आज हर कोई, हर संस्था, राजनीतिक दल हो या राजनीतिक संगठन। सामाजिक कार्यकर्ता हों या सामाजिक संस्था। सामाजिक आंदोलन के प्रणेता या धार्मिक संस्थान, सब ‘हिमालय जैसी भूलें’ कर रहे हैं, पर इनमें से एक भी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं।
इन सब से अलग एक व्यक्ति था, इन सब से अलग था, अनूठा था। जो बातें उन्हें अलग और अनूठा बनाती थीं, वे थीं:
१। उन्हें
मृत्यु का भय नहीं था,
२। पराजय
का भय नहीं था,
३। कहीं
कोई उन्हें मूर्ख न मान ले – इसका डर नहीं था,
४। सबसे
महत्वपूर्ण बात, उन्हें अपनी गलती स्वीकार करने में डर नहीं लगता था।
इनके अलावा
एक और विशिष्ट बात थी – कड़ुवे सच सुनने और समाज को कड़ुवे सच सुनाने का साहस था।
आज इन बातों को अगर हम मापदंड के तौर पर लें और पूछें कि कौन है जो इन मापदंडों पर खरा उतरता है, तो बहुत कम लोग मिलेंगे। यही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। इसे हम चाहे कुछ भी नाम दें, शक्ति कहें, ताकत कहें, आदत कहें या तकनीक कहें या कुछ और। उस व्यक्ति का नाम बताऊँ तो शायद आपके मुंह: का स्वाद खराब हो जाएगा। क्योंकि दुष्प्रचार, भ्रामक और झूठी बातें फैला कर सोशल मीडिया और खुद गर्ज़ लोगों ने हमारे दिल में उनके लिए नफरत भर दिया है। लेकिन कोई उनसे पूछे कि अगर ऐसा ही था तब, जब वे थे, पूरा भारत उनके पीछे क्यों चला, पूरा विश्व उनका लोहा क्यों मानता था, बिना कोई प्रश्न किए? खैर, अभी मुद्दा कुछ और है। वैसे भी, आप समझ ही गए होंगे मैं जिनकी बात कर रहा हूँ वे थे मोहनदास करमचंद गांधी।
हमें जब भी किसी राजनीतिक दल, राज्य या केंद्र सरकार की किसी गलती को खोज निकालने में मजा आए तो हमें खुद से भी पूछ लेना चाहिये ‘क्या इस गलती को करने में हमारी अपनी भी कुछ भूमिका थी?’ हम ऐसा नहीं करने वाले। और राजनीति में जो लोग हैं, वे भी हमसे ऐसा करने को कहने वाले नहीं। कोई यह कहने को तैयार नहीं कि मैं हारूँ तो हारूँ, मैं अपना स्नेह लुटा दूँ तो लुटा दूँ लेकिन मैं सच जरूर कहना चाहता हूँ। एक आम नागरिक की तरह भी हमने अपने देश को नीचा दिखाया है – यह आज कोई कहने को तैयार नहीं। लेकिन इसके विपरीत इस पीड़ा को, इस दर्द को, इस घाव को दूर करने के लिए कई लोग ठोस काम कर रहे हैं। वे अपने आप को गांधीवादी नहीं बताते हैं। पर वे काम कर रहे हैं। उनकी संख्या कम है। उनके नामों से भी हम परिचित नहीं हैं। गांधी का जो भी काम देश में हो रहा है, वो खासकर उन्हीं लोगों से हो रहा है जो कि अपने काम को गांधी का नाम नहीं दे रहे हैं। उन्हें नाम से मतलब भी नहीं है। उन्हें केवल काम से मतलब है और वे सिर्फ अपने काम में रत हैं।
अब कुछ नाम और काम प्रकाश में आए हैं लेकिन उनकी चर्चा कहीं नहीं है। सुहासिनी माइती ने ‘भीख’ मांग कर हयूमैनिटी अस्पताल खड़ा कर दिया, हरेकाला हजब्बा ने संतरे बेच कर प्राथमिक विद्यालय की स्थापना की, बिहार के बेतहारवा गाँव में स्वाधीनता के बाद से आज तक न एक भी एफ़आईआर दाखिल हुई और न ही कोई केस दर्ज हुआ, अनेक सरकारी अधिकारी स्थानांतरण के जुल्म झेलते रहे लेकिन सत्य से नहीं डिगे, नदिया जिले के अभयनगर में प्राथमिक विद्यालय के प्राध्यापक ने रोज पूरे गांववासियों को राष्ट्रगान पर सब काम छोड़ कर खड़े होने की प्रेरणा दी। इनमें से कोई भी नाम के पीछे नहीं गया, ये सब काम के भूखे हैं, इनमें एक जज़बा है। और सबसे खास बात ये है कि ये समाज के उस तबके से हैं जिन्हें हम कमजोर वर्ग का मानते हैं। उनपर न हमारी नजर पड़ती है और न हम उनकी परवाह करते हैं। दुनिया में जो थोड़ी बहुत अच्छाई बची है, इंसानियत बची है, वह शायद ऐसे ही लोगों के कारण बची है जो काम में विश्वास रखते हैं। वे न नाम की परवाह नहीं करते और न ही संसाधनों का इंतजार। वे बिना किसी संसाधन के, अपने आप में समस्त संसाधनों से युक्त पूर्ण संस्थान हैं।
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