जिस क्षण मनुष्य आगे बढ़ना बन्द कर देता है, वह पीछे जाता है। जिस क्षण वह सन्तुष्ट होकर बैठ जाता है तथा और आगे अभीप्सा नहीं करता वह मरना शुरू कर देता है। जीवन है गति, जीवन है प्रयास, जीवन है आगे की ओर बढ़ना, एक पहाड़ी चढ़ाई चढ़ना, नये-नये ज्योति-शिखरों को पार करना और भविष्य की चरितार्थता की ओर अग्रसर होना। विश्राम करने की इच्छा से बढ़ कर खतरनाक कोई वस्तु नहीं है। हमें विश्राम की खोज करनी चाहिये कर्म में, प्रयास में, आगे की ओर बढ़ने में उस सच्चे विश्राम की जो भागवत कृपा में पूर्ण भरोसा रखने से, इच्छाओं के अभाव से, अहं पर विजय प्राप्त करने से मिलती है।
मैं अपनी मेज पर बैठा कार्य
में व्यस्त भी था और साथ ही खिड़की (काउंटर) के बाहर सोफ़े पर बैठे बुजुर्ग सज्जन से
वार्तालाप भी कर रहा था। अचानक उन्होंने पूछा, “क्या आप सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) हैं?”
“नहीं”, मैंने कहा।
“लेकिन अभी अपने बताया कि आप पुणे में रहते है? तब फिर आप यहाँ आश्रम में इतने लंबे समय के
लिए कैसे रहते हैं?”
मैं उनका प्रश्न समझ रहा था लेकिन सोच समझ कर पूछ लिया, “क्यों, पुणे में
रहने, आश्रम में लंबा समय गुजारने और सेवानिवृत्त होने का
आपस में क्या संबंध है?”
“नहीं, वो...”, उनकी उलझन सुलझने के बजाय और उलझ गई।
आगे क्या प्रश्न करें और कैसे करें यह उन्हें नहीं सूझ रहा
था। मैंने उनकी सहायता करनी शुरू की, “सेवानिवृत्त होने से आपका क्या अर्थ है?”
खिड़की के उस ओर बैठे वे बुजुर्ग साफ देख रहे थे कि मैं भी
वृद्धावस्था में ही हूँ लेकिन शायद उनकी उम्र मुझ से ज्यादा ही रही होगी। गला साफ
कर उन्होंने धीरे से पूछा,
“आप नौकरी करते थे?” यह स्पष्ट था कि सेवानिवृत्त होने से
उनका तात्पर्य था नौकरी, व्यवसाय या पेशे से निवृत्ति।
“नहीं मेरा अपना व्यवसाय था।”
वे थोड़ा आश्वस्त हुए और थोड़ा विस्तार से बताने लगे कि वे
जैविक खेती करते हैं,
बीच-बीच में आश्रम में आ जाते हैं।
मुझे अपनी बात कहने का सूत्र मिल गया, “क्यों, आश्रम क्यों आते हैं?”
“मुझे अच्छा लगता है। बड़ी शांति मिलती है। यहाँ का जीवन बड़ा
सरल, आडंबर विहीन और सीधा-सदा है, सुकून मिलता है, जीवन का सुख अनुभव होता है और
मिलता है भाग-दौड़ की जिंदगी से थोड़ा विश्राम”, उन्होंने
मुसकुराते हुए कहा।
मैंने पूछा, “आपके परिवार में और कौन-कौन है?”
उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी सारी जिम्मेदारियों का निर्वाह
कर लिया है, बच्चों की
शादी कर दी, सब अपनी-अपनी नौकरी में लगे हैं और पत्नी
आध्यात्मिक प्रवृत्ति की हैं.....
मैंने उन्हें बीच में ही टोका, “जब आपको यहाँ अच्छा लगता है तब आप भी लंबे
समय के लिए यहाँ क्यों नहीं आ जाते हैं?”
उनके चेहरे पर फिर एक उलझन लटक आई। मेरे प्रश्न का उत्तर
देने के बजाय उन्होंने प्रश्न किया, “आप यहाँ क्या करते हैं? मैं देखता हूँ
यहाँ न पूजा-पाठ होता है, न ही कीर्तन-प्रवचन?”
मैंने बताया कि प्रातः उठने से लेकर रात्रि सोने तक फुरसत
नहीं मिलती, कुछ-न-कुछ
चलता ही रहता है। संक्षेप में अपनी दिनचर्या बताई और पूछा, “आपको क्या लगता है, खिड़की के इस ओर बैठा मैं कुछ काम
कर रहा हूँ या विश्राम कर रहा हूँ?”
“नहीं-नहीं भाई साहब आप तो बड़ी अच्छी सेवा का काम कर रहे
हैं।”
“आप भी बड़े अजीब हैं, आपने अभी बताया कि आपको यहाँ का जीवन बड़ा अच्छा लगता है, आप के विचार से मैं यहाँ अच्छा काम कर रहा हूँ और तब आप भी यहाँ लंबे समय
के लिए क्यों नहीं आते?”
