शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

मेरा बड़प्पन

 (बड़प्पन बड़े होने में नहीं, साधारण होने में है। बड़प्पन में प्रदर्शन की दुर्गंध है जब की साधारण में समर्पण की सुगंध। यह अंश, वंदना जी की लिखी कहानी से लीया गया है। बहुधा अफसर साधारण रहना चाहते है  लेकिन उनके अर्दली अपना बड़प्पन दिखने के चक्कर में अफसर को खास बना देते हैं। )

करूँ क्या, मेरे भाग्य में ही ईंट है। जन्म तो किसी खाते-पीते घर में ही लिया, पर सारा जीवन खाने-पीने से बढ़कर कुछ न पा सका। बहुत चाहा, जीवन में कुछ बन जाऊँ, आकाश का तारा न सही, झाड़ी का जुगनू बनकर ही चमक सकूँ, पर भाग्य में हो तब न! किसी ने ठीक ही कहा है: भाग्य ही से भाग्य होता प्राप्त है’, भाग्य ही मुझको मिला फूटा हुआ

          शहर में आकर लीडर बनने की कोशिश की। बहुत-से लीडरों की दुम बनकर फिरा, लेकिन जूतों के तलवे तो घिसे पर लाभ कुछ न हुआ। लीडरों का सामान ढोया इस आशा से कि "कबहूं तो दीन दयालु के भनक परेगी कान," लेकिन मैं वह उक्ति भूल गया था:

                   थोड़े ही गुन रीझती बिसराई वह बानी।

                             तुमहू कान्ह मानो भाए आजकल के दानी॥

अब वह जमाना चला गया जब हरि पण्डित नेहरू की सेवा-टहल करके बड़ा आदमी बन गया था। हमारे शहर में स्काउट दल शुरू हुआ। सुन्दर रोबदार वर्दी, सीटी देखकर ही मन आकर्षित हुआ। जिधर से निकल जाओ उधर ही लोगों का जमघट हो जाये। सीटी बजा दो तो चलते लोग रुक जायें। मैंने सोचा "चलो, यह अच्छी बात है। मैं भी स्काउट बनूँगा और तब सारे शहर की आँखें मुझ पर केंद्रित हो सकेंगी।"

          लेकिन उसी भाग्य ने अड़ंगा लगाया। मैं भर्ती होने गया तो मुझे बताया गया कि मेरी आयु ज्यादा हो चुकी है। न पूछिये मेरा क्या हाल हुआ उस समय अधिकारी मेरी रुंआसी शकल देखकर समझ गये। उन्होंने कहा: "आपकी बहुत इच्छा हो तो स्काउट मास्टर बन जाइये, हमें जरूरत भी है।" चलिये, डूबते को तिनके का सहारा। इसके लिये प्रशिक्षण लेना ही होगा। छ: महीने एक पुलिस के सार्जेंट से प्रमाण-आदेश और प्रमाण-संगीत आदि सीखना होगा, फिर परीक्षा होगी और न जाने क्या-क्या होगा।

          खैर, मैंने स्वीकार कर लिया, प्रशिक्षण के लिये रोज सबेरे परेड मैदान में हाजिर होना पड़ता था। गरमी हो या सरदी, मैंने कभी देर नहीं की। जीवन में चमकना मेरा उद्देश्य था और उसके लिये मैं  सब कुछ करने को तैयार था। खैर, यह तो ठीक है, पर क्षमता भी तो कोई चीज है। छः महीने के बाद मेरी परीक्षा ली गयी और परीक्षक ने मेरे नाम के आगे लिख दिया, "नेतृत्व की क्षमता नहीं है, अपने-आप चमकने की हवस में दूसरों को अवसर ही नहीं देता। परिश्रमी तो है पर बहुत ज्यादा खुदगर्ज़। परीक्षण के तौर पर कुछ दिनों के लिये काम देकर देखा जा सकता है।"

          खैर, मैंने हिम्मत न हारी। कुछ दिनों के लिये परीक्षा ही सही। मुझे एक अनुभवी स्काउट मास्टर के नीचे काम करने के लिये भेज दिया गया। उसने तीसरे दिन ही कह दिया: "मियां, तुम काम-वाम तो कुछ करते नहीं, हमेशा दूर की हाँकते रहते हो। बड़ा बनना है तो पहले बड़ों के पैरों की धूल बनो।

