शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

आनंद नहीं पाने में, पाने के अरमानों में .......

 (हम आनंद के पीछे ताउम्र भागते रहते हैं लेकिन वह हाथ नहीं आता। आते-आते फिसल कर फिर दूर हो जाता है। डॉ.विजय अग्रवाल लिखते हैं कि दरअसल आनंद पाने में नहीं है बल्कि पाने के अरमानों में हैं। वे मानते हैं कि हम एक बार नादान बन कर देखें, दुनिया बदल जाएगी, नजरिया बदल जायेगा, जीने की इच्छा तीव्र हो जायेगी। प्रस्तुत उद्धरण उनके लिखे एक लेख एक बार नादान बन के देखो से है।  )

 ...जानना, ज्यादा से ज्यादा जानना, यहाँ तक कि सब कुछ जान लेना आज के समय का तकाजा हो गया है। कुछ ही दिनों के बाद लगने लगता है कि मैं तो सब कुछ जानता हूँ। इन्हें हम ज्ञानी कह सकते हैं, जबकि यूनान के दार्शनिक सुकरात ने कहा था कि ज्ञानी तो केवल मैं भर हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं कुछ नहीं जानता, जबकि यूनान के सारे नागरिक जानते हैं कि वे सब कुछ जानते हैं

शादी से पहले लड़के-लड़की एक दूसरे के बारे में थोड़ा बहुत नहीं बल्कि सब कुछ जान लेना चाहते हैं। ऐसे ज्योतिष मौजूद हैं, जो आपको आपकी जिंदगी का पूरा चार्ट तैयार करके दे देते हैं। नौकरी जॉयन करने पर अपने कैरियर के अंत को जान लेते हैं। इसके बाद भी यदि जानने को कुछ बचा रह जाता है तो उसे भी जान लेने की कोशिश जारी रहती है।

पति-पत्नी थे। साथ रहते-रहते कई साल बीत गए। जिंदगी ठीक-ठाक चल रही थी। घर-गाड़ी सब कुछ था। बच्चे सैटल हो गए थे। ज़िम्मेदारी कुछ बची नहीं थी। चिंता भी कुछ नहीं थी, लेकिन पता नहीं क्या था कि इस सबके बावजूद जिंदगी में कुछ मजा नहीं आ रहा था। लग रहा था कि सब कुछ तो है, लेकिन रस नहीं है। एक दिन अचानक अल-सुबह ही पति की नींद टूट गई। वह गहरी नींद में सोई अपनी पत्नी को उठाने से स्वयं को रोक नहीं सका। उसने अपनी पत्नी को झकझोर कर उठाया और उसकी ओर देखते हुए गुनगुनाने लगा, चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों। उसे अपनी समस्या का हल मिल गया – नोन को अननोन में बदलने की युक्ति। साथ रहते-रहते बहुत कुछ जान लिया है एक दूसरे को। अब जानने को कुछ बचा ही नहीं है, तो फिर जीने के लिये  भी कहाँ कुछ बच जाता है, इसलिए हे पत्नी! चलो कुछ ऐसा करते हैं कि एक बार फिर से हम एक-दूसरे के लिए वैसे ही अजनबी बन जाते हैं, नये बन जाते हैं, जैसे कि पहले थे। इसके बाद फिर से अननोन से नोन  की यात्रा शुरू करेंगे। इससे ज़िंदगी खुशनुमा हो जाएगी तथा अधिक सार्थक भी। हमलोग खुशकिस्मत हैं कि हम लोगों कि यह यात्रा जारी है, कभी भी पूरी न होने वाली एक खुशनुमा यात्रा।  ...

