(आज
हमारे अपने देश में जो हाल हमारी भारतीय भाषाओं का हो रहा है, किसी समय वही हाल इंग्लैंड में अँग्रेजी भाषा का भी था। जिस प्रकार हमारी
भारतीय भाषाओं और संस्कृति पर अँग्रेजी भाषा और पाश्चात्य संस्कृति का दब-दबा और रोब
है किसी समय अँग्रेजी पर फ्रेंच भाषा और संस्कृति का दब-दबा था। कालांतर में वहीं
के निवासियों, विद्वानों, साहित्यकारों
और देश भक्तों ने उस परिस्थित को पलट दिया और फिर से अँग्रेजी को अँग्रेजी का
सम्मान प्रदान कराया। देखना यह है कि क्या हम भी अंग्रेजी को उखाड़ फेंकने में
कामयाब होंगे? २०१४
में स्व.गिरिराज किशोर का एक लेख एक हिन्दी पत्रिका में छापा था। प्रस्तुत उद्धरण
उसी लेख से लिया गया है)
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गिरिराज किशोर |
फ्रेंच
बनाम इंगलिश
मैं हिन्दी
के संकट की बात नहीं करना चाहता, अँग्रेजी के संकट की बात करना
चाहता हूँ। अब अँग्रेजी की बात के माध्यम से अपनी बात समझाऊंगा। मैंने डॉ. गणपतीचंद्र गुप्त पूर्व कुलपति का एक लेख पढ़ा था। उसका शीर्षक था ‘इंग्लैंड में अँग्रेजी कैसे लागू की गई’। उसके कुछ
संदर्भ आपके सामने रखूँगा। अँग्रेजी को, अपने आप को बनाए
रखने की जद्दोजहद, हिन्दी से भी बदतर थी।
इंग्लिश
इंग्लैंड की प्राचीन भाषा रही है। वस्तुत: इंग्लिश के कारण ही इंग्लैंड का नाम
इंग्लैंड पड़ा। इंग्लैंड के कारण इंग्लिश, इंग्लिश नहीं थी। १०वीं
शताब्दी तक यह समूचे राष्ट्र की बहुमूल्य भाषा के रूप में प्रचलित थी। किन्तु ११वीं
शताब्दी के उत्तरार्ध में एकाएक ऐसी घटना घटित हुई, जिसके
कारण इंग्लैंड में ही अँग्रेजी का सूर्य अस्त होने लगा। बात यह हुई कि १०६६ में
फ्रांस के उत्तरी भाग – नौरमैंडी के निवासी नॉर्मन लोगों का इंग्लैंड पर आधिपत्य
हो गया। उनका नायक ड्यूक ऑफ विलियम, इंग्लैंड के तत्कालीन
शासक हेराल्ड को युद्ध में पराजित करके स्वयं सिंहासनारूड़ हो गया और तभी से
इंग्लैंड पर फ्रेंच भाषा और फ्रांसीसी संस्कृति के प्रभाव की अभिवृद्धि होने लगी, क्योंकि स्वयं नोर्मंस की भाषा और संस्कृति पूर्णत: फ्रेंच थी।
शासक वर्ग
की भाषा फ्रेंच हो गई, तो स्वाभाविकत: न केवल सारा राज-काज फ्रेंच में होने लगा, वरन शिक्षा, धर्म एवं समाज में भी अँग्रेजी के
स्थान पर फ्रेंच प्रतिष्ठित होने लगी। उच्च वर्ग के जो लोग सरकारी पदों के अभिलाषी
थे या जो शासक वर्ग से मेल-जोल बढ़ाकर अपने प्रभाव में अभिवृद्धि करना चाहते थे, वे बड़ी तेज गति से फ्रेंच सीखने लगे तथा कुछ ही वर्षों में यह स्थिति आ
गई कि धनिकों, सामंतों, शिक्षकों, पादरियों, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों आदि
सबने फ्रेंच को ही अपना लिया और अँग्रेजी केवल निम्न वर्ग के अशिक्षित लोगों, किसान और मजदूर की भाषा रह गई। अपने आपको शिक्षत कहने या कहलाने वाले
केवल फ्रेंच का ही प्रयोग करने लगे और अँग्रेजी जानते हुए भी अँग्रेजी बोलना अपनी
शान के खिलाफ समझने लगे। यह दूसरी बात है कि कभी-कभी उन्हें अपने अनपढ़ नौकरों या
मजदूरों से बात करते समय अँग्रेजी जैसी ‘हेय’ भाषा में भी बोलने को विवश होना पड़ता था।
आगे चलकर
इंग्लैंड नॉर्मन के आधिपत्य से तो मुक्त हो गया, किन्तु उनकी
भाषा के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाया। इसका कारण यह था कि जिन अंग्रेज राजाओं का
अब इंगलैंड में शासन था, वे स्वयं फ्रेंच के प्रभाव से
अभिभूत थे। जैसे भारत आजादी के बाद अँग्रेजी का गुलाम था। हमारे देश में भी आजादी
के बाद जो शासकों और बुद्धिजीवियों की खेप आई, मंत्रियों से
लेकर आई सी एस और कुलपतियों तक, अँग्रेज़ीदाँ थी, जो अपनी भाषा को वर्नाक्युलर से अधिक नहीं समझते थे। आज भी ज्यादा बेहतर
