शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

सूतांजली अक्तूबर 2020

 सूतांजली के अक्तूबर अंक का संपर्क सूत्र नीचे दिया है।

संपर्क सूत्र (लिंक):

URL -> -> https://sootanjali.blogspot.com/2020/10/blog-post.html

 

इसमें निम्नलिखित विषयों पर चर्चा है:

१। चार्ली चैपलिन की फिल्म “द ग्रेट डिक्टेटर

कुछ समय पहले चार्ली चैपलिन की फिल्म “द ग्रेट डिक्टेटर” का एक दृश्य व्हाट्सएप्प पर बहुत साझा किया गया। लेकिन क्या आप इस प्रसिद्ध फिल्म के पर्दे के पीछे की कहानी और इसका महत्व जानते हैं? .......

२। धर्म क्यों?

धर्म हमें बहुत परेशान करता है और दुखी भी। लेकिन फिर भी धर्म स्थापित है। क्यों? क्या जरूरत है धर्म की? क्यों यह आवश्यक है? .......

 

सूतांजली के आँगन में के नाम से ज़ूम मीटिंग की सूचना और अपने सुझाव देने का अनुरोध।

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शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

बदलो दुनिया को

जरूरत है

“एक खतरनाक जोखिम भरी यात्रा के लिए युवाओं की जरूरत है। यात्रा में हड्डियों को जमा देने वाली ठंड मिलेगी। महीनों तक पूर्ण अंधकार में रहना पड़ सकता है। यात्रा के दौरान पग-पग पर खतरों की संभावना है और सही-सलामत वापस आने में संदेह है। वेतन नाममात्र का ही मिलेगा। अगर यात्रा में  सफलता मिलती है तो सम्मान और प्रतिष्ठा मिलेगी”।

 

अर्नेस्ट शक्कलेटोन

यह इश्तिहार एक शताब्दी से पहले एरनेस्ट शक्क्लेटोन ने दिया था; 1914 में अंटार्कटिका की यात्रा के लिए नाविकों और साथियों के लिए। एरनेस्ट अपनी जोखिम भरी समुद्री यात्राओं के लिये जाने जाते हैं।

                                                     उम्मीदवार चाहिए

रिक्त स्थान के लिए उम्मीदवारों की आवश्यकता है। काम 24x7x365 है, बिना किसी छुट्टी के। भोजन के लिये भी अवकाश नहीं। काम के बीच ही समय निकाल कर भोजन करना है। कार्य पर सबसे पहले आप आएंगे और सब के बाद जाएंगे। रात-बिरात भी काम पर बुलाया जा सकता है। कोई रविवार, त्यौहार या छुट्टी नहीं। बल्कि ऐसे दिनों पर काम का दबाव ज्यादा रहेगा। अपना काम प्राय: खड़े खड़े  ही करना है। आपकी अपनी न कोई टेबल होगी न कुर्सी, न एयर कंडिशन होगा, न पंखा। और वेतन? कुछ भी नहीं। पूरा कार्य बिना किसी वेतन के। काम किसी भी प्रकार का हो सकता है जैसे साफ-सफाई का, पकाने का, बच्चों, वृद्धों, युवाओं को संभालने का। बच्चों को पढ़ाने का, बाजार जाने का, सामाजिक उत्सवों को मनाने का, त्योहारों को याद रखना और उनकी तैयारी करने का। इसके अलावा और कुछ भी जिसकी जब जैसे जरूरत पड़ जाये”

 व्हाट्सएप्प पर इसकी काफी चर्चा हुई है, आपने भी देखा ही होगा। जब उम्मीदवारों ने कहा ऐसा सिरफिरा तो कोई हो ही नहीं सकता। तो उन्हें बताया गया कि विश्व में अपने मन से ऐसा काम करने वालों की संख्या करोड़ों में है। तो लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ। तब कहा गया, ये और कोई नहीं आपकी माँ है ऐसी माताएँ दुनिया भर में हैं और निरंतर अपने कर्त्तव्य का निर्वाह पूरी ज़िम्मेदारी और निष्ठा से कर रही हैं।

 