...यानि कि आनंद पाने में नहीं, बल्कि पाने की कल्पना करने में है। कला और साहित्य में आनंद क्यों आता है? अँग्रेजी में  इसे बिटवीन द लाइंस के जरिये बताया गया है। आनंद वहाँ नहीं है, जो लिखा गया है, बल्कि वह लिखी गई उन दोनों लाइनों के बीच में  है, जो लिखी नहीं गई हैं। यानि कि जो अदृश्य हैं, अननोन हैं। इस खाली स्थान को आपको भरना है। आप इस ब्लैंक स्पेस के किंग हैं, क्रिएटर हैं। जो भी मन में आए आपके, भर लीजिये आप यहाँ वही सब। ... यदि यह बात कला पर लागू हो सकती है तो जीवन पर लागू क्यों नहीं हो सकती? आखिर जीवन जीना भी तो एक कला ही है।

महान साहित्यकार एवं साहित्य जगत में जादुई यथार्थवाद के प्रवर्तक गार्सिया मारखेज़ ने एक जबर्दस्त उपन्यास लिखा था ए हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड। हॉलीवुड वालों ने इस पर फिल्म बनाने के लिए करोड़ों 

गार्सिया मारखेज 
डॉलर देने चाहे पर लेखक ने मना कर दिया। क्यों? उनका उत्तर था कि, अब तक लाखों पाठकों के दिमाग में मेरे पात्रों के चित्र काफी हैं, जो उन्होंने पढ़कर बनाए हैं। लेकिन यदि आप सिनेमा में उसे देखेंगे तो उसमें जो अस्पष्टता (एम्बिग्युटी) है, चित्र की जो विविधता (मल्टीप्लीसिटी) है, उसकी जो गहनता है, उसे आप एक छोटे-से बिम्ब में रिड्यूस करते हैं। मैं चाहता हूँ कि करोड़ों लोगों के मन में मेरे उपन्यासों के चरित्र के बारे में करोड़ों किस्म के जो चित्र बने हुए हैं, वे बने रहें। मैं नहीं चाहता कि वे हॉलीवुड के बिंबों (इमेज) के साथ स्थिर (स्टेटिक) या जड़ (फ्रीज़) हो जाएँ। मारखेज ने अपने पाठकों कि स्वतन्त्रता और रचनात्मकता की रक्षा के लिए करोड़ों डॉलर ठुकरा दिये ताकि उनके पाठक अज्ञात की यात्रा करने का आनंद ले सकें। हम लोग भाग्यशाली हैं कि हम सबके दिमाग में अपने-अपने राम और सीता की तस्वीरे हैं। आज की पीढ़ी के दिमाग में राम के रूप में अरुण गोविल और सीता के रूप में दीपिका चिखालिया हैं। उनके न तो अपने राम हैं न ही अपनी सीता। 

... अज्ञात के प्रति उत्सुकता की भावना ही हमारी जिंदगी में उत्साह और उमंग लाती है, हमें प्रेरित करती है, हममें रस पैदा करती है, और हमारे अंदर सौंदर्य की एक अलौकिक चेतना भी जागृत करती है। ...

...कुल मिलाकर हम सभी अपने प्रिय लोगों के जीवन के एक कोने को अनजान ही बने रहने दें तो बेहतर होगा – जीने के लिए भी, आनंद के लिए भी और कुछ अद्भुत पाने के लिए भी। ...

(क्या आपको ऐसा नहीं लगता है कि यही कारण है कि आज सरपराइज़ पार्टी, अनजाना पत्र-पार्सल, अनजाने का फोन हमें ज्यादा आनंद, खुशी देता है और नई चेतना जागृत करता है।)

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शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