स्थिति नहीं है। बंगाल में जगदीश चन्द्र बसु ने जरूर अपनी रिसर्च संबंधी पुस्तक
मूल रूप से बांग्ला में लिखी थी। उन्हीं के नाम पर आज बोसॉन पार्टिकल यानि गॉड
पार्टिकल की खोज हो रही है। इतना ही नहीं, अंग्रेज़ राजाओं से
कुछ का ननिहाल फ्रांस में था, तो किसी का ससुराल पेरिस में
थी। अनेक राजकुमारों और सामंतों ने बड़े यत्न से पेरिस में रहकर फ्रेंच भाषा सीखी
थी, जिसे बोलकर वे अपने आपको उन लोगों की तुलना में अत्यंत ‘सुपीरियर’ समझते थे, जो बेचारे
केवल अँग्रेजी ही बोल सकते थे। दूसरे, उस समय फ्रेंच भाषा और
संस्कृति सारे यूरोप में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी।
फिर
अँग्रेजी की तुलना में फ्रेंच साहित्य इतना समृद्ध था कि उसे विश्व-ज्ञान की
खिड़की ही नहीं, ‘दरवाजा’ कहा जाता था। ऐसी
स्थिति में भले ही इंग्लैंड स्वतंत्र हो गया हो, पर वहाँ
अँग्रेजी की प्रतिष्ठा कैसे संभव थी? हम भी इसी पीड़ा को भोग
रहे हैं।
धीरे-धीरे अँग्रेजी के पक्ष में लोकमत जागृत हुआ और १३६२ में
पार्लियामेंट में एक अधिनियम ‘स्टेच्यूट ऑफ प्लीडिंग’ (अधिवक्ताओं का अधिनियम) पारित
हुआ, जिससे इंग्लैंड के न्यायालयों में भी अँग्रेजी का
प्रवेश संभव हो गया। हालांकि इस अधिनियम का भी उस समय के बड़े-बड़े न्यायाधीशों तथा
अधिवक्ताओं ने भारी विरोध किया, क्योंकि अँग्रेजी में न्याय
और कानून संबंधी पुस्तकों का सर्वथा अभाव था, फिर भी तर्क
दिया गया कि ऐसी स्थिति में कैसे बहस की
जा सकेगी और कैसे न्याय सुनाया जाएगा। एक देशी भाषा के लिए न्याय की हत्या की जा
रही है। (हम भी कुछ ऐसी ही स्थिति में हैं।) अत: वैधानिक दृष्टि से भले ही
अँग्रेजी को मान्यता मिल गई, किन्तु कचहरियों का अधिकांश कार्य
फ्रेंच भाषा में ही चलता रहा।
१४वीं
शताब्दी में न्यायालयों के अतिरिक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों में भी अँग्रेजी
का पठन-पाठन प्रचलित हुआ। १५वीं-१६वीं शती में अँग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें
लिखना विद्वानों की दृष्टि से हेय समझा जाता था तथा जो ऐसा करने का प्रयास करते थे, वे अपनी सफाई में कोई-न-कोई तर्क देने को विवश होते थे। इसकी तुलना हमारे
मध्यकालीन हिन्दी के आचार्य केशवदास की मन:स्थिति से की जा सकती थी, जिन्होंने अपनी एक रचना में लिखा था –
‘हाय,
जिस कुल के दास भी
भाषा (हिन्दी) बोलना नहीं
जानते
(अर्थात वे भी संस्कृत में
बोलते हैं),
उसी कुल में मेरे जैसा मतिमंद
कवि हुआ,
जो भाषा (हिन्दी) में
काव्य-रचना करता है”।
वस्तुत: जब
कोई राष्ट्र विदेशी संस्कृति एवं भाषा से आक्रांत हो जाता है तो उस स्थिति में
स्वदेशी भाषा एवं संस्कृति के उन्नायकों में आत्मलघुता या हीनता की भावना का आ
जाना स्वाभाविक है। बड़े विचित्र तर्क हेव्ज की तरफ से फ्रेंच भाषा के पक्ष में
दिये जाते थे जैसे इंग्लैंड की सभी सुशिक्षित महिलाएं एवं भद्र्जन अपने प्रेम पत्र
का आदान-प्रदान फ्रेंच में करते हैं।
(फिर ऐसा क्या
और क्यों हुआ कि अंग्रेज़ इंग्लैंड में से फ्रेंच को हटा कर अँग्रेजी को अपनी
प्रतिष्ठा दिलवाने में कामयाब हुए और कालान्तर में विश्व के अनेक देश यह भ्रम
पालने लगे कि बिना अँग्रेजी के उनकी गति नहीं। दुर्भाग्य से हमारा देश भी विश्व के
उन भ्रमित देशों में से एक है। हम केवल अपनी भाषा ही नहीं सभ्यता और संस्कृति का
भी अनवरत ह्वास और लोप होता देख रहे हैं। यह जानने और समझने तथा समझ कर फिर करने
की आवश्यकता है। पढ़िये अगले अंक में, अगले सप्ताह, इसके आगे की कड़ी - इंगलिश बनाम हिन्दी ।)
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