शुक्रवार, 25 मई 2018

तोड़ें नहीं, जोड़ें

खुशहाल, शांति, सुखी और भाईचारे की जिंदगी के लिए हमें चाहिए आपसी समानता। क्योंकि समानता हमें जोड़ती है, हमें जिंदगी देती है। आपने कभी रक्त दान किया या लिया है? रक्त, आँख, किडनी, हृदय या और कोई अंग दान देना या लेना हो तो फिर चाहिए वही समानता। लेने और देने वाले में अनगिनत असमानताएं हो सकती हैं। उम्र अलग हो, जाति अलग हो, धर्म अलग हो, भाषा वेश-भूषा अलग हो, विचार देश चमड़ी अलग हो, लिंग अलग हो, सब कुछ अलग होने के बावजूद कुछ, केवल कुछ चीजें समान हो तो जीवन दान दिया और लिया जा सकता है। समानता जीवन देती है और पृथकता मृत्यु। एक जोड़ता है दूसरा तोड़ता है।

आपने बहुत बार सुना होगा और उतनी ही बार पढ़ा भी होगा, हिन्दू और मुस्लिम साथ साथ रहते थे। एक दूसरे की खुशियों और गमों को साथ साथ बांटते थे। पूरा परिवार साथ रहता था। एक दूसरे के खुशी और गम में शरीक होते थे। हमारा ध्यान आपसी समानता में था। हम चर्चा करते थे हममें क्या एक जैसा है, और यह हमें जोड़ देती थी क्योकि यह चर्चा हमें साथ रहने के कारण बता देती थी।    

हम क्यों जोड़ने की बात नहीं करते? हम क्यों समानता की बात नहीं करते? इस तथ्य को हम जानते हैं फिर भी बात करते हैं केवल भेद की। बात करते हैं हममें अलग अलग क्या है? हममें फर्क क्या है? नए और पुराने में, पूरब और पश्चिम में, नर और नारी में, हिन्दू-मुसलमान-सिक्ख-ईसाई में क्या क्या फर्क हैं। बड़े बड़े शोध ग्रंथ लिखे जा रहे हैं यह बताने कि  इनमें फर्क क्या क्या हैं। क्या इनमें समानता कुछ भी नही है? शोध करें तो पता चलेगा कि समानता ज्यादा हैं। मूल भाव एक जैसे ही हैं। तब फिर हम क्यों अलगाव की बात करते हैं, समानता की नहीं? आइए तोड़ को छोड़, जोड़ की बात करें। हम बात करें हमारी समानता की।  अलग होने के जितने कारण हैं उनसे ज्यादा कारण साथ रहने के हैं। कारण, साथ रहने का खोजें अलग होने का नहीं। तोड़ने के लिए विभेद की बात करते हैं और जोड़ने के लिए समानता की। विश्व में प्रचलित धर्मों में भेद कितने हैं इस पर तो बहुत चर्चा होती है लेकिन उनमें समानता कितनी है, इस पर चर्चा करें।


