सोशल मीडिया पर न जाने कितनी निरर्थक बातें, वीडियो, फोटो तैरती रहती हैं। उसी भीड़ में कभी-कभी अचानक ऐसा कुछ दिख जाता है जो दिल को छू लेता है। ऐसा ही, सर्वेश तिवारी का एक पोस्ट पढ़ने को मिला :
तीर्थाटन की
परम्परा जीवन के तीसरे-चौथे चरण के लिए बनी थी। हमारे देश और संस्कृति में यह परंपरा अनेक पुरानी है। अपने गृहस्थ धर्म
के उत्तरदायित्व से मुक्ति पा कर पूर्णतः ईश्वर में लीन हो चुके बुजुर्ग जब तीर्थ
को निकलते थे तो उस भूमि के कण-कण को प्रणाम करते चलते थे। मन जब हर नदी, तालाब, पर्वत या वृक्ष में ईश्वर को देखने लगे, जब हर जीव
में ईश्वर का अंश दिखने लगे, तब घूमते हैं तीर्थ...
बहुत ज्यादा उम्र नहीं हुई मेरी, पर दूर
गाँव से काशी आ कर गंगा मईया को देखते ही रो पड़ने वाले बुजुर्गों को भी देखा है
मैंने। मैंने देखा है श्रद्धा से प्रणाम करते चलती माताओं को... बेटा यदि एक बार
काशीजी, अजोधाजी, प्रयागराज घुमा दे तो
उल्लसित मन से उसे भर-भर कर आशीष देती और उसके सारे अपराध माफ करती माताएं! जैसे
जीवन में इससे बड़ा कोई काम नहीं....
बकरी बेच कर बैजनाथ धाम में जल चढ़ाने गया कोई बूढ़ा व्यक्ति जब
डेढ़ सौ रुपये में खरीदे गए प्रसाद को घर आ कर सत्तर पुड़िया बना कर गाँव भर को
बांटता है, तो उसके चेहरे पर आस्था नहीं, सीधे ईश्वर दिखते हैं। और मैंने ऐसे असंख्य ईश्वरीय चेहरों को देखा है।
आपकी आस्था का स्तर यह हो तो कीजिये तीर्थ...
लोक में तीर्थ की महिमा यह है कि हमारे गाँव के लोग जब गया
पिंडदान करने जाते तो समूचा गाँव गाजे बाजे के साथ उनके पीछे-पीछे कुछ दूर तक
छोड़ने जाता था। तीर्थ से लौटे व्यक्ति को तो अब भी हर सभ्य देहाती प्रणाम कर के
आशीर्वाद लेता है। जैसे तीर्थ घूम लेने भर से उस व्यक्ति में कुछ दैवीय अंश आ गया
हो...
मैंने अनेक ऐसे लोगों को भी देखा है जो केदार-बदरी की यात्रा
के बाद अपने गृहस्थ जीवन से विरक्त से हो गए। झगड़ों में नहीं पड़ेंगे, झूठ नहीं बोलेंगे, लहसुन प्याज नहीं खाएंगे, किसी जीव पर प्रहार नहीं करेंगे... जैसे तीर्थ कर लेने से सब-कुछ बदल गया
हो! यह तीर्थ के प्रति सनातन आस्था है।
कासी-बिसनाथ या बैजनाथ धाम में जल चढ़ाने के लिए लगी लम्बी
लाइनों में हर-हर महादेव के नारों के बीच दसों बार मैं रोया हूँ... ईश्वर के सामने
पहुँच कर अनायास ही मन भर उठता है भाई... यह सामान्य आस्था है! यह न हो तो कोई
अर्थ नहीं तीर्थ का...
मैं समझ नहीं
पाता कि तीर्थों को कूड़े का ढेर बना देने वाले ये ‘पर्यटक’ कौन सा भाव लेकर केदार-बद्रीनाथ धाम जाते हैं? अपनी
कथित तीर्थयात्रा से देव-भूमि को नरक बना देने वाले ये लोग कैसे-कैसे कार्य करते
हैं?
