शुक्रवार, 22 मार्च 2024

रूपान्तरण


                     

आश्रम में आये अभी कुछ ही दिन हुए थे। लेकिन धीरे-धीरे पूरा शरीर विशेष कर दोनों पैर और कमर साथ नहीं दे रहे थे, पूरे बदन में दिन भर दर्द रहता था। चलना-फिरना, उठना-बैठना दूभर हो रखा था। किसी भी कार्य में एकाग्रता नहीं हो रही थी। पीड़ा के कारण आत्म-विश्वास की भी कमी हो गई थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ और क्या करूँ? केवल बिस्तर पर पड़े रहने से ही आराम मिल रहा था। आश्रम का कोई भी कार्य दिया जा रहा था तो बिना सोचे और लज्जा का अनुभाव किये तुरंत मना कर रहा था। क्या करता शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से लाचार था। कमरे में पड़े-पड़े निबंधों को जाँचने का काम, कुछ नया लिखने- पढ़ने का काम भी नहीं कर पा रहा था। आश्रम में इस प्रकार पड़े रहने में शर्म भी महसूस हो रही थी। अंग-प्रत्यंग ही नहीं बल्कि आवाज में भी पीड़ा की झलक थी, चेहरे पर तो सब लिखा हुआ ही था। ज्योति दीदी ने भाँप लिया था शायद इसीलिये कई बार पूछ चुकी थीं, भैया, आप ठीक तो हैं न। क्या कहता, झिझक में सही बता भी नहीं पा रहा था।  हाँ, हाँ ठीक ही हूँ। यही कहता रहा।

          हर दिन की तरह आज भी मुंह-अंधेरे नींद खुल गई। आज तो बिस्तर से उठा ही नहीं जा रहा था। आज सुबह की सैर पर नहीं जा सकूँगा, यह निश्चय कर मुंह ढक कर वापस सो गया। लेकिन तभी चेतना उठ खड़ी हुई। कल की कक्षा में क्या पढ़ा-सुना? आवाज आई, उठ, आज अभी इसे आजमा कर देख ले कैसा रहता है।       

          कौन-सी कक्षा और क्या पढ़ाई? संकल्प, अभीप्सा और अध्यवसाय। श्री अरविंद और श्री माँ की कृतियों से चयनित अंशों पर आधारित पुस्तक ‘Living Within’ का हिन्दी रूपान्तरण आंतरिक रूप से जीना हमारी मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य और प्रगति के लिये सहायक पुस्तक है। इस पुस्तक की चल रही कक्षा में कल का यही विषय था – संकल्प, सच्चाई या अभीप्सा और अध्यवसाय से हम कैसे रूपांतरित हो सकते हैं, कैसे? कल इस अनुच्छेद को हमने पढ़ा था –

“पहला पग है : संकल्प। दूसरा है सच्चाई और अभीप्सा। परन्तु संकल्प और अभीप्सा लगभग एक ही चीज है, एक-दूसरे के अनुगामी हैं। फिर है, अध्यवसाय। हां, किसी भी प्रक्रिया में अध्यवसाय आवश्यक है, और यह प्रक्रिया क्या है?... प्रथम, निरीक्षण और  विवेक करने की योग्यता अवश्य होनी चाहिये, अपने अन्दर प्राण को खोज निकालने की योग्यता अवश्य होनी चाहिये, नहीं तो तुम्हारे लिये यह कहना कठिन हो जायेगा कि, "यह प्राण से आता है, या मन से आता है, यह शरीर से आता है।" प्रत्येक चीज तुम्हें मिली-जुली और अस्पष्ट प्रतीत होगी। बहुत दीर्घकालिक निरीक्षण के बाद, तुम विभिन्न भागों के बीच विभेद करने तथा क्रिया का मूल समझने में समर्थ हो सकोगे। इसमें अत्यंत लंबे समय की आवश्यकता होती है, परंतु मनुष्य तेज भी जा सकता है। ( पृ 92)

