निशाना
साधा (बंदूक से नहीं)
वार किया
(चाकू से नहीं)
पलट वार
(लाठी से नहीं)
आक्रमण (अस्त्र-शस्त्र
से नहीं)
धमाका (बम
का नहीं)
यह कोई
युद्ध या आक्रमण या लड़ाई के समाचार के शब्द नहीं हैं। ये वे हिंसात्मक शब्द हैं
जिनका प्रयोग आजकल मीडिया रोजमर्रा के
जीवन में किए जाने वाले शब्दों की तरह करती है – खेल, राजनीति, धर्म, व्यापार या
किसी भी जगत के समाचार को देने के लिए। खिलाड़ी से खिलाड़ी पर,
खेल के एक टीम से दूसरे टीम पर, राजनीतिक दलों - मंत्रियों - पक्ष विपक्ष के बयानों पर इन शब्दों के लिए
जगह बनाई जाती है। साधारण से साधारण खबर को भी ब्रेकिंग न्यूज़ की संज्ञा देना, चिल्ला चिल्ला कर और उत्तेजित होकर उसे सुनाना,
जैसे कि उनका उद्देश्य समाचार पढ़ना नहीं बल्कि श्रोता को उत्तेजित करना ही है।
एक खबर पर
दूसरी खबर को चिपकाना या दिन भर सब चैनलों पर बार बार एक ही खबर और एक ही विडियो को
दिखाना खबरों की अहिमीयत, उसका अर्थ और संवेदनशीलता को बुरी तरह प्रभावित करती है। इसका असर यह हुआ
है कि हम किसी भी खबर को गंभीरता से नहीं लेते और उसके सत्यापन पर संदेह करते हैं।
आतंकवादी को मारने की खबर हो या जवान के मौत की। सीमा पर जवानों की कार्यवाही की
हो या आतंकी हमले की। आरोपी सही या गुनहगार। सरकारी हो या विपक्ष के आंकड़े हों, कौन सही कौन गलत – कुछ पता नहीं। हमने पढ़ा है – ‘सत्य
मौन रहता है झूठ गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाता है’। लेकिन अब हर
कुछ संदेहों के कटघरे में खड़े हैं। सत्य आदतन मौन है या वही दोषी है? समझ पाना मुश्किल हो गया है। सबों को हम एक ही नजर से देखते हैं, एक ही कान से सुनते हैं, एक ही दिमाग से समझते हैं।
या इसका उलट भी कह सकते हैं – न देखते हैं, न सुनते हैं, न समझते हैं। ये सब हमें एक ही बॉलीवुड की फिल्म सी लगती है और उस पर
टिप्पणी भी ठीक उसी प्रकार करते हैं। यथा, निर्माता (चैनल) कौन
है, नायक-नायिका (पक्ष-विपक्ष) कौन है,
फिल्मांकन (धुंधली) कैसा है, आवाज (स्पष्टता) कैसी है वगैरह
वगैरह। क्या कहा या क्या दिखाया गौण हो
गया, हम पूछते हैं – किसने कहा, कब कहा, कौनसी पार्टी ने कहा, किस चैनल ने दिखाया, किस पेपर में छपा और पूरा विश्लेषण का आधार भी यही हो गया है। सही-गलत
नहीं। ठीक वैसे ही जैसे अपनी अपनी पसंद – नापसंद के नायक-नायिका-निर्माता-गायक-संगीतकार
के अनुसार हम अपना मत बनाते हैं – अच्छा है या खराब है। यही कारण है कि अपराध होते देख जनता उसे
रोकने के बजाय उसका विडियो लेने में और फिर उसे हाथों हाथ सोशल साइट पर अपलोड करने
में और घड़ी घड़ी लाइक को काउंट करने में मशगूल
है ।
आज के
न्यूज़ चैनल समाचार नहीं देते, सब अपना अपना मत प्रकट करते हैं
और पूरे समाचार को तोड़ मरोड़ कर इस प्रकर रखते हैं कि उनका मत ही सही लगता है।
और-तो-और किसी भी प्रकार तोड़ना-मरोड़ना संभव नहीं हुआ और अपने मत के विरोधी हैं तो उस खबर को एकदम नजर अंदाज कर देना, जैसे की वैसा कुछ हुआ ही नहीं। ऐसे गायब जैसे गधे के सिर से सींग।
संवेदनशीलता
और विश्वास की इतिश्री करने में जितना हाथ राजनीतिज्ञों का है उससे ज्यादा मीडिया
का ही है। अब याद आते हैं वे दिन जब आकाशवाणी – औल इंडिया रेडियो – से समाचार प्रसारित
हुआ करते थे। एकदम सपाट, कोई उत्तेजना नहीं, कोई भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, अपना मत नहीं। जस-का-तस। सुन कर यह अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता था कि
समाचार पढ़ने वाले या चैनल वाले, या उनके मालिक किस मत के पक्षधर
है। आवाज में न कोई कंपन, न उत्तेजना। न किसी भी प्रकार के
हिंसात्म्क शब्दों का प्रयोग। समाचार सुन कर आप दुखी हो सकते हैं, प्रसन्न हो सकते हैं, विचारमग्न हो सकते हैं लेकिन
उत्तेजित नहीं। अब, वह समाचार भी कोई समाचार है जो
दर्शक-पाठक को उत्तेजित न करे?
क्या इसके
लिए हम और आप कम दोषी हैं? हम ही मसाले वाले अखबार पढ़ते हैं, अत: वही ज्यादा
बिकते हैं। मसाले वाले चैनल देखते हैं अत: उनकी टीआरपी (TRP)
बढ़ती है। आप इसे बदल सकते हैं। हाँ, आप अकेले ही काफी हैं।
क्योंकि हर कोई यही सोचता है कि मेरे अकेले के करने से क्या होगा? इसके विपरीत अगर यह सोचे कि और कोई करे या नहीं मैं तो करूँ? पता चलेगा कि सबने कर लिया। इंतजार मत कीजिये, शुरुआत
कीजिये अपने आप से।