जरूरत है बच्चे, जवान, बूढ़े, स्त्री, पुरुष, अनपढ़ या पढ़े लिखे सबों की

“केवल वे ही आयें जो अपना सर्वस्व स्वाहा करने को तैयार हों। सगे-संबंधी, धन-संपत्ति, सुख-चैन और तो और अपनी जान भी देने को तैयार हों। आपको केवल देना ही देना है, मिल सकती है जेल, लाठी, गोली या मौत। भाग्यशाली होंगे तब हो सकता है स्वतन्त्रता मिल जाये। वैसे स्वतन्त्रता का मिलना निश्चित है लेकिन यह निश्चित नहीं कि आपके जीवन काल में मिले”।  

 यह था गांधीजी का आवाहन, उनके सत्याग्रह में शरीक होने के लिए। और उनके आवाहन पर देश के करोड़ों लोग उनके साथ हो लिये थे।

 

विद्यालय में प्रवेश के लिए आवेदन

“यह शिक्षा केंद्र पूर्ण रूप से आवासीय है जिसमें छात्र-छात्राओं की शिक्षा, आवास व भोजन पूर्णत: नि:शुल्क है। शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी है। शैक्षणिक सत्र हर वर्ष.......... से प्रारम्भ होता है तथा केवल 6 से 12 वर्ष तक की आयु के बच्चों को ही प्रवेश दिया जाता है।

          यह केंद्र पूर्ण शिक्षा प्रदान करने तथा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए समस्त साधन प्रदान करने की अभीप्सा रखता है। जो अभिभावक अपने बच्चों के लिए सरकारी प्रमाण-पत्र, डिग्री व डिप्लोमा की आकांक्षा नहीं रखते अपितु उनकी सत्ता के केंद्रीय सत्य के अनुरूप उनके पूर्ण व सर्वांगीण विकास की अभीप्सा रखते हैं और अपने बच्चों को इस शिक्षण संस्था में प्रवेश दिलाने के इच्छुक हैं, वे पूरी जानकारी  के साथ निम्नलिखित पते पर संपर्क करें: ............”

 

यह इश्तिहार मैंने आज सुबह  श्री अरविंद सोसाइटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका  अग्निशिखा में देखा। यह शिक्षा केंद्र लगातार साल-दर-साल आदमी को इंसान बनाने में लगा हुआ है।  

 मैं यह सब क्यों लिख रहा हूँ? केवल आपके ध्यान में यह लाने के लिए कि इस दुनिया में ऐसे सिरफिरे लोगों की कमी नहीं जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन ये ही वे लोग हैं जो दुनिया को बदलते हैं। यह बात भी समझ आई कि हमें ज्यादा बच्चे क्यों चाहिये? पहला बच्चा तो हमें खुद अपने लिये चाहिये। देश-समाज को हम कैसे देंगे, किसे देंगे? कौन बदलेगा दुनिया को? कौन करेगा प्रशस्त भविष्य की मंजिल को?

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शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

“मैं अज्ञानी हूँ” - पीटर डी. औसपेन्सकी

“दुनिया में वह क्या चीज़ है जिसे देते सब हैं लेकिन लेता कोई नहीं?”

“सलाह, दी खूब जाती है, लेता कोई भी नहीं”

हम सब एक दूसरे को सलाह देने के लिए तैयार बैठे हैं लेकिन लेने के लिए नहीं, क्योंकि हमें इस बात का अभिमान है कि हम जानते हैं। इंतिहा तो इस बात की है कि जो सलाह दी जाती है, उस पर हम खुद भी आचरण नहीं करते। कहीं आप भी ऐसे ही लोगों में हैं? सलाह देने के बजाय उस पर खुद आचरण करें, लोग आचरण देखेंगे, सलाह नहीं सुनेगें। ईमानदार बनें, यह स्वीकार करें कि हम अज्ञानी हैं, तभी कभी ज्ञानी हो सकते हैं।

 रूस के निवासी, पीटर डी. औसपेन्सकी, ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उन्हें विश्व गूढ़ और आध्यात्मिक ज्ञान के अग्रणी जानकार, चिंतक, विचारक (esotericist) के रूप में जानता है। रूस, लंदन, अमेरिका में जब उनकी 

पीटर डी औसपेन्स्की 
वक्तृता आयोजित की जाती थी तब उन्हें सुनने के लिए अपने समय के जाने माने वैज्ञानिक, चिंतक और बुद्धिजीवी वर्ग इकट्ठे हो जाया करते थे। उनके गुरु थे जॉर्ज गुरजिएफ; बहुत ही गरीब, दुनिया में उन्हें कोई नहीं जानता। बड़े ही अजीब किस्म के इंसान जिन्हें बर्दास्त करना हर किसी के लिए संभव नहीं था।