          इस पर चर्चा करते हुए ज्योति दीदी ने बताया कि मन केवल चंचल ही नहीं बहुत हठी भी है और समझदार भी, एक छोटे बच्चे की तरह। अपनी जिद नहीं छोड़ता और अपना कार्य करवाने के सब गुर जानता है। उसे डांट कर या मार कर नहीं समझाया जा सकता है। जैसे छोटे बच्चे को समझा-बुझा कर ही मनाया जा सकता है वैसे ही उसे समझाना होता है।

          इसे ही आजमाने का निश्चय किया, और मैंने एक छोटे बच्चे की तरह उसे समझाना शुरू किया – चल उठ खड़ा हो, नीचे चल।

 ऊँह, नहीं जाना, बहुत दर्द है, ठंड भी है और अभी तो दिन भी नहीं हुआ है। उसने तीन-तीन कारण गिना दिये। लगा स्थिति जटिल है, लेकिन आज मैं भी हारने के लिये तैयार नहीं था। धीरे-धीरे प्यार से समझाना शुरू किया, दर्द मिटाना है न, बिस्तर में पड़े रहने से दर्द कम नहीं ज्यादा हो जायेगा। तब चल-फिर और बैठ भी नहीं पाओगे। उठ गरम जैकेट पहन ले ठंड नहीं लगेगी और तैयार होते-होते दिन भी निकल आयेगा।

नहीं, आज नहीं कल’, उसने बहाना बनाया।   

आज नहीं जाओगे तो कल भी नहीं जाने सकोगे। दर्द बढ़ जायेगा, थोड़ा चलोगे तो दर्द कम हो जायेगा।

          लेकिन, शरीर किसी भी तरह उठने को तैयार नहीं हो रहा था। लेकिन आज मैं भी जिद पर था। तरह-तरह से समझाता रहा, अंत में उसके पसंदीदा रेस्टुरेंट में ले जाने का प्रलोभन दिया, तब शरीर कुछ हिला, तुम बहुत लंबा घुमाते हो, उतना नहीं घूम सकूँगा। इतने चक्कर नहीं लगाऊँगा।

अच्छा ठीक है आधा चक्कर ही लगाएंगे।

पक्का?’

हाँ पक्का’, मैंने वचन दे दिया।

आखिर शरीर मान ही गया। और हम घूमने उतर गये। लेकिन आधी दूरी पूरी हुई ही नहीं थी कि वह फिर से उठ खड़ा हुआ, आधा हो गया, अब वापस चलो।

नहीं’, मैंने अंगुली से दिखाया, वहाँ पहुंचने पर आधा होगा न।

चलो, अब लौटो, आधा हो गया। कुछ ही देर बाद उसने फिर से कहा।

हमलोग गोल-गोल घूम रहे हैं, आधी दूर आ गये, अब वापस जाएँ या आगे चलें बात तो एक ही है, तब आगे ही चलें’, मैंने समझाया।

उसे बात पसंद तो नहीं आई, षड्यंत्र की गंध आई  लेकिन मान गया। पूरा होने पर मैंने जैसे ही कदम आगे बढ़ाया, ये क्या! हो गया अब आगे नहीं।

अरे घूमने नहीं जा रहे हैं सामने श्री अरविंद को प्रणाम करके लौटेंगे। और इस प्रकार समाधि, फूल, तुलसी, मोर और सूर्योदय का लालच देकर मैंने दो चक्कर लगवा ही लिये।

          मन बहुत प्रसन्न था। अच्छा भी लग रहा था – शरीर और मन दोनों को। कल की पढ़ाई आज ही काम आ गई। संकल्प लिया मुझे आज ही ठीक होना है, सोच-विचार कर सुबह-सुबह दो-तीन उपचार किया और बात बन गई। सारी पीड़ा रफू-चक्कर हो चुकी थी और पूर्ण स्वस्थ्य महसूस करने लगा। दोपहर में भोजन-कक्ष में दीदी से मुलाक़ात हुई, मैंने चहकते हुए पूछा, दीदी, आज कैसा लग रहा हूँ।

