शनिवार, 19 नवंबर 2016

       परम्परा

परम्परा को अंधी लाठी से मत पीटो।
उस में बहुत कुछ
                    जो जीवित है,
                  जीवन-दायक है।
जैसा भी हो,
ध्वंस से बचा रखने लायक है।

पानी का छिछला होकर
                      समतल में दौड़ना,
                  यह क्रांति का नाम है।
            लेकिन घाट बांधकर
            पानी को गहरा बनाना,
            यह परम्परा का काम है।

परम्परा और क्रांति में
                  संघर्ष चलने दो।
आग लगी है, तो
            सूखी टहनियों को जलने दो।
मगर जो टहनियाँ
                 आज भी कच्ची और हरी हैं,
                     उन पर तो तरस खाओ।
            मेरी एक बात तो तुम मान जाओ।

परम्परा जब लुप्त होती है,
लोगों के आस्था के आधार
                        टूट जाते हैं।
उखड़े हुए पेड़ों के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते हैं।
परम्परा जब लुप्त होती है,
                  लोगों को नींद नहीं आती,
न नशा किये बिना
            चैन या कल पड़ती है।
परम्परा जब लुप्त होती है,
सभ्यता अकेलेपन के
                  दर्द से मरती है।

क़लमें लगाना जानते हो,
                  तो जरूर लगाओ,
मगर ऐसे कि फलों में
                  अपनी मिट्टी का स्वाद रहे।
और यह बात याद रहे
कि परम्परा चीनी नहीं           
                  मधु है।

परम्परा को अंधी लाठी से मत पीटो।
उस में बहुत कुछ
जो जीवित है,       जीवन-दायक है।
जैसा भी हो,
ध्वंस से बचा रखने लायक है।

शनिवार, 12 नवंबर 2016

आजादी या गुलामी : ब्रिटिश इंडिया या हमारा भारत

१५ अगस्त १९४७ की रात भारत आजाद हो गया। अंग्रेजों ने देश की बागडोर भारतीयों के हाथों में सौंप दी। पूरे भारत में यूनियन जैक का स्थान भारतीय तिरंगे ने ले लिया। लेकिन जनता गुलाम ही रही। तब फिर कौन आजाद हुआ? क्या भारतीय आजाद हुआ? किससे आजाद हुआ? जनता आजाद हुई? क्या आजादी की हमारी परिभाषा यही थी?

हाँ, यह ठीक है कि सबसे पहले आजादी। लेकिन गांधी ने इससे आगे सोचने के लिए कहा। गांधीजी पहले ऐसे विश्व  नेता थे जिनका यह मानना था कि आजादी के पूर्व इस पर विचार करने की जरूरत है कि किसकी आजादी, किससे आजादी और कैसी आजादी? अगर हमारे पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं तो हम केवल व्यक्तियों की अदला-बदली ही कर पाएंगे।  आजादी हासिल नहीं कर पाएंगे। बाघ बदल जाएंगे उनका स्वभाव तो वैसा ही रहेगा। १९७१ में मुजीब के नेतृत्व में बंगला देश ने पश्चिमी पाकिस्तान से आजादी हासिल कर ली। लेकिन परिणाम? खुद मुजीब की हत्या कर दी गई। बंगला देश में अराजकता फैल गई। स्टालिन के नेतृत्व में रूस “जार” से आजाद हुआ लेकिन स्टालिन  खुद “जार” बन बैठा। १९७७ के चुनाव में, आपतकाल के बाद, देश की सब राजनीतिक पार्टियों ने मिलकर इन्दिरा गांधी को मात दे दी, लेकिन नई सरकार अपना कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाई और इन्दिरा वापस सत्ता में आ गई।