          मैंने गाँठ बाँध ली। हमारे शहर में कलक्टर साहब की सबसे ज्यादा पूछ थी। मैं अपनी वर्दी डालकर उनके घर जा पहुँचा और लगा उनके घर आने-जानेवालों का नियंत्रण करने। थोड़ी देर तो सब कुछ ठीक चला। मेरे इशारे पर बड़े लोगों की मोटरों को रुकना पड़ता था, साहब से मिलने के लिये मेरे आदेश की सबको प्रतीक्षा रहती थी। लेकिन हाय बदकिस्मती ! मेरा प्रशिक्षक सार्जेंट यहाँ आ पहुँचा। मुझे देखते ही उबल पड़ा : "तुम इधर काहे आया ? स्काउट ड्रेस पहनकर लोगों को ठगना माँगता ?" करीब था कि वह मुझे अर्द्धचन्द्र देकर रास्ते पर फेंक दे कि साहब बाहर निकल आये। उन्होंने सार्जेंट से पूछा: मामला क्या है ?" उसके उत्तर से मुझे मालूम हुआ कि साहब के बंगले पर पहरा देने की व्यवस्था उसके हाथ में है और असली की गैरहाजिरी में मैंने उसका पद हड़प लिया था और लोगों ने मुझे वर्दी के कारण पहरेदार समझ लिया और जब कुछ समय बाद असली संतरी वापस आया तो वह मुझे देखकर डर गया। उसने समझा उसकी चोरी पकड़ी गयी और सार्जेंट ने ही उसे दण्ड देने के लिये मुझे यहाँ खड़ा कर दिया है। इसलिये वह माफी मांगने के लिये दौड़ा-दौड़ा सार्जेंट के घर पहुँचा और तब यह सारा भेद खुला।

          यह सब तो मेरे लिये भी एक कहानी से कम न था। सार्जेंट मुझे पकड़कर हवालात में ले जाना चाहता था पर न जाने क्यों साहब को मेरा चेहरा देखकर हँसी आ गयी। मेरा साहस बढ़ गया, मैंने बढ़कर उनके कदम पकड़ लिये। साहब अंदर चले और मुझे भी इशारे से अपने साथ बुला लिया। अंदर जाकर मैंने क्या देखा ? कैसे कहूँ, बस यही समझो कि हमारी कल्पनाओं का स्वर्ग धरती पर आ गया था। मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा तो नहीं हूँ, पर अपनी नानी-अम्मा से इतिहास, पुराण, भागवत वगैरह की बहुत-सी कथाएँ और नाना से अंग्रेज अफसरों की शान-शौकत की बहुत-सी कहानियाँ, अलिफ लैला की दास्तानें सुन चुका हूँ। मैं यही सोचा करता था कि एक दिन आयेगा जब मेरे घर में यह सब साज सामान होगा, .......

          .... “अच्छा तुम्हें कल से आठ दिन के लिए रखता हूँ।...  अगर तुम्हारा काम अच्छा हुआ तो रख लिया जाएगा।....” , साहब ने फरमाया।

          ... मैं साहब के घर की ओर चला। चौक की घड़ी में आठ की तैयारी थी, मैं सकपका गया। आठ बजे तो साहब रंगजी के मंदिर में जानेवाले थे, मुझे तो देर हो गयी! मैं दौड़ा मंदिर की ओर। हाँफता-हाँफता वहाँ जा पहुँचा। अभी साहब नहीं आये थे। मंदिर में आरती की तैयारी हो रही थी। मैंने अवसर का फायदा उठाया। अपनी सीटी बजाकर मैंने जोर से आदेश दिया खबरदार ! साहब के आने से पहले कोई मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता, निकलो सब लोग बाहर !"

