इस आश्रम में आने की इच्छा तो 2020 के मार्च से ही थी लेकिन कभी कोरोना और कभी व्यक्तिगत कारणों से आना न हो सका। आखिर सब नकारात्मक विचारों को दरकिनार कर जुलाई, 2021 की गर्मी में हम यहाँ पहुँच ही गए। ‘सूर्य देव’ ने पूरे उत्साह से हमारा स्वागत किया। हमने भी आत्मसमर्पण करते हुए उनके स्वागत को स्वीकार किया। शीघ्र ही ‘वरुण देव’ को हमारे स्वागत में लगा, सूर्य देव ने खुद भी साँस ली और हमें भी थोड़ी राहत दी।
किसी भी आश्रम में, बिना किसी विशेष प्रयोजन के इतने लंबे समय तक रहने का पहला अनुभव है। इसके पहले पूना के नजदीक चिन्मय मिशन के ‘चिन्मय विभूति’ में भी लंबे समय तक ठहरने का मौका मिला। लेकिन वहाँ ‘गीता-ज्ञान-यज्ञ’ और फिर ‘सम्पूर्ण-मानस’ के आयोजन में गया था। लेकिन यहाँ आने का प्रयोजन केवल ‘आश्रम’ में रहना और यहाँ के कार्यों में हाथ बँटाना है।
अब नाम में ‘आश्रम’ है तो आश्रम तो कहना ही पड़ेगा। लेकिन एक आम भारतीय के मन में आश्रम के नाम से जो छवि उभरती है वैसा कुछ नहीं है। न कोई भजन-कीर्तन, न प्रवचन-गोष्ठी, न कोई मंदिर-पुजारी, न कोई विशेष वेश-भूषा, न कोई विशेष सम्बोधन। उम्र चाहे जो भी हो, चाहे जो पद हो, ट्रस्टी हो या सफाई पर्मचारी, सब या तो ‘भैया’ हैं या ‘दीदी’। प्रत्येक आश्रमवासी अपनी योग्यतानुसार किसी-न-किसी प्रकार का सहयोग करता रहता है और आश्रम का काम बढ़ता रहता है। प्रात:, सूर्योदय के साथ-साथ उठकर कमरे से बाहर आश्रम के उद्यान में आयें तो प्रशिक्षण के लिए आए हुए बालक-बालिकाओं, युवक-युवतियों और आश्रमवासियों के दर्शन होंगे। आश्रम के खेतों में, बगीचे में, समाधि पर, भवन में सब मिलकर एक साथ ‘श्रमदान’ करते हैं। इससे परिसर स्वच्छ और परिष्कृत बना रहता है। विशेष अवसरों, तिथियों एवं त्यौहारों पर ये सब ही मिलकर सजावट करते हैं और सुंदर, मनमोहक, आध्यात्मिक कार्यक्रम भी प्रस्तुत करते हैं। तत्पश्चात सब अपने-अपने दैनिक कार्य, शिक्षण-प्रशिक्षण और उत्तरदायित्व के निर्वाह में तल्लीन हो जाते हैं। बड़े भू-खंड पर प्रकृति की छटा बिखरी हुई है। न जाने कितने किस्म के फल-फूल, सब्जी की हरियाली, सुगंध और सुंदरता हर वक्त चारों तरफ बिखरी रहती है। आपका मन, आपकी आत्मा के अनुसार जिसे पसंद करता है उठा लेता है, उसी में सरोबार हो जाता है, उसी का आनंद लेता है। सादगी पूर्ण सीधा-सादा जीवन। आश्रम भरा रहता है लोगों से, लेकिन किसी की आवाज़ नहीं सुन पड़ती। नहीं, गलत कह गया, आश्रम में बहुत ‘शोर’ है। दिन भर मोर, तोते, कोयल, मैना, गिलहरी और न जाने कितने पशु-पक्षियों के दर्शन होते रहे हैं और उनका संगीत कानों में पड़ता रहता है। जब सब एक