ऐसा क्यों हुआ? इन सबका लक्ष्य आजादी” ही थी और आजादी मिल भी गई। लेकिन वह आजादी अपनी आजादी के लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाई। क्योंकि इस आजादी को कार्य का “समापन” समझा गया। न आजादी की व्याख्या की गई, न उसपर विचार किया गया, न कोई रूप रेखा तैयार थी। अत: गुलामी ही वेश बदल कर वापस आ गई। सच्चाई यह है कि आजादी तो केवल अपनी सोच, समझ और विचार के अनुरूप कार्य करने का अधिकार मात्र था। जिस खंडित राष्ट्र को हासिल किया गया है उसका नव निर्माण करने का अधिकार मात्र था। उसकी पूरी योजना होनी चाहिए थी और उस पर पूरी ईमानदारी से कार्य होना चाहिए था। लेकिन, न तो उसकी कोई योजना बनाई गई और न ही उसपर विचार किया गया। गांधी ने आजादी के पश्चात के कार्यक्रमों पर विचार करने के लिए कहा और उनके पास स्वतंत्र भारत की छवि, रूप रेखा, स्वरूप स्पष्ट भी थी। लेकिन कांग्रेस ने भारत को स्वतंत्र करने के अंग्रेजों के निर्णय के बाद गांधी को हटा दिया। गांधी की निगाह राष्ट्र एवं जनता पर थी लेकिन काँग्रेस की नजर सत्ता पर थी। गांधी के भारत से वे सहमत नहीं थे और उनके पास अपनी कोई योजना नहीं थी, कोई स्वरूप नहीं था। विदेशों से लाये गए उधार के विचारों को तोड़-मरोड़ कर भारतीयता का जामा पहना कर अपना लिया। गांधी के सपनों के भारत को तो वे पहले ही खारिज कर चुके थे। भारत देसी रहा नहीं, विदेसी हो नहीं सकता था।   

गांधी को दर किनार करने का अर्थ नैतिकता, राष्ट्रियता, अहिंसा को किनारे करना था। इस एक कदम ने केवल गांधी को नहीं छोड़ा बल्कि गांधीवादी पूरी कौम को उपेक्षित कर दिया। इस पूरे घटक की साख समाप्त हो गई, ये उपेक्षित हो गए।  “मजबूरी का नाम गांधी” की घोषणा कर इनका मखौल उड़ाया गया। नैतिकता नष्ट हो गई, राष्ट्रियता समाप्त हो गई, हिंसा मान्य हो गई। गांधी जनता के उपासक थे लेकिन अन्य नेता सत्ता के पुजारी थे। इसी कारण आजादी का लक्ष्य प्राप्त कर लेने के बाद गांधी की काँग्रेस को भंग  करने की सलाह कांग्रेसियों ने ठुकरा दी। उन नेताओं का उद्देश्य जनता की सेवा करना नहीं बल्कि उन पर शासन करना था। ब्रिटिश राज से देखा समझा हुआ आतंक का शासन ही उनके ख़यालों में था। । वे पीढ़ी दर पीढ़ी उसी अंग्रेजों के दिखाये-सिखाये रास्ते पर चलते जा रहे हैं। विधायक और प्रशासक खुल्लम खुल्ला  नियम, कायदे और कानून का मखौल उड़ाते हैं और उनकी अवहेलना करना अपना विशेषाधिकार मानते हैं। अपने आचरणों से यह साबित करते हैं कि कानून जनता के लिए है उनके लिए नहीं। यथा राजा तथा प्रजा। हर कोई अपने बल-बूते के अनुसार नियम, कायदे और कानून का उल्लंघन करता है, आतंकी बना हुआ है और उसे ही अपना बड़प्पन समझता है।

मैं वापस अपने उपरोक्त प्रश्न पर आता हूँ - क्या सचमुच आजाद हुआ? कौन आजाद हुआ? किससे आजाद हुआ? जनता आजाद हुई? क्या हमारी आजादी की परिभाषा यही थी? हमें मिला क्या? पहनने के लिए चिथड़े, रहने के लिए खुला आसमान, खाने के लिए .....? अंग्रेजों की ही तरह सत्ता का विरोध अपराध हो गया, विधायकों और प्रशसकों को अपरिमित विशेषधिकर प्राप्त हुवे, गली के गुंडो के बजाय थाने की पुलिस से ज्यादा भय लगने लगा। २५० वर्षों से दमित दासता और उसके पहले कि १००० वर्षों कि गुलामी के बाद हमारी मानसिकता ही गुलाम की हो गई। हमें शासक की ही खोज थी और वे हमें मिल गए। वेश बदल कर देशी गुलामी वापस आ गई। जनता तो जहां, जैसी थी वैसी ही रही केवल दमनकारियों कि चमड़ी का रंग बदल गया। 

