यात्रा संस्मरण
पुरी, न जाने कितनी बार मैं हो आया हूँ।
मैं क्या मेरा पूरा परिवार प्रयत्न कर के भी गिन नहीं पाएगा – कितनी बार। जब हम
छोटे थे, विद्यालय में थे, तब से हमारे
परिवार के विशेष पर्यटन स्थलों में पुरी भी था। उसके बाद पिछले दो-तीन दशकों में भी अनेक
बार गए हैं – सड़क मार्ग से भी और रेल से भी। लेकिन इस बार की यात्रा अलग भी थी और
कई बदलाव भी नजर आए। अलग इस माने में कि कोरोना के कहर के बाद पुरी की यह पहली यात्रा थी,
हमलोग बारह लोग थे, तीन वयस्क और नौ बच्चे, मैं और मेरी पत्नी गाड़ी से - सड़क मार्ग से गए थे बाकी सब ट्रेन से। कोरोना
के दौरान सरकार-प्रशासन ने कई विकास के कार्य किए हैं।
मार्च 2022 में हम इस यात्रा पर निकले। बंगाल की सड़क ओड़ीशा की
तुलना में बेहतर अवस्था में मिली, पहले बंगाल - ओड़ीशा की बराबरी करने की अवस्था में नहीं था।
लेकिन अभी लंबे समय से ओड़ीशा में जगह-जगह मरम्मत और निर्माण का कार्य चल रहा है।
हाँ, यह निश्चित है कि पिछले यानि 2021 नवम्बर की तुलना में
अब हालत काफी सुधार गए हैं। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि राज मार्ग पर जगह-जगह
बम्प्स तो बना दिये गए हैं लेकिन उसके साथ चालकों को होशियार करने के लिए किसी भी
प्रकार की कोई सूचना-पट्टी (बोर्ड) नहीं हैं। वहीं बंगाल में सड़क ठीक है लेकिन
बेलदा के नजदीक लगभग 5-6 किमी की लंबाई में सड़क तो अच्छी है लेकिन प्रत्येक
100-150 मीटर पर बंप्स बनाए हुए हैं जिनकी ऊंचाई सामान्य से ज्यादा और ढलान
सामान्य से कम है। चालक और यात्री की
अवस्था और कष्ट का अंदाज लगाया जा सकता है। फिर, खड़गपुर के
बाद, लौटते समय, अनेक जगहों पर मार्ग
पर अवरोधक लगा कर सड़कों को संकड़ा कर दिया गया है, कोलाघाट के
बाद अनेक ट्रेफिक सिग्नल हैं जहां ठहराव सामान्य से लंबा है,
कोना-एक्स्प्रेस्स मार्ग के हालात तो खस्ता हैं। जाते समय,
सुबह में तो यह रास्ता लिया ही नहीं जा सकता, अंडूल रोड से
जाना ही सही निर्णय है। कई दशकों से यही हाल है, और सरकार
बेखबर। कोशिशों में लगी है लेकिन कार्य और प्रगति न्यूनतम स्तर पर है और योजनाएँ
तो है ही नहीं। आने वाले समय की तो बात छोड़ ही दें अभी वर्तमान की आवश्यकताओं के
लिए भी नाकाफी हैं। कोलकाता से पुरी तक का
टोल खर्च आता है 705 रुपए, इसके बाद अप्रैल से इनमें बढ़ोतरी
भी हुई है। उधर, ओड़ीशा में, भुवनेश्वर
के बाद पुरी तक का मार्ग कई वर्षों पहले
ही 4-वे कर दिया गया था, अब एक वैकल्पिक मार्ग भी तैयार कर
दिया गया है जिससे होते हुए बिना पुरी में
प्रवेश किए सीधे, चैरिएट होटल के बगल से होते हुए, समुद्र तट तक पहुंचाने का 4 मार्ग का चौड़ा सपाट रास्ता। एक आश्चर्य की
बात है कि इस पूरे राज-मार्ग पर, कोलाघाट के बाद कहीं भी
