गुरुवार, 27 अक्टूबर 2016

शिक्षा : हमारा भारत या ब्रिटिश इंडिया

“हिन्द स्वराज” में महात्मा गांधी ने शिक्षा पर एक पूरा अध्याय लिखा है। इसके अलावा भी कई स्थानों पर भारत में शिक्षा के उद्देश्य और स्वरूप की चर्चा  की है और अपना मत जाहिर किया है। गांधी ने कभी भी शिक्षा का अर्थ “अक्षर ज्ञान” तक सीमित नहीं रखा। उन्होने शिक्षा को एक बहुत बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा। गांधीजी लिखते हैं कि एक किसान ईमानदारी से खेती-किसानी करके अपनी रोजी-रोटी कमाता है। उसे दुनिया का सामान्य ज्ञान है। अपने माँ-बाप, स्त्री, बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, जो लोग उसके गाँव में बसते हैं उनके साथ कैसी रीति-रस्म रखे, इसका उसको पूरा ज्ञान है। सदाचार के नियमों को वह समझता है और उसका पालन करता है। पर उसे हस्ताक्षर करना नहीं आता। अब उसे साक्षर बना कर उसके सुख में क्या वृद्धि कि जा सकती है? इससे तो उसे अपनी दशा के प्रति असन्तोष ही उत्पन्न होगा? इसके विपरीत शहर का एक युवक उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने आस पास के लोगों कि कौन सी भलाई करेगा? वह तो केवल चालाक, होशियार और खुदगर्ज ही बनेगा। गांधीजी ने आगे लिखा कि अंग्रेज़ विद्वान हक्सले शिक्षा के बारे में कहते हैं, “जिसका मन प्रकृति के नियमों के ज्ञान से भरपूर है, जो बुरे कामों से नफरत करता है, सबों को अपने समान समझता है, ऐसे ही व्यक्ति के लिए कहा जा सकता है कि उसे उच्च शिक्षा मिली हुई है। वह प्रकृति के नियमों के अनुसार चलता है. इन सब पैमानों पर गाँव का गंवार शहर के बाबू की तुलना में ज्यादा शिक्षित है।


लाओत्से का भी यही मानना है कि शिक्षित व्यक्ति को बेईमानी से बचाना मुश्किल है, क्योंकि शिक्षा होशियारी देती है। यही होशियारी चालाकी का स्वरूप लेती है। शिक्षा समझ तो देती है लेकिन हृदय परिवर्तन नहीं करती है। जो हृदय कल कर सकता था अशिक्षित हो कर, आज वही दुगने वेग से कर सकता है शिक्षित हो कर। जो हाथ तलवार से एक को मार सकता था अब वही एक बम से सैंकड़ों को मारता है। 

कैसी शिक्षा?
धन के बदले “खुशी” को देश की तरक्की का पैमाना मानने वाले देश भूटान में मानवीय मूल्यों पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन था। वहीं रॉयल यूनिवर्सिटी के उप कुलपति से  पूछा गया कि आपके देश के निवासियों की खुशहाली का राज क्या है? बिना कोई समय लिए उन्होने कहा, “शिक्षा। हम अपना धन शिक्षा पर खर्च करते हैं। शिक्षा से मेरा अभिप्राय इंजीनियर, डॉक्टर, शिक्षक आदि बनाने वाले कल-कारखाने से नहीं है। बल्कि “मानवीय मूल्यों” की शिक्षा से है।”

साक्षरता हमें केवल पढ़ना और लिखना सिखाती है जबकि शिक्षा हमें सही निर्णय लेना सिखाती है। गांधीजी से पूछा गया कि आजाद भारत के बच्चों की शिक्षा कैसी होनी चाहिए तो उन्होने कहा अगर मैं किसी भी कक्षा में जाकर बच्चों से पूछूं कि अगर मैंने एक सेव ४ आने में खरीदी और १ रुपये में बेच दी तो मुझे क्या मिला? अगर इसके उत्तर में सब बच्चे कहें “जेल मिलेगी” तो मैं समझूँगा कि यह आजाद भारत के बच्चों के सोच की शिक्षा है। मुझे किसी भी हालत में इतनी कमाई का अधिकार नहीं है। 

शिक्षा का उद्देश्य अगर पैसे कमाना है तो वह प्रतिस्पर्द्धा पैदा करेगी लेकिन अगर उद्देश्य व्यक्तित्व निर्माण है तो खुशहाली लाएगी।