साथ बोल उठते हैं तब तो ऐसा लगता है जैसे कई साज़ एक साथ बज उठे हों, संगीतज्ञों की महफिल सजी हो। कभी-कभी तो युगलबंदी भी सुनने को मिलती है। पूरी तरह से स्वच्छंद, उन्मुक्त, स्वतंत्र खुले आसमान के नीचे एक पक्षी-गृह। किसी एक जगह बैठ कर दत्तचित्त हो कर गिलहरियों या पक्षियों की भाग-दौड़, चुहुल-बाजी, अटखेलियाँ देखिये। तुरंत आपको इसमें एक लय-बद्धता नजर आयेगी। रूसा-रूसी, मान-मुनव्वल, प्यार-मुहब्बत, दौड़ा-दौड़ी, पकड़ा-पकड़ी, खेल-कूद ही नहीं मार-पीट और झगड़े भी दृष्टिगोचर होंगे। सृष्टि के सिद्धांत के अनुसार सृष्टिकर्ता ने मानव के पहले पशु-पक्षी का निर्माण किया था। अत: यह निश्चित है कि मानव नहीं ये पशु-पक्षी ही मानव के शिक्षक रहे हैं। वह
फकीर फकीर नहीं, जो दिल का अमीर नहीं,
वह अमीर अमीर नहीं, जो दिल का फकीर नहीं।
अमीर और फकीर शब्द का इससे बढ़िया प्रयोग मैंने न देखा और न सुना। आपने अनेक अमीरों का नाम सुना है जो फकीर नहीं हैं, अनेक फकीर हुए हैं जो अमीर नहीं हैं। वहीं ऐसे अमीर भी हैं जिन्होंने फकीरी की है तो ऐसे फकीर भी हैं जो अमीर हैं। देशी अमीर, जिन्होंने फकीरी भी की, हैं - टाटा, मूर्थी, अजीमजी आदि। तो विदेशियों में बिल गेट्स, मार्क जुकरबर्ग, वारेन बुफ़्फ़ेत्त, जॉर्ज सोरोस आदि का नाम ले सकते हैं। इन्होंने ‘मिलियन-बिलियन’ का दान दिया लेकिन ‘मिलियन-बिलियन’ रख भी लिया। अपना सर्वस्व देने वाले कितने और कौन हैं? ऐसा नहीं है कि नहीं हैं लेकिन उन्हें दुनिया कम जानती है। सर्वस्व यानि – अपना सब कुछ – तन, मन, धन – बल्कि इससे भी आगे बढ़ कर खुद को ही नहीं बल्कि अपने परिवार और बच्चों तक को ‘दान’ में दे दिया। खोजिए, शायद कोई- न-कोई मिल ही जाएगा।
अभी, पिछले एक महीने से मैं ऐसे ही एक अमीर-फकीर द्वारा दान में दी गई संपत्ति, जिसे आज हम श्री अरविंद आश्रम-दिल्ली शाखा के नाम से जानते हैं, में रह रहा हूँ। और जिस ‘फकीर’ की बात कर रहा हूँ वे थे श्री सुरेन्द्र नाथ जौहर, जिन्हें सब ‘चाचाजी’ के नाम से जानते हैं। कब, कहाँ, कैसे प्रेरणा मिली और
उन्होंने अपना सर्वस्व श्रीमाँ के चरणों में अर्पित कर दिया! जब-जब बच्चे हुए, उन्हें भी श्रीमाँ की गोद में दे आए। उनकी इच्छा थी कि दिल्ली छोड़ कर पांडिचेरी चले जाएँ, लेकिन श्रीमाँ ने ही उन्हें रोका, दिल्ली में शाखा प्रारम्भ करने कहा। और व्यापार? श्रीमाँ ने साफ शब्दों में कहा, ‘यह पूरा कारोबार अब से मेरा (श्रीमाँ का) है और वे (चाचाजी) उनके व्यापस्थापक के रूप में कार्य संभालेंगे’। उसके बाद से सभी अहम फैसले श्रीमाँ की जानकारी नहीं अनुमति से ही लिए जाते थे। और तो और पदाधिकारियों की नियुक्ति भी श्रीमाँ की मंजूरी से ही होती थी। कई व्यापारिक फैसले, जिन्हें चाचाजी ले चुके थे, को श्रीमाँ ने अनुमति नहीं दी। फलत: चाचाजी को अपना फैसला बदलना पड़ा। कुछ समय बाद चाचाजी को अनुभव हुआ कि वे फैसले गलत थे और उन्हें रद्द कर देने के कारण वे बहुत बड़े घाटे / धोखे से बच गए।