अभी तो आप ठीक लग रहे हैं भैया।

अपने ही तो ठीक किया है

‘…….’ दीदी मुझे देखने लगी, मैंने पूरा वाकिया सुनाया।

मैंने नहीं, माँ ने ठीक किया है।

हाँ, लेकिन वे आईं तो आपके ही रूप में न।

मेरा रूपान्तरण हो चुका था।

         पढ़ने से, सुनने से, सोचने से कुछ नहीं होता। संकल्प लेकर पूरी सच्चाई और अभीप्सा से अध्यवसाय करने से ही फल की प्राप्ति होती है।

यह प्रत्यक्ष अनुभव था।

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शुक्रवार, 15 मार्च 2024

‘न’ से ‘स’

 


           ‘न’ से ‘स’ तक की यात्रा बड़ी अहम है। अगर इन्हें जोड़ दिया जाए तो बनता है नस। यानी पूरे शरीर में फैली और दौड़ती नलिकायें, कोशिकाएं जिसका कार्य शरीर के हर छोर पर, हर अवयव तक रक्त पहुँचाने तक सीमित नहीं है बल्कि इससे कहीं ज्यादा है। जहां ये अच्छे रक्त को प्रवाहित करती हैं वहीं दूषित रक्त को निकालने का काम भी वही करती हैं। (न)कारात्मक से (स)कारात्मक तक की यात्रा भी यही है। बुरे को निकालना और अच्छे को सँजोना।

          श्री अरविंद सोसाइटी के अध्यक्ष श्री प्रदीप नारंग से मुलाक़ात हुई। उनसे बातचीत करते हुए मैंने कहा कभी-कभी जीवन में जड़ता आ जाती है, ठहराव आ जाता है, अंग शिथिल होने लगते  हैं, मानस कमजोर हो जाता है, संगी-साथी बिछड़ जाते हैं, जीने का कोई लक्ष्य नहीं रह जाता है, मृत्यु की प्रतीक्षा शुरू हो जाती है, लगता है जैसे........।

          उन्होंने बीच में ही टोकते हुआ कहा - क्यों, ऐसे विचार कभी मन में आने ही नहीं चाहिये, जैसे ही ये आयें इन्हें खारिज कर दें, किसी भी प्रकार के नकारात्मक विचार को प्रवेश न करने दें, उसे तुरंत नकार दें। माँ से कहें नहीं माँ मुझे यह नहीं चाहिए इसे हटाएँ। उम्र से जड़ता का क्या लेना-देना है? जड़ता शरीर से नहीं मन से आती है, मन को हर समय तरोताजा, सजग और चुस्त रखें। नकारात्मकता शत्रु है, इसके पहले की वह अपनी जड़ जमाये उसे उखाड़ फेंकिए। अगर एक बार उसने अपनी जड़ें जमा लीं तब उसे उखाड़ना कष्टसाध्य हो जाता है।  माँ से मांगना है तो जीवन मांगें, मृत्यु नहीं। माँ से सकारात्मक रहें, काम मांगे।  यह न  कहें  कि मैं कार्य लायक नहीं रहा, कहें कि मुझे कार्य दें और उसे करने योग्य बनाएँ। वैसे उस कार्य के योग्य बनाने के लिए भी कहने की आवश्यकता नहीं है। माँ खुद उसके योग्य बनायेगी। राम का उदाहरण लें, उन्होंने योग्य लोग नहीं खोजे, जो मिला उसे ही उस कार्य के योग्य बनाया। ईश्वर योग्य लोगों को अपने पास नहीं बुलाते, बल्कि जिन्हें बुलाना होता है उन्हें योग्य बना लेते हैं। हाँ यह कह सकते हैं कि अगर माँ को लगे कि इस जन्म का मेरा काम हो गया है तो इस प्रकार प्रस्थान करूँ कि किसी का सहारा न लेना पड़े, किसी का मोहताज न बनूँ, किसी के आश्रित न रहूँ।