प्राचीन शिक्षा पद्धति
अगर हम भारत कि पौराणिक शिक्षा पद्धति पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि उस समय शिक्षा “गुरुकुल” में दी जाती थी। इन गुरुकुलों में मानवता का पाठ पहले दिन से दिया जाता था। राजा-रंक साथ साथ रहते और पढ़ते थे। इस वातावरण में विद्यार्थी को “वसुधैव कुटुम्बकम” की तालीम मिल जाती थी।  इस शिक्षा पद्धति कि कुछ विशेष बाते थीं:
१.      विद्यार्थी गुरुकुल में ही रह कर शिक्षा प्राप्त करता था। परिचितों और सम्बन्धियों से कोई संपर्क नहीं रहता था।
२.      विद्या बिना मूल्य के दी जाती थी। शिक्षा प्राप्ति के बाद विध्यार्थी गुरुकुल छोड़ते समय अपनी क्षमता और श्रद्धा के अनुसार शिक्षक को गुरुदक्षिणा दिया करते थे॰
३.      गुरुकुल में अपना सब कार्य विद्यार्थी खुद अपने हाथों से करते थे। साथ ही गुरुकुल के रख रखाव का उत्तरदायित्व भी विद्यार्थियों का था।
४.      इन गुरुकुलों को स्थानीय राजा का संरक्षण प्राप्त था। राज परिवार के अलावा सेठ, साहूकार समय समय पर इन गुरुकुलों को स्वत: अनुदान दिया करते थे। इन अनुदानों के बदले में गुरुकुल कि शिक्षा और कार्य प्रणाली में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ करता था।
५.      विद्यार्थी कि योग्यता और पारिवारिक संस्कार के अनुरूप शिक्षक विद्यार्थी को शिक्षित करता था।
६.      अन्य विशेष ज्ञान एवं शिक्षा के अलावा सामान्य ज्ञान, नीति, अध्यात्म एवं  मानवता का पाठ पढ़ाया जाता था।
७.      युद्ध के समय ये गुरुकुल अछूते रहते थे, राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था।
८.      शिक्षा का उद्देश्य पैसे कमाने कि मशीन बनाना नहीं बल्कि व्यक्तित्व निर्माण व आध्यात्मिक मूल्यों का बोध कराना था।

ब्रिटिश प्रभाव
उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार १८वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में शिक्षित लोगों कि संख्या का प्रतिशत किसी भी यूरोपियन  देश कि तुलना में ज्यादा था। भारत में शिक्षा कि प्रमुखत: चार पद्धतियां थीं:
१.      ब्राह्मण परिवार अपने घरों में संस्कृत की शिक्षा देते थे।
२.      सभी प्रमुख शहरों में संस्कृत में शिक्षा देने के लिए विद्यापीठ थे।
३.      पूरे देश में हिन्दू और मुस्लिम शिक्षण संस्थाएं थीं  जो संस्कृत, उर्दू और पर्सियन कि शिक्षा देती थीं।
४.      प्रत्येक गाँव में कम से कम एक पाठशाला होती थी।  इन पाठशालाओं कि देख रेख गाँव कि पंचायत पूरी ईमानदारी से करती थी।

इन चार पद्धतियों से पूरे देश में आरम्भिक से उच्च शिक्षा तक का प्रावधान था। सहज उपलब्धता के चलते देशवासी पढ़े-लिखे एवं शिक्षित थे। केर हेर्डी, ब्रिटिश संसद के सदस्य, ने अपनी पुस्तक “इंडिया” में लिखा है,“मैक्स मुलर ने सरकारी दस्तावेजों और मिशनरी रिपोर्टों के आधार पर यह दृढ़ता पूर्वक लिखा है कि अंग्रेजों के आने के पहले बंगाल में  ८०००० यानि प्रत्येक ४०० व्यक्ति पर एक विद्यालय हुआ करता था।” लुडलो ने अपनी पुस्तक “ब्रिटिश भारत का इतिहास” में लिखा है,“प्रत्येक गाँव में प्राचीन प्रचलित शिक्षा कि पद्धति विद्यमान है। प्राय: हर बच्चा लिखना, पढ़ना और गणित जानता है। लेकिन हमने गांवों, विद्यालयों और इस व्यवस्था को नष्ट कर दिया है।”

