क्या हमारे
देश में बुद्धिजीवी वर्ग है? शायद नहीं! अगर
है तो कहाँ है? वह दिखता क्यों नहीं? कहीं शुतुरमूर्ग की तरह मुंह
छुपाये, निष्क्रिय होकर बैठा है? या
फिर बुद्धिजीवी का बल्ला लगाये अनपढ़ गंवार की तरह
सब कुछ देखते हुए भी अपने आप को ‘असहाय’ मानते हुए ‘मैं अकेला क्या कर सकता हूँ’ की माला जप रहा है? बुद्धिजीवी नेता की बाट नहीं
जोहता, वह तो नेतृत्व प्रदान करता है। चीन ने जब तिब्बत को
घेरना प्रारम्भ किया, दलाई लामा किसी की सलाह के मोजताज नहीं
रहे, न ही किसी की सहायता की अपेक्षा रखी, न ही यह सोचा कि मैं अकेला क्या कर
सकता हूँ? वे चुपके से कठिन और दुर्गम बर्फ की शिलाओं को
पैदल पार करते हुए बड़ी कठिनाई से भारत भाग आये। बाद में जब एक पत्रकार ने पूछा कि आपने
ऐसी दुर्गम मंजिल कैसे तय की। उन्होने जवाब दिया, ‘मेरा लक्ष्य स्पष्ट था और मैं एक बार में केवल एक कदम चला’।
क्या ‘बुद्धिजीवी’ का अर्थ बड़ी डिग्री धारक, पीएचडी शोधकर्ता, विश्व विख्यात विश्वविद्यालयों
में बैठे प्राध्यापक, वैश्विक स्तर पर मान्य पत्र-पत्रिकाओं
में प्रकाशित होने वाले लेखक, या फिर नोबल या वैसी ही
अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हस्ती ही है? तब तो यह स्वीकार
करना ही पड़ेगा कि हाँ हमारा देश बुद्धिजीवियों से भरा पड़ा है। अगर यही कसौटी है तब
मैं यही कहूँगा कि बुद्धिजीवी की परिभाषा बदलनी होगी।
अभी कुछ
वर्षों पहले, पूरे देश से 49 बुद्धिजीवियों के वर्ग द्वारा, दल
बना कर (इन ग्रुप) भारत के प्रधान मंत्री को
पत्र लिखने की और फिर उसके प्रतिवाद में 62 बुद्धिजीवियों के एक दूसरे दल
द्वारा अलग पत्र लिखने की चर्चा मीडिया पर छाई रही। उस समय तथाकथित बुद्धिजीवियों
द्वारा ऐसे पत्र लिखने का कार्य सम्पन्न होना प्रारम्भ ही हुआ था। लेकिन कालांतर
में यह एक प्रकार का फैशन हो गया है जिसमें अब सेवानिवृत्त अधिकारी भी शामिल हो गए
हैं। बे-समय बोलते रहते हैं और समय पर चुप्पी साध लेते हैं। ये मुद्दे सार्वजनिक
पिटाई (लिंचिंग) का हो, या असहिष्णुता (इंटोलरंस) का या
दंगों का या देश को अपमानित करने का। सरकार को लिखते हैं लेकिन जनता से मुखातिब नहीं
होते। इनका उद्देश्य जनता में भाईचारा, संयम, अमन चैन फैलाना नहीं है, सिर्फ सस्ती लोकप्रियता बटोरना है?
देश में
पढ़े - लिखे और सम्मानित लोगों की कमी नहीं है। मीडिया और जनता इनकी बात सुनती भी
है, और प्रसारित भी करती है। उनमें धार भी है। हाँ, अब
इनकी धार भोथरी होने लगी है, लेकिन इसके लिए वे खुद ही
जिम्मेदार हैं। यह वर्ग अपने घर में आराम से बैठ कर विश्लेषण करने, प्राप्त पुरस्कार को वापस करने, इनके पक्ष या
विपक्ष में मौके-बेमौके अपनी राय देने तक ही सीमित है। बल्कि कभी-कभी अपने
वक्तव्यों से जनता को भड़काने, उनमें रोष पैदा करने, उन्हें असहज बनाने का कार्य ही करते हैं। इनमें से कोई भी जनता से
मुखातिब नहीं होता। जनता को संयम बरतने, ईर्ष्या का त्याग कर
प्रेम की तरफ ले जाने, आपसी भाईचारे को बहाल करने, कानून को अपने हाथ में न लेने की सलाह नहीं देता?
