शुक्रवार, 19 मई 2023

संवेदनशील बनें - क्यों और कैसे

                                                                                                      सरलता



सरलता मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। सरलता-सहजता हमें अपना स्वाभाविक जीवन जीने के लिए ही प्रेरित करती है। जैसे-जैसे हम संसार से ग्रहण करने लगते हैं हमारी यह सहजता लुप्त होने लगती है, दूसरों की सरलता देख हम दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं, और सोचने लगते हैं कैसे हैं ये इतने सरल! काश! दुनिया ऐसी ही सरल होती! हम यह भूल जाते हैं कि अगर दुनिया को सरल बनाना है तो शुरुआत अपने से ही करनी होगी। अगर हम सब सरल होते तो, कैसी होती ये दुनिया? अपनी भाग-दौड़ की जिंदगी में थोड़ा ठहर कर नज़र घुमायें तो आपको दिख जाएंगे ऐसे लोग, और मन होगा कि बैठें रहें इनकी शीतल छाया में, कुछ पल ही सही हम भी सरल हो लें, इनके साथ।

          योगेन्द्र यादव को मिले ऐसे लोग अपनी एक यात्रा में और अंकित कर दी सफ़ेद पन्नों पर एक  दास्तां। आप भी आनंद लीजिये इस सरलता का, और अगर आनंद आये तो कभी-कभार ऐसा ही आनंद दूसरों में भी बाँट कर देखिये कि आनंद किस में ज्यादा है – देने में या लेने में? तो पढ़िये योगेन्द्र की दास्तां उन्हीं के शब्दों में - 

 

... भीतर कुछ दूर चलने के बाद  सड़क से थोड़ा हटकर पहाड़ियों के नीचे छोटी-मोटी दुकानें और गुमटियां हैं जो निम्न आय वर्ग के लोगों की रोज़ी-रोटी से जुड़ी हैं। हम चाय के साथ कुछ खाने-पीने के लिए जिस दुकान पर रुके वह एक छोटा-सा घर था जहां पर्यटकों के लिए भोजन की भी व्यवस्था थी। सामने सड़क तक फैली खुली ज़मीन पर कुछ खाटें भी रखी थीं, जो इस घर को किसी ढाबे-सा स्वरूप भी देती थीं। घर में पति-पत्नी और बच्चों समेत पूरा एक युवा परिवार रहता था। ... (पत्नी) की बातों में एक अनगढ़ सहजता थी, और उसके हाव-भाव और व्यवहार में प्रकृत सौंदर्य के कोमल स्पर्श-सा कुछ लरजता रहता... और मुझे वह किसी कहानी की जीती- जागती किरदार-सी लगती।

  हमारे दिलों में उन लोगों के लिए प्यार और सम्मान होना चाहिए जो एक अजनबी मुसाफिर के साथ भी बातचीत के क्रम में अपना पूरा संसार, अपने विचार और अपनी सोच की तमाम सहज अनगढ़ता बेहिचक सामने रख देते हैं। इसके अपने खतरे भी हो सकते हैं। खतरे तो भोलेपन और सहजता में अंतर्निहित ही हैं। लेकिन यह उनका भोलापन ही है कि ऐसे लोग इन खतरों के बारे में सोचते भी नहीं और प्रकृति भी तो अपनी सहजता और भोलेपन में ही जीती है उसने भी इन खतरों के बारे में कब सोचा!

