‘होली’ शब्द के उच्चारण मात्र से मन में हिलोरें
उठने लगती हैं और पूरा अस्तित्व सब कुछ भूलकर बचपन की यादों में डूबने उतराने लगता है। सात-आठ बरस की रही होऊँगी – यानि १९४२-४३ के समय की याद आती है। तब पिताजी लखनऊ के जुबली कॉलेज में
हिन्दी पढ़ाते थे। लखनऊ की गंगा-जमुनी तहजीब के बीच पल रहे थे हम। पड़ोस में एक
मुस्लिम परिवार रहता था। खां साहब हमारे ताऊ जी थे और उनकी बेगम हमारी ताई। हर बरस
उनके घर से सुबह-सुबह हमारे घर बड़ी स्वादिष्ट
सिवईयाँ आतीं और शाम को सज-धज कर अपनी ईदी वसूलने जाते हम भाई-बहन। और होली के दिन
सबसे पहली पिचकारी खां ताऊ को भिगोती। अस्मत और इफ़्फ़त आपा कितना भी भागें या छुपें
हम उनके गालों पर गुलाल मले बिना उनका पीछा नहीं छोड़ते। शाम को हम खूब सारे होली
के पकवान लेकर उनसे होली मिलने जाते। वे लोग हमारे लाए लड्डू, पपड़ी, खुरमे, शक्करपारे
और खासतौर से मावे भरी गुझियाँ बहुत स्वाद ले-लेकर खाते और असीसते। ताई बेगम की
मैं सबसे लाड़ली थी। हर होली पर वे अपने हाथों से
बनाई कपड़े की गुड़िया जरूर देती थीं। गुड्डा इफ़्फ़त झटक लेती थी। फिर सावन में हम दोनों उनका ब्याह रचाते थे। ओह! रे मीठे
प्यारे बचपन! होली आने के पाँच दिन पहले घर के दो शरारती बच्चे एक तो मैं और दूसरा
मेरा छोटा भाई, हम दोनों सुबह-सुबह निकल जाते थे
और मोहल्ले भर का चक्कर लगा कर गाय का गोबर
इकट्ठा करके घर लाते थे। हम तीनों बहनें गोबर की चपटी लोइयाँ बनाकर अंगुली से बीच
में छेद बनाकर धूप में सूखने रख देतीं। हम तीनों बहनें अपने भाइयों का नाम ले-लेकर
गीत गातीं और उनके ढाल और तलवार की शक्ल की लोइयाँ बनातीं । सूखने के बाद होली दहन
वाले दिन इस छेदों के बीच से सुतली पिरोकर छोटी-बड़ी मालाएँ बनाई जाती थीं। रात को
आँगन में अम्मा एक चौकोर अल्पना बनतीं और विधिवत पूजन के बाद सबसे पहले बड़ी वाली
माला गोलाकार बिछाई जाती और क्रमानुसार उससे छोटी मालाएँ एक-एक करके
एक-दूसरी के ऊपर टिकाई जातीं और इन मालाओं का एक पिरामिड जैसा बन जाता। फिर
मंत्रोच्चारण के साथ पिताजी होलिका दहन करते। हमारा भरा-पूरा घर परिक्रमा लगाता।
हम गन्ने और हरे चने के होराहे उन लपटों में भूनते।
और
फिर वह क्षण आता, जब हम छोटे बच्चों का गहन इंतजार खत्म होता
और मुंह में पानी भर आता। कई दिन से अम्मा
गुझियाँ तथा अन्य पकवान बना-बनाकर कलसों में भरकर रखती
जाती थीं और कहती थीं, ‘होली जलाने के बाद रोज खाने को
मिलेंगे।’ अब थके मांदे सब सोने जाते, पर नींद कहाँ आती थी। सुबह से ही रंग-गुलाल से होली जो खेलनी थी।
..........
कैसी
मनोहारी परम्पराएँ थीं। पहली रात में होली के साथ सारी दुशमनी जला दी जाती थीं।
दूसरे दिन मन के बचे-खुचे मैल रंगों से धो दिए जाते थे और शाम को खुले मन से प्रेम-प्यार के वातवरण में सब एक-दूसरे से गले मिलते थे। धीरे-धीरे हमारे देखते-देखते
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में लोग यह सब भूलते गए और अब तो “हैप्पी होली” कह दिया और हो ली ‘होली’।
साभार – पुष्पा भारती, आहा!जिंदगी मार्च २०१७
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