तोड़ें नहीं, जोड़ें। 

शुक्रवार, 18 मई 2018

चाचा-चाची, ताऊ-ताई, काकू-काकी, मामा-मामी, मासा-मासी और भी न जाने कितने शब्द और रिश्ते हैं हमारे पास । ये हमारे सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के द्योतक हैं और साथ ही शब्दों विशालता के भी। लेकिन फिर भी हम क्यों इन्हे छोड़ कर इन सब को समेट देते हैं केवल दो शब्दों, अंकल-आंटी में? अँग्रेजी का भूत और गुलामी की जंजीरें अभी भी हमें जकड़ रखीं हैं और हम उसी बंधन को आधुनिकता समझ कर अपनी पीढ़ियों में बाँट रहे हैं।
 ....... पहली बार रूपा, जोशी दंपति से मिली तो अपनी अँग्रेज़ियत वाली आम आदत के कारण उन्हें अंकल-आंटी कहा। जोशीजी तुरंत बोल पड़े, “बेटी, तुम मुझे अंकल कह रही हो, मंकलडंकल क्यों नहीं कहती?”
रूपा हंस पड़ी, “ये मंकल-डंकल क्या होता है?”
जोशीजी ने भूल सुधरने के अंदाज में कहा, “ चलो हटाओ। तुम मंकल और डंकल दोनों शब्दों के अंतिम अक्षर काट दो।“
रूपा बोली, “फिर तो मंक और डंक हो जाएगा।
जोशीजी सोच में पड़, “ऐसा? हाँ ऐसा करो, दोनों शब्दों के अंतिम अक्षर पर बड़ी मात्रा लगा दो।
रूपा कुछेक क्षण सोच कर बोली, “अरे, ये तो मंकी और डंकी हो जाएगा”।
खुश होते हुए जोशीजी बोले, “हाँ, यह हुई न बात। अब तुम मुझे डंकी और आंटी को मंकी कह सकती हो।
शर्माती हुई रूपा बोली, धत, हम भला ऐसा क्यों कहेंगे?”
जोशीजी ने पलटवार किया, “फिर अंकल-आंटी क्यों कहोगी? मेरे चेहरे से या तुम्हारी आंटी के चेहरे से ऐसा कुछ लगता है कि हम दोनों अंग्रेज़ की औलाद हैं?”
.........
“ऐसा तो मैंने नहीं कहा।”
“तो हमें अंकल-आंटी क्यों कहती हो?
“क्योंकि डैडी-मम्मी के फ्रेंड्स को अंकल-आंटी ही कहा जाता है।”
“फिर तुम्हारा नाम “रूपा” नहीं “रुपेल” होगा।”
“रुपेल तो अंग्रेजों का नाम होता है।”
“तो क्या अंकल-आंटी, डैडी मम्मी हिन्दी के शब्द हैं?”
“नहीं, ऐसा तो नहीं है।”
“तो फिर, सुनो बेटी आज से तुम डैडी-मम्मी” को “बाबा” और “माँ” कहोगी और मुझे और आंटी को ताऊ और ताई कहोगी।”
“बाबा और माँ तो ठीक है लेकिन ताऊ और ताई?”
“हाँ, अपने पिता के बड़े भाई को ताऊ कहते हैं।”
“मगर आप बाबा के बड़े भाई से कहाँ लगते हैं? मैं तो आपको काकू कहूँगी और आंटी को काकी माँ। अब तो ठीक है।”
खुश होकर जोशी जी बोले, “बिलकुल ठीक है।“
........”
-मगरमुंहा, प्रभात कुमार भट्टाचार्य
छोटी छोटी बातें ही बड़े बड़े संस्कार डालती हैं।


शुक्रवार, 11 मई 2018

क्या हम सभ्य हुए?                                                                         
क्या आप विकास वाद के उस सिद्धान्त पर विश्वास करते हैं जिसके अनुसार हम 'बंदर की औलाद' हैं? विज्ञान के इस युग में, बेमन से ही सही लेकिन आपके पास इस पर विश्वास करने के अलावा और कोई चारा है भी नहीं। लेकिन नीचे लिखे सच को पढ़ कर आप इस सिद्धान्त पर विश्वास करने का मन बना लेंगे।
अहा! जिंदगी से

रविवार, 6 मई 2018

सूतांजली, मई २०१८


 सूतांजली                       ०१/१०                                    मई, २०१८

४ लाख - करोड़ - अरब की गलीच जिंदगी

अभी कुछ समय पहले मासिक पत्रिका अहा!जिंदगी में ऋतु रिचा की लिखी कहानी गलीच जिंदगी पढ़ी। कहानी कोई खास नहीं है लेकिन लिखी बड़ी प्रभावोत्पेदक ढंग से है और इसलिए प्रभावित करती है।

कहानी तो बस इतनी ही है कि एक बच्चा अपनी सौतेली माँ के व्यवहार से तंग आकर घर छोड़ कर भाग जाता है और शनै: शनै: एक भिखारी बन जाता है। रोज सुबह सुबह उठ कर नियत जगह पर जाकर बैठना और भीख मांगना। दिन भर झींकन, चिड़चिड़ाना, झुञ्झुंलाना और कोसना। मन में तमन्ना कि कुछ रुपये जमा हों तो कुछ अच्छा पहने और खाये। नहीं तो वही चिथड़े पहनना और जूठन खाना। बस ऐसे ही अचानक एक दिन भीख मांगते मांगते वहीं लुढ़क गया और फिर कभी नहीं उठा। पुलिस आई, लाश को ठिकाने लगाई और उसके झोंपड़े की साफई की। वहाँ जमीन में दबी एक थैली मिली, बहुत भारी। खुचरे रुपयों और रेजगारी से भरी। थाने ले जाकर गिना गया तो पूरे ४ लाख रुपए निकले।

पहले पढ़ी या सुनी हुई है न! थैली मिली पढ़ते ही पूरी बात भी शायद समझ गए होंगे। कोई आश्चर्य की बात नहीं है, कुछ नया भी नहीं। बहुत हुआ तो एक बड़ा सा नि:स्वाश, और शायद एक गाली भी, ये ४ लाख का कंगाली!!! 