          एक बार शत्रु किले में घुस जाए तो फिर उसे हराना और भगाना आसान नहीं होता। अंग्रेज़ यहाँ आए। धीरे-धीरे वे अपने पैर फैलाने लगे और अपनी सत्ता जमाई। अगर उसी समय उन्हें उखाड़ दिया जाता, जमने नहीं दिया जाता तो उन्हें बाहर निकालने का कार्य सहजता से हो जाता। लेकिन जब एक बार उन्होंने अपनी सत्ता जमा ली, जड़ें जमा लीं, तब फिर उन्हें उखाड़ने में सदियाँ लगीं, लाखों को अपनी कुर्बानी देनी पड़ी, देश के दो टुकड़े हुए तब जा कर उन्हें बाहर निकाल पाये। यह साधारण सी बात एक अनपढ़ किसान भी अच्छी तरह से समझता है। खेतों में जहां अपनी फसल को  सहेजता रहता है वहीं निरंतर स्वयं उगने वाले पौधों, घास-फूस, जंगल को भी निरंतर उखाड़ता रहता है। उसे मालूम है कि अगर एक बार ये फैल गए तो वे उसकी फसल का रस चूस लेंगे और उन्हें काटना कठिन हो जाएगा।

          रस्किन बॉन्ड का नाम हम सभी ने सुना है, जीवन के 90 वसंत देख चुके हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या आप फिर से 29 वर्ष के बनने का सपना देखते हैं? उन्होंने छूटते ही कहा – ‘29 का सपना क्यों, मैं अनुभव करता हूँ कि मैं 29, 19 या 9 का हूँ। हाँ यह सही है कि कुछ एक दांत अब खो गए हैं और गाल थोड़े लटक गए हैं लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है! मैं आध्यात्मिक भी नहीं हूँ उस अर्थ में जिसे प्रायः अध्यात्मिक होना कहा या समझा जाता है। लेकिन मैं धार्मिक हूँ इस अर्थ में कि मैं अपने आप को प्रकृति से जुड़ा हुआ पाता हूँ। पक्षी, पेड़, पौधे, फूल, नदी, तालाब, पहाड़ की पवित्रता मुझे स्पर्श करती है। यह तो प्रकृति ही है  जिसने हमें बनाया है। 

          हाँ, प्रकृति से जुड़ें, प्रकृति से जुड़ना आध्यात्मिकता ही है। बढ़ती उम्र के साथ कुछ-एक बातें ध्यान में रखनी चाहिए, मसलन अकेलापन। यह मत सोचिए कि आपके अनेक दोस्त हैं, परिचित हैं और वे अभी लंबे समय तक आपके साथ रहेंगे।  उनका कोई भरोसा नहीं वे कब आपको अकेला छोड़ कर चल दें। जरा विचार कीजिये जैसे आप सोच रहे हैं वैसे वे भी सोच रहे हैं। भरोसा दोनों में से किसी का भी नहीं है। अकेलापन वैश्विक तौर पर संक्रामक माना गया है। यह हमारी जिंदगी में एकदम अचानक अप्रत्याशित रूप से उस समय आता है जब हमें इसकी जरा भी आवश्यकता नहीं होती है। अकेलापन और एकांत एक नहीं हैं। एकांत वह अवस्था है जिसे हम कई बार खोजते रहते हैं विशेषकर तब जब इस भाग-दौड़ की जिंदगी से हम कुछ समय के लिए दूर जाना चाहते हैं, उससे बचना चाहते हैं, उससे ऊब होने लगती है। और तब अपनी कर्म स्थली से बाहर जाकर, कुछ समय रह कर पुनः तरो-ताजा होकर वापस आते हैं।  बड़े शहरों में यह अकेलेपन की अनुभूति ज्यादा होती है जहां किसी के पास किसी दूसरे के लिए समय ही नहीं होता है, सही अर्थों में अपने खुद के लिए भी समय नहीं होता।   एक दूसरे को और अपने आप को जानने की फुर्सत नहीं होती। हर कोई हर दूसरे को संदिग्ध दृष्टि से देखता है। झुंड में रहने वाले, अनेक दोस्तों और परिचितों से घिरे रहने वाले लोग भी भीड़ में अकेले होते हैं। बड़े-बड़े कॉम्प्लेक्स में रहने वाले भी अकेलापन महसूस करते हैं।