  मैंने जब पूछा- आपको अजनबियों - से इस तरह बात करते हुए डर नहीं लगता?' तो उसने कहा- 'आप अजनबी कहां और फिर डर कैसा! रोज ही कितने अनजान मुसाफिरों से बात होती है। दूर से ही देखकर बता सकती हूं कौन-कैसा है? ... आधी रात को भी सामने सड़क पर कोई गाड़ी रुकती है और लोग आकर खाट पर बैठ जाते हैं  तो उनके लिए उसी समय खाने-पीने, और अगर रुकना चाहें तो यहीं खाट पर या भीतर बरामदे में सोने की व्यवस्था कर देती हूं।

  'एक बार की बात है, कोई बारह बजे रात को एक परिवार गाड़ी से उतरा, मियां-बीबी और एक बच्चा, शायद एक साल का भी नहीं, मेरी छुटकी जितना बड़ा, बच्चा रोए जा रहा था, चुप होने का नाम नहीं। बताया कि एक घंटे से रो-रो कर बेहाल है। हिचकियां बंधी जा रहीं थीं। मैंने कहा बच्चा मुझे दो। मैं बच्चे को सीधे अंदर बरामदे में लेकर गयी... और दो मिनट बाद लेकर बाहर आ गयी, बच्चा बिल्कुल शांत और चंगा मेरी गोद में खेल रहा था। बीबी की आंखें चमक उठीं? लेकिन उस चमक में संदेह और आश्चर्य के मिले-जुले भाव थे। पूछा कैसे चुप करा दिया’? मैंने कहा, ‘मैं आपसे चुप कराने के पैसे तो मांग नहीं रही। जब आये थे तो उनके चेहरे पर बारह बज रहे थे, अब चेहरे पर पूरी राहत थी। पूछा चाय पिला सकती हो’? मैंने कहा... भला आप लोगों को चाय क्यों नहीं पिला सकती। मियां-बीबी आश्चर्य में एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। जाते समय पांच सौ का नोट थमाने लगे। मैंने कहा बीस रुपए होते हैं चाय के, खुल्ला दे दो। कहा, रख लो खुल्ले नहीं हैं। मैंने कहा नहीं रख सकती। कोई मां बच्चे से दूध पिलाने के पैसे नहीं लेती और आप वही देना चाहते हो न!

  'एक और बात बताऊं आपको... जाते-जाते उन दोनों के चेहरे पर जो भाव, मुस्कुराने की कोशिश में जो संकोच, खुशी और कृतज्ञता के मिले-जुले भाव उभर आये थे न उन्हें मैं यहां आने वाले और भी बहुत सारे मुसाफिरों के चेहरे पर कई-कई रूपों में देख चुकी हूं। बहुत सुख है इस भाव में, किसी अजनबी सैलानी के थके-बुझे चेहरे को जगा देने में।  कुछ पल के लिए किसी दाता को राजी खुशी याचक जैसी भूमिका में देखने का सुख। इस सुख में हमारे जीवन की छोटी-मोटी दुश्वारियां और संघर्ष पता नहीं कहां बिला जाते हैं। ये सब बातें मेरे मरद की समझ के भी बाहर है।  कहता है इतनी बदहाली में भी तुम कैसे खुश रह लेती हो। अब उसे कैसे समझाएं कि चाहो तो तुम भी रह सकते हो।..... मैंने बस पूछने के लिए पूछ दिया- 'कहां हैं वो, दिखे नहीं ?'

  और वह शुरू हो गई? 'होगा कहीं, बही-खाता लेकर बैठा होगा हिसाब-किताब करने, पाई-पाई का हिसाब रखता है। मैं पूछती हूं क्या फायदा है? अपनी मेहनत है, अपना पैसा है, अपना कारोबार है, तो फिर हिसाब किसे देना है? … कई बार हुआ है कि लोग किसी न किसी बहाने खुश होकर अधिक पैसे देकर जाने लगे हैं। लेकिन भरसक मेरी कोशिश रही कि जितना बनता है उतना ही लूं और हर बार उसकी एक ही रट कि इस तरह तो मुझसे यह व्यापार नहीं चलने वाला... कि आगे से किसी के साथ लेन-देन हो तो उसे बुला लिया करूं। मैं सोचती हूँ कैसे बुला लूं, ...अगर बुला भी लूँ तो कभी-कभी किसी के चेहरे पर वो नैसर्गिक भाव कहां से देख पाऊंगी जो मुझे बहुत दिनों तक ज़िंदा रखता है। ... वह रहा हिसाब-किताब के साथ चलने वाला आदमी और मैं रही अपने भीतर उठती तरंगों के साथ तालमेल बैठा कर चलाने वाली .....