भारत में शिक्षा का स्तर उच्च कोटी का था। शिक्षा का क्षेत्र व्यापक था। जैसे जैसे अंग्रेजों की सत्ता स्थापित होती गई और उनका प्रभाव बढ़ने लगा, शिक्षा व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गई। भारत में अंग्रेजों की शिक्षा नीति का दो आधार था:
१.      अंग्रेजों को इस बात का अंदेशा था कि भारत में  उनके पतन का कारण ये शिक्षित लोग ही होंगे। अमेरिका का उदाहरण उनके सामने था। वहाँ के शिक्षित लोगों ने स्थानीय जनता में अभूतपूर्व जागृति पैदा की। थॉमस पाइन की लिखी कॉमन सेंस ने पूरे अमेरिका में नागरिकों का खून खौला दिया था। उन्होने ब्रिटिश साम्राज्य को अमेरिका से अपना लंगर उठाने के लिए मजबूर कर दिया। इस कारण ब्रिटिश इस बात के लिए सजग थे की आम भारतीय को शिक्षा न मिले तथा शिक्षा का रूप ऐसा हो जो भारत में अंग्रेजों के शासन कि जड़ मजबूत करने में सहायक हो।     
२.      अपने हुकूमत को सुचारु रूप से चलाने के  लिए अंग्रेजों को अँग्रेजी जानने वाले स्थानीय लोगों की बड़ी संख्या में आवश्यकता थी, जो आम जनता और अंग्रेजों के मध्य दुभाषिए का कार्य कर सके
इन दोनों उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुवे अँग्रेजी कि शिक्षा हमारे ऊपर लाद दी गई। सोची समझी नीति के अंतर्गत देश के उच्च और उच्च मध्यवर्गीय समुदाय को निशाना बनाते हुवे उनमें अँग्रेजी शिक्षा का प्रलोभन एवं प्रचार प्रसार प्रारम्भ किया गया। इससे ये भारतीय ही अँग्रेजी शिक्षा का महत्व प्रतिपादित करें और समाज में उनका उदाहरण स्थापित हो। आम जनता उन अंग्रेज़ भारतीयों से डरे और उन्ही जैसा बनने की स्वत: कोशिश में स्वदेशी को हेय और विदेशी को उत्कृष्ट समझें।

कई दशकों तक ब्रिटिश शिक्षाविद व प्रसाशकों में भारत में शिक्षा पद्धति को ले कर खींचा तानी चलती रही थी। मतांतर पूर्वी तथा पश्चिमी शिक्षा पद्धति को लेकर थी। १८३५ में मैकाले ने पश्चिमी पद्धति कि तरफ निर्णायक फैसला कर के इस विवाद को सदा के लिए समाप्त कर दिया। उसने साफ शब्दों में कहा,“हमें एक ऐसा वर्ग  चाहिए जो हमारे एवं हमारी रियाया के बीच दुभाषिए का काम करे। हमें ऐसे भारतीय चाहिए जो रंग और खून से तो भारतीय हों लेकिन व्यवहार, विचार, ज्ञान और अभिरुचि में पूरी तरह अंग्रेज़ हों। वे यह बात पूरी शिद्दत से मानते हों कि पूर्वी और भारतीय सब कुछ गलत, असभ्य और हीन है तथा पश्चिमी और अँग्रेजी ही ठीक, सभ्य और प्रतिष्ठित है।”

शिक्षा के स्थापित उद्देश्य को ही बदल दिया गया। व्यक्तित्व निर्माण के बजाय अर्थोपार्जन शिक्षा का उद्देश्य हो गया। यह कार्य शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों स्तर पर हुवा। इस उद्देश्य ने सद्भावना के बजाय प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दिया।

हमने अपनी सभ्यता छोड़ दी, विदेशी सभ्यता में हम रंगे सियार से दिखने लगे।  हमने सोचने, समझने और विचार करने की शक्ति गंवा दी। आज परिस्थिति यह है कि हम सोचते कुछ हैं, चाहते कुछ हैं, कहते कुछ हैं लेकिन करते कुछ और हैं। पूरी तरह दिग्भ्रमित हैं।

४७ के बाद की गुलामी
१५ अगस्त १९४७ तक तो हम उनकी नीति मानने और अपनाने के लिए बाध्य थे। लेकिन उसके बाद? उस समय शिक्षा का उद्देश्य दुभाषिए और क्लर्क तैयार करना था। आज की शिक्षा भी वैसी ही है। हमें पढ़ना तो सिखाती है लेकिन क्या पढ़ना है इसका ज्ञान नहीं देती। शिक्षण संस्थाएं ज्ञान देने के बजाय पैसे बनाने की मशीन बनाने में लगे हैं। देश के  शिरषर्थ  विध्यालय और महाविद्यालय बड़े शान से इस बात की घोषणा करते हैं की उनके यहाँ से  शिक्षित विध्यार्थी को कितने की नौकरी मिली।  बड़े बड़े इस्तिहार निकलवाते हैं कि उनके यहाँ पढ़े कितने विद्यार्थियों को कहाँ और कितने की नौकरी मिली?