दिखावे का त्यौहार या आनंद का उत्सव

आज सुबह बैठे-बैठे अचानक बचपन की यादों में खो गया। बचपन को याद करना अपने-आप में एक सुखद अनुभूति है, तन बदन में एक ठंडक पहुँचती है। बंद आँखों के सामने एक चलचित्र की भांति घटनाएँ आती-जाती रहीं, बरबस चेहरे पे मुस्कुराहट झलक पड़ी और मन-मिजाज तरो-ताजा हो गया।  बीते हुए दिन तो वापस नहीं आते लेकिन उन दिनों की मधुर यादों में खो जाने से कौन रोकता है! यादें तो बहुत हैं, लेकिन अभी याद आ रही है अपने वार्षिक त्यौहारों की, जिसे उत्सव के रूप में मनाया करते थे। बहाना बनाने वालों का तो भगवान भी कुछ नहीं कर सकता। उन्हें हर काम में कोई-न-कोई बहाना निकाल लेना होता है। तब, आज की तरह नहीं था कि सुविधा के अनुसार जो कर सके वो किया बाकी में कुरुतियां-दोष निकालते रहे। त्यौहार नहीं मनाना है, केवल खानापूर्ती करनी है। यह नहीं मानते थे कि कर्मकांड ढकोसला है, उत्सव असभ्यता है, पर्यावरण को क्षति पहुँचती है और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। और कुछ नहीं बस बुराइयां ढूँढना और न मनाने के तर्क देना।  किसको फुर्सत है मर्म को समझने की? नारियल का खोल देख कर फेंक दिया, उसके अंदर क्या है, क्या मालूम? अनबूझ अच्छाइयों पर बुराइयाँ हावी होती चली गई और उत्सव मनाने की समृद्ध परम्परा छोड़ते चले गए और केवल छिलके और ढकोसलों को पकड़े रखा। हमें लुभाने लगे पाश्चात्य सभ्यताएं और त्यौहार। बाजार ने भी उनका ही साथ दिया, क्योंकि हमारे त्यौहार कहते हैं घर की बनी सामग्री का ही प्रयोग करें, परिवार के साथ घर पर मनाएँ, और उतने ही  पाँव पसारिये जितनी चादर होय। परिवार के साथ मनाने से अनेक सीमाएँ भी आ जाती है। भला बाजार को यह कैसे भला लगे? उसे तो चाहिए स्वच्छंदता, बाजार पर आश्रय, ज्यादा से ज्यादा खर्च। हाथ में नोट नहीं है तो प्लास्टिक से भुगतान कर कल की चीज आज लायेँ।  बाजार तो चाहता ही है कि आप हैसियत से ज्यादा खरीददारी कर उसके चंगुल में बनें रहें।  इस धमाचौकड़ी में उत्सव का अपनापन नदारद हो गया, रह गया केवल दिखावा और प्रतिद्वंदिता। आज हम तरसते हैं अपनेपन को, लेकिन ढूंढ नहीं पाते। होली-दिवाली-राखी त्यौहार नहीं हमारे पारिवारिक-सामाजिक उत्सव हुआ करते थे। इनमें हम केवल अपने घर-परिवार ही नहीं बल्कि मुहल्ले, पास-पड़ोसियों और दूर के रिश्तेदारों के साथ एक जुट होकर आनंद लेते थे और खुशियाँ बांटते थे।