  आपके जीवन में भी ऐसे क्षण आए होंगे, ऐसे लोग आए होंगे जिन्होंने आपको झकझोर दिया होगा और यदा-कदा आपके होठों पर उन्हें याद कर मुस्कान आ जाती होगी। क्या कहा? – आपको नहीं मालूम, आपको ऐसे लोग नहीं मिले, ऐसे क्षण नहीं आए? ऐसा तो हो ही नहीं  सकता। हाँ, आपके आँखों के सामने वे लोग आए, उनकी बातें आपके कानों में भी पड़ीं, लेकिन दिख कर भी नहीं दिखा, सुन कर भी नहीं सुना क्योंकि देखने और सुनने का काम न आँख करते हैं न कान। वे तो सिर्फ द्वार हैं। इनके पीछे छिपे “आप” उन्हें देखते और सुनते हैं। लेकिन आप कहीं और व्यस्त थे, आप के पास उन्हें देखने-सुनने का समय नहीं था। आप इसके प्रति संवेदनशील नहीं थे। अपनी संवेदना को थोड़ा दुरुस्त कीजिये, फिर महसूस कीजिये। रोज-रोज ऐसे क्षण आने लगेंगे, ऐसे लोगों से मुलाक़ात होने लगेगी। जीवन सुखमय होने लगेगा।      

ज्ञान तो दे दिया लेकिन अब संवेदनशीलता बढ़ेगी कैसे, यह सरलता आएगी कैसे?

व्याख्यान न देकर बहुत थोड़े शब्दों में कहूँ तो :

1.    अपनी गति थोड़ी धीमी करें, सुनने और देखने का समय दें, कैसे –

                          I.          जो देखा और सुना उसे समझने का प्रयत्न करें,

                        II.          निष्कर्ष निकालने या प्रत्युत्तर, जवाब देने की हड़बड़ी न करें,

                      III.          सामने वाले के दृष्टिकोण को जानें।

2.    प्रारम्भ घर या पड़ोस के बच्चों से करें। वे बहुत सरल, सहज और संवेदनशील होते हैं। आपको बहुत कुछ सीखा सकते हैं।

          बस यहाँ से प्रारम्भ करें। हाँ हर समय, हर रोज समय नहीं निकाला जा सकता लेकिन दिन में एक बार तो कर ही सकते हैं। वहीं से प्रारम्भ करें। वह भी नहीं तो कोई बात नहीं, दिन के अंतराल बढ़ा दें, लेकिन सप्ताह में कम-से-कम एक बार जरूर। अगर आपको फर्क महसूस होता है तो अपने अनुभव टिप्पणी, कोममेंट्स, में  लिखें, दूसरों को प्रोत्साहित करें।

(नवनीत)

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शुक्रवार, 12 मई 2023

रेल के डब्बे की खुशबू

हम बदलेंगे, युग बदलेगा



यह संस्मरण है एक युवक का। वह चेन्नई में कार्यरत था और पैतृक घर भोपाल में था। एक दिन उसे पिताजी का तुरंत घर आने का समाचार मिला। वह आनन-फानन में रेलवे स्टेशन पहुँचा
, आरक्षण  की कोशिश की, लेकिन आरक्षण नहीं मिला। प्लेटफार्म पर भोपाल की गाड़ी खड़ी थी लेकिन उसमें  बैठने की जगह नहीं थी। मरता क्या नहीं करता, बिना कुछ सोचे-समझे सामने के स्लीपर क्लास के डिब्बे में  घुस गया। डिब्बे के अन्दर भी बुरा हाल था। जैसे-तैसे जगह बनाने हेतु बर्थ पर एक सज्जन को लेटे देखा तो उनसे याचना करते हुए बैठने के लिए जगह मांग ली। सज्जन मुस्कुराये और उठकर बैठ गए और बोले-- "कोई बात नहीं, आप यहाँ बैठ सकते हैं।"