 

इन दोनों को छोड़ एक बार हम थोड़ी चर्चा कर लेते हैं स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस की। ये दोनों महान विभूतियां परिचय की मोहताज़ नहीं हैं। साथ ही हम यह भी समझते हैं कि बिना विवेकानंद के, शायद, परमहंस इतिहास के पन्नों से गायब हो जाते। दुनिया का रामकृष्ण परमहंस से परिचय कराने का श्रेय स्वामी विवेकानंद को ही है। ठीक ऐसे ही गुरजिएफ से दुनिया को परिचित कराने का श्रेय उनके शिष्य पीटर डी. औसपेन्सकी को ही है।

 

श्री रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानंद 

एक बार औसपेन्सकी अपने गुरु गुरजिएफ से मिलने पहुंचे। गुरु ने बेवजह उनसे कई दिनों तक मुलाक़ात नहीं की। कुछ दिनों बाद, जब वे औसपेन्सकी से मिले तो गुरु ने शिष्य को एक कोरा कागज़ और एक पेंसिल पकड़ा कर कहा, “इस पन्ने के एक तरफ यह लिख दो जो तुम जानते हो और दूसरी तरफ जो तुम नहीं जानते हो”। इसके साथ ही उन्होंने उसे यह भी बताया कि वे ऐसा इसलिए चाहते हैं क्योंकि जिन विषयों की उसे जानकारी है उसकी चर्चा नहीं करनी है क्योंकि उन्हें तो वह जानता ही है, अत: जिन विषयों के बारे में उसे जानकरी नहीं है केवल उसी की चर्चा करेंगे। औसपेन्सकी ने कागज़ और पेंसिल ले ली और विचार किया कि पहले वह लिखा जाये, जिसकी उन्हें जानकारी है। लेकिन यह क्या, वे घंटों बैठे रह गए, सर्द रात में भी पसीने से भीग गए, आसमान देखते रहे लेकिन कुछ भी विषय नहीं लिख पाये। किसी भी बात का ख्याल आता, जिस पर उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी थी, व्याख्यान दिये थे, जिसे मनीषीजन भी पागलों की तरह उन्हें घेरे रहते थे, उसके बारे में भी उन्हें लगा कि वे नहीं जानते हैं। आखिर उन्होने गुरु को कोरा पन्ना ही लौटा दिया। गुरु ने देखा तो बड़े आश्चर्य से पूछा, “क्या बात है? तुम्हारी तो बड़ी धूम है, अनेक पुस्तक और ग्रन्थ तुमने लिखे हैं, फिर यह खाली पन्ना क्यों?” औसपेन्स्की कोई जवाब नहीं दे पाये, सिर्फ इतना ही कहा, “मैं अज्ञानी हूँ, यहीं से बात शुरू करें”। तब गुरु ने कहा, “यह अच्छी बात है। मैं यही समझ रहा था कि तुम्हें अपने ज्ञान का कितना अभिमान है। अगर ज्ञान का कोई अभिमान नहीं हैं, अगर यह मानते हो कि अज्ञानी हो, तब चर्चा हो सकती है”

 

जॉर्ज गुरजिएफ 


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मधुसंचय से प्रेरित 

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शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

७ सामाजिक पाप

स्टीफन कोवे का नाम आपने जरूर सुना होगा। जी हाँ, अपनी पुस्तक “द ७ हैबिट्स ऑफ हाइली इफेक्टिव पीपल” के लेखक। इस पुस्तक की करोड़ों प्रतियाँ बिकीं। लेखक ने इस पुस्तक में तरक्की करने के गुर बताए हैं। 

कितने लोगों की जिंदगी में इसके कारण बदलाव आया इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन स्टीफन की जिंदगी बदल गई। इस पुस्तक के दशकों पहले किसी ने ७ सामाजिक पाप की चर्चा करते हुए लिखा कि हर मनुष्य को, संस्था को इन ७ पापों से बचना चाहिए। ये भी तरक्की के ही उपाय थे। उन्हों ने जिन ७ पापों से बचने के लिए कहा था वे थीं:

१। सिद्धान्त के बिना राजनीति

राजनीति से मिली शक्ति के द्वारा जनता का सर्वांगीण विकास किया जाना चाहिए। बिना सिद्धान्त की राजनीति में राजनीतिज्ञ और बड़े व्यापारियों के मध्य एक अनौपचारिक गठबन्धन और समझौता होता है जो उनके आपसी विकास और सुरक्षा का ही ध्यान रखता है। इससे निर्बल और गरीब जनता की  अनदेखी होती है।

२। कर्म के बिना धन

बिना मेहनत के आये हुए धन को स्वीकार नहीं करना। भ्रष्टाचार तथा अनुचित कार्यों से कमाया धन इसी श्रेणी में आता है। बिना कर्म के धन एकत्रित करने की होड़ में ही अनैतिकता का जन्म  होता है।

३। आत्मा के बिना सुख

दूसरों को दुख देकर पाया गया सुख पाप है। आंतरिक अनुशासन से आती आवाज के अभाव में प्राप्त सुख सिर्फ भोग-वासना है।

४। चरित्र के बिना ज्ञान

बिना चरित्र के ज्ञान भी पाप की ही कोटी में गिना जाता है और कलंक का भागी होता है। व्यापारिक संस्थानों द्वारा मानवीय ज्ञान (ह्यूमेन कोटेंट) के बदले बौद्धिक ज्ञान (इंटेलिजेंस कोटेंट) को दी जाने वाली प्राथमिकता का ही यह नतीजा है कि मानवीय चरित्र का ह्वास हुआ है और शिक्षा संस्थानों में भी उसे ही प्राथमिकता दी जाने लगी है। फलस्वरूप ऐसी संस्थानों ने रुपये बनाने की मशीनों का ज्यादा निर्माण किया है, मानवों का कम।  

५। नैतिकता के बिना व्यापार

आवश्यकता से अधिक नफा लेने वाला दुकानदार अगर किसी ग्राहक के छूटे समान को वापस भी करता है तो वह नीतिवान की श्रेणी में नहीं आता। जमाखोरी, डकैती का ही प्रारूप है। निजी और व्यापारिक नैतिकता अलग अलग नहीं हैं। नैतिकता का त्याग कर व्यापार करने की नीयत में ही भ्रष्टाचार पनपता है।

६। मानवीयता के बिना विज्ञान

मानवता को नजरंदाज करने वाला विज्ञान भी राक्षसी ज्ञान ही है। विज्ञान का प्रयोग अमीरों के बजाय गरीबों की सुविधा के लिए निर्माण का दृष्टिकोण ही मानवीय दृष्टिकोण है। ध्येय मानव के लिए मशीन (मशीन टु बी फिट फॉर मैन) होना चाहिए मशीन के लिए मानव (मैन टु बी फिट फॉर मशीन) नहीं। शिक्षण संस्थाओं को भी यही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

७। त्याग के बिना पूजा

त्याग, पूजा का अभिजात्य अंग है। बिना त्याग के पूजा कर्मकांड ही है। पूजा का उद्देश्य एक ही है – सब का उत्थान यानि सर्वोदय।  सरकार द्वारा प्रचारित सामाजिक उत्तरदायित्व भी एक छलावा ही है। कई बार देखा गया है कि दान-धर्म देने वाले व्यापारिक संगठन इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि इस मद में उनके द्वारा खर्च किया गया रुपया किस तरह उनके हित में ही हो। जब कभी, जहां कहीं उनके मुनाफे और त्याग का आमना सामना हुआ है त्याग का ही त्याग किया गया है। एक बहुत बड़ी बहुराष्ट्रीय संस्था ने, जिसकी एक वैसी ही बहुराष्ट्रीय लोकोपकारी (फिलन्थ्रोफिक) सहयोगी संस्था भी है, अपने उत्पादन के लिए जमीन से बड़ी मात्रा में पानी निकालना प्रारम्भ किया। जिसके फलस्वरूप 17 जिलों में पानी की कमी होने लगी और अकाल के लक्षण दिखने लगे। जब उन जिलों की निगम ने उनका ध्यान इस तरफ खींचा तब संस्थान ने निगम से साथ मिलकर कार्य करने का ही त्याग  किया और कानूनी कार्यवाही कर निगम को रोकने को  ही अपना फर्ज़ समझा।