१९४७ में इन भारतीय अंग्रेजों ने हर प्रशासनिक और वैधानिक कुर्सी हड़प ली। इन भारतीयों  का फायदा और उनकी सुरक्षा इसी में थी कि जो जैसा है वैसा ही चलता रहे। बदलाव लाने में उन का अहित था और आम जनता का हित था। बदलाव के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती। उदाहरण के लिए स्वाधीनता के बाद शिक्षा और सरकारी कार्यालयों में कार्य के माध्यम को स्थानीय भाषा में परिवर्तित करने पर उन सबों को स्थानीय भाषा सीखनी पड़ती।  शिक्षकों और प्राध्यापकों को अपने बने बनाए अँग्रेजी  नोट्स को स्थानीय भाषा में अनुवाद करने की अहमियत भी उठानी पड़ती। अँग्रेजी ज्ञान के कारण जो उनका प्रभुत्व था वह भी समाप्त हो जाता। विशिष्ट साहब से देसी बाबू के समकक्ष बन जाते। जिन पदों पर वे अपना एकछत्र अधिकार समझते थे उन पर देसी बाबुओं की भी नियुक्ति होने लग जाती। अत: ऐसे हर  भारतीय अंग्रेज ने “भारत” का प्राण पन से विरोध किया। परिणाम, ब्रिटिश अंग्रेज़ चले गए, भारतीय अंग्रेज़ रह गए। हुकूमत देशी अंग्रेजों के हाथों में चली गई। फलस्वरूप आजादी उन चंद भारतीय अंग्रेजों तक ही सीमित रह गई। आम आदमी तक नहीं पहुँच पाई।  

आम जनता तक आजादी को पहुंचाने का कार्य आसान नहीं, दुष्कर है। चीनी अधिग्रहण के बाद, दलाई लामा ने तिब्बत से लुकते छिपते, दुर्गम बर्फ की शिलाओं को पार करते हुवे, चीनी सैनिक और अधिकारियों की नजरों से बचते हुवे, पूरा रास्ता अकेले पैदल ही पार करते हुवे किसी तरह भारत में प्रवेश किया। बाद में किसी पत्रकार ने उनसे पूछा,“आपने इतना दुर्गम और जोखिम भरा रास्ता कैसे तय किया?” दलाई लामा ने कहा, “बहुत आसान था। एक बार में एक कदम”।

हमें वही, एक बार में केवल “एक कदम” चलना है। चलना होगा  “हम, भारत के लोग” को। हमारे शैक्षणिक संस्थानो से निकलने वाले विद्यार्थी भारतीय होने चाहिए, अंग्रेज़ नहीं। हमें स्वदेशी को अपनाना होगा, उसे श्रद्धा प्रदान करनी होगी। साथ ही अपनी कमियों को भी पूरा करना होगा। अपने घर कि सफाई करने के लिए दूसरों का मुख न देख खुद कर्त्ता बनना होगा। छोटे छोटे संकल्प लेते हुवे कार्य आगे बढ़ाते रहें तो महत कार्य स्वत: सिद्ध हो जाएगा।