वे सोफ़े पर से उठ कर मेरे समीप आ गए और फुसफुसा कर धीरे से पूछा, “क्या यह आश्रम आपको अच्छी तनख़ाह भी देता
है?”, और इसके साथ-साथ जोड़ा, “मैं जब
रिटायर्ड हो जाऊंगा तब आऊँगा।” मैं हंस पड़ा, “अब आपके
रिटायर्ड होना में क्या बाकी है, अब तो ईश्वर ही आपको दुनिया
से रिटायर्ड करेंगे। जहां तक आश्रम के ‘कुछ’ देने के बात है, हाँ आश्रम मुझे बहुत कुछ देता है, मसलन बड़ी शांति देता है, सरल और सीधा-सदा जीवन देता
है, सुकून देता है, जीवन का सुख देता
है और इसके साथ ही देता है एक विश्वास और आत्म संतोष कि जीवन में आखिर कुछ तो करने का मौका मिला। अब आप ही
बताइये, जो इतना कुछ देता है जिसने जीवन को सार्थक बना दिया
उससे कुछ लूँ की दूँ।”
“आप ठीक ही कह रहे हैं, जिसके पीछे पूरा जीवन दौड़ते रहे वह इतनी सहजता से आपने हासिल
कर लिया। समाज से लिया ऋण भी चुका रहे हैं और एक सुकून की जिंदगी जी रहे हैं।”
“भाई साहब! आप भी एक
बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं, जैविक खेती। आप अपने कार्य को ‘अपने’ लिए न कर समाज के लिए करना प्रारम्भ कर
दीजिये। जो कुछ भी पैदा करते हैं उसे समाज और माँ को अर्पित कर दें। लोगों को
जैविक उत्पाद सिखाएँ, इसका महत्व समझाएँ। और सबसे बड़ी बात इसके
उत्पाद को कैसे सस्ता और कम मूल्यों पर जनता तक पहुंचाया जाय इस पर विचार कीजिये।
अगर यह न कर सकें तो आश्रम आ जाएँ, यहाँ कई एकड़ जमीन है, यहाँ आश्रम के लिए कीजिये। जीवन बदल जायेगा।
सेवानिवृत्ति का अर्थ क्या है? विश्राम का समय, एक
ऐसा समय जिसमें आरोहण है अवरोहण नहीं। कहाँ से विश्राम?
नौकरी से, व्यवसाय से, भौतिकता से, पैसे कमाने की जिद्दो-जहद से। जो करते रहें हैं उससे आगे की सोचना और उस
पर कार्य करना। यह जीवन से विश्राम नहीं है। विश्राम ऐसा नहीं होना चाहिये जो जीवन
को निश्चेतना और तमस् में धकेल दे। रिटायरमेंट तो एक आरोहण होना चाहिये,
'प्रकाश'
में, पूर्ण 'शान्ति' में, पूर्ण 'नीरवता' में आरोहण, ऐसा विश्राम जो अन्धकार से निकल ऊपर उठता है। कइयों को
अंधकार से निकाल कर प्रकाश में लाता है। तब वह सच्चा विश्राम होता है,
ऐसा विश्राम जो आरोहण है।
जीवन में कितनी ही बार हमें
ऐसे लोग मिलते हैं जो शान्तिप्रिय इसलिए होते हैं कि वे लड़ाई से डरते हैं, जो संग्राम जीतने से पहले ही आराम के लिए लालायित होते हैं, जो अपनी जरा-सी प्रगति से सन्तुष्ट हो जाते हैं और अपनी
कल्पना तथा कामनाओं में उसे ऐसी अद्भुत प्राप्ति समझ लेते हैं जो उनके आधे रास्ते
में रुक जाने को न्याय संगत ठहराती है। ऐसे ‘शांतिप्रिय’ लोग पाप और अत्याचार को बढ़ावा देते हैं, ये डरपोक
लोग आलसी होते हैं।
सामान्य जीवन में,
निःसन्देह, ऐसा बहुत होता है। वस्तुतः इसने मानवजाति को एक तरह से
मुर्दा बना दिया है और मनुष्य को वैसा बना डाला है जैसा वह आज है : "जब तक
युवा हो काम करो, धन, सम्मान, पद का अर्जन करो, थोड़ी दूर दृष्टि रखो, कुछ बचाओ और एक पूंजी जमा कर लो,
पदाधिकारी बनो, ताकि जब तुम चालीस के होओ तो 'आराम कर सको', अपनी आमदनी का और बाद में पेन्शन का उपभोग कर सको,
जैसा कि लोग कहते हैं, सु-अर्जित विश्राम का आनन्द लो। " - बैठ जाना,
रास्ते में रुक जाना, आगे न बढ़ना, सो जाना, समय से पहले कब्र की ओर चल देना,
जीवन के उद्देश्य और प्रयोजन के लिए जीना ही बन्द कर
देना-बैठ जाना! यह रिटायरमेंट नहीं मौत है।
सच्चा विश्राम चेतना को
विस्तृत करने से, विश्वभावापन्न बनने से मिलता है। संसार जितने विशाल बन जाओ
और तुम सदा आराम में रहोगे। कर्म की अतिशयता में, रणस्थली के बीचोंबीच, विविध प्रयासों के पूर्ण प्रवेग में तुम अनन्तता और
शाश्वतता की विश्रान्ति को अनुभव करोगे। यह है सच्चा रिटायरमेंट।
(आंतरिक रूप से
जीना – पृ-12)
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