भ्रष्टाचार या
सांप्रदायिकता
कुछ सिर फिरे लोग नेक दिल, ईमानदार और
मेहनती होते हैं। राम साहब एक ऐसे ही सिर फिरे कर्मचारी हैं। बड़ी कंपनी में अच्छे
ओहदे पर हैं। इनका मासिक वेतन तकरीबन 3 लाख रुपए है। इन पर काम का बोझ बहुत ज्यादा
है, जैसा कि प्राय: ईमानदार
एवं नेक कर्मचारियों पर होता है। काम, कुछ लाद दिया जाता
है, कुछ खुद ब खुद ले लेते
हैं। इनका काम कम्प्युटर, गूगल और
इंटरनेट पर आधारित है। राम साहब की पत्नी भी काफी पढ़ी लिखी हैं। कम्प्युटर और
इंटरनेट का अच्छा ज्ञान तो है ही उन विषयों की भी अच्छी जानकारी है जिनका कार्य उनके
पति करते हैं। अत: पत्नी, बच्चों एवं घर
का काम निपटाने के बाद, पति के कार्यों
में, घर बैठे ही, काफी सहायता भी करती हैं और उन्हे निपटा भी देती है। 3 लाख
रुपए के मासिक वेतन के कारण राम साहब का आयकर भी बहुत होता है और वेतन का भुगतान
भी आयकर कट कर ही होता है। अत: उन्होने अपनी पत्नी को अपना निजी सहायक दिखा कर
अपनी आय का 25% भुगतान देना शुरू किया, बाकायदा डिजिटल
पद्धति से। लेकिन उनकी यह दलील कहीं भी मान्य नहीं हुई। न उनके प्रतिष्ठान ने माना, न आयकार अधिकारियों ने, न किसी न्यायालय ने। बेचारे कुछ न कर सके। गाड़ी वैसे ही चलती रही।
उनके पड़ोसी है किशन सर। अच्छा खासा व्यापार है, कम्प्युटर सोफ्टवेयर, वेब साइट वगैरह
का। साल भर में 30-35 लाख कमा ही लेते हैं।
इस कमाई पर आयकार देना उन्हे बहुत भारी लगता है। उनकी माँ अनपढ़ है, पिता केवल क्षेत्रीय भाषा जानते हैं। वे न हिन्दी जानते
हैं न अँग्रेजी। बीमार हैं और घर से निकल नहीं
सकते। पत्नी भी ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं है बस अपना काम चला लेती हैं। अपने पड़ोसियों को देखा और
समझदारों ने सलाह दी। और फिर किशन सर ने
बड़ी समझदारी से चार अलग अलग प्रतिष्ठान खोले। सबकी एक ही ऑफिस है, एक ही काम है और पूरा काम किशन सर ही देखते हैं। लेकिन इस
सब के बावजूद चार अलग अलग मालिक हैं, वे खुद, उनकी पत्नी, उनकी माता और
पिता। पूरी कमाई चार भागों में बाँट जाती है। आयकर नगण्य सा देना पड़ता है। अब खुश
हैं। वस्तु स्थिति यह है कि उनको, उनके पड़ोसी को, उनके सलाहकार को यह कर की चोरी नहीं लगती। उधर राम साहब को
दर्द भी होता है, झल्लाहट भी। केवल
कुढ़ कर रह जाते हैं।
हमारे देश में भ्रष्टाचार दशकों से लगातार फल फूल रहा है। दशकों से चली आ रही यह संक्रामक बीमारी हमारे समाज में इस हद
तक समा गई है कि अब हमें यह बीमारी ही नहीं लगती है। घूसखोरों, पद का दुरुपयोग करने वालों और कर के चोरों की इस नगरी में यह
अपराध नहीं है। इस जहर को हमारे व्यापारियों, अधिकारियों एवं प्रशासकों ने जन्म दिया और विधायकों ने इसका चतुर्दिक विकास
किया। अब, परिस्थिति यह है कि हम सब जाने
या अनजाने कहीं न कहीं भ्रष्टाचार से जुड़े
हैं। अत: हममें इसका विरोध करने का नैतिक बल ही नहीं बचा। इतना ही नहीं, बल्कि लोग “भ्रष्टाचार
विरोधी” को ही अपराधी समझते हैं। उसे, सुचारु रूप से
चल रही व्यवस्था में “रोड़ा” के रूप में देखते हैं। “न खाता है न खाने
देता है”। अब तो एक ईमानदार को हिकारत की नजरों से देखा जाता है। “भ्रष्टाचारी
है तो क्या हुआ, वो तो हम-आप सब हैं” यह एक बहुत ही साधारण उक्ति बन गई है। भ्रष्टाचार के चलते कितने हत्याएं हुई
हैं और हो रही हैं, क्या इसका हिसाब