          कोई विशेष असर न होते देखकर मैंने अपना परिचय दिया: "मैं साहब कलक्टर बहादुर का विशेष अरदली हूँ और उनके आने की व्यवस्था करने के लिये भेजा गया हूँ। जो मेरी बात न सुनेगा उसे हथकड़ी लगा दी जायेगी।" जनता में थोड़ी घुस-पुस शुरू हुई। मैंने डंडा दिखाया तो दस-पांच आदमी खिसककर मंदिर से बाहर हो गये। मैंने कहा: ठीक है, सब-के-सब फूल और नैवेद्य लेकर बाहर पंक्ति लगा दो। सबसे पहले साहब अंदर आयेंगे, उनके बाद तुम लोग अंदर जा सकते हो।"

          मैं अभी पंक्ति ठीक कर ही रहा था कि साहब की मोटर आ गयी। मैंने सोचा अपना पराक्रम दिखाने का अच्छा अवसर है। झट एक आदमी को जो पंक्ति में खड़ा न रह सकने के कारण बैठ गया था, ठोकर लगाते हुए कहा: "सुना नहीं? खड़े हो जाओ सीधी तरह, साहब आ रहे हैं।” मैंने सोचा था मेरी फुरती देखकर साहब खुश होंगे परंतु ऐसा लगा कि उन्होंने इस ओर देखा ही नहीं। वे अधमुंदी आँखों, हाथों में धूप-दीप लिये पंक्ति के अंत में आकर खड़े हो गये। मुझे काँटों तो खून नहीं, फिर भी हिम्मत करके बड़प्पन का आखिरी दाँव डाला। लेकिन पासा उल्टा पड़ा। मैंने साहब के सामने जाकर जोर से सलाम किया और कहा: सरकार आगे आएँ, मैंने रास्ता कर रखा है।"

          लेकिन यह क्या! साहब ने असंतोष दिखाते हुए मुँह पर उंगली रखी और धीरे से बोले, बदतमीजी न करो ! भगवान् के घर सब बराबर हैं, मैं पंक्ति में ही ठीक हूँ।” मेरे ऊपर घड़ों पानी पड़ गया। मैंने समझ लिया कि यहाँ मेरी दाल न गलेगी और इससे पहले कि साहब को मेरी सारी करतूत का पता लगे मैं नौ-दो-ग्यारह हो गया। बड़प्पन के खण्डहरों को भी ढहते देख मेरी आँखों झड़ी लग गयी

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शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

सफलता के लिये, सुधारें जिद्दी आदतें

 (अगर सुधरना चाहते हैं तो केवल पढ़ें नहीं बल्कि गोलें, और आत्म-विश्लेषण करते चलें। आपकी जानकारी के लिये मैंने अपना निष्पक्ष आत्म-विश्लेषण डालने की कोशिश की है। इस आशा से कि शायद आपको भी कोई रास्ता सूझ जाये। शुभ कामनाओं सहित, शायद आपकी भी  कुछ जिद्दी आदतें सुधर जायें? प्रस्तुत आलेख के लेखक हैं सारस्वत रमेश और छापा था अहा! जिंदगी ने।)

कभी-कभी हमारी छोटी-मोटी आदतें हमारे लिये मुसीबत का कारण बन जाती हैं। अपनी आदतों को हम ठीक तरह से समझ नहीं पाते, उनकी वजह से दूसरों को कितनी दिक्कत हो रही है यह समझना तो दूर रहा। तो आइये, ज़िंदगी प्रभावित करने वाली जिद्दी आदतों को बदलने की कोशिश करते हैं.......  

१। शिकायत करने की आदत

किसी के काम में नुक्स निकालने, शिकायत करने की आदत आम है। तुमने काम ठीक से नहीं किया, देर से किया, खाना अच्छा नहीं बनाया.......। अधिकतर लोगों को घर-परिवार, दोस्त या घरेलू सहायकों से इस तरह की शिकायत अक्सर रहती है। ऐसे शिकायती मिजाज के लोग सिर्फ एक दिन के लिये पत्नी, पति या घरेलू सहायिका का किरदार निभाएँ। उनकी सारी जिम्मेदारियों को अपने सिर पर लेकर देखें। फिर खुद से सवाल करें – क्या सारे काम मैंने कुशलता पूर्वक कर लिये? क्या कोई ऐसा काम न था, जिसमें किसी ने शिकायत न की हो या किसी को शिकायत हो सकती हो? आपसे भी दस गलतियाँ हो सकती हैं।

        ओशो कहते हैं – ऐसा मत सोचना कि शिकायत तुमसे न होगी, जीसस जैसे परम पुरुष से भी शिकायत हुई थी। यकीन मानिये, इसके बाद ये आदतें छू-मंतर हो जायेंगी।