लेकिन ठहरें, जरा नजर उठा कर अपने समाज को देखें, आड़ोस – पड़ोस को देखें, गाँव-कस्बा- शहर पर नजर डालें। क्या आपको ४ लाख ही नहीं ४ करोड़ और ४ अरब के दरिद्र दिखाई पड़ रहे हैं? अकूत धन, लेकिन फिर भी सुबह उठने से रात देर सोने तक दोनों हाथों से बटोरने में लगे लोग दिखे? दिन भर झींकन, चिड़चिड़ाना, झुञ्झुंलाना, कोसना और सोचना कि कुछ रुपए हाथ आ जाए तो .......... करूँ। यूं ही सोचते, कहते, करते अचानक एक दिन लुढ़क जाना। दिखे ऐसे लोग? कहीं आप भी तो उनमें एक नहीं?

खुल कर मुस्कुराएं, प्रसन्न रहें, आशीर्वाद दें, मुक्त हस्त बांटे और उन्मुक्त हो कर जीयें। और फिर जीयें ४ लाख में ४ खरब की खुशहाल जिंदगी।

हाँ, है मुझ में दम

गांधीजी की पुण्य तिथि पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में २०१४ में आयोजित एक सभा को सम्बोधित करते हुए श्री गोपाल कृष्ण गांधी ने कहा था, “आज कोई यह नहीं क़हता कि भाई मुझ से गलती हुई है। मैं अपनी गलती कुबूल कर रहा हूँ। आगे मैं अपने आप को सुधारने की कोशिश करूंगा। .... आज हर राजनीतिक हैसियत, राजनीतिक दल और साथ ही वे भी जो अपने को सामाजिक आंदोलन का कर्ता धर्ता मानते हैं – ये सब हिमालय जैसी भूलें कर रहे हैं, पर इनमें से एक भी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं”। उन्होने आगे कहा, “गाँधी में चार चीजें ऐसी थीं, जो उन्हे एकदम अनूठा बनाती थीं: उन्हे मृत्यु का भय नहीं था,  पराजय का भय नहीं था,  कहीं कोई उन्हे मूर्ख नहीं मान  ले - इसका उन्हे डर नहीं था और  चौथी बात, सबसे महत्वपूर्ण यह कि उन्हें अपनी गलती स्वीकार करने से डर नहीं था। आज इन चारों बातों को अगर हम मापदंड के तौर  पर लें और पूछें कि कौन है जो इस  मापदंड पर खरा उतरता है तो बहुत कम लोग मिलेंगे। इसी में  हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है”।

मनुष्य से गलती होना स्वाभाविक है। लेकिन अपनी गलती को स्वीकार न करना, अपराध है। यह मानव को पशु तुल्य बनाती है। मुझे  याद है, हमें यही शिक्षा दी जाती थी कि जीवन में गलतियाँ होंगी, लेकिन अपनी गलती को स्वीकार करो और उसके लिए दिल से क्षमा मांगो । लेकिन आज हर जगह घर हो या विद्यालय, प्रबंधन संस्थान हो या व्यापार जगत, राजनीति या सामाजिक क्षेत्र ठीक इसकी उल्टी शिक्षा दी जाती है – कभी अपनी गलती स्वीकार मत करो। इसी का यह परिणाम है कि पहले जिसे गलती समझी जाती थी अब वही व्यवस्था बन गई है। बड़े ठसक के साथ हम नियम, कायदे, कानून का उल्लंघन करते हैं और कभी यह मानने को भी तैयार नहीं होते कि हाँ, हमसे गलती हुई है’, क्षमा मांगना तो बहुत दूर की बात है। बल्कि इतना और जोड़ देंगे कि कौन अपनी गलती मानता है?’ पहले “वे” माने तब मैं सोचूँ। अब उनसे पूछें कि यह “वे” कौन कौन हैं? कौन बताएगा? उस वे ने गलती मानी या नहीं, इसका निर्णय कौन करेगा?

लेकिन, निराश मत होइए! जिस नई पीढ़ी को हम कोसते रहते हैं, जिनसे हम कोई आशा नहीं रखते, उसी पीढ़ी ने बीड़ा उठाया है इस शिक्षा को फिर से पटरी पर लाने का और उदाहरण प्रस्तुत करने का। हम और कुछ नहीं तो कम से कम इन नौजवान बच्चों के हिम्मत की दाद तो दे ही सकते हैं। यह तो कह ही सकते हैं “मेरे बच्चों रखना इसे संभाल के”।