स्वतन्त्रता संग्राम में बनाए गए बंदियों को जेलों से रिहाई मिली। संग्राम में भाग लेने वालों को स्वतन्त्रता सेनानी का खिताब मिला, पेंशन भी मिली। संग्राम में मारे जाने वाले वीरों को “शहीद” कह कर उनका सम्मान किया गया और उनके आश्रित परिवारों को भी तमगे और पेंशन मिले। इसके विपरीत वे भारतीय जिन्होंने अंग्रेजों की जी हजूरी की, भारतीयों पर जुल्म ढाये, रायबहादुर और सर की उपाधि शान से ली, को कोई पेंशन नहीं मिली, सेनानी भी नहीं कहा गया, शहीद वे हुए नहीं। उन्हे केवल उच्च प्रशासनिक और वैधानिक पद मिला। उन्हे जनता की सेवा करने का उत्तरदायित्व दिया गया। उन्हे जनता पर शासन करने का अनुभव जो था। आजादी के तुरंत बाद भारत के प्रधानमंत्री ने तो प्रथम सेनाध्यक्ष भी किसी अनुभवी अंग्रेज़ को ही बनाने का प्रस्ताव रखा था। उनके विचारों के अनुसार किसी भी भारतीय को इस कार्य का अनुभाव नहीं था। उन्हे यह ध्यान नहीं आया कि उन्हे भी किसी देश को चलाने का अनुभव नहीं था। भारतीय भाषा के बदले अँग्रेजी भाषा का पक्ष लेते हुवे भी प्रधान मंत्री ने कहा कि हमारी भाषा में न तो वैसी पुस्तके हैं, न वैसे लेखक और न ही शब्द। अंग्रेजों का तो लक्ष्य ही यही था। भारतीय भाषा  नष्ट कर उसके स्थान पर अँग्रेजी को बैठना। उस विदेशी भाषा को हटा कर भारतीय भाषा के विकास का उत्तरदायित्व किस का था? अंग्रेजों का? फिर आजादी किस लिए, कैसे और क्यों? अनपढ़, गंवार, शक्तिहीन जनता को लताड़ना, उन पुर जुल्म करना, उनसे जी हजूरी करवाने का इन नए लोगों को बहुत अच्छा अनुभव था और इस अनुभव के बल पर आम जनता को भयाक्रांत, भूखा और नंगा रखा। बेचारी जनता दो जून रोटी और एक जोड़ी कपड़े के आगे सोच ही नहीं सकी। जनता इस आशा में जुल्म सहती जा रही है कि आज नहीं तो कल आजादी कि रोशनी उन पर भी पड़ेगी। उन्हे सताने वाले बाहरी नहीं अपने ही घर वाले हैं। कभी तो रहम खाएँगे।

प्रशासकों, विधायकों, बड़े उदद्योगपतियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जनता की आंखो पर तेज सर्च लाइट डाल कर उसे चौंधिया दिया है। बेदम जनता पर्दे पर चल रही कम्प्युटर, रोजगार, गगनचुंबी स्मार्ट शहर, महंगी गाडियाँ, तेज रेल, ५ सितारा अस्पताल, विकास, रोजगार  की निरंतर चल रही फिल्म को चौंधियाई हुई आंखो से देख रही है। लेकिन इनके पीछे अंधेरे में खड़े चंद किरदारों और निर्देशकों को बेचारी भोली भली जनता न देख पा रही है और न समझ पा रही है। जनता को एक के बाद दूसरे सम्मोहन में डालते हुवे ये चंद लोग मनमानी कर रहे हैं। अंग्रेज़ शासकों के सब गुण इन में मिल जाएंगे, जो समय के साथ फलते फूलते भी रहे हैं। यह तो बुरा हो इस संविधान का जिसके कारण ५ सालों में उन्हे इस भिखमंगी जनता के सामने हाथ पसारना पड़ता है। और हमारा दुर्भाग्य आज ७० वर्षों के बाद भी हम में  उन पसारे हुवे गंदे हाथों को काटने की कुव्वत नहीं आई। 

ऐसे में कौन स्थापित करेगा “हम भारत के लोग” को? यह तो तभी हो सकता है जब इस उद्देश्य को सम्मुख रखते हुवे छोटे छोटे कदम उठाने शुरू करें। माना कि मंजिल तक पहुँचने के लिए बहुत कदम उठाने होंगे, लेकिन एक बार में केवल एक कदम। पूरे रास्ते का ध्यान करने से कभी कभी यात्रा ही प्रारम्भ नहीं होती।

   नियमों का पालन करें                       अन्याय  सहन न करें
   पड़ोसियों से संवाद करें                      अपनी ही दुनिया में न रहें
   बुजुर्गों का सम्मान करें                      परिवार के दायरे को बढ़ाएँ
   अपनी भाषा और संस्कृति को अपनाएं          विदेशी सीखें लेकिन अपनाएं नहीं


अगर हमारी नैतिकता और चरित्र मजबूत होती है तो हमारे अंदर साहस का संचार होता है। साहस हमें संगठित करेगा और यह संगठन इस कोढ़ को निकाल फेंकेगा।