इन सात पापों के प्रतिपादक थे बापू। सिर्फ ध्येय का महान होना ही पर्याप्त नहीं है, उसकी प्राप्ति का मार्ग भी महान होना आवश्यक है। ये दोनों आपस में उसी प्रकार जुड़े हुए हैं जैसे बीज और वृक्ष। अगर मुझे आपकी घड़ी पसंद है और मुझे वह चाहिए तो मैं उसे आपसे छीन सकता हूँ, आपसे खरीद सकता हूँ या आपसे देने का अनुरोध भी कर सकता हूँ। इस प्रकार वह घड़ी मेरी द्वारा हथियाई भी हो सकती है, खरीदी हुई भी हो सकती है और मुझे उपहार में मिली हुई भी हो सकती है। हमारे द्वारा अख्तियार किया गया रास्ता ही हमारे भविष्य का निर्माण करता है।

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शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

सूतांजली, सितम्बर २०२०

सूतांजली के सितम्बर अंक का संपर्क सूत्र नीचे दिया है, इसमें निम्नलिखित कई विषयों पर चर्चा है:

संपर्क सूत्र (लिंक):

URL -> https://sootanjali.blogspot.com/2020/09/2020.html

 १। तर्क और ज्ञान

ईर्ष्या और अभिमान हमारे दिल में चुपके से ऐसे प्रवेश कर जाते हैं जिसका हमें अहसास तक नहीं होता और हम उसके शिकार हो जाते हैं, हम उसके वाहक हो जाते हैं। यही नहीं हमारा ज्ञान, अहंकार के पक्ष में तर्क भी देने लगता है। कैसे होता है यह और कैसे बचे इससे।

२। सरकारी कर्मचारी

दक्षिण अफ्रीका से लौटने पर गांधी ने अपने राजनीतिक गुरु गोखले से मुलाक़ात की। श्री गोखले ने  गांधी को एक वर्ष तक भारत-भ्रमण की सलाह दी ताकि वे भारत को ठीक से समझ सकें। उनकी बात शिरोधार्य कर गांधी भारत-भ्रमण पर निकल पड़े। उनका उद्देश्य था भारत को समझना। उनके लिए इसका अर्थ था भारतवासियों को समझना और इस कारण उन्हों ने अपनी पूरी यात्रा रेल के तीसरे दर्जे में ही की। उन्हों ने क्या पाया और क्या सुझाव दिया?

३। इत्तिफ़ाक इत्तिफ़ाकन नहीं होते

जी हाँ, सही पढ़ा है आपने। इत्तिफ़ाक इत्तिफ़ाकन नहीं होते, इन्हे साधना पड़ता है या यूं भी कह सकते हैं कई बार हम जाने अनजाने इत्तिफ़ाक को साध लेते हैं। कई बार ऐसा होता है कि सुशील भैया से फोन पर बात करने की इच्छा होती है और तभी उनकी घंटी बज उठती है। देखें तो विश्वास करें,  या विश्वास करें तो दिखे। .......

४। लघु कहानी - सराहना  और क्षमता

एक नट था। उसकी कलाबाजियाँ देख लोग दाँतो तले अंगुलियाँ दबा लेते थे। वह दो रस्सियों और एक झंडे की मदद से दो बीस मंज़िला इमारतों के बीच की दूरी आसानी से तय कर लेता था। ......

सूतांजली के आँगन में के नाम से ज़ूम मीटिंग की सूचना और अपने सुझाव देने का अनुरोध।

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शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

हमारा बुद्धिजीवी वर्ग

क्या हमारे देश में बुद्धिजीवी वर्ग है? शायद नहीं! अगर है तो कहाँ है? वह दिखता क्यों नहीं? कहीं शुतुरमूर्ग की तरह मुंह छुपाये, निष्क्रिय होकर बैठा है? या फिर बुद्धिजीवी का बल्ला लगाये अनपढ़ गंवार की तरह  सब कुछ देखते हुए भी अपने आप को असहाय मानते हुए मैं अकेला क्या कर सकता हूँ की माला जप रहा है? बुद्धिजीवी नेता की बाट नहीं जोहता, वह तो नेतृत्व प्रदान करता है। चीन ने जब तिब्बत को घेरना प्रारम्भ किया, दलाई लामा किसी की सलाह के मोजताज नहीं रहे, न ही किसी की सहायता की अपेक्षा रखी,  न ही यह सोचा कि मैं अकेला क्या कर सकता हूँ? वे चुपके से कठिन और दुर्गम बर्फ की शिलाओं को पैदल पार करते हुए बड़ी कठिनाई से भारत भाग आये। बाद में जब एक पत्रकार ने पूछा कि आपने ऐसी दुर्गम मंजिल कैसे तय की। उन्होने जवाब दिया, मेरा लक्ष्य स्पष्ट था और मैं एक बार में केवल एक कदम चला

