पूरी दुनिया की तस्वीर बदल सकता है,
आदमी सोच
तो ले उसका इरादा क्या है?
जब-जब
हमने इरादे मजबूत किये, हमने दुनिया को बदलते देखा है। इरादे मजबूत हों तो आदमी दुनिया बदल सकता है,
धरती को स्वर्ग बना सकता है। बस इरादे की ही तो कमी है।
सड़क मार्ग पर यात्रा करना किसी के लिए भयावह
है तो किसी के लिए रोमांचकारी। ऐसी यात्रा में नई कठिनाइयाँ हैं, बड़े खर्च हैं तो इसमें नये अनुभव हैं बड़े आनंद हैं। बचपन से ही मुझे सड़क
मार्ग से यात्रा करने की आदत रही है। पिता के साथ ऐसी अनेक यात्राएँ की हैं। लेकिन
उन सब यात्राओं में ड्राइवर भी रहा करता था। ये यात्राएँ छोटी – देवघर, रांची, धनबाद- और लंबी –
इलाहाबाद, काठमाण्डू तक, दोनों प्रकार की
हुई।
फिर, कई दशकों तक, नून-तेल-लकड़ी, के भंवर में फंस कर ऐसी यात्राएँ स्थगित हो गई थी। लेकिन पिछले दो-अढ़ाई
दशकों से मेरी ये यात्राएँ फिर से प्रारम्भ हो गईं। ये यात्राएँ बिना किसी ड्राइवर
के हुईं लेकिन प्रायः कम दूरी की यात्राएँ रहीं – पूरी, जसीडिह, दीघा, रांची, सिमलीपाल या फिर
गोपालपुर आदि की। बड़ी दूरियाँ तय करने की मन में तमन्ना रहती थी, मंसूबे बाँधता था लेकिन साहस
नहीं होता था – न ड्राइवर है, न ही कोई संगी साथी, अनजान सड़क, अनजान जगह, ढलती
उम्र। बुद्धि तर्क पर तर्क देती और हिम्मत टूट जाती। छोटी-छोटी यात्राएं तो कीं
लेकिन लंबी यात्राओं के केवल सपने देखता रहता और मन-मसोस कर रह जाता। एक दिन अचानक
पता चला कि मेरी डॉक्टर गाड़ी से लम्बी-लम्बी यात्राएँ करती हैं, कई वर्षों से और वर्ष भर में कई बार। तुरंत उनसे संपर्क किया। उन्होंने
प्रोत्साहित करते हुए कहा कि मैं शारीरिक और मानसिक रूप से लम्बी यात्रा करने में सक्षम हूँ। मैं अनावश्यक ही डर
रहा हूँ। मेरे सभी नकारात्मक सोच को नकारते हुए उसने बताया कि वे दो ड्राइवर होते
हैं और मैं एक अकेला, इससे क्या फर्क पड़ता है? सिर्फ इतना कि वे प्रतिदिन कुछ घंटे और कुछ किलोमीटर ज्यादा चल लेते हैं
और मुझे कुछ कम जाना होगा, बस। उनके प्रोत्साहित करने पर
मैंने तुरंत, 2018 में, 2500 कि.मी. का
कार्यक्रम बनाया, छत्तीसगढ़ घूमने का। दुर्भाग्यवश परिवार में
एक दुर्घटना के कारण फिर यह कार्यक्रम केवल कागजों पर ही रह गया। आखिर 2021 में यह
फिर से मुहूर्त बना और कोलकाता से विशाखापत्तनम और फिर वहाँ से दिल्ली तक का
कार्यक्रम बना कर हम, मैं और मीनू,
शुक्रवार, 13 नवंबर 2021 प्रातः 5 बजे अपनी यात्रा के प्रथम
चरण पर निकल पड़े – कोलकाता से विशाखापत्तनम।
घर से
निकले तब अंधकार था, धूलागड़ तक पहुँचते-पहुँचते पौ फट चुकी थी, आसमान
में बादल छाए हुए थे, हलका कोहरा छाया हुआ था, बिजली के तारों पर पक्षियों का झुंड बैठा कलरव कर रहा था। हरियाली आँखों