पहले किसी से बात होती थी तो मैं कहता था कि मैं दिल्ली में हूँ। लेकिन अब नहीं कहता, बताता हूँ कि में श्री अरविंद आश्रम में हूँ। दोबारा पूछने पर बताता हूँ कि यह आश्रम दिल्ली की सहरद में है लेकिन दिल्ली में नहीं। यहाँ न दिल्ली का शोरगुल है, न प्रदूषण, न दिल्ली की भाषा, न दिल्ली की संस्कृति। यहाँ पूरे भारत के लोग आते हैं, रहते हैं, पूरा भारत बसता है। विदेशियों की भी कमी नहीं रहती। फिलहाल अभी कोरोना के चलते विदेशी नहीं दिखते।
सच, अगर आगमन के साथ ही सूर्यदेव के स्वागत से डर कर हम पलायन कर जाते तो
जीवन के इस एक अप्रतिम अनुभव से वंचित रह जाते। चाचाजी,
श्रीमाँ और श्री अरविंद को सत-सत प्रणाम।
श्रीअरविंद का दर्शन, श्रीमाँ का आशीर्वाद और चाचाजी की फकीरी को श्रद्धा सुमन।
जगत
की जननी जगत की माता, नमस्ते पहुँचे
तुम्हें हमारा |
जगत
के आधार विश्वकर्त्ता, नमस्ते पहुँचे
तुम्हें हमारा ||
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सुरेन्द्रनाथ जोहर 'फ़क़ीर'
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सकते हैं।
2 टिप्पणियां:
बहुत ही सुन्दर सटीक वर्णन किया है आपने आश्रम का. मुझे यहां कुछ दिन रहने का अवसर मिल चुका है. ध्यान एवं शांति के लिए दिल्ली के सर्वोत्तम स्थान में से एक है यह आश्रम.
इस पोस्ट पर मुझे व्हात्सप्प पर अनेक टिप्पणियाँ प्राप्त हुई हैं –
1। संदीप लोधा – बहुत खूब भैया। बहुत अच्छा अनुभव
2। इन्हें पसंद आया –
सर्वश्री आशीष करनानी, गिरधारी चमरिया, नवीन बैरोलिया, प्रो प्रेम आनंद मिश्र, रमाकांत गट्टानी, संजय हरलालका,
सुश्री डॉ तारा दुग्गर, रुचि टंडन,
3। डॉ अपर्णा रॉय – बहुत प्रभावशाइ प्रस्तुति। भैया, आनंद आ गया। आप कहें तो ........ में डाल दिया जाए। मोहक भी।
4। श्रीमती रश्मि करनानी – बहुत खूब सूरत लिखा है। मन वहाँ जाने का हो गया। ऐसे ही अपनी लेखनी से हमें अवगत कराते रहिये।
5। किरीट पटेल – सुंदर
6। पवन अगरवाल – महेशजी, आपके लेख ने मानो आश्रम को आंखो के सामने ला दिया। मैं पुणे में हूँ संभव हुआ तो अवशय होकर जाऊंगा।
7। संजय लोधा – अच्छा है
8। श्रुति डोकानीया – बहुत ही सुंदर वर्णन ..... खुद वहाँ होने का अहसास हो रहा है।
9। अदित्य बूबना – सही एवं सुंदर वर्णन
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