होली और छारंडी – पहला दिन पूजा का और दूसरा रंग के उत्सव का। होली की रात विशेष रसोई बनती, पूरा घर साथ-साथ बैठ कर भोजन करता और फिर पूजा। इसके पहले, गाय का गोबर इकठ्ठा किया जाता, तरह तरह के बड़कुल्ले बनते। ग्वाला खुद गोबर पहुंचा जाता या किसी को भेज कर गौशाला से गोबर मंगा लेते थे। बाद के समयों में गोबर खरीदने की नौबत आ गई, मिलना बंद हो गया।  और बाद में तो बनाने का रिवाज ही उठ गया। बने बनाए खरीद कर बाजार से लाने लगे। आज के पढ़े-लिखे लोगों को इसमें अ-सभ्यता और गंवारपन नजर आता होगा। लेकिन इसके पीछे गाय को दिया जाने वाला सम्मान, उपले बननेवाली महिलाओं का सम्मान और साथ-साथ मिलकर काम करने की  प्रवृत्ति के अलावा एक दूसरे के उत्सवों में सहयोग की खुशबू आती थी। जहां गन्ने की खेती होती थी, किसान बिना मूल्य के गन्ना पकड़ा जाता था। इस वर्ष दुबली-पतली छोटी सी एक ईख एक सौ रुपए तक में बिकती हुई मैंने देखी है। सहयोग तो बहुत दूर की बात रही यह तो धंधा भी नहीं लूट है जिसे हम पूरी बेशर्मी अमानवीय ढंग से करते हैं, बाजार उसका समर्थन भी करता है। इसमें से गायब होता अपनापन, भाईचारा और सौहार्द नहीं दिखता। किसी का त्यौहार किसी की डकैती। इसके लिये कौन जिम्मेदार है? होली या हम? खैर, भोजन के बाद मुहूर्त के समय घर पर पूजा करने के बाद सड़क पर मंदिर किनारे होलिका-दहन में पूरा घर ही नहीं बल्कि पास पड़ोस से सब एक साथ जयकारा लगाते हुए जाते, वहाँ सबों से मिलते, पूजा कर वापस आ जाते। फिर दूसरे दिन रंग। रंगों का इंतजाम तो पहले ही कर लिया जाता था। रंगो के अलावा, गुलाल और घर में बने टेसुओं के फूलों का सुगंधित रंग भी प्रयोग होता था। मकान नहीं बल्कि पूरा मुहल्ला एक साथ रंग खेलता था। हाँ, उस समय भी कुछ लोग, घर के बड़े-बूढ़े रंग से बचते थे, लेकिन बच्चे-नवजवान तो बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। रंग खेलने का काम केवल अपने घर और मुहल्ले तक ही सीमित नहीं रहता था। मुझे अच्छी तरह से याद है हम अपने पिता के साथ शहर के दूर दराज जगहों पर रहने वाले अपने रिश्तेदारों के घरों पर भी जाया करते थे, और हर घर से लोग जुड़ते चले जाते थे।  अपने परिवार के अन्य सदस्यों के घर, ससुरालों में, मित्रों के घर जाने का दस्तूर भी बहुत ही आम था। केवल रंग खेलना नहीं, हंसी-मजाक, खाना-पीना-गाना सब होता था। पूरे परिवर, मुहल्ले और परिचितों के बीच एक अटूट रिश्ता बनता, नए सदस्यों से परिचय होता। अब न तो हमें पड़ोसियों का पता है न ही रिश्तेदारों को पहचानते हैं। मामा-मामी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, भूवा-फूफा, मौसा-मौसी, ननद-ननदोई सब गायब होते जा रहे हैं। बचे हैं  केवल अंकल और आंटी। हाँ, कई खराबियाँ भी थीं लेकिन उन खराबियों को छोड़ने की हमने क्या कीमत चुकाई, इसका आकलन कौन करेगा? कंकड़ नहीं निकाल सके तो पूरा अन्न ही फेंक दिये! हमारे अन्न में से कंकड़ कौन निकलेगा – सरकार, अंग्रेज़, विदेशी, ऑक्सफोर्ड या हारवर्ड?  किसका मुंह जोह रहे हैं हम?

वैसे ही राखी में केवल अपनी ही बहन नहीं बल्कि परिवार की हर बहन के घर जाना और कलाई से लेकर कंधे तक राखी बन्धवाना याद आता है। राखी बन्धवाने सुबह निकलते थे तो लौटते लौटते शाम हो जाती थी। बहन के यहाँ पहुंते थे तो पता चलता कि घर से फोन आया था। बताया जाता, कुछ और घरों में भी जाना है क्योंकि उनके यहाँ से भाई आया था बहन से राखी बन्धवा कर गया है। अब हमें भी उसकी बहन के जा कर राखी बंधवानी है। कई बार तो यह राखी बन्धवाने का काम कई दिनों तक चलता था। आज की तरह न तो दिखावा था न ही महंगे उपहारों से एक दूसरे की पॉकेट तौली जाती थी। न जाने कब कहाँ से इन उमंगों को बाजार की नजर लग गई। धन के अन्धा-धुन्ध प्रदर्शन के अलावा पिछले कई वर्षों में तो इसका राजनीतिक संस्करण भी दिखने लगा है। हमारे सामाजिक रीति-रिवाजों, उत्सवों में भी राजनीति?