को सुख प्रदान कर रही थी। मौसम सुहावना, आनन्द-दायक और
उत्साहवर्द्धक था। इस चरण की पूरी यात्रा
राष्ट्रीय मार्ग (नेशनल हाईवे) पर ही होनी थी अतः किस रास्ते से जाएँ, कौन-सा
विकल्प चुनें, इसका प्रश्न
नहीं था – ‘राह पकड़ तू एक चला-चल पा जाएगा तू’ ......भुवनेश्वर । कोलकाता से राष्ट्रीय
मार्ग लेने के लिए हर समय कोना एक्सप्रेस पकड़ा करता था। लेकिन इस बार उसे छोड़
अंदुल रोड से निकला। निर्णय सही रहा। बिना रुके, न
ट्रैफिक न सिगनल। कोना एक्सप्रेस पर संतरागाछी
के नजदीक रोज सुबह लंबा जाम लगा करता है। इसमें फंसा हुआ हूँ और यही जानकारी मिली
अत: उसे छोड़ नए मार्ग को अपनाया। आदतन
पुरातन से चिपके रहना उचित नहीं,
आवश्यकतानुसार पुरातन को छोड़ नूतन को अपनाना चाहिए। यही
विकास,
उन्नति का मार्ग है, यही सनातन है।
राह में ‘होटल खुशी’ पर नाश्ते के लिए रुके। वैसे तो हमारे पास खाने का सब था फिर भी थोड़ा
आराम करने और हाथ-पैर को खोलने हम रुक ही गए। पता चला कि बिना प्याज-लहसुन के
सिर्फ पनीर की ही सब्जी है, मन दाल लेने का था, लेकिन विकल्प नहीं था और वहाँ से अब उठने का मन भी नहीं हो रहा था। होटल
वाले ने हमारे मन की बात ताड़ ली और कहा, ‘मैं झूठ नहीं बोलूँगा, मेरे पास तो बिना प्याज-लहसुन की सब्जी में केवल यही है।’ उसकी सरलता ने मन मोह लिया और हम उसके तख्त पर पसर गए। पनीर की सब्जी
वाकई लाजवाब थी। रंग अजीब सा था, लेकिन स्वाद में गजब था।
पहला पड़ाव भुवनेश्वर के आसपास करना था।
मन निश्चित नहीं था। ऊहापोह में था – पहला दिन है, अगर समय से
पहुँच गए और ऊर्जा रही तो भुवनेश्वर से आगे जाने का विकल्प मन में था। लेकिन फिर
विशाखापत्तनम से संदीप का फोन आया, उसने सुझाव दिया और यह
भ्रम दूर हो गया। मुझे विशाखापत्तनम तक ही जाना है, एक दिन
में जा नहीं सकते, भुवनेश्वर मध्य में है और यहाँ ठहरने-खाने
के अनेक विकल्प हैं, अतः वहीं ठहरना उचित है। बात सही थी। संदेह
मिटा, निर्णय हुआ, उत्साह और हिम्मत आ
गई, चिंता मिटी। स्पष्ट निर्णय, लक्ष्य को साधता है, अस्पष्टता बुद्धि को भ्रमित
करती है। बालासोर के बाद वर्षा मिलने के कारण हम
कहीं रुक नहीं सके, बढ़ते चले गए।
3 ही बज थे अतः शहर के अंदर, लिंगराज मंदिर के समीप ओड़ीसा सरकार के पंथनिवास में ठहरने का मन बनाया। पहुँच
कर निराशा हुई। बात यह हुई कि कुछ समय पहले ही उन्होंने बड़ा बदलाव करते हुए अपने सब
कमरों को सुपर डीलक्स में परिवर्तित कर दिया था। सिर्फ एक रात के लिए इतने पैसे
देने का मन नहीं बना। वहाँ से निकल कर राष्ट्रीय मार्ग के नजदीक ही ‘होटल साई जग्गनाथ’ में ठहर गए। जगह साफ-सुथरी थी और