(आत्म-विश्लेषण – हाँ, मैं इस आदत से ग्रस्त हूँ। शिकायत करने की जबर्दस्त आदत है। कई बार निश्चय किया कि अब बहुत हुआ, आगे से नहीं। पहले से बहुत कमी आई है, लेकिन फिर भी शिकायत करने में लग जाता हूँ। परेशान तो हूँ लेकिन इससे मुक्ति कैसे मिले? लेखक ने सुझाया तो है, लेकिन दूसरे उपाय भी तो होंगे? आप के पास हैं! वैसे अब लंबे समय तक आश्रम में रहने से लगता है कुछ बदलाव आया है।)  

२। भोजन बर्बाद करने की आदत -

खाने की प्लेट में जूठन छोड़ना लोगों की आदत में शुमार होता है। ऐसे लोगों को अपनी पसंदीदा साग-सब्जी, अनाज या फल में से किसी एक का चुनाव करना चाहिए। फिर उसे अपने कीचन गार्डेन में उगाना चाहिये। जब वे किसी साग, सब्जी या फल को अपने हाथों से उगाएँगे तो उन्हें पता चलेगा कि किसी चीज को उगने, बढ़ने, फलने, फूलने में कितना समय लगता है। कितनी देखभाल करनी पड़ती है। कितने धैर्य की जरूरत होती है।

        जरा सोचें, कितने ही लोग हैं जिन्हें दो जून का खाना भी मयस्सर नहीं होता। और एक हम हैं जो गाहे-बगाहे खाना बर्बाद कर रहे हैं। यह अहसास होते ही हम खाने की कीमत समझने लगेंगे। और बर्बाद करने की हमारी आदत छूट जायेगी।

(आत्म-विश्लेषण – याद आता है कि बचपन में जूठन छोड़ने की आदत थी। लेकिन कालांतर में यह आदत कब-कहाँ-कैसे  छूट गई याद नहीं। अब कभी जूठन नहीं छोड़ता। भोजन-तो-भोजन, ध्यान रखता हूँ कि पानी भी न छोड़ना पड़े।)   

३। गुस्से की आदत

 छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा हो जाना आम बात है। कई बार इसका बुरा नतीजा भुगतना पड़ता है। अगर आपको भी गुस्सा आता है तो नागवार लगने वाली बात पर तुरंत प्रक्रिया देने से बचें। मौन खुद पर नियंत्रण रखने की प्रभावकारी विधा है। मौन से मन शांत और उर्वर होता है। रचनात्मक विचारों के बीज अंकुरित होते हैं। मौन रहकर आप बेकार की बातों से निजात पा रहे होते हैं।

        अपने गुस्सैल स्वभाव को बदलने के लिये आप हफ्ते या महीने में एक दिन मौन रहने का प्रयोग करिये। सहमति-असहमति को भूलकर तटस्थ हो जाइये। खुद को क्रोध की गिरफ्त से मुक्त होता हुआ महसूस कीजिये।

(आत्म-विश्लेषण – पहले गुस्सा नाक पर ही चढ़ा रहता था। बहुत प्रयत्न करने पर पहले से काफी कम हुआ है। ऊपर सुझाए गये उपाय पर पहले से ही अमल करता हूँ। फिर भी क्रोध आ ही जाता है। कहते हैं – क्रोध आ जाता है तो सब नसीहत भूल जाते हैं, गुरुजी का कहना है नहीं, दरअसल भूल जाते हैं तब क्रोध आता है। प्रयत्न जारी है, शायद और कमी आए या मुक्ति मिल जाये। मेरे प्रयास में  मौन एक कारगर हथियार सिद्ध हुआ है।) 

४। फालतू  खरीदने की आदत

कइयों को जरूरत से ज्यादा खरीदने की आदत होती है। चीजें भरी रहती हैं। कपड़े, जूते, बर्तन, अलमारियाँ, सुटकेस, शूकेस, गहने के बक्से, बर्तन स्टैंड...... हर जगह चीजें इतनी हैं, जिसकी कोई थाह नहीं। फिर भी हर रोज कुछ नये की खरीददारी से बाज नहीं आते। ऐसी खरीददारी को लोग शान से जोड़ते हैं। आजकल के युवाओं में शॉपिंग जरूरत से बढ़कर फैशन और दिखावा बन चुका है।

        लेकिन क्या आपने कभी सोचा है हमारी अति ने धरती के संसाधनों का क्या हश्र किया है? अपनी फिजूलखर्ची से हम हर वर्ष कितना कचरा पैदा कर रहे हैं। कितना जल प्रदूषित हुआ। कितने पेड़ काटे गये। कितने जानवरों की खाल उधेड़ी गई। कितना धुआँ निकलकर हवा में मिल गया?