ये लोग जनता को सही दिशा दिखाने के बजाय प्रधान मंत्री को पत्र लिखने, न्यूज़ चैनल को अपने तीखे विचार बता कर उन्हें भड़काने में ही अपने फर्ज़ की
अदायगी समझते हैं। ये इस प्रकार सस्ते प्रचार तक ही सीमित रहते हैं। अगर सत्य और
निष्पक्षता का दम है तब नेतृत्व करने सड़क पर क्यों नहीं उतरते? जनता का मार्ग दर्शन क्यों नहीं करते? हाँ कुछ लोग
हैं, खेल जगत से, सिनेमा जगत से जिनका
प्रसारण टीवी में कुछ सामाजिक मुद्दों पर जनता का सही मार्ग दर्शन करता है। लेकिन
वे ज्यादातर सरकारी चैनलों से ही प्रसारित होते हैं। निजी चैलनों से क्यों नहीं? क्या निजी
चैनलों का कोई उत्तरदायित्व नहीं है? बुद्धिजीवी वर्ग इससे
क्यों नहीं जुड़ता? उनका ध्येय अमन-चैन का नहीं है? उनमें माहौल बदलने का सामर्थ्य है, लेकिन वे
दुराग्रहों से ग्रसित हैं और कुछ मौन साधे बैठे हैं। उनके ध्येय में स्वार्थ की
दुर्गंध है। एक वर्ग को स्वार्थ का त्याग कर अमन-चैन की भाषा बोलनी होगी और
दूसरे को मौन का त्याग कर मुखर होना होगा। ऐसा करना कठिन भी नहीं है, बस इच्छाशक्ति चाहिए।
बुद्धिजीवी
वर्ग का कर्तव्य है जनता से संपर्क रखना, उसे सही मार्ग
दिखाना। उनमें बिना भेद-भाव और पूर्वाग्रह के सही को सही और गलत को गलत कहने की, समझने की और जनता को सही मार्ग दर्शन करने की शक्ति, सामर्थ्य और उत्कुंठा होनी चाहिये। उनका असर जनता पर तात्कालिक और
विद्युत गति से होता है। अगर यह वर्ग अपने कर्तव्य का पालन नि:स्वार्थ भाव से करे
तो देश की दिशा और दशा सुधरती नज़र आयेगी। ऐसे बुद्धिजीवियों की हमारे देश में कमी नहीं
है। हमें ऐसे लोग चाहिए जो जनता को विधायक और प्रशासक के विरुद्ध नहीं बल्कि अनीति
के विरुद्ध और नीति के समर्थन में खड़ा करे। पापी का नाश करनेवाला कालांतर
में खुद पापी बन जाता है, अत: पापी का
नहीं पाप का नाश करना है।
यहाँ मैं
स्वामी विवेकानंद की एक उक्ति उद्धृत करना चाहूँगा, “मुझे ऐसे एक सौ युवा दे दो, जो सच्चे (truthful), शुद्ध एवं निस्वार्थी हों, मैं दुनिया बदल दूँगा”। इसी तर्ज पर यह भी कहा जा सकता
है ‘सच्चे, शुद्ध और निस्वार्थ 50
बुद्धिजीवियों का एक संगठन भारत को बदल सकता है। जब देश के विभिन्न भागों में रहने
वाले 111 (49 + 62) प्रतिष्ठित व्यक्ति एक दूसरे से संपर्क साध कर एक समूहिक पत्र
साझा कर देश के प्रधान मंत्री को लिख सकते हैं, टीवी के
चैनलों पर गला फाड़ फाड़ कर असहिष्णुता, संयम पर भाषण दे सकते
हैं, तब वे एक आम सर्वनिष्ठ कार्यक्रम के अंतर्गत देश के
कोने कोने में जाकर सामंजस्य स्थापित करने की लिये क्यों प्रेरित नहीं करते हैं?
साहिर
लुधियानवी के ये पंक्तियाँ याद आती हैं:
ज़रा मुल्क
के रहबरों को बुलाओ,
ये कूचे ये गलियाँ ये मंजर दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको बुलाओ
जिन्हें नाज़ है
हिन्द पार वो कहाँ है?
कहाँ है, कहाँ है, कहाँ है?
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