क्या बुद्धिजीवी का अर्थ बड़ी डिग्री धारक, पीएचडी शोधकर्ता, विश्व विख्यात विश्वविद्यालयों में बैठे प्राध्यापक, वैश्विक स्तर पर मान्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले लेखक, या फिर नोबल या वैसी ही अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हस्ती ही है? तब तो यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हाँ हमारा देश बुद्धिजीवियों से भरा पड़ा है। अगर यही कसौटी है तब मैं यही कहूँगा कि बुद्धिजीवी की परिभाषा बदलनी होगी

अभी कुछ वर्षों पहले, पूरे देश से 49 बुद्धिजीवियों के वर्ग द्वारा, दल बना कर (इन ग्रुप) भारत के प्रधान मंत्री को  पत्र लिखने की और फिर उसके प्रतिवाद में 62 बुद्धिजीवियों के एक दूसरे दल द्वारा अलग पत्र लिखने की चर्चा मीडिया पर छाई रही। उस समय तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा ऐसे पत्र लिखने का कार्य सम्पन्न होना प्रारम्भ ही हुआ था। लेकिन कालांतर में यह एक प्रकार का फैशन हो गया है जिसमें अब सेवानिवृत्त अधिकारी भी शामिल हो गए हैं। बे-समय बोलते रहते हैं और समय पर चुप्पी साध लेते हैं। ये मुद्दे सार्वजनिक पिटाई (लिंचिंग) का हो, या असहिष्णुता (इंटोलरंस) का या दंगों का या देश को अपमानित करने का। सरकार को लिखते हैं लेकिन जनता से मुखातिब नहीं होते। इनका उद्देश्य जनता में भाईचारा, संयम, अमन चैन फैलाना नहीं है, सिर्फ  सस्ती लोकप्रियता बटोरना है? 

देश में पढ़े - लिखे और सम्मानित लोगों की कमी नहीं है। मीडिया और जनता इनकी बात सुनती भी है, और प्रसारित भी करती है। उनमें धार भी है। हाँ, अब इनकी धार भोथरी होने लगी है, लेकिन इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं। यह वर्ग अपने घर में आराम से बैठ कर विश्लेषण करने, प्राप्त पुरस्कार को वापस करने, इनके पक्ष या विपक्ष में मौके-बेमौके अपनी राय देने तक ही सीमित है। बल्कि कभी-कभी अपने वक्तव्यों से जनता को भड़काने, उनमें रोष पैदा करने, उन्हें असहज बनाने का कार्य ही करते हैं। इनमें से कोई भी जनता से मुखातिब नहीं होता। जनता को संयम बरतने, ईर्ष्या का त्याग कर प्रेम की तरफ ले जाने, आपसी भाईचारे को बहाल करने, कानून को अपने हाथ में न लेने की सलाह नहीं देता? ये लोग जनता को सही दिशा दिखाने के बजाय प्रधान मंत्री को पत्र लिखने, न्यूज़ चैनल को अपने तीखे विचार बता कर उन्हें भड़काने में ही अपने फर्ज़ की अदायगी समझते हैं। ये इस प्रकार सस्ते प्रचार तक ही सीमित रहते हैं। अगर सत्य और निष्पक्षता का दम है तब नेतृत्व करने सड़क पर क्यों नहीं उतरते? जनता का मार्ग दर्शन क्यों नहीं करते? हाँ कुछ लोग हैं, खेल जगत से, सिनेमा जगत से जिनका प्रसारण टीवी में कुछ सामाजिक मुद्दों पर जनता का सही मार्ग दर्शन करता है। लेकिन वे ज्यादातर सरकारी चैनलों से ही प्रसारित होते हैं। निजी चैलनों से  क्यों नहीं? क्या निजी चैनलों का कोई उत्तरदायित्व नहीं है? बुद्धिजीवी वर्ग इससे क्यों नहीं जुड़ता? उनका ध्येय अमन-चैन का नहीं है? उनमें माहौल बदलने का सामर्थ्य है, लेकिन वे दुराग्रहों से ग्रसित हैं और कुछ मौन साधे बैठे हैं। उनके ध्येय में स्वार्थ की दुर्गंध है। एक वर्ग को स्वार्थ का त्याग कर अमन-चैन की भाषा बोलनी होगी और दूसरे को मौन का त्याग कर मुखर होना होगा। ऐसा करना कठिन भी नहीं है, बस इच्छाशक्ति चाहिए।