थकावट भी आने लगी थी। मन कम होने पर भी यहीं रुक गए। यहाँ खाने की व्यवस्था नहीं
है। बाहर से व्यवस्था कर देते हैं। खाना अच्छा देते हैं लेकिन समय का पर कोई
नियंत्रण नहीं। दूरी और प्रातः मंदिर के
खुलने का समय न मालूम पड़ने के कारण लिंगराज के दर्शन नहीं हो सके। जगह बहुत पसंद
नहीं आई, लेकिन बुरी भी नहीं है। ओड़ीसा तक का रास्ता ठीक-ठाक
है। राष्ट्रीय मार्ग के स्तर का कहीं भी नहीं है। बालासोर के बाद रास्ता रख-रखाव, नए निर्माण आदि के कारण जगह-जगह परिवर्तन (diversion) किए गए हैं, दुःख की बात यह है कि ये परिवर्तित मार्ग, संकड़े हैं बम्प्स से भरे हुए हैं – दो या तीन एक साथ – और खराब अवस्था
में हैं। हमारे देश में,
हर जगह दशकों से यही प्रथा है, इसे ठीक से क्यों नहीं
बनाया जा सकता? इस पर क्यों ध्यान नहीं दिया जाता, आश्चर्य है? इस मार्ग पर खाने की अच्छी सुविधा /
विकल्प भी नहीं मिली। लेकिन गुजारा हो गया।
दूसरे दिन सुबह 7 बजे निकले। होटल वाले
कोई व्यवस्था नहीं कर सके अतः बिना चाय
पीये ही निकले। प्रथम दो घंटे परेशान रहे। वर्षा, टूट-फूट, मरम्मत ने बड़ा तंग किया। लेकिन उसके बाद, आंध्रा
में सड़क सिल्की मिली। न चाहने पर भी गाड़ी की रफ्तार बार-बार 100 किमी तक पहुँच रही
थी और पता ही नहीं चल रहा था। परेशानी यह थी कि कहीं खाने की सही जगह नहीं मिल रही
थी। हर जगह दक्षिण भारतीय भोजन, चावल-सब्जी। विशाखापत्तनम
में बैठा संदीप भी गूगल देख कर बता रहा था लेकिन शायद कोरोना के समय वे स्थान बंद हो चुके थे। उनका अस्तित्व नहीं मिला। फ़ेस
बूक के एक दल ने बताया था कि खुर्दा में आस-पास अनेक अच्छी मिठाइयों की दुकानें
हैं। कटक के पास तो हैं, हमें मिली भी,
लेकिन इधर ऐसा कुछ नहीं था। एक-दो जगह रुक कर ताका-झांकी भी की लेकिन कहीं रुकने
का मन नहीं बना। आखिर एक जगह गाड़ी लगाई, होटल वाले से गाड़ी
में ही देने के लिए कहा, उसने चावल और दक्षिण भारतीय सब्जी
दी। उसी से संतोष कर आगे बढ़े। हल्की-तेज वर्षा मिलती रही। इस कारण प्रकृति नहा-धो
सज-संवार कर नृत्य करती मिली। वर्षा काल में सफर के अगर अपने कष्ट और डर हैं तो
इसका अपना आनंद और सुख भी है। मैंने कहीं पढ़ा-सुना था – हम सुख, शांति, ऐश्वर्य और समृद्धि की चाह रखते हैं, लेकिन क्या ये चारों एक साथ रह सकते हैं? जैसे धूप
और छाँह, अग्नि और जल, जीवन और मृत्यु
एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही सुख,
शांति, ऐश्वर्य और समृद्धि एक साथ नहीं रह सकते हैं। कुछ
पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। क्या लेना है और क्या छोड़ना,
अगर यह स्पष्ट है तो फिर कष्ट नहीं, दुख नहीं। इस ज्ञान का
अभाव ही हमें दुःख देता है। जीवन में यह अनिश्चितता ही दुर्घटना का कारण बनती है।