और दिवाली! दिवाली के पहले से ही, उसके इंतजार में पैरों में घुंघरू बन्ध जाते थे और मन बल्लियों उछलने लगता था। दिवाली की बधाई और मंगल-कामना के पत्रों के लिए पूरी तालिका तैयार करना, बधाई का मजमून तैयार करना, छपवाना, पते लिखना अपने आप में एक उत्सव होता था। इस बहाने देश के किन किन शहरों में अपने कौन कौन से रिश्तेदार रहते हैं इसकी जानकारी तो होती ही थी साथ ही साथ पता – ठिकाना भी दुरुस्त कर लिया जाता था। दिवाली की रात खुद अपने हाथों से और अपनी निगरानी में दीपकों से घर को जगमगाना, सजाना, साथ साथ भोजन करना और फिर पूजा करना। रौशनीदार पटाखे और धमाकेदार बम का बोल बाला रहता था। हाँ इसके नुकसान हैं। लेकिन हमें क्या केवल मिटाना ही आता है? कुछ मिटाया तो क्या कुछ बनाया भी? अगर बना नहीं सकते तो मिटा कैसे सकते हैं? दूसरे दिन अड़ोस-पड़ोस, पास-दूर के रिश्तेदारों के घर जाना और उनसे आशीर्वाद लेने में पूरा दिन निकल जाता। यह काम भी कई बार कई दिनों तक चलता। 

अपने इन उत्सवों के माध्यम से हम अपने सम्बन्धों का बार-बार नवीनीकरण करते, नए पड़ोसियों और रिश्तेदरों से परिचय होता और हमारे सम्बन्ध प्रगाड़ होते।  किसने इन सबको हमसे छीन लिया? कब कहाँ हम इन सब को खो बैठे और इस संसार में अपने आप को अकेला करते चले गये।  स्वार्थ और मजबूरी की बहुत बड़ी दुनिया हमने इर्द गिर्द जमा कर ली और प्रेम-आनंद की दुनिया बिसारते चले गये।

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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

सोच-विचार

तार्किक, विद्वान, मनीषी अपनी बातों में आम इंसान को ऐसा उलझाते हैं कि बेचारे का दिमाग सुलझने के बजाय और उलझ जाता है। पानी से आधे भरे गिलास के किस्से तो आपने बहुत सुने होंगे। बात आधा खाली और आधा भरा में नकारात्मक और सकारात्मक सोच से काफी आगे तक बढ़ चुकी है। कुछ उदाहरण – प्रोजेक्ट मैनेजर के अनुसार गिलास आवश्यकता से दोगुना बड़ा है, यथार्थवादी के अनुसार गिलास में जितना पानी होना चाहिए उससे आधा है, अवसाद ग्रस्त व्यक्ति हैरान है कि आधे गिलास का पानी किसने पिया? लेकिन इंजीनियर का विचार है कि इतने पानी के लिए गिलास का डिज़ाइन सही नहीं है, चिंताग्रस्त व्यक्ति इस बात की चिंता करेगा कि बचा हुआ आधा पानी भी कल तक भाप बन कर उड़ जाएगा, जादूगर बताएगा कि असल में पानी गिलास के निचले नहीं ऊपरी भाग में है तो भौतिकशास्त्र का ज्ञाता बताएगा कि गिलास आधा खाली नहीं बल्कि आधे में पानी और आधे में हवा भरी है। ये अलग अलग व्याख्याएँ हास्यास्पद भी लग सकती हैं लेकिन चक्कर में डालने के लिए काफी हैं। इसके विपरीत एक प्यासा बिना सोच विचार किए गिलास उठा कर पानी पी जाएगा।