बुद्धिजीवी वर्ग का कर्तव्य है जनता से संपर्क रखना, उसे सही मार्ग दिखाना। उनमें बिना भेद-भाव और पूर्वाग्रह के सही को सही और गलत को गलत कहने की, समझने की और जनता को सही मार्ग दर्शन करने की शक्ति, सामर्थ्य और उत्कुंठा होनी चाहिये। उनका असर जनता पर तात्कालिक और विद्युत गति से होता है। अगर यह वर्ग अपने कर्तव्य का पालन नि:स्वार्थ भाव से करे तो देश की दिशा और दशा सुधरती नज़र आयेगी। ऐसे बुद्धिजीवियों की हमारे देश में कमी नहीं है। हमें ऐसे लोग चाहिए जो जनता को विधायक और प्रशासक के विरुद्ध नहीं बल्कि अनीति के विरुद्ध और नीति के समर्थन में खड़ा करे। पापी का नाश करनेवाला कालांतर में खुद पापी बन जाता है, अत: पापी का नहीं  पाप का नाश करना है। 

यहाँ मैं स्वामी विवेकानंद की एक उक्ति उद्धृत करना चाहूँगा, मुझे ऐसे एक सौ युवा दे दो, जो सच्चे (truthful), शुद्ध एवं निस्वार्थी हों, मैं दुनिया बदल दूँगा”।  इसी तर्ज पर यह भी कहा जा सकता है सच्चे, शुद्ध और निस्वार्थ 50 बुद्धिजीवियों का एक संगठन भारत को बदल सकता है। जब देश के विभिन्न भागों में रहने वाले 111 (49 + 62) प्रतिष्ठित व्यक्ति एक दूसरे से संपर्क साध कर एक समूहिक पत्र साझा कर देश के प्रधान मंत्री को लिख सकते हैं, टीवी के चैनलों पर गला फाड़ फाड़ कर असहिष्णुता, संयम पर भाषण दे सकते हैं, तब वे एक आम सर्वनिष्ठ कार्यक्रम के अंतर्गत देश के कोने कोने में जाकर सामंजस्य स्थापित करने की लिये क्यों प्रेरित नहीं करते हैं?  

साहिर लुधियानवी के ये पंक्तियाँ याद आती हैं:

ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ,

          ये कूचे ये गलियाँ ये मंजर दिखाओ

                   जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको बुलाओ

                             जिन्हें नाज़ है हिन्द पार वो कहाँ है?

                                                कहाँ है, कहाँ है, कहाँ है?

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शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

ऐसा भी होता है ....... ?

कतराव (kataraw)? का नाम आपने सुना है? अच्छा सहोदरा (sahodara) का नाम? या फिर बगहा (bagaha) का? नहीं सुना है न? मैंने भी नहीं सुना था। चंपारण? इसका नाम तो गांधी ने इतिहास में दर्ज करा दिया है, जरूर सुना होगा। इसी चंपारण से गांधी ने भारत में अपना पहला सत्याग्रह आंदोलन प्रारंभ किया था, नील की खेती करने वाले किसानों के लिए। उत्तर बिहार में नेपाल की सीमा के नजदीक, बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले का एक छोटा सा गाँव है कतराव; यह  सहोदरा थाने के अंतर्गत आता है। बगहा शहर से 70 किलोमीटर है और पटना से 245 किमी दूर।