क्रिकेट जगत में आस्ट्रेलिया का  अपना एक स्थान है। इसी आस्ट्रेलिया के जाने माने खिलाड़ी और कप्तान स्टीव स्मिथ ने स्वीकार किया, हाँ, मैंने  गलती की और इसका मुझे दुख है। अपनी भूल के लिए उन्होने  माफी मांगी। पत्रकार सम्मेलन में स्मिथ कामनोबल बढ़ाने के लिए उसके पिता पीटर उसके साथ खड़े थे। भारतीय क्रिकेटर कपिल देव ने 
टेलीग्राफ में  प्रकाशित कपिल देव का साक्षात्कार
टिप्पणी की, मेरा आदर उनके प्रति ज्यादा है जो अपनी गलती को स्वीकार करते हैं”। स्टीव स्मिथ २८ वर्ष का युवा है।
  
व्यापार एवं उद्योग जगत में फ़ेस बुक के मालिक मार्क जुकेरबर्ग एक जाना पहचाना प्रतिष्ठित नाम है। उनके व्यापारिक साम्राज्य का मूल्य कई हजार करोड़ रुपए है। उन्होने भी सबके सामने अपनी गलती स्वीकार की और क्षमा याचना की। अपने गलत कार्य के कारण सुर्खियों में आने के बाद से उनकी कंपनी का मूल्य लगातार गिरता जा रहा था। लेकिन जूरी के सामने अपनी गलती स्वीकार करते ही उनकी कंपनी के शेयर का मूल्य गिरने के बजाय बढ़ना शुरू हुआ। मार्क जुकेरबर्ग ३३ वर्षीय युवा ही हैं।
टेलीग्राफ

सन्मार्ग 


इस कड़ी में एक भारतीय भी है। राजनीति से जुड़े, दिल्ली के मुख्य मंत्री, अरविंद केजरीवाल। अपनी गलत बयानी और अशोभनीय टिप्पणियों के कारण हर समय  विवादों में घिरे रहे, मानहानि के मुकदमे लड़ते रहे लेकिन आखिर उन्हे भी समझ आई कि लड़ना नहीं बल्कि गलतियों के लिए माफी मांगना ही असली विजय है। और फिर लिखित में अपनी गलती को स्वीकारा और माफी मांग ली। नतीजा – मानहानि के मुकदमे हटा लिए गए। उनका कद छोटा होने के बजाय बढ़ गया। और स्वत: ही अपनी जबान पर काबू भी पा लिया। ४९ वर्षीय अरविंद को भले ही युवा न समझें लेकिन बुजुर्ग के श्रेणी में तो हरगिज नहीं आते।

२०, ३० और ४० के लोगों ने अपनी भूल सुधारने की कोशिश की और गलती स्वीकार की। आवश्यक  है औरों को आगे बढ़ कर कहने की,हाँ, मुझ से गलती हुई, मुखे दुख है, मैं माफी मांगता हूँ आगे से ध्यान रखूँगा कि मुझसे कोई भूल न हो”। अगर गलती की है तो उस पर अड़े रहने के बजाय उसे सुधारें, भूल स्वीकार करें, सही दिशा की तरफ मुड़ें, लोगों को नई राह दिखाएँ।

हम  युवाओं के प्रति अपनी सोच में परिवर्तन करें। हम और उदाहरण पेश करें, गोपाल कृष्ण गांधी  को बता दें कि हम कमजोर नहीं हैं। महात्मा की तरह निडर बनें। है आप में दम? स्टीव स्मिथ, मार्क जुकेरबर्ग और अरविंद केजरीवाल ने तो कहा,हाँ, है मुझ में दम”।

शुक्रवार, 4 मई 2018

K.I.S.S.


पूर्वी भारत में रहने वाले देशवासियों को छोड़ कर बहुत से लोगों को तो यह भी पता नहीं होगा कि भुवनेश्वर नाम का कोई शहर भी है। ज्यादा से ज्यादा इतना मालूम होगा कि यह ओडिसा की राजधानी है। ऐसी क्या खास बात है इस शहर में कि 53 देश के उच्चायुक्त एवं उनके प्रतिनिधि यहाँ जमा हुए? शहर में है कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ सोश्ल साइन्स (KISS)। पूरे एशिया में केवल इन्हे ही इस प्रकार के आयोजन के लिए मान्यता प्राप्त है। आयोजन था बच्चों के साथ पंक्ति में बैठ कर 53 कॉमन वेल्थ के देशों के उच्चायुक्तों का भोजन करना। उद्देश्य है बच्चों तक यह कॉमन वेल्थ का संदेश पहुंचाना, उन्हे अपने उद्देश्यों से अवगत करना।

यह भी खुशी कि बात है कि कोलकाता के दैनिक द टेलीग्राफ ने यह खबर मुख्य पृष्ठ पर मय फोटो के छापी।

अँग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ की रिपोर्ट