“जी हाँ, मैं बस एक ही अवगुण छोड़ने कह रहा हूँ। अगर
एक से ज्यादा छोड़ने कहूँगा तब तो आप मेरी बात सुनेंगे ही नहीं, अतः बस एक के लिए ही कह रहा हूँ। आप केवल एक ही छोड़िये और फिर देखिये
कैसे धीरे-धीरे आपका जीवन सुधरता जाएगा, जीवन शुद्ध-शांत और
निर्मल हो जाएगा।” आज के सत्संग का यही सार था – एक अवगुण छोड़िये। स्वामी जी ने यह भी नहीं बताया की कौन सा अवगुण
छोड़ें, वह भी हम पर ही छोड़ दिया।
सत्संग से उठ कर बाहर निकलते
ही सुनने को मिला - “गुण
हों या अवगुण, बड़ी लंबी फेहरिस्त है। वेद, उपनिषद, पुराण, गीता, रामायण, धर्माचार्य,
महामंडलेश्वर, गुरु, ऋषि, कथा वाचक हर समय केवल बस यही तो कहते रहते हैं – या तो कोई कथा-कहानी
सुनाते हैं या फिर ये करो-ये न करो। उनकी बातें मानने लगें तो जीने लायक ही नहीं रहें।
वे जो कहते हैं उसे बस वहीं छोड़ कर चले आने में ही भलाई है। क्यों ठीक कह रहा हूँ
न? शायद यही कारण है कि वे अपनी कहते रहते हैं और दुनिया
अपनी चाल से चलती रहती है। और तो और महर्षि पतंजलि को लें तो उन्होंने भी पाँच यम
और पाँच नियम गिना दिये। एक-दो गिनाते तो
शायद उस पर फिर भी विचार कर लेते”।
“भाई साहब जरा ठहरिए! अगर एक-एक होते तो क्या आप उन पर विचार
करते?”
अपनी झोंक में लेकिन थोड़ा संभलते हुए कहा, “तब-का-तब सोचते!”
“अच्छा बताइये ये पाँच-पाँच क्या हैं?”, मैंने पूछ ही लिया।
“पाँच यम हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय,
ब्रह्मचर्य और पाचवाँ .......”
“अपरिग्रह।”
“हाँ...हाँ वही, अब आप ही बताइये इन्हें अपना लें तो कैसे
जीवन चले। अपने तो बस एक ही सिद्धान्त अपना रखें हैं – व्यावहारिकता। मनुष्य को
व्यावहारिक होना चाहिए, बस इससे अपना कम चल जाता है”।
उन्होंने घोषणा कर दी।
“जी,
ठीक कहा अपने, अहिंसा – गुस्सा तो नाक पर चढ़ा रहता है, बच्चों को डांट न लगाएँ, मजदूर को चार गाली न दें
तो वे काम ही न करें। और ये सत्य, अगर सत्य बोलें तो जेल में
रहें या फिर सड़क किनारे खाली कटोरा ले कर बैठे रहें, झूठ
बोले बिना तो भीख भी नहीं मिलती।”
“हाँ, और नहीं तो क्या!”, मैंने जोड़ा।
“अस्तेय- चोरी न करना, अरे हम कोई चोर हैं क्या, चोरी तो न हम
करते हैं और न करेंगे। चोरी तो छोड़ी हुई ही है!”
