन्निधि से आता है। यह सच है कि यहाँ सब कुछ एकता के मन और आँखों को सम्बोधित करता है – मनुष्य की भगवान से एकता, प्रकृति की मनुष्य से एकता और मनुष्य मनुष्य की एकता से। लेकिन यह एकता कम ही अनुभव की जाती है या जीवन में उतारी जाती है। निश्चय ही जापानियों में उदार आतिथ्य, पारस्परिक सहायता, पारस्परिक अवलम्ब की भावना बहुत विकसित है। लेकिन अपने संवेदनों, विचारों और सामान्य क्रियाओं में यह सबसे अधिक व्यक्तिवादी और पृथकतावादी जाति है। इन लोगों के लिए रूप प्रधान है, रूप आकर्षक है। वह अभिव्यंजक भी होता है। वह किसी अधिक गहरे सामंजस्य या सत्य, प्रकृति या जीवन के किसी विधान की कहानी कहता है।  प्रत्येक रूप, प्रत्येक क्रिया, बगीचे की व्यवस्था से लेकर प्रसिद्ध चाय समारोह तक, प्रतिकात्मक है, और कभी कभी एक बहुत ही सादी और सामान्य चीज में गहरा, अलंकृत, इच्छित प्रतीक मिल जाता है जिसे अधिकतर लोग जानते और समझते हैं। लेकिन यह जानना और समझना केवल बाहरी और परम्परागत होता है। वह आध्यात्मिक अनुभवों से आने वाला जीवंत सत्य नहीं होता जो दिल और दिमाग को प्रबुद्ध करे। जापान मौलिक रूप में संवेदनों का देश है। वह अपनी आँखों के द्वारा जीता है। उस पर सौंदर्य का एकछत्र राज्य है और उसका वातावरण मानसिक और प्राणिक क्रिया कलाप, अध्ययन, निरीक्षण, प्रगति और प्रयास को उत्तेजित करता है, लेकिन शांत, आनंदमय चिंतन मनन को नहीं। लेकिन इस सारे क्रिया कलाप के पीछे एक उच्च अभीप्सा उपस्थित है जिसे उस जाति का भविष्य ही व्यक्त करेगा। 

(श्री अरविंद सोसाइटी की अग्निशिखा में प्रकाशित)

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सोमवार, 2 नवंबर 2020

सूतांजली, नवम्बर 2020

दीपोत्सव के वंदन 

सूतांजली के नवम्बर अंक का संपर्क सूत्र नीचे दिया है।

इस अंक में निम्नलिखित विषयों पर चर्चा है:

सर्वप्रथम दीपावली के पुनीत अवसर पर बधाई एवम अभिनंदन।

१। माँ से प्रार्थना

यह अंक हमने प्रारम्भ किया है माँ से प्रार्थना से। यह प्रार्थना श्री अरविंद सोसाइटी की पत्रिका अग्निशाखा में प्रकाशित प्रार्थना पर आधारित है।

२। वंश या धर्म?

वंश के नष्ट होने से धर्म का नाश होता है या धर्म के नष्ट होने से वंश समाप्त होता है?

इस प्रश्न पर एक विचार।

३। कैसे थमाएं परम्परा अगली पीढ़ी को

अपनी परम्पराओं – संस्कारों को सही ढंग से समझना और आने वाली पीढ़ी को समझाना, हमारा उत्तरदायित्व है। क्या हम इसे सही ढंग से निभा रहे हैं? करें थोड़ा विचार। जाने क्या कहते हैं श्री सुदर्शन बिड़ला और श्रीमती रजनी आनंद लूथरा, संपादिका इंडियन लिंक, ऑस्ट्रेलिया।

४। निष्काम कर्म और कर्म-संन्यास

जाने माने लेखक श्री नरेंद्र कोहली की गीता पर आधारित उपन्यास शरणम से एक पठनीय उद्धरण।

५। त्यौहारों पर अभिनंदन

अपने त्यौहारों-पर्वों पर बधाई और अभिनंदन संदेश भेजिये, लेकिन  अपने पारिवारिक और भारतीय पद्धति से। दूसरों की नकल नहीं, दूसरों का संदेश नहीं। 

सूतांजली के आँगन में के नाम से ज़ूम मीटिंग की सूचना और अपने सुझाव देने का अनुरोध।

आगे पूरा पढ़ें -> संपर्क सूत्र (लिंक): ->

URL ->https://sootanjali.blogspot.com/2020/11/2020.html