सहोदरा पुलिस स्टेशन की भौगोलिक स्थिति दर्शना गूगल मैप 

आप सोच रहे हैं कि मैं इसकी चर्चा क्यों कर रहा हूँ। कतराव एक आदर्श गाँव है जिसकी मिसाल नहीं मिलेगी। यहाँ के थाने में आजादी के 73 सालों में आज तक एक भी, किसी भी अपराध के लिए एफ़आईआर (FIR) दर्ज नहीं हुई है और न ही अदालत में कोई फ़ौजदारी मुकदमा दर्ज हुआहै। यह गाँव उसी बिहार में है जो अपने अपराधों के कारण देश के शीर्षतम राज्यों में एक माना जाता है। गाँव में लगभग 5000 लोग रहते हैं जिनमें अनुसूचित जाति के लोग भी शामिल हैं। यहाँ के आपसी झगड़े वहीं की पंचायत निबटा देती है और सबों को उसका फैसला मान्य होता है। महिलाओं से संबन्धित मामलों का महिला पंचायत में फैसला होता है जिनमें पुरुषों की दखल अंदाजी नहीं होती है। लोगों ने बताया कि यह संभव हुआ है उनकी महात्मा गांधी के आदर्शों में पूर्ण विश्वास और आस्था के कारण। महात्मा गांधी का भितिहरवा गांधी स्मारक आश्रम  यहाँ से सिर्फ 15 किमी पर है। राज्य के डीजीपी गुप्तेश्वर पांडे को भी विश्वास नहीं हुआ। लेकिन जब वे भी वहाँ का दौरा कर आए तब उन्हे भी मानना पड़ा कि आज भी महात्मा में अविश्वसनीय शक्ति है। आज भी महात्मा गांधी वह करने में  सक्षम हैं जिसे थाना, पुलिस, कानून नहीं कर सकती

गांधी आश्रम
भीतिरहवा गांधी आश्रम का प्रवेश द्वार (यहाँ से प्रवेश करें)


ऐसा क्या था बापू के आदर्शों में, जिसे लोग आज भी निष्ठापूर्वक निभा रहे हैं और सब साथ साथ एक परिवार की तरह रहते हैं? पढे-लिखे लोग, बुद्धिजीवी वर्ग, शिक्षित समुदाय शायद इस पर बड़े बड़े शोध पत्र लिख डालें, डिग्रियाँ हासिल कर लें और शायद इसको लेकर लड़ भी लें। दुर्भाग्य तो यह है कि देश में गांधी के नाम से चलाने वाली संस्थाओं के पदाधिकारी भी गांधी के नाम पर कमोबेश परस्पर द्वेष और वैमनस्य बढ़ाने की ही भाषा बोल रहे हैं। इसके विपरीत कतराव ग्राम के वासी इसकी चर्चा नहीं करते, बल्कि गांधी मार्ग अपना कर उसका अतिउत्तम उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। सही कहें तो इसका कोई एक कारण नहीं है। अनेक कारण हो सकते हैं। लेकिन एक बहुत ही सीधा और सरल सा कारण है हम। हम मतलब कौन? साधारण से शब्दों में इस हम को बड़े अच्छे ढंग से परिभाषित किया गया है इस कविता में : 

बचपन में जब भी पूछता था कोई,

कितने भाई बहन हैं तुम्हारे,

जोड़ने लगते थे हम सभी ......

जल्दी-जल्दी,

अपनी नन्ही-नन्ही उँगलियों पर,

उँगलियाँ खत्म हो जातीं, जोड़ नहीं

क्योंकि, कज़िन क्या होता है, पता ही नहीं था।

माँ ने कहा, ये तेरे बड़े भाई हैं, यह छोटी बहन।

बस,

हो गए हम ढेर सारे.....

जब भूख लगे,

जिस घर के बाहर खेलते उसी में घुस जाते;

वे अपने नहीं थे, पता ही नहीं था!!

चाची, ताई, मासी, बुआ,

न जाने कितने अपने लोग, कितने प्यारे रिश्ते,

एक ही टोकरी में सजे, अलग-अलग फूलों की भांति, 

उतना ही अपनापन, उतनी ही डांट,

परायापन क्या होता है, पता ही न था। .........

(यह खबर मैंने पढ़ी अँग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया, कोलकाता, में और कविता का यह अंश लिया है मधुसंचय से)

टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित खबर 


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http://youtube.com/watch?v=pY7R-iXnbm8