          उन्हें धन्यवाद दे, वहीं कोने में बैठ गया। थोड़ी देर बाद ट्रेन चल पड़ी और सभी लोग व्यवस्थित हो गए और सबों को बैठने की जगह मिल गई। लोग अपने साथ लाया हुआ खाना खाने लगे, पूरे डिब्बे में भोजन की महक भर गयी। मैंने अपने सहयात्री को देखा और सोचा, बातचीत का सिलसिला शुरू किया जाये। मैंने कहा-- "मेरा नाम आलोक है और मैं इसरो में वैज्ञानिक हूँ। आज़ जरुरी काम से अचानक मुझे घर जाना था इसलिए साधारण स्लीपर क्लास में चढ़ गया, वरना मैं वातानुकूलित (एसी) श्रेणी से कम में यात्रा नहीं करता।" वे मुस्कुराये और बोले-- "वाह ! तो मेरे साथ एक वैज्ञानिक यात्रा कर रहे हैं। मेरा नाम जगमोहन राव है। मैं वारंगल जा रहा हूँ। उसी के पास एक गाँव में मेरा घर है।" इतना कह उन्होंने अपना बैग खोला और उसमें से एक डिब्बा निकाला। वे बोले -- “ये मेरे घर का खाना है, आप लेना पसंद करेंगे ?” मैंने संकोचवश मना कर दिया और अपने बैग से सैंडविच निकाल कर खाने लगा। जगमोहन राव! ये नाम कुछ सुना-सुना और जाना-पहचाना सा लग रहा था, परन्तु इस समय याद नहीं आ रहा था।

          कुछ देर बाद सभी जैसे-तैसे सोने की कोशिश करने लगे। आलोक के सामने एक परिवार बैठा था, माता-पिता और दो बड़े बच्चे। वे भी खाना खा कर सोने लगे। मैं बर्थ के पैताने में उकड़ू बैठ कर अपने मोबाइल में गेम खेलने लगा।

          रेलगाड़ी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी। अचानक मैंने देखा कि सामने वाली बर्थ पर बच्चों के पिता तड़पने लगे और उनके मुंह से झाग निकलने लगा। उनका परिवार भी घबरा कर उठ गया और उन्हें पानी पिलाने लगा, परन्तु वे कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थे। मैंने चिल्ला कर पूछा- अरे! कोई डॉक्टर को बुलाओ, इमरजेंसी है।" उनके परिवार के लोग उन्हें असहाय अवस्था में देख रोने लगे। तभी मेरे साथ वाले जगमोहन राव नींद से जाग गए। मैंने उन्हें सब बताया। मेरी बात सुनते ही वे लपक कर बर्थ के नीचे से अपना सूटकेस निकाले, स्टेथेस्कोप निकाला और सामने वाले सज्जन के सीने पर रख कर धड़कने सुनने लगे। एक मिनट बाद उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखने लगीं। उन्होंने कहा कुछ नहीं और सूटकेस में से एक इंजेक्शन निकाला और सज्जन के सीने में लगा दिया और उनका सीना दबा-दबा कर, मुंह पर अपना रूमाल लगा कर अपने मुंह से सांस देने लगे। कुछ मिनट तक सी.पी.आर. तकनीक से कृत्रिम रूप से स्वांस देने के बाद मैंने देखा कि रोगी सहयात्री का तड़पना कम हो गया। जगमोहन राव जी ने अपने सूटकेस में से कुछ और गोलियां निकालीं और परिवार के बेटे से बोले-- “बेटा!  ये बात सुनकर घबराना नहीं। आपके पापा को गंभीर हृदयाघात आया था, पहले उनकी जान को ख़तरा था परन्तु मैंने इंजेक्शन दे दिया है और ये दवाइयां उन्हें दे देना।”

उनका बेटा आश्चर्य से बोला-- “पर आप कौन हो?"

