शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2024

श्रद्धा और विश्वास


          

विज्ञान के आविष्कार और खोज वर्षों के सतत प्रयास का फल है। आज वह जिस मुकाम पर है वहाँ तक पहुंचने में उसे शताब्दियाँ लगीं और अभी भी वह बच्चा ही है। एक ऐसा समय भी था जब उष्णता को नापने का न कोई यंत्र था न ही कोई मापदंड। लेकिन फिर विज्ञान को इसका ज्ञान हुआ और ताप को नापने के यंत्र भी बने और उनके यूनिट मसलन सेंटीग्रेड – फ़ौरेनहाइट आदि ईजाद हुए। उसी प्रकार एक समय था जब दिन, समय, वजन, लंबाई, चौड़ाई, कोण, गति, दबाव, ध्वनि आदि किसी को भी नापने के यंत्र नहीं थे लेकिन विज्ञान ने प्रगति की और उसने नये-नये यंत्रों का आविष्कार किया और उनकी यूनिट भी ईज़ाद होती चली गईं। ऐसा नहीं था कि जब तक इनकी खोज नहीं हुई, इनका आविष्कार नहीं हुआ, ये नहीं थीं। ये थीं लेकिन हमें उनका ज्ञान नहीं था। आज भी विज्ञान इतना सक्षम नहीं हुआ कि अच्छाई-बुराई, नीला-हरा, सत्य-झूठ आदि को नाप सके और उनकी गणना कर सके। शायद एक समय ऐसा आयेगा कि विज्ञान इनकी तह तक पहुँच जाएगा और इनके हल भी खोज निकालेगा। श्रद्धा और विश्वास की भी विज्ञान के दृष्टिकोण से यही स्थिति है। अगर विज्ञान अभी वहाँ तक नहीं पहुँच सका है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि इनका न कोई महत्व है, न अस्तित्व। और ऐसा भी नहीं है कि ये हमें स्पर्श नहीं करते या हमें प्रभावित नहीं करते। विज्ञान बजाय यह मानने के कि हम अभी नादान हैं इनके प्रभाव और अस्तित्व को कमतर आँकता है या नकार देता है। श्रद्धा और विश्वास हमारे चरित्र के वे विशेष गुण हैं जिनका हमारे जीवन को निखारने में विशेष सहयोग है। 

          प्रसिद्ध व्यवसायी जगदीश एक व्यापारी के साथ सौदा करने, अपने सहायक विजय  के साथ मथुरा की यात्रा पर थे। वे नाव से अपने शहर लौट रहे थे। घाट पर विजय और कूली ने उसका सामान नाव पर रख दिया। वर्मा उसमें चढ़ने ही वाले थे कि उन्हें कुछ याद आया, "मैं कुछ भूल गया। एक मिनट रुको," उसने विजय को निर्देश दिया और नहर की ओर चल दिये। वे कुछ मिनटों के बाद वापस आ गये, उनके हाथ में एक थैली सी कोई चीज़ थी।

          घर पहुंचकर वर्मा ने विजय से कहा, "यह छोटा सा पार्सल चंपावती आंटी के पास ले जाना। बस उन्हें बताना कि मैं यह उनके लिए मथुरा से लाया हूं। वे समझ जाएंगी।" विजय अपने मालिक के प्रति वफादार था। उन्होंने पार्सल चंपावती देवी तक पहुंचाया। उसमें एक रुमाल में मुट्ठी भर रेत थी।

          चंपावती देवी एक विधवा थीं, जो एक कुलीन परिवार से थीं और सभी उनका सम्मान करते थे। वे वर्मा को अपने बेटे की तरह प्यार करती थीं। "मेरा बच्चा जगदीश वापस आ गया है क्या?" छोटा पार्सल प्राप्त करते समय बुढ़िया ने खुश होकर कहा, "वह कितना कर्तव्यनिष्ठ है कि अपने सारे कामकाज के बीच मेरी छोटी सी मांग को याद रखता है! जब मैंने उनकी मथुरा यात्रा के बारे में सुना, तो मैंने उनसे यमुना नदी की एक मुट्ठी मिट्टी लाने के लिए कहा था, पवित्र नदी यमुना से। उन्होंने मेरी बात मानने में कोई कोताही नहीं बरती। मेरे लिए यमुना की मिट्टी से अधिक कीमती और क्या हो सकता है!” महिला ने मिट्टी को एक चांदी के बक्से में रख दिया। खुशी और श्रद्धा में उनके आँखों से आंसू की एक बूंद मिट्टी पर गिरी।