“अरे वाह! तब हम यह मान लेते हैं कि हमने एक अपना लिया है, अब हमें मुक्त करो। क्यों क्या कहते हैं आप? इसके साथ यह भी जोड़ देते हैं कि वैसे तो हम चोरी करेंगे ही नहीं लेकिन
अगर कहीं गलती से, लालच से कर भी लिया तो हम प्रायश्चित भी
कर लेंगे या तो उसे बता देंगे या वह सामान वापस वहीं रख देंगे। क्या दिक्कत है, ऐसा काम करें कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।” मौका देख कर मैंने
कहा।
“हाँ, हाँ। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम किसी
तीर्थ पर जाते हैं तो कुछ छोड़ने कहा जाता है और हम वही छोड़ते हैं जो पहले से ही
छोड़ा हुआ है। आम-के-आम गुठली के दाम।”
चलिये अब यह समझ लें कि चोरी
किसे कहते हैं। शब्दकोश का सहारा लें तब इसकी परिभाषा कुछ इस प्रकार बनती है – जब
कोई किसी व्यक्ति की सम्मति या जानकारी के बिना उसका समान या संपत्ति ले लेता है
या हटा देता है तो इसे चोरी कहा जाता है। यानी बिना सम्मति या जानकारी के ले लेना ही
नहीं बल्कि हटा देना भी चोरी ही है।
इस चोरी को और जरा गहराई से
देखने और उस पर विचार करते-करते मुझे अपने जीवन की एक छोटी सी आपबीती याद आ गई।
मैं अपने सहपाठी,
सुरेश के कार्यालय में बैठा था। उसका लड़का राहुल भी वहीं था। गर्मी का मौसम था, टिफिन में आम भी था। मैंने लेने से इंकार किया और कहा कि मैंने आम छोड़
रखा है और बताया कि आम मेरे प्रिय फलों में से एक है, लेकिन
उस वर्ष पूरी गया था वहाँ जगन्नाथ महाप्रभु के मंदिर के वट वृक्ष पर एक वर्ष तक आम
न खाने का वचन देकर आया हूँ। राहुल ने बताया कि उसने भी इसी वर्ष वहीं आम
छोड़ा है। लेकिन तभी टिफिन में रखे आचार को मैंने उठा लिया। राहुल ने बताया, “अंकल यह आम का आचार है।” मुझे बात समझ नहीं आई तो उसने जोड़ा ‘अंकल अभी तो आपने बताया
कि आपने आम छोड़ रखा है’। ‘हाँ, लेकिन यह तो आम का ......’, यहाँ तक कहने के बाद मेरी
जबान तलवे से चिपक गई। मुझे सचमुच बड़ा अच्छा लगा जिसे मैं बच्चा मान रहा था उसने
आम को छोड़ने के वचन को बड़ी गहराई से समझा था।
जब आम पर उसने इतनी गहराई से
सोचा तब फिर चोरी पर भी सोचने की जरूरत है। श्रीअरविंद ने चोरी का अर्थ ही
बदल दिया है। लगभग 1905 में वे अपनी पत्नी को एक पत्र लिखते
हैं जिसमें वे अपने तीन पागलपन की चर्चा करते हुए पहले पागलपन के बारे में लिखते
हैं कि अगर वे अपने पास जितनी उनको
आवश्यकता है उससे ज्यादा रखते हैं तब वे अपने आप को चोर समझेंगे। उस समय उन्हें
500 रुपए माहवार मिला करते थे। उस समय के हिसाब से यह एक शाही राशि थी। यह राशि
पूर्ण रुपेण श्रीअरविंद की उनकी अपनी थी
लेकिन फिर भी वे उसका अपने लिए उपयोग करना चोरी मानते थे। यह चोरी का एक अन्य आयाम
है। अपना होने के बावजूद अपनी आवश्यकता से
ज्यादा रखना, जिसके पास
उसका अभाव है उसकी आवश्यकताओं की चोरी करना है।
इशोपनिषद
का पहला श्लोक है:
ईशा वास्यम् इदं सर्वम्
यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
ते न त्यक्तेन भुञ्जीथा मा
गृधः कस्य स्विद् धनम् ।।१।।