          इसकी तैयारी आपको पहले से करनी है। कोई-न-कोई शौक पाल लें, जिस में आप अपने आप को झोंक सकें – दिन दहाड़े या मध्य रात्रि की नीरवता में भी। अकेले रहने से भी अकेलापन अनुभव होता है। इसका सबसे आसान और बेहतरीन उपाय है – दोस्त, पुस्तकें और  अध्यात्म। दोस्तों का पता नहीं कौन पहले जाएगा, सुबह मिल कर आए शाम को छोड़ कर चला गया। पुस्तकों को अपना साथी बनाएँ। अलग-अलग विषय और भाषा में। इनमें बच्चों के कॉमिक्स,  जासूसी कहानियाँ, हंसी-व्यंग, कविता-गजल, कहानी-उपन्यास, आध्यात्मिक-साहित्य, इतिहास-भूगोल, विज्ञान-वाणिज्य, काल्पनिक-यथार्थ, पत्र-पत्रिकाएँ। कहने का मतलब यह कि कोई भी हो, कैसी भी हो, जैसा मूड हो वैसी ही सही।  पढ़ने के साथ लिखने का मन हो तो लिखिए भी।  आपका समय तो निकल जाएगा लेकिन हो सकता है रहें अकेले ही।

          पढ़ने के अलावा जहां आप अपने को व्यस्त कर सकते हैं वे हैं,  अध्यात्म, सेवा। अगर इनमें अपना मन रमा लें तो ये छोड़ कर भी जाने वाले नहीं। बहुतों से सेवा नहीं होती। धन तो दूर की बात है, एक मुस्कुराहट, दो मीठे शब्द, अपना समय भी नहीं दे पाते। लेकिन सही मायने में अपने को सकारात्मकता के साथ व्यस्त रखने का सबसे अच्छा उपाय सेवा भाव ही है। इसमें आप अकेले भी नहीं होते।  लेकिन इसकी भी अपनी शर्तें हैं – अहम से बचना। धन, मान, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा से ज्यादा खतरनाक अहम है सेवा भाव का। किसी की सहायता करते समय यह मत सोचिये कि भविष्य में वह आपके काम आएगा। यह भी आशा मत रखिए कि आपने दान दिया है या निष्काम भाव से सेवा की है तो आपको फूलों की माला मिलेगी, काँटों का ताज भी मिल सकता है, इसके लिए निर्विकार रूप से तैयार रहिए। बस सहायता करके, भूल जाइए। क्योंकि यह आशा का भाव ही भविष्य में आपके दुख का कारण बनता है । आप जो भी कर रहे हैं वह परमात्मा देख रहा है.. उससे छिपा नहीं है। दूसरे जो कर रहे हैं उसे भी वह देख रहा है। ना किसी को जताइये, ना ही बताइये। बस इतना विश्वास रखिये कि जब ईश्वर ने उसकी सहायता के लिए आपको भेजा है तो निश्चित है कि जब आपको आवश्यकता होगी वह किसी न किसी को भेजेगा।

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शुक्रवार, 8 मार्च 2024

सूतांजली मार्च 2024

 


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