फिक्की लेडीज़ और्गेनाइज़ेशिन (FLO) के चेयरपर्सन के एक इंटरनेशनल समारोह में सुधा मूर्ति ने बतलाया था कि उन्हें जे आर डी टाटा से एक अनमोल सलाह तब मिली, जब उन्होंने अपने पति नारायण मूर्ति की स्टार्ट अप कंपनी इंफ़ोसिस में उनका सहयोग करने के लिए नौकरी छोड़ दी थी। टाटा ने कहा था, “यह याद रखना कि कोई भी पैसे का मालिक नहीं होता, हम केवल पैसों के रखवाले हैं और यह हमेशा एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता रहता है। इसीलिए जब आप सफल हों तो इसे समाज को वापस लौटा दें, जिसने आपको बहुत सद्भावना दी है”।
आजादी के पहले अपने सपनों के भारत की कल्पना करते हुए महात्मा गाँधी ने ट्रस्टिशिप के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया था। मूलत: यह सिद्धान्त उनके मन में १९०३ में आया था जब वे दक्षिण अफ्रीका में थे। इस सिद्धान्त पर उन्होंने पूरी गहराई से विचार किया था और इसके सब आयामों पर विचार कर विस्तार से इसे प्रतिपादित किया था। उनके इस सिद्धान्त की जड़ यही है कि पूंजी का असली मालिक पूंजीपति नहीं बल्कि समाज है। उनका मानना था कि पूंजीपतियों के पास जो पूंजी है उसका असली मालिक वह पूंजीपति खुद नहीं है बल्कि समाज है। पूंजीपति तो सिर्फ उसका रखवाला है, समाज की वह पूंजी उसके पास धरोहर के रूप में है। महात्मा गाँधी के इस ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त के अनुसार जो व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक संपत्ति का संचय करता है, उसे केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संपत्ति के उपयोग का अधिकार है। शेष संपत्ति का प्रबंध उसे एक ट्रस्टी की हैसियत से देखभाल कर समाज कल्याण पर खर्च करना चाहिए। महात्मा गाँधी यह स्वीकार करते थे कि सभी लोगों की क्षमता एक सी नहीं होती है। किसी की पैसे कमाने की क्षमता अधिक होती है किसी की कम। अत: जिनके पास कमाने की क्षमता अधिक है, उन्हें कमाना तो चाहिए लेकिन अपनी जरूरतों को पूरा करने के बाद शेष राशि समाज के कल्याण पर खर्च करना चाहिए। गाँधीजी के अनुसार पूंजीपतियों को अपनी जरूरतें भी सीमित करनी चाहिए तभी वे बची हुई आमदनी को जरूरत मंदों पर खर्च कर सकेंगे।
दुर्भाग्यवश देश के बुद्धिजीवी, उद्योगपति और व्यवसायियों के बड़े वर्ग ने, गाँधी के इस सिद्धान्त पर ‘काल्पनिक आदर्शवाद’ का बल्ला लगा इसे अव्यवहारिक बता इसकी खिल्ली उड़ाई। लेकिन महात्मा गाँधी इससे विचलित नहीं हुए और लगातार और बराबर देश के पूँजीपतियों और धनी व्यक्तियों से इसपर चर्चा करते रहे। अनेक उद्योगपतियों ने इस पर विचार किया और इसे अपनाया। ट्रस्टीशिप सिद्धान्त का पालन करने वाले अनेक उद्योगपतियों में परिवार सहित सादगीपूर्ण रहन-सहन अपनाने वाले जमनालाल बजाज को महात्मा गाँधी का सबसे प्रिय उद्योगपति शिष्य माना जाता है।
टाटा ने भी गाँधी जी के इस सिद्धान्त पर गहराई से विचार किया और कहा कि इस सिद्धान्त का अक्षरश: पालन नहीं किया जा सकता। लेकिन इसे अपनाया जा सकता है। और देश तथा देश की जनता के लिए उन्होंने इस सिद्धांत पर चलने का निश्चय किया। उन्होंने ऐसी व्यवस्था की जिसमें टाटा समूह की कंपनियों के शेयर ‘टाटा संस’ के पास हैं। और टाटा संस के प्राय: ८५ प्रतिशत शेयर सार्वजनिक परोपकारी-धर्मार्थ-सामाजिक ट्रस्ट के पास हैं। इस प्रकार टाटा समूह की कमाई का बड़ा हिस्सा डिविडेंड के रूप में इनके पास आता है और फिर वे ट्रस्ट उसका उपयोग सामाजिक कार्यों के लिए करते हैं। जिनमें शिक्षा, अनुसंधान, कला, साहित्य, चिकित्सा, विज्ञान आदि के लिए किया जाता है। देश में बदलते नियम-कानून के चलते टाटा को अपनी इस व्यवस्था में भी फेर-बदल करने पड़े लेकिन प्रमुखत: उनके कार्यों का सिद्धान्त यही बना रहा। इसी प्रकार विप्रो और इंफ़ोसिस के संस्थापक श्री अजीम प्रेमजी एवं श्री नारायण मूर्ति भी अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक संस्थाओं के निर्माण, उत्थान, रख-रखाव के लिए अपनी सामाजिक ट्रस्ट द्वारा करते हैं।
ध्यान रखें
आपके पास जो है वह आपका नहीं बल्कि समाज या ईश्वर का है। आप उसमें से सिर्फ अपनी आवश्यकताओं
की पूर्ति, इच्छाओं की नहीं, लायक पूंजी निकालने के अधिकारी
हैं। बाकी पूंजी समाज या ईश्वर के कार्यों में लगाकर उन्हें समर्पित करना आपका
कर्तव्य है।
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