लगाया जा सकता है? कितने अखबार, पत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें, टीवी बंद किए गए? संवाददाताओं को मारा गया? “मानवाधिकार” और “सूचना का अधिकार” के कार्यकर्ताओं के कितने शव कहाँ-कहाँ से
बरामद हुवे? कितने ईमानदार, अनुभवी और कुशल प्रशासकों का तबादला किया गया? उनपर झूठे इल्जाम लगा कर उन्हे बदनाम किया गया, जेल में डाला गया, नौकरी से निकाला गया, उनके परिवार को
तबाह किया गया? उन्हे उन कार्यों
और अंचलों पर भेजा एवं तैनात किया गया जिसे पनिशमेंट पोस्टिंग (punishment posting) कहा जाता है। क्या इसका
लेखा जोखा लगाया जा सकता है? न इसकी गणना
किसी ने की और न ही इसकी जरूरत समझी गई। अखबार के एक कोने में छपी ऐसी खबरों को हमने
कभी तवज्जो नहीं दी। टीवी ने इसे प्रसारित किया ही नहीं और हमारे मन में उनके
प्रति किसी भी प्रकार की सहानुभूति तक नहीं जगी। यह चर्चा का विषय बना भी तो तुरंत
ही उस पर मिट्टी डाल कर अंधेरे गर्त में ठेल
दिया गया। उनके लिए कभी कहीं किसी ने मोमबत्तियाँ नहीं जलाईं, कभी कोई सरकारी मुआवजा नहीं मिला, समाज ने कोई सहायता नहीं की और न ही कोई फूलमाला पहनाई। इस अल्प संख्यक समुदाय
के प्रति हम, बहुसंख्यक समुदाय
वाले असंवेदनशील बने रहे। हम को कहीं न
कहीं भ्रष्टाचार में रस मिलता है, अत: इसे न
कानूनी अपराध मानते हैं न नैतिक बुराई। हम इस जहर की परवाह नहीं करते। इससे हमारा
नैतिक पतन हुआ है और इस कारण हम किस रसातल तक पहुंचे हैं क्या इसका आकलन किया जा सकता है? जिस समाज का नैतिक पतन होता है वह धीरे धीरे एक के बाद एक
पतन की उन सीढ़ियों पर लगातार नीचे उतरता चला जाता है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
इस प्रकार से कमाया हुआ धन गलत कार्यों में ही खर्च होता है और नए नए अपराध के लिए
हौसला अफजाई करता है।
भष्टाचार का काम अंधेरे में होता था। बंद कमरों, होटलों, क्लबों में
होता था। ऐसा भी कोई जमाना था जब ये घोर अपराध माना जाता था – सामाजिक और नैतिक। ऐसे
अपराधों को न्यायालय में साबित करना असंभव नहीं तो कठिन तो है ही। अत: दंड देना कठिन
होता है। किसी समय लोग डरते थे। “पोल
खुल जाने पर मुंह दिखाने लायक नहीं रंहेंगे।” सामाजिक बदनामी का सामना करना पड़ता था। लेकिन अब
वैसा नहीं रहा। दिन दहाड़े, नगाड़े की चोट पर पद का दुरुपयोग, धन की हेरा-फेरी, कर की चोरी करते
हैं। कोई अंगुली उठाए तो साफ इंकार करते हैं और उस अंगुली को तोड़ देते हैं। किसी भी प्रकार
का डर पालने की कोई जरूरत नहीं है। अब ईमानदार व्यक्ति के लिए तो कहा ही जाता
है कि उसे “मौका” ही नहीं मिला होगा। हिम्मत की जरूरत होती है केवल उस अंगुली
को तोड़ने के लिए या उसके मुंह को हमेशा के लिए बंद करने के लिए जो इसके खिलाफ खड़े होते
हैं। मजे की बात यह है कि इसके लिए भी उसे कुछ नहीं करना पड़ता। कहते हैं ना, चोर चोर मौसेरे भाई। ये मौसेरे भाई खुद आगे बढ़ कर पूरी
व्यवस्था कर देते हैं। अंधेरे का भ्रष्टाचारी दिन के उजाले में सबसे ईमानदार व्यक्ति
की तरह प्रतिष्ठित होता है, भ्रष्टाचार
उन्मूलन संस्थाएं चलाता है। सरकारी और सामाजिक उच्च पदों पर आसीन रहता है। परिस्थिति
यहाँ तक गिर चुकी हैं कि पद का दुरुपयोग कर करोड़ों रुपये कमाए, न्यायालय में भ्रष्टाचार सिद्ध हुआ, जेल गए, संवैधानिक पद
से निष्काषित हुवे लेकिन इन सबके बावजूद समाज में सर उठा कर चलते हैं। समाज, देश और राजनीति में प्रतिष्ठित हैं। भ्रष्टाचार के चलते जिस
राजनीतिक दल ने उनका साथ छोड़ा, देश के बड़े बड़े