खाने की सही व्यवस्था नहीं है। केवल कोलकाता से 100 किमी के अंदर ही कई अच्छे ढाबे
हैं। पिछली कई यात्राओं की तुलना में मैंने यह बात साफतौर पर महसूस की है कि इस
मार्ग पर निजी वाहनों के यातायात में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। आशा करता हूँ कि
शायद जल्दी ही किसी की नज़र पड़ेगी और अच्छे ढाबे की शुरुआत होगी। यह तो हुई सड़क
मार्ग की बात।
अब अगर रेल मार्ग की बात करूँ तो दो विशेष ध्यान देने की बात
है। पहली तो यह कि कोरोना के बाद रेल की समय-तालिका में हेर-फेर हो गए हैं, उदाहरण के तौर पर धौली एक्सप्रेस
पहले कोलकाता से प्रातः जल्दी छूटती थी, लेकिन अब देर से
छूटती है और शाम तक पहुंचती है। और दूसरी बात, हमारे नैतिक
पतन की है। रेलवे स्टेशन के बाहर एक स्तंभ पर गांधीजी की अर्धमूर्ति थी। स्तम्भ पर, ओड़िया-हिन्दी और अँग्रेजी में यह अंकित था कि गांधीजी अपनी यात्रा के
दौरान पुरी के नजदीक आए थे लेकिन जगन्नाथ
महाप्रभू के दर्शन नहीं किए क्योंकि मंदिर में अछूतों का प्रवेश वर्जित था। सोचा
था कि बच्चों को दिखाऊँगा और इस घटना की विस्तृत जानकारी भी दूँगा। लेकिन मैं
हतप्रभ रह गया, स्तम्भ अभी भी मौजूद है लेकिन अब न वह
शिलालेख है न गांधी।
ओड़ीशा पर्यटन विभाग द्वारा आयोजित कोणार्क-भुवनेश्वर यात्रा
पर बच्चे गए थे। यात्रा अच्छी ढंग से आयोजित की गई थी, बस भी अच्छी थी। लेकिन यह यात्रा
प्रातः 6.30 पुरी से प्रारम्भ हो कर शाम 7
बजे पुरी पर ही समाप्त हुई। यह बड़े खेद की
बात है कि इस दौरान जलपान, भोजन तथा चाय के लिए किसी भी सही
जगह पर ठहराव नहीं किया गया। पर्यटक प्रायः भूखे ही रहे या फिर बिसकुट, फल आदि से काम चलाया। विभाग को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
पुरी, समुद्रतट और
मंदिर के आसपास के क्षेत्र का नवीनीकरण कर दिया गया है। अनेक सड़कें सीमेंटेड कर दी
गई हैं, रौशनी बेहतर हो गई है,
समुद्रतट की सड़क चौड़ी और लंबी कर दी गई है। साइकल रिक्शे बहुत कम हो गए हैं। अब मरीन
ड्राइव पर आहिस्ते-आहिस्ते रिक्शे पर सफर करने का आनंद उपलब्ध नहीं है। ऑटो और
टोटो से सफर जल्दी तय हो सकता है लेकिन पर्यटकों को तो सैर का आनंद लेना होता है, जिससे अब हमें मरहूम कर दिया गया है। मंदिर के बाहर की व्यवस्था में अनेक
बदलाव हो गए हैं। सभी वाहनों का प्रवेश वर्जित है। प्रमुख सड़क के मध्य में एक
लंबा-चौड़ा छायादार मार्ग बनाया गया है
जिसके नीचे से श्रद्धालु-पर्यटक मंदिर तक पहुँच सकते हैं। बुजुर्गों के लिए बैटरी
के वाहनों कि व्यवस्था की गई है। प्रवेश द्वार के समीप की अनेक दुकानों को हटा कर यात्रियों
के लिए खुली जगह बना दी गई है। मोबाइल फोन तथा बैग वगैरह रखने की भी निःशुक्ल
अच्छी व्यवस्था हो गई है। प्रवेश द्वार पर अब ऐसी व्यवस्था है कि पुरातन समय से
