शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो,

चार- किताबें पढ़ कर वे भी हम जैसे हो जाएंगे

                                                                                                        निदा फाजली



वक्त बचपन को बहा ले जाता है। बचपन का जाना, जीवन से सरलता का चले जाना होता है। हम बड़े हो जाते हैं। सरल बनने की कोशिशें करते हैं, तमाम स्वांग करते हैं, आवरण ओढ़ते हैं, हजारों रुपए देकर जिंदगी जीने की कला सीखने भी जाते हैं, लेकिन नहीं बदलते। साल 2011 में लिटिल चैंप्स रियलिटी शो में एक बच्चा आया था। रूहानी आवाज के मालिक नन्हे से अजमत से जब पूछा गया कि अगर वह जीत जाएगा तो पैसों का क्या करेगा तो उसने शो में ही अपने एक और प्रतिभागी साथी का नाम लेकर कहा था, उसका मकान कच्चा है। उसके मकान को बनवाऊँगा इतनी सरलता से कोई बच्चा ही कह सकता है।

          यहाँ ईरानी डायरेक्टर अब्बास किआरोस्तामी की फिल्म 'वेयर इज दि फ्रेंड्स होम' याद आती है। फिल्म विद्यालय की कक्षा के दृश्य के साथ आगे बढ़ती है, जहाँ शिक्षक होमवर्क पूरा न करके लाने वाले छात्र को छड़ी से मारता है। अहमद को याद आता है कि उसके दोस्त की नोटबुक उसके पास रह गई है, वह उस दिन क्लास में नहीं आया, लेकिन अगले दिन आएगा होमवर्क नहीं किया होगा, तो क्या होगा। अहमद के इस दोस्त का गाँव उसके घर से दूर है, वह नोटबुक लेकर निकल पड़ता है उसे लौटाने के लिए। वह लड़के के गाँव पहुँचता है, तो पता चलता है वह कहीं और है। वह पता लेकर उसे ढूँढ़ने निकल पड़ता है, रात हो जाती है, लेकिन वह उसे ढूँढ लेता है। हम बड़े हो जाते हैं और दोस्तों के घर का पता होते हुए भी, हाथ में गूगल मैप होते हुआ भी, गाड़ी या मोटर साइकिल होते हुआ भी, नहीं पहुँच पाते। हम इतने बड़े क्यों हो जाते हैं?

         माजिद माजीदी की फिल्म 'चिल्ड्रन ऑफ हेवन।' अपनी बहन का जूता खो देने वाला अली विद्यालय की ओर से आयोजित दौड़ प्रतियोगिता  में हिस्सा लेने का फैसला करता है, क्योंकि उसे बस इतना पता है कि इनाम में उसे जूते मिलेंगे। जूते के लिए दरअसल उसे सेकेंड आना था, लेकिन वह दौड़ते हुए यह भूल जाता है और पहले नंबर पर आ जाता है। वह पहले नंबर पर आकर भी खूब रोता है, क्योंकि उसका लक्ष्य सिर्फ जूते हैं। आदमी ठीक इससे उलट करता है, वह लक्ष्य बना लेता है, पूरा करता है, वह उस लक्ष्य को पूरा करने का आनंद लेना भूल जाता है। उसका आनंद लेने की बजाय उसे फिर कुछ और चाहिए। ये कुछ और क्या है, उसे खुद को पता नहीं। वह ता-उम्र उस तक नहीं पहुँच पाता। सरलता सीखनी है तो बच्चों से सीखें, लेकिन बतौर समाज हम बच्चों से सबसे पहले जो छीनते हैं वह है उनकी सरलता।

गुलजार साहब की एक कविता याद आ रही है

 

"जिन्दगी की दौड़ में,

तजुर्बा कच्चा ही रह गया...।"

         " हम सीख न पाये 'फरेब'

         और दिल बच्चा ही रह गया...।"

                    "बचपन में जहाँ चाहा हँस लेते थे,

                    जहाँ चाहा रो लेते थे...।"

                              "पर अब मुस्कान को तमीज़ चाहिए,

                              और आँसुओं को तन्हाई..।"

                                        "हम भी मुसकुराते थे कभी बेपरवाह, अन्दाज़ से..."

                                        देखा है आज खुद को कुछ पुरानी तस्वीरों में ..।

                                           "चलो मुस्कुराने की वजह ढूँढते हैं...

                                                   तुम हमें ढूँढो...हम तुम्हें ढूँढते हैं .....!!"

 

सरल होना, अपनी तरफ़ से अच्छे से अच्छा, और जहाँ तक हो सके श्रेष्ठ रूप से करना कितना अच्छा है; केवल प्रगति प्रकाश, सद्भावनापूर्ण , शान्ति के लिए अभीप्सा करना। तब कोई चिन्ता नहीं रहती और पूर्ण रूप से सुखी होते हैं!

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