राजनीतिक दलों ने उसी का बहिष्कार किया और अपने आप को भ्रष्टाचारी दल के साथ खड़ा
कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। जाहिर है वे अब पूरे जोश के साथ अपने पूरे परिवार
को इसी “कारोबार” में लगा रखे हैं। क्यों? भ्रष्ट कौन नहीं है? सब हैं? जैसे हम, वैसे तुम। भ्रष्ट
हुवे तो क्या हुआ, सांप्रदायिक तो नहीं है। बस सांप्रदायिक नहीं होना ही काफी है। क्योंकि हम सब भ्रष्ट हैं लेकिन
सांप्रदायिक नहीं। हम भ्रष्टाचारी होने के लिए स्वतंत्र हैं। हम स्वतंत्र हैं खुले
आम मारने के लिए, हत्याएं करने के
लिए, परिवारों को तबाह करने के
लिए, जेल में डालने के लिए, नौकरी छीनने के लिए, बशर्ते यह सब भ्रष्टाचार के पक्ष में हो। इसमें धर्म आड़े नहीं आता। वह चाहे हिन्दू हो, मुसलमान हों, ईसाई हो, सिख्ख हो, कोई फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन सांप्रदायिकता के नाम पर हम एक भी हत्या, प्रताड़ना बर्दास्त नहीं करेंगे। यहाँ चोरी करना अपराध नहीं है, भ्रष्ट होना अपराध नहीं है, पद का दुरुपयोग करना अपराध नहीं है। लेकिन सांप्रदायिक होना अपराध है। हम भ्रष्टाचार
का समर्थन करना अपराध नहीं मानते, सांप्रदायिक
होना अपराध मानते हैं। हम भष्टाचार के प्रति सहनशील हो सकते हैं लेकिन सांप्रदायिकता
के प्रति नहीं। तब हम सब भ्रष्टाचारी हत्यारे, सांप्रदायिक हत्यारों के विरुद्ध तो आवाज उठा ही सकते हैं। भ्रष्टाचारी-हत्या
और सांप्रदायिक-हत्या अलग अलग हैं। कई बार ऐसा लगता है हमारे देश में भ्रष्टचार को
मान्यता प्रदान है, और नहीं है तो
मान्यता मिल जानी चाहिए?
सांप्रदायिक हों या भ्रष्टाचारी दोनों ही अपराध और अपराधी हैं। यह नहीं कहा जा
सकता है कि अपराध एक छोटा है - दूसरा बड़ा या एक कम है और दूसरा ज्यादा। दोनों ही समाज
के फोड़े हैं जिन्हे इलाज की आवश्यकता है। एक का पक्ष लेकर दूसरे की निंदा करना या एक
पर चुप्पी और दूसरे पर शोर दोनों ही असहज अवस्था है। ऐसे लोग राजनीतिक हैं सामाजिक
नहीं। देर सबेर दोनों ही समाज और देश को रसातल तक ले जाने की क्षमता रखते हैं। गांधी
ने कहा अपराध अपराध है और अपराधी अपराधी। एक ज्यादा है और दूसरा कम, यह तर्क बेमानी है। दोनों
समान रूप से अपराधी हैं। और अपराधियों को न्याय के समक्ष आत्म समर्पण करना चाहिए। ऐसे लोग किसी भी
सार्वजनिक पद पर रहने के योग्य नहीं हैं। मजे कि बात यह है कि दोनों पक्ष गांधी की बात और उक्तियाँ उद्धृत
करते हैं। दरअसल गांधी ने दोनों की ही निंदा
की थी, पूरी निष्पक्षता के साथ। नोआखाली
के मुस्लिम बहुल प्रदेश में और उसके तुरंत बाद बिहार के हिन्दू
बहुल प्रदेश में गांधी के काम करने का तरीका एक ही प्रकार का था। दोनों में से किसी
भी जगह पर वे किसी भी संप्रदाय या समुदाय के पक्ष या विपक्ष में कोई निर्णय नहीं लिया।
कसौटी धर्म नहीं अपराध था। जहां इसी सांप्रदायिकता के विरोध के कारण गांधी को गोली खानी पड़ी, वहीं उन्होने कड़े शब्दों में कहा था “चारों ओर फैले भ्रष्टाचार को सहने की
अपेक्षा मैं सारे काँग्रेस संगठन को जमीन के अंदर गाड़ना पसंद करूंगा।”
हमारे पड़ोस में एक परिवार रहता है। दूसरे मुहल्लों, शहरों में चोरियाँ करके उसने अनेक पैसे जोड़ लिए हैं और बड़ी शान शौकत से रहता
है। उसे देख देख कर हम जलते रहते हैं। हमारी समझ में नहीं आता कि हम क्या करें? हमारे पास विकल्प क्या है:
1। शिकायत करें?
2। उसे समझाने की कोशिश करें?
3। उसे नजरंदाज करें?
4। हम खुद भी उसी कार्य में लिप्त हो जाएँ?
