हम, हिन्दुओं को यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि सत,
रज, तम क्या हैं? ये शब्द
हम सबों ने कभी-न-कभी, किसी-न-किसी से कहीं-न-कहीं सुना जरूर है। और हम इनसे बहुत ऊब भी चुके हैं।
अगर मैं यह कहूँ कि मैं अभी उनके बारे में ही बताना चाहता हूँ, तब आप अभी यहीं ‘डिलीट’ या ‘नेक्स्ट’ दबा कर आगे बढ़ जाएंगे। ठीक है, मैं विषय बदल देता हूँ। जरा आप बताएँगे कि यह ‘अप्रवृत्ति:’ का क्या अर्थ है और यह कौनसे गुण में आता है?
विद्वानों
के अनुसार अप्रवृत्ति का अर्थ है -
सब प्रकार
के उत्तरदायितत्वों से बचने या भागने की प्रवृत्ति, किसी भी कार्य को करने में स्वयं को अक्षम अनुभव करना तथा जगत में किसी
वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न और उत्साह का न होना – ये सब ‘अप्रवृत्ति’ शब्द से सूचित किये गए हैं। इस
प्रवृत्ति या अप्रवृत्ति के प्रबल होने पर सब महत्वाकांक्षाएं क्षीण हो जाती हैं।
मनुष्य की शक्ति सुप्त हो जाने पर मात्र भोजन और शयन, ये दो
ही उसके जीवन कें प्रमुख कार्य रह जाते हैं। इस सबके परिणामस्वरूप वह अत्यंत प्रमादशील
हो जाता है। उस अपने अंतरतम का आवाहन भी सुनाई नहीं देता। और वस्तुत:, वह रावण के समान अत्याचारी भी नहीं बन सकता है। क्योंकि दुष्ट बनने
के लिए भी अत्यधिक उत्साह और अथक क्रियाशीलता अवश्यकता होती है। यानि रावण
में यह तमोगुण यानि अप्रवृत्ति नहीं थी।
गीता
(14.13) में अप्रवृत्ति को तमो गुण का लक्षण बताया गया है। केवल अशुभ कार्य का न
करना ही नहीं बल्कि शुभ कार्य का न करना भी तमोगुण के लक्षण हैं। क्योंकि इस
प्रकार हम शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कार्यों को करने में असमर्थ हो जाते हैं।
तब अशुभ कार्य
का न करना ही यथेष्ट नहीं है, शुभ कार्य का करना
आवश्यक है। अपने आज कौनसा शुभ कार्य किया?
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