(आत्म-विश्लेषण – पहले  शॉपिंग का काफी शौक था। ईश्वर की दया से अब बंद सा हो गया है। अब तो यह ठान चुका हूँ कि कुछ भी खरीदते हैं तो घर से कम-से-कम वैसी ही एक वस्तु निकालते हैं और जरूरत मंद को देते हैं। इससे भी खरीददारी पर प्रभाव पड़ा है और दान भी दिया जाता है।)  

५। काम टालने की आदत

काम टालने की आदत हमें आलसी बनाती है। यह सफलता के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है। इससे न केवल काम रुकते हैं, बल्कि हमारी तरक्की का मार्ग भी धीरे-धीरे अवरूद्ध होने लगता है। चीजों को टालते जाना और अंत में उसे स्थगित कर देना हमारी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। ऐसे लोगों को एक दिन के लिए कोई ऐसा काम चुनना चाहिये जिसमें जमकर शारीरिक मेहनत हो।

        पूरे दिन काम करने के बाद रात को अपनी डायरी में लिखिये कि आज आप कैसा महसूस कर रहे हैं। और जब आप सोने जाएँ तो सुबह उठकर रात की नींद के बारे में महसूस करें कि ऐसी सुखद नींद पहले आपको कब आई थी।

(आत्म-विश्लेषण- रोज प्रात: घूमते हुए पूरे दिन का काम और उसका क्रम निश्चित करता हूँ। इससे मन और शरीर दोनों उसके लिए तैयार हो जाते हैं और अपने आप मुझे एक के बाद दूसरे काम में ठेलते रहते हैं। कई लोग तो इस कारण मुझसे परेशान भी रहते हैं कि मैं बड़ा रूटीन वाला आदमी हूँ, सब याद रहता है, काम-काम-और-काम।)  

यकीन मानिये अगर हमने इन छोटे-छोटे बदलावों को अपनाया तो जिंदगी में खूबसूरती का एक नया सवेरा होगा। तो फिर देर किस बात की? आज से शुरू करें अपनाना, आजमाना।

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शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

खोटे जप तप दान

 हम साँस लेते हैं। इसमें कोई नयी बात नहीं है। कोई मिनट में सोलह बार, कोई अठारह बार और कोई योगी-यती हो तो मिनट में दस बार ही साँस लेता है। हमारे साँस लेने के बारे में कहीं चर्चा नहीं होती। लेकिन जरा साँस रुक जाये या दम उखड़ जाये तो यह समाचार बन जाता है और हमारी हैसियत के अनुसार दो-चार, दस-पांच या ठट-के-ठट देखने आ पहुँचते हैं। कोई पुष्पमाला भेंट करता है तो कोई अश्रुमाला ।

इस बात की याद क्यों आई जानते हैं? एक बार आंध्र प्रदेश में मुल्की, गैर मुल्की के प्रश्न को लेकर अच्छी तरह जूतियों में दाल बंटी। रेलें रोकी गयीं, यात्रियों से चंदे उगाहे गये। धाँय-धाँय करते हुए विद्यार्थियों ने विनाश का झंडा हाथ में लेकर चारों ओर बाही-तबाही मचा दी। पूरी मालगाड़ी जला दी गयी, डीलक्स गाड़ी के अंजर-पंजर अलग कर दिये गये, कुछ आदमियों पर भी पेट्रोल छिड़ककर उन्हें दियासलाई दिखायी गयी। ऐसी घटनाएँ अखबारों में, रेडियो पर आती ही रहती हैं। इन्हें पढ़-सुनकर मन में सवाल उठता है क्या भारतवर्ष, देवभूमि भारतवर्ष, पूरी तरह से राक्षसों की क्रीड़ास्थली बन गयी है ?