हमने कौनसा विकल्प चुना? यह आप जानते
हैं, अत: मैं यह बताने कि अहमियत
नहीं उठा रहा हूँ। लेकिन यह जरूर कहना चाहूँगा कि हमने ऐसे ही लोग पैदा किये हैं
ऐसा ही समाज बनाया है। हमने नैतिक पतन का रास्ता ही अख़्तियार किया है।
लेकिन अब धीरे धीरे एक बदलाव दिख रहा है। लोगों कि मानसिकता बदल रही है। उन्हे
अब लग रहा है कि नहीं अब ऐसे नहीं चलेगा। हमें अपने कार्यों को, सोच को बदलना पड़ेगा। भ्रष्टाचार की लीला और सांप्रदायिकता का तांडव दोनों
हमने देखा है। हमें वापस मुड़ना होगा उस गांधी की तरफ जिसे हम बहुत पीछे छोड़ आए
हैं। अगर नैतिक पतन रुकता है, और हम नैतिक उत्थान कि तरफ बढ़ते हैं तो कई समस्याओं का हल अपने आप निकल
आयेगा। अगर रास्ते के
किनारों पर रत्न छोड़ आए हैं तो उन्हे उठाने लौटना होगा। यही है जो मुझे प्रेरित
करती है, गांधी पर पुनर्विचार करने
के लिए।
जी एस टी
29 जून 2017
बस, अब सिर्फ एक और दिन। परसों
से बहुत कुछ बदल जाएगा। देश भर में जी एस टी लागू हो जाएगी। सबों ने अपने अपने तरह
से तैयारियां की हैं। चारों तरफ केवल एक यही चर्चा है – अच्छा है या बुरा! अभी या
बाद में! राजनीतिक दलों का तो एक ही रवैया
है। सत्ता पक्ष में हैं तो “हरा” और विपक्ष में हैं तो “सूखा”। व्यापारियों ने भी अपने
अपने ढंग से इसका आकलन किया है। अपने व्यक्तिगत फायदे और नुकसान के अनुसार पाला
चुन लिया है। इस पूरे सर्कस कि खास बात है, पक्ष और विपक्ष के तर्क। पक्ष का प्रमुख तर्क
है देश और व्यापारियों कि सुविधा और उन्नति। विपक्ष का कहना है कि छोटे व्यापारी
और जनता कि तबाही। और सबसे बड़े मजे कि बात यह है कि देश कि जनता का तीन चौथाई से
ज्यादा वर्ग इसके बारे में न तो जानता है और न जानने का इच्छुक है। इन सर्कसों को
देख कर वह अब जान चुका है कि यह उनके लिए नहीं है। यह बड़ों का मनोरंजन है।
जहां तक राजनीतिक
दलों का प्रश्न है, उनके कार्य, और घोषणा का मकसद तो केवल एक ही होता है –
गद्दी प्राप्त करना। अत: उनको दर किनार कर देते हैं। थोड़ा सा विचार करते हैं व्यापारीवर्ग
की और जनता की।
सबसे पहली और दुखद बात तो यह है कि हमें
कुछ भी नियत समय पर करने कि आदत नहीं है। “हमें” से मेरा मतलब केवल
जनता या अलग अलग व्यक्ति से ही नहीं हर किसी से है। चाहे वह सरकार हो, या योजना हो, या कानून हो या समय सारिणी या और कुछ। कोई भी
योजना तय समय पर हो ही नहीं सकती। समय सीमा अगर सरकार नहीं बढ़ाएगी तो क्या हुवा न्यायालय
हैं ना इस कार्य के लिए! गरीबी की दुहाई देकर हम समय सीमा बढ़वालेंगे! इस लिए एक
बहुत बड़ा वर्ग कोई भी कार्य दी हुई समय सीमा पर करने की कभी कोई तैयारी नहीं करता
है। फायदे में वे रहते हैं जो इस सीमा को नजरंदाज करते हैं और नुकसान में वे रहते
हैं जो इनको गंभीरता से लेते हैं। इसी बात के विशवास के कारण एक बहुत बड़ा
वर्ग यह मान कर चल रहा था कि “एक जुलाई” का
समय बढ़ा दिया जाएगा। अत: बेखबर था।
उन्हे झटका लगा। अफवाहों का बाजार गरम रहा लेकिन सरकार भी दृड़ रही। विपक्ष भी अब
समय सीमा बढ़ाने की ही बात कर रहा है। परिवर्तन का नहीं, समय सीमा पर दृड़ रहने का विरोध कर रहा है। देखना
है क्या अंत तक सरकार दृड़ रहती है? प्रशासन की बात को गंभीरता
से लेने कि आदत तो डलवानी जरूरी है। हो सकता है इसे कार्यान्वित करने में जनता
असफल हो जाए, या सरकार, या दोनों। कोई चिंता नहीं। सोच और कार्य कुशलता
में फर्क लाने की पहल तो करनी ही पड़ेगी। कुरुक्षेत्र में अर्जुन की तरह हम यह तो
नहीं कह सकते कि कछ देर ठहरो, मुझे कृष्ण से वार्तालाप करनी है। समय सीमा को अंतहीन सीमा तक बढ़ाने के
बदले तय किए हुवे समय पर अमल करने की कुव्वत तो हमें पैदा करनी ही पड़ेगी। और इस दृष्टिकोण से भी कि जनता के उस पक्ष का