बने जल-स्त्रोत से हाथ-पैर धोते हुए मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं।
मंदिर प्रांगण में कहीं कोई हेर-फेर नहीं है। गर्भ-गृह में
प्रवेश, महाप्रभु के
नजदीक से दर्शन तथा मंजन-दतुअन आदि के दर्शन कई वर्ष पूर्व मंदिर के जीर्णोद्धार
के कारण बंद कर दिये गए थे। जीर्णोद्धार का कार्य तो कई वर्ष पूर्व ही समाप्त हो
गया है लेकिन महाप्रभु के दर्शन की व्यवस्था बहाल नहीं की गई है। जिज्ञासा करने पर
यही पता चला कि सरकार, प्रशासन,
श्रद्धालु और यात्री सब बेखबर हैं। अब कोई
श्रद्धालु-यात्री सरकार-प्रशासन को जगाये या फिर न्यायालय का आदेश उनके हाथ में
पकड़ाये तभी शायद वह अवसर प्राप्त हो। फिलहाल अभी ऐसे कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं।
महाप्रभु के नयनाभिराम दर्शन, बलभद्र-सुभद्रा-कृष्ण के दर्शन
एक साथ नहीं हो पाते – दरवाजा सँकडा है और महाप्रभु का दरबार बड़ा।
पुरी के एक समुद्र तट
को अंतर्राष्ट्रीय ‘Blue Flag’ का
खिताब अभी कुछ समय पहले ही मिला है। कई पैमानों, जैसे
स्वच्छता, पर्यावरण, सुविधाएं, सुरक्षा आदि के पर खरा उतरने पर
ही यह खिताब मिलता है। यह मानना पड़ेगा कि इस कारण अब जन साधारण के लिए निरापद और
स्वच्छ समुद्र में स्नान करने, स्नान के पश्चात बालू और
नमकीन पानी को साफ करने के लिए स्नानगृह, कपड़े बदलने की जगह
आदि और साथ ही समुद्र तट पर सैर तथा धीमे-धीमे दौड़ने (jogging) की भी व्यवस्था हो गई है, वैसे इसकी चौड़ाई कम है।
इस यात्रा में पहली बार स्वामी तोतारामजी की समाधिस्थल पर
गया। मार्ग सँकडा लेकिन सीमेंटेड है, लोग प्रायः इस स्थल से परिचित हैं। जनता का
आना कम है लेकिन वीरान भी नहीं है। स्वामी तोता राम जी
स्वामी विवेकानंद के गुरु
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के गुरु थे। इनकी आयु तीन सौ वर्षों से ज्यादा की बताई
जाती है। स्वामीजी किसी भी एक स्थान पर तीन-चार दिनों से ज्यादा नहीं ठहरते थे। इसी
प्रकार घूमते हुए वे दक्षिणेश्वर के घाट पर पहुंचे और वहाँ उनकी मुलाक़ात स्वामी
रामकृष्ण से हुई और वे वहाँ लगभग 11 महीने रहे। रामकृष्ण परमहंस ने 16 अगस्त 1886
में समाधि ली थी। अपने जीवन के अंत काल
में 40 वर्षों तक स्वामी तोता रामजी यहीं रहे और 360 वर्षों की आयु में 28 अगस्त 1961
में उन्होंने इसी प्रकार समाधि में बैठे हुए ही समाधि ली थी और उनकी समाधि यहीं
इसी के नीचे बैठी हुई अवस्था में ही बनाई गयी थी। स्वामीजी कहीं आते-जाते नहीं थे, उनके भक्तगण या परमात्मा ही उनका ख्याल रखते थे। उनके जीवन की अनेक
घटनाओं की चर्चा होती है। दशकों से आते रहने के बाद मुझे इसकी जानकारी नहीं थी। इस
बार अपने एक हितैषी के बताने पर मैं यहाँ पहुंचा।
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