मुंबई निवासी आबिद सुरती के बारे में तो आपने सुना ही होगा। नहीं सुना? शायद किसी तार्किक के तर्क सुनने में व्यस्त रहे होंगे। आबिद, मुंबई निवासी हैं। फुटपाथ पर अपनी जिंदगी गुजारने वाले आबिद ने बूंद-बूंद पानी 

आबिद सुरती
के लिए लड़ाई होती देखी। उनसे रहा नहीं गया।  उन्होंने निश्चय किया कुछ करने का। बिना सोच विचार किए जुट गए जल संरक्षण के कार्य में। २००७ में उन्होंने ठाना और ठाणे जिले के मीरा रोड के १६६६ घरों में घुस गए, ४१४ जल रिसाव को ठीक किया। इसके ऐवज में कुछ नहीं लिया। बल्कि अपने पैसे और समय खर्च करके लाखों लीटर पानी को बहने से बचाया। हर रविवार को वे मुंबई के किसी न किसी इलाके में घरों में घुस कर पानी के रिसाव को रोकने का कार्य अनवरत ढंग से कर रहे हैं।  जब वे किसी अनजान के घर में घुस कर उसके नल के पानी के रिसाव को रोकते हैं तो दरअसल वे लोगों को एक नजरिया देते हैं, जिन्हें यूं तो लोग जानते हैं, कहते हैं, सुनते हैं, लेकिन आबिद का उनके घर जाना उन लोगों पर एक अलग और गहरी छाप छोड़ता है। जाहिर है, सबों का नजरिया नहीं बदलेगा। लेकिन आबिद इस बात पर कोई विचार नहीं करते कि किसी का और कितनों का नजरिया बदलता है। छोटी हो या बड़ी, मिसाल बनाना जरूरी है।

वारेनबफे। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आपने इनका नाम न सुना हो। हाँ वही, दुनिया के सबसे अमीरों में जिनका नाम लिया जाता है। लोग उन्हें शेयर मार्केट का जादूगर भी कहते हैं। एक समय, बचपन में अपने 

वारेन बुफ्फे
दादा की दुकान से च्युइंगम लेकर बेचा करते थे। यहाँ से अपनी जिंदगी का सफर प्रारम्भ कर वे वहाँ तक पहुँचे जहाँ तक पहुँचने का ख्वाब हर बच्चा-बूढ़ा-जवान देखता है। उनके जीवन की एक सच्चाई यह भी है कि बिना किसी सोच-विचार के उन्होंने अपनी संपत्ति का ८५ प्रतिशत हिस्सा दान कर दिया। यह है मिसाल कुछ नहीं से बहुत कुछ बनने का, साथ ही सारी पूंजी को दान में देने का भी।

एक बार किसी विश्वविद्यालय में मानवीय मूल्यों पर अंतरराष्ट्रीय विचार विमर्श चल रहा था। देश-विदेश से अनेक मनीषी वहाँ जमा थे। भूटान प्रमुखता से इसमें रुचि एवं हिस्सा ले रहा था। वहीं भूटान के रॉयल यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति भी उपस्थित थे। उनसे एक साधारण सा प्रश्न पूछा गया, आखिर कैसे भूटान के लोग इतने खुश मिजाज माने जाते हैं?’ उन्होंने बिना सोच विचार किए, मुस्कुराते हुए जवाब दिया, यह बहुत सरल है। हम अपना धन हथियार खरीदने में खर्च नहीं करते। बल्कि हम धन का प्रयोग बच्चों को शिक्षा देने में खर्च करते हैं। शिक्षा का अर्थ डॉक्टर, इंजीनियर, अर्थवेत्ता, धन कमाने की फ़ैक्टरी आदि बनाने से नहीं है। बल्कि विद्यालय से लेकर कॉलेज तक हम छात्रों को मानवीय मूल्यों की शिक्षा देते हैं। और उन्हें यह भी बताते हैं कि मृत्यु ही असल सत्य है। और उससे भी बड़ा सत्य यह है कि जीवन के समाप्त होने के पहले ही हम उसे भरपूर जी लें। ये भी कि न हथियारों से, न धन से कुछ हासिल होता है।  