हमें साथ देना चाहिए जो इस दिये हुवे समय को गंभीरता से लेता है और उसके अनुरूप
तैयार भी होता है।
व्यापारी वर्ग दो भागों में बंटा हुवा है। एक वर्ग इसके खिलाफ है। वह यह तो
बताता है कि कितने प्रकार के विवरण भरने पड़ेंगे लेकिन यह नहीं बताता कि अब कितने
नहीं भरने पड़ेंगे। वह यह भी बताता है कि कितने प्रकार के प्रपत्र हैं लेकिन यह
नहीं बताता कि भरने कितने पड़ेंगे। यथा आयकार
के प्रपत्र तो बहुत प्रकार के हैं लेकिन भरना एक ही पड़ता है। कमाई और व्यापार के
अनुपात के अनुसार ही जानकारी भी कम या ज्यादा देनी पड़ती है। यह वर्ग आने वाली
दिक्कतों कि तो बात अतिशयोक्ति से करता है लेकिन सुविधाओं को हजम कर जाता है। कर
की चोरी करने के बने बनाए तरीकों से अब काम नहीं चलेगा, नया तरीका सूझा नहीं रहा है और अगर चोरी नहीं
करते हैं तो कमाई कम हो जाएगी, या नहीं रहेगी, यह गंवारा नहीं है।
नगद में लिया नगद में बेचा,
ना कुछ आगे न कुछ पीछे।
न ऊधों का लेना न माधो का देना,
सब कुछ अपना और सरकार को कोसना।
एक ही धर्म एक ही जाति,
चोरी करना और हेंकड़ी से जीना।
व्यापारियों का दूसरा वह वर्ग है जो कानून कार्य करता रहा है। कर का भुगतान
करता है और प्रसन्न है। उनके विचार से
“झंझट” पहले से कम हो जाएंगे। हो सकता है कि प्रारम्भ के कुछ महीनों में दिक्कतों
का सामना करना पड़े लेकिन कोई भी परिवर्तन के लिए ऐसा संभव है और इसके लिए वे तैयार हैं। वे तो इस बात को भी
मानते हैं कि हो सकता है कि पूरा सॉफ्टवेर बैठ जाए और कम ठप्प हो जाए तो भी कोई
बात नहीं। आज भी बहुत बार बैंक, रेल और हवाई आरक्षण आदि सेवाएँ ठप्प हो जाती
हैं। कोई बात नहीं, हम इन परिवर्तनों के लिए तैयार हैं। कम से
कम अब हमारी स्पर्धा कर की चोरी की कमाई
करने वालों से तो नहीं होगी। कई ऐसे धंधे हम केवल इस लिए नहीं कर पाते हैं क्योंकि
उनमें कर के चोरों का एकछत्र शासन है। अब हम भी उनमें हाथ डाल पाएंगे। उनके चलते हमें भी रिश्वत देनी पड़ती थी। रिश्वत
अगर मंहगी होती जाएगी तो उसके ग्राहकों पर भी तो असर पड़ेगा।
जाहिर है पहला वर्ग ज्यादा शक्तिशाली है। दूसरे कि तुलना में उनकी संख्या भी
ज्यादा है, मुद्रा भी ज्यादा है, प्रभावशाली भी
हैं। सबसे मजे कि बात यह है कि ये
दुहाई देते है गरीब जनता की, छोटे व्यापारियों की और उनके नाम पर अपनी रोटी सेंकते हैं और दाल पकाते हैं।
परिवर्तन के लिए गोलियां खानी ही पड़ती हैं, लाठियाँ झेलनी ही पड़ती हैं। इतिहास साक्षी है ये
कार्य गरीब जनता ही करती है। अमीर और प्रभावशाली तो सुरक्षा
कवच के भीतर रहते हैं। अगर जनता की परेशानियों की चिंता करते तो कभी कोई क्रांति
नहीं होती। यह उन्ही के द्वारा और उन्ही के लिए होती है। वे यह जानते हैं और इसके
लिए तैयार भी हैं। हम सब जानते हैं कि गांधी इसी वर्ग के साथ थे। दक्षिण
अफ्रीका में व्यापारियों को छोड़ गिरमिटियों का साथ दिया। भारत में कॉंग्रेस को छोड़
जनता के साथ हो लिये। स्वाधीनता के बात काँग्रेस को भंग कर “लोक सेवक” बनने कि
सलाह तक दे डाली। इन्ही कारणों से ट्रेन से फेंके गए, कोचवान के साथ बैठने के लिए मजबूर किए गए, परिवार सहित जेल गए, प्राणान्तक पीड़ा सही, कितनी ही बार इतने लात, घूंसे और मारे खाये कि मृत्यु के द्वार तक को
खटखटा आये और अंत में इसीलिए गोली भी खाई। गरीबों का साथ देने वाले उनके साथ
खड़े होते है, उनकी पीड़ा सहते हैं।
पहले वाली सरकार भी ठीक नहीं थी, अभी वाली भी ठीक नहीं है। आगे कैसी आएगी पता नहीं। गलत ज्यादा और कम नहीं
होता। गलत गलत होता है। कोई समग्रता में ठीक होता तो इससे उत्तम कोई बात हो ही
नहीं सकती थी। लेकिन कभी भी किसी भी युग में ऐसा न हुआ और ना होगा क्योंकि यह संभव