श्लोक के अंतिम छंद का अर्थ है ‘किसी दूसरे के धन की इच्छा मत करो’, यानि
किसी दूसरे के धन की इच्छा करना भी चोरी या चोरी की तैयारी है अतः उसे भी त्यागो।
चोरी को त्यागने का अर्थ है मन से, कर्म से और वाणी से उसका
त्याग करना।
सामान्यतः एक और वस्तु की
चोरी करने की हमारी बुरी आदत है, वह है दूसरों
के समय की चोरी। निर्धारित समय से न आ कर किसी को इंतजार करवाना उस के समय की चोरी
है। अगर वहीं किसी आयोजन में जहां हम वक्ता हैं या प्रमुख अतिथि हैं और वहाँ देर
से पहुँचना वहाँ उपस्थित सबों के समय की चोरी है। समय से ज्यादा बोलना अन्य वक्ता
के समय की, न सुनने की इच्छा होने के बाद भी बोलते जाना, श्रोता या अन्य वक्ता के समय की चोरी ही है।
अनिच्छा से दी जाने वाली
वस्तु को लेना, बिना इच्छा
के किसी के प्रेम की अपेक्षा रखना, ज्यादा लेकर कम देना यहाँ
तक की कम देने की भावना रखना भी अलग-अलग प्रकार की चोरियाँ ही हैं।
एक अन्य प्रकार की प्रचलित
चोरी है – जमाखोरी। मुनासिब से ज्यादा कमाने की इच्छा से कम उपलब्ध सामग्री को जमा
करना, भविष्य के लिए इतना जमा कर लेना कि दूसरे
के वर्तमान के लिए भी न रहे। कोरोना के समय ऐसी वारदातें देखने को मिलीं, किसी कॉलोनी या मुहल्ले में पानी की कम आपूर्ति की खबर आने पर जरूरत से
ज्यादा पानी जमा करना इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। यहाँ हम दूसरे के हिस्से का संसाधन
चुरा कर खुद के लिए या खुद के मुनाफे के लिए जमा कर रहे हैं।
अन्य के कार्य को अपना बताना
या अपने होने का आभास देना तो प्रत्यक्ष रूप से चोरी है ही किसी के कार्य की उचित
प्रशंसा न करना भी सूक्ष्म चोरी है। किसी के लिखे हुआ को अपना बताना, उसकी सहमति के बिना उसका प्रयोग करना तो आज
कॉपी-राइट के नियमों के अंतर्गत जुर्म ही है, चोरी तो है ही।
किसी की अनुपस्थिति में उसकी
निंदा करना क्या उसकी प्रतिष्ठा, मान, मर्यादा की चोरी नहीं है? भविष्य और आने वाली पीढ़ी का ध्यान न रखते हुए प्रकृति का अनावश्यक दोहन
भी चोरी का ही स्वरूप है।
और तो और श्रीकृष्ण ने गीता के तीसरे
अध्याय में कहा है :
इष्टान् भोगान्, हि, वः, देवाः, दास्यन्ते, यज्ञभाविताः,
तैः दत्तान्, अप्रदाय, एभ्यः, यः, भुङ्क्ते, स्तेनः, एव, सः ।।3:12।।
इस श्लोक का भावार्थ यही निकलता है कि यह
पूरी सृष्टि इसलिए चल रही है क्योंकि देना और लेना निरंतर चलता रहता है। देने से
ही मिलता है और जो मिला उसमें से फिर देना। और जो इस कड़ी को तोड़ता है यानि सिर्फ
अपने लिए लेता है देता नहीं वह चोर है।
आप जितना गहरे उतरते जाएंगे, चोरी के नए-नए आयाम खुलते जाएंगे। जैसे-जैसे
आप उन्हें जिंदगी में उतारते जाएंगे, आपका जीवन निखरता
जाएगा।
कबीर को याद कीजिये-
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे
पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
किनारे बैठ कर ही अगर संतोष हो जाता है तब
आपकी मर्जी लेकिन अगर मोती चाहिए तो पानी में गहरा उतरना होगा।
(डॉ.रमेश
बिजलानी की वार्ता पर आधारित)
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