सतही तौर पर सफाई और पर्यावरण की बातें
करने वाले लोग सफाई ने नाम पर ‘कूड़ा जहां-तहां न फेंकना’ तो जानते हैं लेकिन नष्ट न होने वाले कूड़े का निर्माण और प्रयोग भी वही
करते हैं। पर्यावरण के नाम पर अपने घर में गमले लगाते हैं,
बगीचे सजाते हैं, फार्म हाउस में फल-फूल भी उगाते हैं लेकिन
फिर जंगल काटने में भी नहीं हिचकते।
अभी
कुछ वर्ष पहले ही धनबाद के नजदीक एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल को राज्य सरकार ने ‘पर्यटक स्थल’ घोषित कर दिया था। स्थानीय लोग उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए – पर्यटक स्थल
तीर्थस्थल की आत्मा का हनन कर देती है। लेकिन सरकार पर जब इसका कोई असर नहीं हुआ
तब देश के अन्य भागों में भी इसका विरोध हुआ और जनता इससे जुड़ने लगी। तब सरकार को
अपना फैसला बदलना पड़ा। तीर्थों में तीर्थ यात्रियों की सुविधा की व्यवस्था करना, जाने-आने के मार्ग तैयार करना, ठहरने-खाने की
समुचित व्यवस्था करना, दर्शन-पूजा की व्यवस्था करना तक तो
ठीक है लेकिन उससे आगे बढ़ कर उसे ‘पर्यटक’ स्थल बनाना तीर्थ के महत्व को कम करना है, उसकी
आस्था पर प्रहार करना है, पवित्रता को अपवित्र करना है, तीर्थ की शुद्धता
को अशुद्ध करना है।
तीर्थाटन और पर्यटन दो विपरीत छोरों पर
है। तीर्थाटन की अपनी कमियाँ हैं तो पर्यटन की अपनी। तीर्थ को पर्यटन बनाना, तीर्थ
की आस्था को दूषित करना है, उसे नष्ट करना है। पर्यटन के
ताम-झम के सामने साधारण मानव अपने घुटने टेक देता है। सरकार और प्रशासन को ‘पर्यटन’ में ही विकास दिखता है, अतः उसे ही प्रोत्साहित करते हैं। पर्यटन से होने वाली कमाई सरकार और बड़ी
कंपनी को मिलता है जबकि तीर्थाटन में होने वाली कमाई स्थानीय लोगों का घर-गृहस्थी चलाती है। पर्यटन
में बड़े लोग मालिक होते हैं और स्थानीय नौकर, तीर्थाटन में
स्थानीय मालिक होते हैं और तीर्थ यात्री पर्यटक।
लोग
प्रश्न करते हैं कि - मंदिर चाहिये या रोजगार? यह प्रश्न उठाने वाले या तो राजनीति से प्रेरित हैं, या षडयंत्रकारी, या “मंदिर” को बना-बनाया पैसे कमाने की मशीन के रूप में
देखने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी हैं। ऐसा नहीं है कि मंदिर रोजगार उत्पन्न नहीं करती हैं। हर मंदिर
स्थानीय विकास करती है। किसी भी मंदिर के
निर्माण के लिए, कोई सरकारी या बैंक से ऋण नहीं
लिया जाता है। इनके द्वारा होने वाले निर्माण में न तो किसी बहुराष्ट्रीय
कंपनी का सहयोग है और न ही विदेशी निवेश
की आवश्यकता, अतः उनकी आँखों में खटकता है।
मंदिर स्थानीय लोगों को रोजगार देता है, उनमें भक्ति और
श्रद्धा का संचार करता है न कि लालच, ईर्ष्य का।
किसी भी मंदिर में जाएँ तो जरा सा नजर
उठा कर ध्यान से चारों तरफ देखें तो देखेंगे कि मंदिर करोड़ों लोगों को रोजगर दे
रहा है। लेकिन
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि ये वे लोग हैं जिनके पास किसी संस्थान
से डिग्री नहीं है। इतना धन नहीं है कि कोई बड़ा निवेश कर सकें। अर्थव्यवस्था में समाज
के निचले स्तर के लोग है और वहीं के निवासी हैं। ये किसी भी
प्रकार से सरकार पर आश्रित नहीं हैं। कारखानों और कंपनियों की तुलना में मंदिरों आयु भी लंबी होती
है। कारखाने और कंपनियाँ तो
बंद होती रहती हैं लेकिन तीर्थस्थान-मंदिर तो सनातन हैं। किसी
प्रकार की छंटनी नहीं, विस्थापन नहीं, प्रदूषण नहीं। ये सामाजिक , धार्मिक उन्नयन का केंद्र है। यदि आर्थिक
दृष्टि से देखें तो मंदिर, अपने निवेश से
कई हजार गुना रोजगार दे रहा है।
हाँ पर्यटन का अपना महत्व है और
आवश्यकता भी लेकिन इसके लिए तीर्थस्थलों
को ही क्यों पर्यटन स्थल बनाया जाय। छोटे-छोटे, सुंदर और मनोरम जगहों की कमी नहीं उसे पर्यटन
स्थल बनाएँ, लोगों को वहाँ आकर्षित करें, उनका विकास करें! पर्यटन के लिए
जगहों की कोई कमी तो है नहीं फिर ‘तीर्थ’ को ही क्यों ‘हड़पें’? अगर
जंगल-अभारण्य को संरक्षित घोषित कर जानवरों की, पर्यावरण की
रक्षा की जा सकती है तब तीर्थस्थलों की आस्था और पवित्रता को संरक्षित क्यों नहीं
किया जा सकता? तीर्थ ने उस स्थान को आकर्षक बनाया, प्रसिद्ध किया, और लोग पहुँचने लगे तब उसे पर्यटक
स्थल बना दिया? जरा एक तीर्थस्थान तो बना कर दिखाएँ? आज तो कई बड़े-बड़े विशाल मंदिर भी
स्वयं ही पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन रहे हैं। फिर शताब्दियों से बने आस्था
स्थलों को क्यों दूषित करें?
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