नहीं है। हमें उसमें से ही सही को ढूंढ
ढूंढ कर निकालना होगा। उसी कि चर्चा करनी होगी। जीने के लिए वही बहाना ढूँढना
होगा। शायद कभी बहाने कि जरूरत नहीं पड़े वही सच्चाई बन जाए। लेकिन यह तो तभी होगा
जब हम दूसरों को बदलने के बदले अपने आप को
बदलना शुरू करेंगे। झूठ में से भी सत्य को खोज कर निकालें और उसकी चर्चा करें। झूठ
बोलने वाले अपने आप सावधान हो जाएंगे। झूठ छोड़ेंगे और सत्य को अपनाएँगे। यह कठिन
तो है लेकिन संभव भी है। मुझे तो विश्वास है कि हाँ ऐसा दिन आयेगा। आज नहीं तो कल।
हम संख्या में तो ज्यादा नहीं हों, शायद। लेकिन प्रभावशाली जरूर होंगे।
मन में है विश्वास,
हम होंगे कामयाब,
एक दिन।
**********
3 जुलाई 2017
सरकार अपने इरादे पर अटल रही। निर्धारित दिन और समय से
जी एस टी लागू हो गया। जाहीर है यह नई प्रणाली किसी के लिए वरदान है तो किसी के लिये
अभिशाप। यह भी जाहीर है कि इसकी सफलता जनता के सहयोग पर ही निर्भर करती है। जिनके लिये
वरदान है उनका तो शायद सहयोग रहेगा। शायद! क्योंकि पूर्ण सहयोग कि आवश्यकता है। इस
वरदान में भी कहीं न कहीं जहर की घूंट तो रहेगी ही। कहीं सहयोग कहीं असहयोग से बात
नहीं बनेगी।
जिनके लिये अभिशाप है वे गरीब जनता और छोटे व्यापारी की
दुहाई दे कर पंचम स्वर में शोर मचाएंगे और उनके नाम पर अपने लिये सुविधायें और रास्ते
निकालने कि दुहाई करेंगे। सरकार को यहाँ सावधान रहना होगा। ये ही वे लोग हैं जो उनके
नाम पर दिये जाने वाले हर रास्ते का उपयोग या दुरुपयोग करेंगे अपनी पोंछ बचा कर निकालने
के लिये। गांधी की दुहाई देने वाली इस सरकार
को यह याद रखना चाहिए कि गांधी ने लिखा था, “hard cases make bad laws.”
ज्यादातर छोटे व्यापारियों एवं जनता को ज्यादा फर्क नहीं
पड़ता वे कठिनाइयों में जीना जानते हैं। ऐसे छोटे व्यापारी जो काले धन के खिलाफ हैं
वे तो इसके साथ हैं।
देखें होता
है क्या? लेकिन
परिवर्तन तो होना ही चाहिए।
और भारत फिर हार गया
वैसे अपने हार की घोषणा कर मैं कोई नई बात नहीं कर रहा हूँ।
हारना हमारी फिदरत है, हमें इसकी आदत है। बल्कि जीत को संभालना
हमारे लिए कठिन होता है। जैसे कि हम आजादी को नहीं सँभाल पाये। 124 करोड़
भारत हारा और एक करोड़ जीत गया। इस संख्या को लेकर मतभेद हो सकता है। लेकिन मतभेद
यही होगा कि एक करोड़ ज्यादा है कम होना चाहिए। कितना कम?
निर्वाचन आयोग ने सर्व-दलीय (राजनीतिक दलों) की बैठक बुलाई
तथा वापस दोहराया कि ईवीम (EVM) में कोई गड़बड़ी नहीं थी, यह शंका बे-बुनियाद है, चुनाव की प्रक्रिया भी
बताई लेकिन फिर कहा कि पारदर्शिता को ध्यान में रखते हुवे आगामी चुनावों में विविपीएटी
(VVPAT) का प्रयोग करेगी। क्या 124 करोड़ जनता यह मानती है कि ईवीम में
गड़बड़ी थी? जनता को पूरा विश्वास है कि इस पूरी नौटंकी के बावजूद
हारने वाली पार्टी हारने की कोई वजह न ढूंढ पाने पर इसका ठीकरा वापस निर्वाचन आयोग
और निर्वचन पद्धति पर फोड़ कर अपना चेहरा छुपाएगी। सत्य को बराबर ऐसी ऐसी चोटें
देते रहे हैं वह अभ बुरी तरह विकृत हो चुका है। फिर भी और चोटें देने में हम कोई
कसर नहीं उठा रखे हैं। हर सत्य पर अविश्वास और झूठ के साथ संवेदना, यही तो करते
हैं हम।
इस नई पध्दति को कार्यान्वित करने का खर्चा? आंकड़ों को छोड़ दें। यह खर्चा कौन देगा? एक करोड़ वे लोग जिनके लिए इस संख्या के पीछे और भी
कई शून्य लगा दें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बाकी 124 करोड़ में से इस संख्या में से सब
शून्यों को हटा देने के बाद जो बचेगा वह
उनकी एक वर्ष, एक महीने, एक
सप्ताह, एक दिन की कमाई है। आप
अपनी श्रद्धा, जानकारी और विश्वास के अनुसार इस 124 करोड़ को
इन अलग अलग लोगों में बाँट दें। कर पाएंगे?