भूटान में जीडीपी (ग्रौस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट) नहीं जीएनएच (ग्रौस नेशनल हैप्पीनेस्स) को माना जाता है। भूटान में जीने का यह नजरिया आधी शताब्दी से ज्यादा पुराना है। १९७२ में भूटान के चौथे राजा जिग्मे 

जिग्मे वांगचुक
वांगचुक ने देश को यह सौगात दी थी। विश्व में बढ़ते धन के वर्चस्व, हथियार की अंधा-धुंद दौड़ और मानवीय मूल्यों के ह्वास के मद्दे नजर उन्होंने यह नई सोच दी थी। विश्वभर में, पूर्व और पश्चिम हर जगह इसकी चर्चा हुई, शोध हुवे, सोच विचार हुआ। लेकिन इस सोच विचार में ४० वर्ष गुजर गए। आखिरकार जुलाई २०११ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे स्वीकार किया और अपने वैश्विक विकास एजेंडा में इसे शामिल किया। लेकिन आज भी प्राय: पूरा विश्व इस पर सोच विचार ही कर रहा है, हथियार और धन को ही मानक बना उसके पीछे दौड़ रहा है। फलस्वरूप धन है, दौलत है, हथियार है लेकिन सुख, चैन और आनंद नहीं है।

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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

सूतांजली, अप्रैल २०२१

 सूतांजली के अप्रैल अंक का संपर्क सूत्र नीचे है:-

इस अंक में दो विषय, एक लघु कहानी एवं धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी का चौथा अंश है:

१। नववर्ष का चमत्कार

..................... का इंतजार किए, बिना किसी और का मुंह जोहे, चमत्कारी व्यक्ति बनिए। देखिये आपको भी जीवन में चमत्कार दिखने लगेंगे।...................

कौनसा नववर्ष और कैसा चमत्कार? कैसे दिखेंगे हमारे जीवन में चमत्कार? पढ़िये नीचे दिये गए लिंक पर

२। अपने अंदर एंटिवाइरस हमें लगाना है

.................... हमारे अपने अनुभवों  से हमारे विचार प्रभावित होते हैं। विशेष कर सुबह उठते ही और रात को ठीक सोने के पहले हमने जो पढ़ा-सुना उसका सबसे ज्यादा असर होता है। किसी समय सुबह उठ कर अखबार पढ़ना और सोने के पहले समाचार देखना सही होता रहा होगा। अब नहीं। इससे बचें। इन दो के अलावा वह तीसरी बात जिसका सबसे ज्यादा महत्व है वह है...........

क्या है वह तीसरी बात? पढ़िये नीचे दिये गए लिंक पर

३। पहचान

एक युवक ईश्वर से मिलना चाहता था। उसने प्रार्थना की, ईश्वर मुझसे बात करो। तभी एक........

कैसी पहचान? किससे पहचान? कैसे पहचानें? पढ़िये नीचे दिये गए लिंक पर

४। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी

पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल बंद में थे। जेल के इस जीवन का, श्री अरविंद ने कारावास की कहानी के नाम से, रोचक वर्णन किया है। अग्निशिखा में इसके रोचक अंश प्रकाशित हुए थे। इसे हम जनवरी माह से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इस कड़ी में यहाँ इसका चौथा अंश है।

 संपर्क सूत्र (लिंक): -> https://sootanjali.blogspot.com/2021/04/blog-post.html

 ब्लॉग में इस अंक का औडियो भी उपलब्ध है।