वैसे तो भुवनेश्वर से विशाखापत्तनम तक भी सीधा राज-मार्ग है। लेकिन मैंने पूरे रास्ते
गूगल मैप खोल रखा था। कई जगह मैप ने विकल्प दिये। लेकिन देखने और चलाने वाला मैं अकेला
ही अतः उस पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन फिर दो बार अलग-अलग जगहों पर विकल्पों को रुक
कर देखा – एक माना, एक नहीं। बाद में समझ आया कि दोनों ही मानना चाहिए था। पहले सुझाव में नए
राष्ट्रीय मार्ग को छोड़ कर पुराने राष्ट्रीय मार्ग से जाने से 15 मिनट बचे। दशकों
पहले की सड़क यात्राओं की याद ताजा हो आई, गाँवों-कस्बों के
बीच से सड़क का गुजरना, बाजार-स्थानीय लोगों से रूबरू होना, संकड़ी कभी टूटी-भांगी तो कभी
रेशमी सड़क मिली। इस विकल्प की लंबाई ज्यादा भी नहीं थी, कोई
परेशानी नहीं हुई। दूसरा विकल्प ग्रहणीय नहीं लगा, अतः उधर
नहीं मुड़ा, लेकिन गूगल बाबा 25 मिनट बचाने की बात कर रहा था।
बाद में समझ आया कि उस मार्ग से शहर के बाहर-बाहर ही चले आने के कारण समय तो बचता
लेकिन शहर देखने-समझने का मौका नहीं मिलता।
शहर को मुख्य मार्ग से पार किया, बहुत सुंदर, साफ सुथरा, हरी-भरी
पहाड़ी के बीच से रास्ता निकाला गया था। शहर उसी पहाड़ी से सटा हुआ था। गाड़ियाँ बहुत
थीं, सिगनल्स भी बहुत लेकिन,
आश्चर्यजनक ढंग से मैंने अनुभव किया कि आवाज नहीं थी, पूरा
वातावरण शांत और आनंदमय था। कहीं कोई हड़बड़ाहट नहीं, खीज नहीं, लोग शांत, वाहन शांति से प्रतीक्षा कर रहे थे। दूसरे
दिन भी जब तेज वर्षा के बाद निकले, पानी के जमाव के कारण यातायात
लगा हुआ था। हमारी गाड़ी हिल भी नहीं रही थी, लेकिन फिर भी कहीं-कोई
आवाज नहीं, शोर-शराबा नहीं, आपा-धापी
नहीं, सब धैर्य पूर्वक इंतजार कर रहे थे। विश्वास ही नहीं
हुआ कि हम भारत में ही हैं। क्या भारत इसे समझ सकता है? ऐसा
बन सकता है? क्या हम एक सभ्य इंसान बन सकते हैं? क्या यह बात समझ में आती है कि ‘स्वर्ग यहीं
है, यहीं है, यहीं है’, आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है।
यात्रा
प्रारम्भ करने के पहले मन में बहुत ऊहापोह थी – करूँ या न करूँ। लेकिन जब ठान लिया, तब निकल पड़े और जब निकाल पड़े तब पहुँच गए।
यात्रा के कुछ
विशेष आंकड़े इस प्रकार रहे :
गाड़ी : “WagonR”
व्यक्ति : दो
– मैं और पत्नी
कुल दूरी : 900 किमी (470 + 430)
समय : पहले
दिन सुबह 5 से शाम 3 तथा दूसरे दिन सुबह 7 से शाम 4 बजे तक
टोल : पहले
चरण में रुपये 590 तथा दूसरे दिन रुपये 400
पेट्रोल : कुल
41 लीटर (22 किमी प्रति लीटर)
अगर
आपके मन में भी है, तो बस सामान बाँधिए और निकल पड़िए, मंजिल स्वतः आसान
हो जाएगी।
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