लेकिन ठहरिये। कुछ राय बनाने से पहले याद कर लीजिये:

"भले भले कहि छांड़िये खोटे जप तप दान।"

कुण्डली में शुभ ग्रह हों तो कुछ नहीं किया जाता, लेकिन अशुभ होते ही शांति के लिये कितने उपाय शुरू हो जाते हैं। अंग्रेजी में कहते हैं:

"जब कुत्ता आदमी को काटता है तो वह एक साधारण तथ्य होता है, पर जब आदमी कुत्ते को काटे तब वह समाचार बन जाता है।"

बुरे को ऊँचा स्थान देने की पुरानी आदत है -दुर्जनं प्रथमं वन्दे ।" या फिर :

बद ख़सलतों को करता है बालानशीं फलक

ऊँची है आशियानए जागो जगन की शाख ।

(दैव हमेशा बुरों को ऊँचा स्थान देता है। कौए और चीलों के घोंसले ज्यादा ऊँची शाखा पर होते हैं।)

लेकिन इन सब चीजों को देखकर यह नहीं माना जा सकता कि संसार बुराइयों से ही भरा है। सारा आकाश चील-कौओं से भरा नहीं रहता। लीजिये, अब एक ऐसी घटना सुनिये जिसे सुनाने में न अखबारों को रस है, न रेडियो को।

हमारे एक मित्र दर्शन के लिये पांडिचेरी आ रहे थे। मुल्की-विरोधी आंदोलन वालों ने उनकी रेल रोक दी और पूरे छब्बीस घण्टे तक रोके रखी। हमारे मित्र ने कहा:

"गाड़ी रोकी गयी तो हमें कुछ चिंता हो उठी। हमने जोर-जोर से माताजी को पुकारा।" थोड़ी देर में गार्ड ने आकर हमें दिलासा दिया। फिर स्टेशन मास्टर आ गया।

दोनों ने यात्रियों से कहा : 'जब तक हमारी जान में जान है, आप लोगों का बाल भी बांका न होने पायेगा।'

"छोटे से स्टेशन पर हम सबके नित्यकर्म आदि की व्यवस्था की गयी। थोड़ी देर में गाँव के लोग आ गये। उन्होंने हम सब के खाने-पीने की व्यवस्था की। उनके व्यवहार से ऐसा लगा मानों हम सब उनके गाँव में बराती बनकर आये हों। थोड़ी थोड़ी देर बाद गार्ड और स्टेशन मास्टर आकर देख जाते थे। उन सब ने पूरे छब्बीस घण्टों तक हमारी अच्छी तरह देखभाल की।”

ऐसे समाचार कभी अखबारों में नहीं छपा करते। हमारे पास यह मानने के लिये कोई कारण नहीं है कि यह अपने जैसी एक विलक्षण घटना थी। न जाने इस तरह की कितनी घटनाएँ घटा करती होंगी जिनके बारे में हमें कभी खबर नहीं मिलती।

इसी तरह की एक और घटना ले लीजिये। रेलों में, मोटरों में लड़कियों के साथ छेड़खानी करनेवालों की बातें आये दिन सुनाई देती हैं। इससे उलटी घटनाएँ हमारे कानों तक नहीं पहुँचा करतीं। यह घटना दिल्ली जैसे बदनाम शहर की है। दिल्ली के हवाई अड्डे पर जहाज उतरा तो रात काफी बीत चुकी थी। उतरनेवाले अपने-अपने मित्रों के साथ चल दिये और हिन्दुस्तान के एक दूसरे कोने से आयी एक जवान और सुन्दर लड़की अपने भाई को खोजती हुई अकेली रह गयी। किसी गलतफहमी के कारण भाई उसे लेने के लिये न आ सका था। लड़की ने दिल्ली के बारे में बहुत-सी कहानियाँ  सुन रखी थीं, अभी आते हुए ही कइयों ने डराया था कि अकेली लड़की के लिये दिल्ली खतरनाक जगह है। अब लड़की को भी डर लगने लगा। जाये-तो-जाये कहाँ और आधी रात को वहाँ भी कैसे पड़ी रहे ?