तो उठाएँ पहला एक कदम।

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2016

उजागर

हर चीज बिकती है यहाँ,
रहना जरा सँभल के।
बेचने वाले हवा भी बेच देते हैं,
गुब्बारे में डाल के।
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सच बिकता है,
झूठ बिकता है,
बिकती है हर कहानी,
तीनों लोकों में फैला है,
फिर भी बिकता है
बोतल में पानी।
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गंगा में डुबकी लगा, तीरथ किए हजार
उससे क्या होगा अगर,  बदले नहीं विचार।
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मौत से इतनी दहशत, जान क्यों इतनी अजीज?
मौत आने के लिए है,
जान जाने के लिए।
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दुनिया में जिसे “मैं” की हवा लगी,
उसे फिर न दुआ लगी न दवा लगी।
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लगता है बारिश को कब्ज़ हो गई है
मौसम बनता है लेकिन आती नहीं।
                                                                                                         ~~~~~~~~~~
जो झुकते हैं जिंदगी में,
वे सब
बुज़दिल नहीं होते,
ये हुनर होता है उनका,
हर रिश्ता निभाने का।
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बहस कभी ऐसी मत करो कि
बहस तो जीत जाओ
मगर रिश्ता हर जाओ।
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जिंदगी के इम्तिहान में नंबर नहीं मिलते साहब,
लोग अपने  दिल में जगह दे दें
तो समझ लो
कि आप पास हो गए।
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पहले मैं हुशियार था, दुनिया बदलने चला था।
अब मैं समझदार हूँ, खुद को बदल रहा हूँ।
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भूलना भी ईश्वर का वरदान है,
वरना,
यादें तो इंसान को पागल बना देतीं।
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उम्र भर यही भूल करते रहे,
धूल थी आईने पर
चेहरा साफ करते रहे।
                                                                                                         ~~~~~~~~~~
खुदा पर जो यकीन है,
तो जो तकदीर में है,
वही पाओगे।
और खुद पर यकीन है,
तो खुदा वही लिखेगा,
जो आप चाहोगे।
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अपनी जबान से किसी के ऐब बयान मत करना,
क्योंकि
ऐब तुम में भी है
और जबान दूसरे के भी।

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सोमवार, 10 अक्टूबर 2016


Lord Macaulay : Apana Bharat Or British India

Who is Lord  Macualay?
Lord Macualay, Thomas Babington Macualay (25.10.1800-28.12.1859) was appointed the first law member to the Governor General’s council. A post added to the Governor General of India’s council by the The Government of India Act 1833, also known as Charter Act of 1833. Macualay came to India for five years in 1834 and served up to 1838 as Law member. Macualay did not know any of the Indian languages and was equally ignorant of the Indian people’s history, Indian way of life and their customary codes of moral, society and religious conduct. In addition, Macualay disliked India and its religious and social institutions.

Thoughts of Macualay
Macualay was instrumental in deciding the “Education” policy of British India. His thoughts about India, Indians, Indian literature and society are reflected in his many minutes, speeches and writings. The various Minutes from the official records, depicting Macualay’s thoughts and work, are worth quoting.....


1.      Lord Macaulay’s remarks in his address to the British Parliament on 2nd February 1835: “I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such calibre, that I do not think that we would be ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her cultural and spiritual heritage, and, therefore, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self esteem, their native culture and they will become what we want them – a truly dominated nation.”

2.      In his Minute on Indian Education of February 1835, Macaualy asserted, "It is, I believe, no exaggeration to say that all the historical information which has been collected from all the books written in the Sanskrit language is less valuable than what may be found in the paltriest abridgement used at preparatory schools in England".

3.      Macaulay considered the Indians as nothing but “dumb-driven cattle” owned by the English.

4.      “We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern; a class of persons Indian in Blood and colour, but English in taste, in opinion, words and intellect.”

5.      “..... all the funds appropriated for the purpose of education would be best employed on English education alone.”

6.      “.....We created a separate caste of English scholars, who has no longer any sympathy, or very little sympathy with their countrymen.”

7.      Within two years of his arrival in India, Macaualy written to his father “I am  convinced that if my  education policy and plans were duly carried out, after 30 years not a single idol-worshiper would be left amongst the respectable Hindus of Bengal.”

What Lord Macualay did?
Macualay replaced Indian system of education with the English System of education. Sanskrit, Persian, Arabic and other Indian languages were replaced with English.  Thus 12 years of controversy over the Oriental and Occidental system of education was decided in favour of Occidental by Macaulay. 

What to do?
Lord Macaulay has vey aptly put it : “Of all forms of tyranny ........ the worst is that of a nation.” And according to Abraham Lincoln, the American President: “There is no nation good enough to govern another nation.”

As the ruler of dominated India English have done everything to extend their rule in India to the maximum.  But, even after departure of Lord Macaualy in 1837 and the English in 1947 why are we faithfully following up Macaualay’s  policy and constantly producing “Macaualy’s children”?  It’s high time to feel that we are now INDEPENDENT for 70 years and to replace the English policy with Indian policy. We have to replace British India with Apana Bharat. We have to encourage and re-establish the Indian language, literature, society and spirituality. The government cannot do this. This is to be done by, as mentioned in the constitution of India, “We, the people of India”.


Reference
1.        British Rule in India by Pandit Sunderlal
2.        Macaulay’s “Minute upon Indian Education”