वे बोले-- “मैं एक डॉक्टर हूँ। मैं इनकी तबीयत के बारे में पूरा विवरण और दवाइयां पर्ची पर लिख देता हूँ, अगले स्टेशन पर उतर कर आप लोग इन्हें अच्छे अस्पताल ले जाइएगा।" 

          उन्होंने अपने बैग से एक लेटरपेड से एक पर्ची निकाली और जैसे ही मैंने उस लेटरपेड पर उनका व्यक्तिगत विवरण पढ़ा, मेरी याददाश्त वापस आ गयी। उस पर छपा था - डॉक्टर जगमोहन राव हृदय रोग विशेषज्ञ, अपोलो अस्पताल, चेन्नई। अब तक मुझे भी याद आ गया कि कुछ दिन पूर्व मैं जब अपने पिता को इलाज के लिए अपोलो हस्पताल ले गया था, वहाँ मैंने डॉक्टर जगमोहन राव के बारे में सुना था। वे अस्पताल के सबसे वरिष्ठ, विशेष प्रतिभाशाली हृदय रोग विशेषज्ञ थे। उनसे मिलने का समय लेने के लिए महीनों लगते थे। मैं आश्चर्य से उन्हें देख रहा था। एक इतना बड़ा डॉक्टर रेल की साधारण श्रेणी में यात्रा कर रहा था और मैं एक छोटा-सा तृतीय श्रेणी वैज्ञानिक घमंड से वातानुकूलित श्रेणी में यात्रा की बात कर रहा था और ये इतने बड़े आदमी इतने सामान्य ढंग से पेश आ रहे थे। मैंने उत्सुकतावश उनसे पूछा-- “डॉक्टर साहब! आप तो आराम से, वातानुकूलित श्रेणी, में यात्रा कर सकते थे फिर सामान्य श्रेणी में यात्रा क्यूँ?"

          वे मुस्कुराये और बोले-- “मैं जब छोटा था और गाँव में रहता था, तब मैंने देखा था कि रेल में कोई डॉक्टर उपलब्ध नहीं होता, खासकर दूसरे दर्जे में। इसलिए मैं जब भी घर या कहीं जाता हूँ तो साधारण क्लास में ही सफ़र करता हूँ। न जाने कब किसे मेरी जरूरत पड़ जाए! मैंने डॉक्टरी लोगों की सेवा के लिए ही की थी। हमारी पढ़ाई का क्या फ़ायदा यदि हम किसी के काम न आ पाये?"

          इसके बाद सफ़र उनसे यूं ही बात करते बीतने लगा। सुबह के चार बज गए थे। वारंगल आने वाला था। वे  यूं ही मुस्कुरा कर लोगों का दर्द बाँट कर, गुमनाम तरीके से मानव सेवा कर, अपने गाँव की ओर निकल लिए और मैं उनके बैठे हुए स्थान से आती हुई खुशबू का आनंद लेते हुए अपनी बाकी यात्रा पूरी करने लगा।

          अब मेरी समझ में आया था कि इतनी भीड़ के बावजूद डिब्बे में खुशबू कैसे फैली? ये खुशबू उन महान व्यक्तित्व और पुण्य आत्मा की खुशबू थी जिसने मेरा जीवन और मेरी सोच दोनों को महका दिया।

          किसी के भी बदलने से कुछ भी बदलने वाला नहीं है, न सरकार के - न विपक्ष के, न धर्म के - न अध्यात्म के, न प्रशासन के - न विधायक के लेकिन अगर - हम बदलेंगे, युग बदलेगा।



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शुक्रवार, 5 मई 2023

सूतांजली मई 2023



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