थोड़ी देर में एक सरदारजी से मुठभेड़ हो गयी। वह भी इसी जहाज से उतरा था और सवेरे चंडीगढ़ जानेवाला था। सरदार ने कहा : "चलो, मैं दिल्ली से भली-भांति परिचित हूं, मैं तुम्हें तुम्हारे भाई के यहाँ  पहुँचा आऊँ।"

लड़की को कुछ डर तो लग रहा था पर उसके साथ जाने के सिवाय कोई चारा भी तो न था। सरदार ने टैक्सी की, अपना सामान किसी होटल में रखकर लड़की के भाई के मकान की तलाश में निकल पड़ा। काफी चक्कर लगाने के बाद भाई का मकान मिला। भाई सोया पड़ा था। सरदारजी ने उसे जगाया। पहले जाँच कर ली कि वह सचमुच उसका भाई है या नहीं, फिर लड़की को उसके हवाले कर टैक्सी का किराया तक लिये बिना वहाँ से लौट पड़ा। हमें विश्वास है कि ऐसे आदमी अपवाद-स्वरूप नहीं हैं। ऐसे न जाने कितने होंगे जिनके अंदर भारतीयता या यूं कहें मानवता का दीया टिमटिमा रहा है पर उनकी बातें हमारे सामने नहीं आतीं और - खोटे जप तप दान ।

-यायावर से

(खोटे जप ताप दान का प्रचार-प्रसार पहले से कई गुना बढ़ गया है। अब ये इंटरनेट के पंखों पर चढ़ कर प्रिंट मिडिया, एलेक्ट्रोनिक मिडिया और उससे भी ज्यादा सोशल मीडिया में ये खूब फल-फूल रही हैं। इनको पानी-हवा-खाद देने वाले हम ही हैं। हम हवा का रुख बदल सकते हैं। हममें यह काबिलियत है – केवल इच्छाशक्ति होनी चाहिए – खोटे के बजाय खरे जप ताप दान की बयार चलाने की।

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शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

सूतांजली, सितंबर 2021

 सूतांजली के सितंबर अंक का संपर्क सूत्र नीचे है:-

इस अंक में तीन विषय, एक लघु कहानी और धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी की नौवीं किश्त है।

१। क्यों हो जाते हैं हम निराश?                                      

हमें हर समय आशावान होने की ही शिक्षा मिली। हम यह जानते भी हैं कि आशा ही हमें सफलता की ओर अग्रसर करती है और निराशा असफलता के अंध-कुएँ में धकेल देती है। फिर भी हम क्यों बार-बार निराश हो जाते हैं? बहुत ही छोटी-छोटी बातें हैं जो हमें बार-बार निराश करती रहती है। इन्हें जानें-समझें और इनका निराकरण करें। फिर निराशा आपको परेशान नहीं करेगी। प्रारम्भ में यह आपको कठिन लग सकता है लेकिन, पहला कदम बढ़ाइए, जैसे-जैसे कदम उठाते जाएंगे, डगर आसान होती जाएगी।  

२। एक भावपूर्ण प्रार्थना और दृढ़ विश्वास                                         मैंने पढ़ा

प्रार्थना सुनी जाए, इसके लिए क्या, शब्द चाहिए? क्या हाथ जुड़े होने चाहिए? इच्छा जाहिर करना जरूरी है? या फिर कुछ और ही चाहिए? क्या?

३। जन्मदिन                                                                               मेरे विचार

जन्मदिन, माधव ने एक वर्ष, माँ के कहने पर, अपना जन्मदिन एक अलग ढंग से मनाया। और फिर तो उसे उसी की लत लग गई। उसमें उसे इतना आनंद मिलने लगा कि आज के पारंपरिक तरीके को वह भूल ही गया।

४। कर्म                                                    लघु कहानी - जो सिखाती है जीना

जब प्रकृति का न्याय होता है तब न धन, न धर्म, न पद, न ज्ञान काम आता है। काम आता है सिर्फ कर्म।

५। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी – धारावाहिक

धारावाहिक की नौवीं किश्त

पढ़ने के लिए ब्लॉग का संपर्क सूत्र (लिंक) (ब्लॉग में इस अंक का औडियो भी उपलब्ध है): ->

 

https://sootanjali.blogspot.com/2021/09/2021.html