          विजय शर्मिंदगी और अपराध बोध से कांप उठा। वे ही जानते थे कि वर्मा मथुरा से मिट्टी लाना भूल गये हैं। गाड़ी पर चढ़ते समय ही वर्मा जी को इसकी याद आई थी और वे तेजी से वापस जाकर नहर के किनारे से कुछ मिट्टी उठाकर अपने रूमाल में डाल ली थी।

          विजय को पता था कि वर्मा जी  नास्तिक हैं। वे लोगों की ईश्वर में आस्था और उनके द्वारा किये जाने वाले अनुष्ठानों पर हँसते हैं। लेकिन जहां तक ​​एक व्यवसायी के रूप में उनके कैरियर का सवाल है, वह एक ईमानदार और अनुभवी व्यक्ति थे। उन्होंने महिला के अनुरोध को बचकाना माना था। वह मिट्टी चंपावती देवी को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त थी। उनका मानना ​​था कि यमुना की मिट्टी में न कुछ खास बात है या न यह सचमुच उस महिला का भला कर सकती है।

          विजय ने यह सोचकर खुद को सांत्वना दी कि आख़िर उसने चंपावती देवी से झूठ नहीं बोला था। उसने केवल एक कार्य किया था। समय बीतता गया। चंपावती देवी की मौत हो गयी। वर्मा ने अपने व्यवसाय से संन्यास ले लिया। विजय भी सेवानिवृत्त हो गए थे, लेकिन वे वर्मा के विश्वासपात्र बने रहे।

          चंपावती देवी के पोते की शादी वर्मा की बेटी से हुई थी। एक बार वर्मा बीमार पड़ गये। उनकी हालत खराब हो गई। उनके दामाद, चंपावती देवी के पोते, एक प्रतिभाशाली चिकित्सक थे। उन्होंने और विजय ने वर्मा को उनकी शारीरिक दुर्दशा से बाहर निकालने की पूरी कोशिश की, लेकिन एक दिन डॉक्टर ने विजय से कहा, "अंकल, मैंने उम्मीद छोड़ दी है। कुछ भी काम नहीं कर रहा है। वर्माजी डूब रहे हैं।"

          अचानक चिकित्सक को कुछ याद आया। "अंकल, कृपया यहीं रहें। मैं जल्द ही वापस आऊंगा।" चिकित्सक एक छोटी बोतल लेकर लौटा और उसने उसकी सारी सामग्री वर्मा जी  के मुंह में डाल दी। वर्मा में सुधार के लक्षण दिखे और कुछ ही दिनों में वह पूरी तरह ठीक हो गए।

          एक दिन, जब विजय और चिकित्सक एक दोस्त के घर जा रहे थे, चिकित्सक ने कहा, "अंकल! अजीब चीजें होती हैं, आखिरकार! क्या आप जानते हैं कि मेरे ससुर को किसने बचाया? मेरी दादी ने मुझे एक चाँदी का डिब्बा दिया था, इस संदेश के साथ कि इसमें कुछ पवित्र मिट्टी है। उसने एक चुटकी मिलाकर कई बीमार लोगों को ठीक किया था। पानी के साथ मिट्टी का मिश्रण और उन्हें पानी पिलाना! जब मुझे यकीन हो गया कि मेरी दवा मेरे ससुर को नहीं बचा पाएगी, तो मैंने दादी के नुस्खे को आजमाने का फैसला किया - और यह काम कर गया!"

          विजय ने शुरुआत की। वह उस मिट्टी की प्रकृति को जानता था। लेकिन उन्हें यह भी एहसास हुआ कि चंपावती देवी द्वारा इस पर गिराए गए आंसू की बूंद से जल वास्तव में एक पवित्र चीज़ में बदल गई थी, गहरी आस्था, प्रेम, श्रद्धा और कृतज्ञता के आंसू।

          क्या अखंड विश्वास किसी सामान्य चीज़ को विशेष शक्ति से भर सकता है? कहानी बताती है कि बूढ़ी महिला के विश्वास ने, अपने आँसुओं के माध्यम से, एक सामान्य चीज़ को गुणात्मक उन्नति प्रदान की, अंततः - और विडंबना यह है - उस आदमी को भी लाभ पहुँचाया जिसने इसके बारे में न कभी कुछ भी सोचा था और न ही इस पर विश्वास था।

          श्रद्धा और विश्वास का न तो कोई वैज्ञानिक आधार है न ही यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि इसका असर होता है। लेकिन इसे अ-वैज्ञानिक, अंधविश्वास मान कर पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें न कोई धन लगता है न ही समय बस मन में एक दृढ़ता आती है, और यही दृढ़ता अपना असर दिखती है। अंत में  करते तो हम ही हैं लेकिन करवाता कोई और ही है।

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