मैं बात कर रहा था जीत और हार की। कौन जीता – कौन हारा?
जीते कौन-
1। एक करोड़ विदेशी भारतीय,
2। चुनाव के हार को न पचा पाने वाले लोग,
3। वे लोग जिन्हे
इस नई पध्दति के लिए बड़े ऑर्डर मिले।
हारे कौन-
1। निर्वाचन आयोग का भरोसा,
2। हमारी लोकतान्त्रिक पध्दति पर विश्वास,
3। हमारी पत्तल से और थोड़ी रोटी
भारत का विश्वास तोड़ने का और एक नया कीर्तिमान स्थापित कर
दिया गया। लेकिन, मेरा विश्वास फिर से और
सुदृड़ हुआ कि मीडिया, हर समय कि तरह इस मुद्दे पर भी, कुछ नहीं बोलेगी।
उसने तो यह स्पष्ट घोषणा ही कर रखी है कि उसका अस्तित्व तो 1 करोड़ भारतियों के
कारण है। वह उन्ही कि बात करेगी। बाकी 124 करोड़ लोग तो उसे इतना भी नहीं देते कि
उनके कोरे कागज का या बिजली का खर्च तक मिल सके। उनकी इस बात में दम है, अत: उन्हे कुछ कहा भी नहीं जा सकता।
बुधद्धिजीवी वर्ग? उन्हे
सावधान होने कि दरकार है। भारत धीरे धीरे यह मानने
लगा है कि वे न उन्हे समझते हैं, न उनकी जुबान। ये भारतीय
इस वर्ग से कतराने लगा है, यह एक भयावह स्थिति है। छोटा तबका
चिंतन करता है, और बड़ा तबका उस को मानता है, उस पर विश्वास करता है, उस पर चलता है। लेकिन अगर
आम जनता का इस बुद्धिजीवी वर्ग पर से भरोसा, विश्वास उठ गया
तो? वह तो यह मान कर
बैठी है कि भारत अभी गुलाम है। उसपर शासन करनेवाले एक करोड़ भारतीय विदेशी हैं, बस दिखते अपने जैसे ही हैं, उनके पास राशन कार्ड भी
है, वोटर कार्ड भी है, पैन भी है, आधार भी है, जन्मे भी यहीं हैं। इसके अलावा उनमें और हममें और कोई समानता नहीं
है। “वे” “हम” नहीं हैं। यह भारत फिर से हाथ पर हाथ धरे बैठा है और इंतजार कर रहा
है किसी गांधी का। जैसा कि दक्षिण अफ्रीका के लोगों ने किया, चम्पारण ने किया।
********************
१२.१०.२०१६
पहले
आप या पहले मैं?
पूना से एक पत्रिक प्रकाशित होती है – मधु संचय। प्रत्येक
महीने और कई दशकों से, निरंतर बिना किसी व्यवधान के। पत्रिका सिर्फ
८ पन्नों की है। इस नाते यह पत्रिका की परिभाषा के अंतर्गत आती है या नहीं, यह भी मुझे नहीं पता। लेकिन, इसके प्रत्येक अंक में
कम से कम एक ऐसी सामग्री होती है जो दिल या दिमाग पर असर करती है। नवंबर २०१६ के
अंक में एक लघु बोधकथा प्रकाशित हुई। आज भूमंडलीकरण, वैश्विक
बाजार, बहुमुखी एवं बहुराष्ट्रीय कंपनी, अनाप-शनाप मुनाफा हमारे दैनिक जीवन की वास्तविकता बन गई हैं। इस अति
व्यस्त, आपा धापी और अन बूझी दौड़ के मध्य इस कथा को पढ़ पर एक
बार तो, एक क्षण के लिए ही सही, पौज़ (pause)
का बटन तो दब ही जाता है। तो पहेलियाँ न बुझा कर इस कथा को ही पहले पढ़
लें :-
एक गाँव में एक व्यापारी किसी काम से पहुंचा। उसे हथौड़े की
आवश्यकता पड़ी तो उसने गाँव के लोहार से हथौड़ा बनाने को कहा। वह हथौड़ा व्यापारी को
इतना अच्छा लगा कि उसने नगर लौटकर सबसे उसके कुशल कार्य की प्रशंसा की। उसकी
प्रशंसा सुनकर अनेक लोग लोहार के पास हथौड़ा बनवाने आने लगे। शीघ्र ही लोहार के कार्य
की शोहरत चारों ओर फैल गई। कुछ दिनों बाद शहर से एक बहुत बड़ा व्यापारी आया और
लोहार को बोला –“मैं तुम्हें शेष सब की तुलना में डेढ़ गुना ज्यादा दाम दूँगा, लेकिन शर्त यह होगी कि भविष्य में तुम सारे हथौड़े केवल मेरे लिए बनाओगे।”
सौदागर कि शर्त सुनकर लोहार बोला –“मुझे अपने कार्य का
जितना दाम मिलता है, उससे मैं संतुष्ट हूँ। अपने परिश्रम का मूल्य
मैं स्वयं ही निर्धारित करना चाहता हूँ और अपने लाभ के लिए किसी दूसरे के शोषण का
कारण नहीं बनना चाहता हूँ। आप मुझे जितने पैसे देंगे, उससे
दो गुना खरीददारों से वसूलेंगे। मेरे ललाच का बोझ गरीबों पर पड़ेगा, जबकि मैं यह चाहता हूँ कि उन्हे मेरे कौशल का लाभ मिले। इसलिए आपका यह प्रस्ताव मैं स्वीकार नहीं कर सकता।”
क्या कुशलता ही सब कुछ है? और सच्चाई? ईमानदारी? सिद्धान्त? कुछ भी
नहीं! यह सच्चाई, ईमानदारी और सिद्धान्त हम भारतीयों के
चरित्र का आभूषण रही है। ऐसे लोगों कि कमी नहीं थी जो प्रतिदिन एक निर्दिष्ट आय से
संतुष्ट थे। उतनी आय हो जाने पर उस दिन अपनी दुकान जल्दी बंद कर देते थे। किसी समय
अपने माल का विक्रय मुल्य निर्धारण करने का आधार उसकी लागत हुआ करती थी। इस लागत
पर एक मुनासिब मुनाफा जोड़ कर विक्रय मुल्य का निर्धारण करते थे। प्रत्येक दुकान पर
“धर्म” के नाम का एक गुल्लक हुआ करता था। इस में प्रतिदिन विक्रय के अनुसार पैसे
डाले जाते थे जिसे किसी धार्मिक कार्य में लगाया जाता था। यहाँ धर्म का अर्थ
संकुचित “रिलीजन” नहीं बल्कि व्यापक अर्थ मानव-पशु
सेवा, जनकल्याण से है। समय के साथ यह पूरी की पूरी पीढ़ी ही विलुप्त
हो गई। नई पीढ़ी ने न देखा, न सुना। तो सीखने का प्रश्न ही
कहाँ रह जाता है? गांवों में जाएँ तो शायद ऐसे लोगों से मुलाकात हो जाए। लेकिन
उन्हे तो हम अनपढ़ और गंवार समझते हैं।
मुझे महात्मा गांधी भी याद आ रहे हैं –
जब वर्धा में बुनियादी शिक्षा का मसौदा बन रहा था, तब जाकिर हुसैन साहब, केटी शाह, जे बी कृपलानी, आशा देवी आदि अनेक लोग मौजूद थे।
बापू ने पूछा – “केटी अपने बच्चों के लिए कैसी शिक्षा तैयार
कर रहे हो?” सब चुप थे।
केटी ने पलटकर पूछा –“बापू, आप ही बताइये न, कैसी शिक्षा हो?”
बापू ने बताया –“केटी अगर मैं किसी कक्षा में जाकर यह पूछूं
कि मैंने एक सेब चार आने में खरीदी और उसे एक रुपये में बेच दिया तो मुझे क्या
मिलेगा? मेरे इस प्रश्न के जवाब में अगर पूरी कक्षा
यह जवाब दे कि आपको जेल कि सजा मिलेगी, तो मानूँगा कि यह
आजाद भारत के बच्चों कि सोच के मुताबिक शिक्षा है।”
क्या असीमित मुनाफा अन्याय नहीं है? बेईमानी नहीं है? यह बहुत दर्दनाक है कि हम इसे आज
“बिज़नस सैन्स” (business sense) या ‘बिजनेस
एक्यूमेन” (business acumen) नामक अलंकार मानते हैं। हम सब समाज में नैतिक, चारित्रिक, आध्यात्मिक मूल्यों की प्रबलता देखना
चाहते हैं। इसके लिए प्रेम, करुणा,
त्याग, सेवा, समर्पण जैसी भावनाएँ जो
संग्रहालयों में समाहित हो गई हैं, को वापस धारण करना होगा।
साथ ही ईर्ष्या, द्वेष, कटुता, संकीर्णता, शोषण, हिंसा जैसी
प्रवृत्तियों का त्याग करना होगा। समस्या यह है कि सब कहते हैं “पहले आप”, “पहले मैं” कहने-करने वाला कोई नहीं।
क्या आप कह सकते हैं “पहले मैं”?
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